शनिवार, 28 दिसंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान के अवतार और उनके गुण (श्लोक 31-42)

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान के अवतार और उनके गुण (श्लोक 31-42) तक का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 31

झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी।

अर्थ:
"मछलियों में मैं मकर हूँ और नदियों में मैं गंगा हूँ।"

व्याख्या:
भगवान अपनी महिमा को बताते हुए कहते हैं कि वे मछलियों में सबसे श्रेष्ठ मकर (मगरमच्छ) हैं, और पवित्र नदियों में गंगा का प्रतीक हैं। यह उनकी श्रेष्ठता और पवित्रता को दर्शाता है।


श्लोक 32

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्॥

अर्थ:
"सृष्टि के आरंभ, मध्य और अंत में मैं ही हूँ। विद्याओं में अध्यात्म विद्या (आत्मा का ज्ञान) हूँ और तर्क करने वालों में मैं तर्क शक्ति हूँ।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे सृष्टि के हर चरण में उपस्थित हैं। वे आत्मा के ज्ञान (अध्यात्म) के रूप में विद्या के मूल और तर्क की शक्ति के रूप में वाणी के केंद्र हैं।


श्लोक 33

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः॥

अर्थ:
"अक्षरों में मैं 'अ' हूँ। समासों में मैं द्वंद्व समास हूँ। मैं अक्षय काल (शाश्वत समय) हूँ और सृष्टि का धारण करने वाला और उसका आधार हूँ।"

व्याख्या:
भगवान 'अ' को सभी ध्वनियों का आधार बताते हैं। समासों में द्वंद्व समास, जो दो शब्दों का जोड़ है, उनकी श्रेष्ठता दर्शाता है। वे शाश्वत समय और सृष्टि के आधार हैं।


श्लोक 34

मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा॥

अर्थ:
"मैं मृत्यु हूँ, जो सब कुछ हर लेती है, और उत्पत्ति का कारण भी हूँ। स्त्रियों में मैं कीर्ति, श्री (समृद्धि), वाणी, स्मृति, मेधा (बुद्धि), धैर्य और क्षमा हूँ।"

व्याख्या:
भगवान जीवन और मृत्यु दोनों का आधार बताते हैं। वे स्त्रियों में श्रेष्ठ गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जैसे कि सौंदर्य, बुद्धि और सहनशीलता।


श्लोक 35

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥

अर्थ:
"सामवेद के मंत्रों में मैं बृहत्साम हूँ। छंदों में मैं गायत्री हूँ। महीनों में मैं मार्गशीर्ष (अगहन) हूँ और ऋतुओं में मैं वसंत ऋतु हूँ।"

व्याख्या:
भगवान अपने आप को वेदों, छंदों, समय और ऋतुओं के सर्वोत्तम रूपों से जोड़ते हैं। वसंत ऋतु आनंद और सौंदर्य का प्रतीक है।


श्लोक 36

द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्॥

अर्थ:
"धोखा देने वालों में मैं जुआ हूँ। तेजस्वी व्यक्तियों का तेज, विजय, दृढ़ता और सतोगुण का आधार भी मैं ही हूँ।"

व्याख्या:
भगवान उन तत्वों का भी प्रतिनिधित्व करते हैं जो संसार में प्रभावशाली हैं, चाहे वे अच्छे हों या बुरे। वे सभी गुणों और कर्मों का स्रोत हैं।


श्लोक 37

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः॥

अर्थ:
"वृष्णि वंश में मैं वासुदेव (श्रीकृष्ण) हूँ। पाण्डवों में मैं अर्जुन हूँ। ऋषियों में मैं व्यास हूँ और कवियों में मैं शुक्राचार्य हूँ।"

व्याख्या:
भगवान अपने आप को अपने दिव्य अवतारों और श्रेष्ठतम व्यक्तियों, जैसे वासुदेव, अर्जुन, व्यास और शुक्राचार्य, के रूप में प्रस्तुत करते हैं।


श्लोक 38

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्॥

अर्थ:
"सजा देने वालों में मैं दंड हूँ। विजय चाहने वालों में मैं नीति हूँ। रहस्यों में मैं मौन हूँ और ज्ञानी लोगों में मैं ज्ञान हूँ।"

व्याख्या:
भगवान अनुशासन, न्याय, रहस्य और ज्ञान के सर्वोच्च स्वरूप का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे शक्ति और बुद्धि का आधार हैं।


श्लोक 39

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, मैं सभी प्राणियों का बीज हूँ। ऐसा कुछ भी नहीं है जो मेरे बिना चल या अचल हो।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे सृष्टि के हर जीवित और निर्जीव वस्तु का मूल हैं। वे ही सबका आधार और स्रोत हैं।


श्लोक 40

नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया॥

अर्थ:
"हे परंतप, मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अंत नहीं है। मैंने यहाँ केवल संक्षेप में अपनी विभूतियों का वर्णन किया है।"

व्याख्या:
भगवान अपनी अनंत महिमा को स्वीकार करते हैं। यह श्लोक उनकी अनंतता और दिव्यता को दर्शाता है।


श्लोक 41

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्॥

अर्थ:
"जो भी विभूतिमान, समृद्ध और शक्तिशाली वस्तु या व्यक्ति है, उसे मेरे तेज के अंश से उत्पन्न मानो।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि संसार में जो भी अद्वितीय और श्रेष्ठ है, वह उनकी महिमा का केवल एक अंश है।


श्लोक 42

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, इतनी बातों को जानने से क्या लाभ? यह सारा जगत मेरे एक छोटे से अंश से ही स्थापित है।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि उनकी अनंत महिमा को समझना मनुष्य के लिए संभव नहीं है। यह सम्पूर्ण सृष्टि उनके छोटे से अंश से संचालित हो रही है।


सारांश (श्लोक 31-42):

  1. भगवान हर श्रेष्ठ और दिव्य वस्तु या गुण के रूप में प्रकट होते हैं।
  2. वे जीवन के हर क्षेत्र में, चाहे वह प्रकृति, धर्म, ज्ञान, या शक्ति हो, उपस्थित हैं।
  3. उनकी विभूतियाँ अनंत हैं और सारा जगत उनके एक छोटे से अंश से संचालित होता है।
  4. भगवान अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि वह उनकी दिव्यता को समझकर भक्ति में लीन हो जाए।

शनिवार, 21 दिसंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान का अद्वितीय रूप (श्लोक 21-30)

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान का अद्वितीय रूप (श्लोक 21-30) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 21

आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी॥

अर्थ:
"आदित्यों (सूर्य देवताओं) में मैं विष्णु हूँ। ज्योतियों (प्रकाश स्रोतों) में मैं तेजस्वी सूर्य हूँ। मरुतों (वायु देवताओं) में मैं मरीचि हूँ, और नक्षत्रों में मैं चंद्रमा हूँ।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे प्रत्येक श्रेणी में सर्वोच्च और दिव्य रूप हैं। वे सृष्टि के महान और चमकदार तत्वों, जैसे सूर्य और चंद्रमा, के रूप में प्रकट होते हैं।


श्लोक 22

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना॥

अर्थ:
"वेदों में मैं सामवेद हूँ। देवताओं में मैं वासव (इंद्र) हूँ। इंद्रियों में मैं मन हूँ और प्राणियों में मैं चेतना हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान की महिमा को दर्शाता है। वे सामवेद के रूप में मधुरता, इंद्र के रूप में बल, मन के रूप में चेतना का केंद्र, और प्राणियों की चेतना के रूप में विद्यमान हैं।


श्लोक 23

रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्॥

अर्थ:
"रुद्रों में मैं शंकर हूँ। यक्षों और राक्षसों में मैं कुबेर हूँ। वसुओं में मैं अग्नि (पावक) हूँ और पर्वतों में मैं मेरु हूँ।"

व्याख्या:
भगवान अपनी दिव्यता के प्रतीकों को बताते हैं। शंकर, कुबेर, अग्नि और मेरु के माध्यम से वे सृष्टि के शक्ति, धन, ऊर्जा और स्थिरता के स्रोत को प्रकट करते हैं।


श्लोक 24

पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः॥

अर्थ:
"हे पार्थ, पुरोहितों में मैं बृहस्पति हूँ। सेनापतियों में मैं स्कंद (कार्तिकेय) हूँ और जलाशयों में मैं सागर हूँ।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे पुरोहितों के ज्ञान, सेनापतियों के नेतृत्व, और सागर की विशालता और गहराई के रूप में प्रकट होते हैं।


श्लोक 25

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः॥

अर्थ:
"महर्षियों में मैं भृगु हूँ। वाणियों में मैं 'ओम' हूँ। यज्ञों में मैं जपयज्ञ हूँ और स्थावरों (अचल वस्तुओं) में मैं हिमालय हूँ।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ ज्ञान, शक्ति और स्थिरता के विभिन्न रूपों को व्यक्त करते हैं। 'ओम' उनके दिव्य स्वरूप का प्रतीक है। जपयज्ञ सरल और प्रभावी साधन है, और हिमालय स्थिरता का प्रतीक है।


श्लोक 26

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः॥

अर्थ:
"सभी वृक्षों में मैं अश्वत्थ (पीपल) हूँ। देवर्षियों में मैं नारद हूँ। गंधर्वों में मैं चित्ररथ हूँ और सिद्धों में मैं कपिल मुनि हूँ।"

व्याख्या:
भगवान उन चीजों का वर्णन करते हैं जो अपनी श्रेणी में अद्वितीय हैं। पीपल स्थायित्व और पवित्रता का प्रतीक है। नारद भक्ति का प्रतीक हैं, चित्ररथ संगीत और कला के प्रतीक हैं, और कपिल मुनि ज्ञान के स्रोत हैं।


श्लोक 27

उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम्।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्॥

अर्थ:
"घोड़ों में मैं उच्चैःश्रवा हूँ, जो समुद्रमंथन से उत्पन्न हुआ। हाथियों में मैं ऐरावत हूँ और मनुष्यों में मैं राजा (नराधिप) हूँ।"

व्याख्या:
भगवान सृष्टि की श्रेष्ठताओं को अपना स्वरूप बताते हैं। उच्चैःश्रवा और ऐरावत दिव्यता के प्रतीक हैं, और राजा नेतृत्व और शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है।


श्लोक 28

आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः॥

अर्थ:
"आयुधों में मैं वज्र हूँ। गायों में मैं कामधेनु हूँ। संतान उत्पन्न करने वालों में मैं कामदेव हूँ और सर्पों में मैं वासुकी हूँ।"

व्याख्या:
भगवान श्रेष्ठताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। वज्र शक्ति का प्रतीक है, कामधेनु इच्छाओं की पूर्ति का, कामदेव सृजन का और वासुकी शक्ति और नेतृत्व का प्रतीक है।


श्लोक 29

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्॥

अर्थ:
"नागों में मैं अनन्त (शेषनाग) हूँ। जलचरों में मैं वरुण हूँ। पितरों में मैं अर्यमा हूँ और नियंत्रकों में मैं यम हूँ।"

व्याख्या:
भगवान यह दर्शाते हैं कि वे सभी श्रेणियों में सबसे श्रेष्ठ हैं। शेषनाग संतुलन और धैर्य का प्रतीक हैं। वरुण जल का राजा है, अर्यमा पितरों का मार्गदर्शक है, और यम धर्म और अनुशासन के प्रतीक हैं।


श्लोक 30

प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहमनन्तश्चास्मि नागिनाम्॥

अर्थ:
"दैत्यों में मैं प्रह्लाद हूँ। गणनाकारों में मैं समय हूँ। पशुओं में मैं सिंह (मृगेन्द्र) हूँ और नागों में मैं अनन्त (शेषनाग) हूँ।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे दैत्यों में भी प्रह्लाद जैसे भक्त के रूप में प्रकट होते हैं। समय सृष्टि का नियंत्रक है, और सिंह शक्ति और नेतृत्व का प्रतीक है।


सारांश (श्लोक 21-30):

  1. भगवान हर श्रेणी में सबसे श्रेष्ठ और दिव्य रूप में प्रकट होते हैं।
  2. वे सृष्टि के शक्ति, स्थिरता, भक्ति और ज्ञान के हर पहलू का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  3. भगवान बताते हैं कि उनकी विभूतियाँ (महिमा) अनगिनत हैं, लेकिन उन्होंने मुख्य रूपों का वर्णन किया।
  4. अर्जुन को भगवान की इन विभूतियों का चिंतन करके उनकी दिव्यता को समझने का मार्ग दिखाया गया।

शनिवार, 14 दिसंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान की विभूतियाँ (श्लोक 8-20)

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान की विभूतियाँ (श्लोक 8-20) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 8

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः॥

अर्थ:
"मैं ही सबका उद्गम हूँ और मुझसे ही सब कुछ संचालित होता है। जो बुद्धिमान यह जानते हैं, वे मेरे प्रति भक्ति और भावपूर्ण श्रद्धा से मेरी आराधना करते हैं।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे सृष्टि के मूल कारण हैं। जो ज्ञानी उनके इस सत्य को समझते हैं, वे भगवान की भक्ति करते हैं और उनसे जुड़े रहते हैं।


श्लोक 9

मच्चित्तः मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥

अर्थ:
"जो मेरे प्रति चित्त और प्राण लगाए रखते हैं, वे परस्पर मेरा गुणगान करते हुए और मेरी चर्चा करते हुए संतुष्ट और आनंदित होते हैं।"

व्याख्या:
भक्त अपने मन और प्राण भगवान में समर्पित करते हैं। वे उनकी कथा और गुणगान के माध्यम से प्रसन्न और आनंदित रहते हैं। यह श्लोक भक्तों के आनंदपूर्ण जीवन को दर्शाता है।


श्लोक 10

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥

अर्थ:
"जो भक्त सदा मुझसे जुड़े रहते हैं और प्रेमपूर्वक मेरी भक्ति करते हैं, उन्हें मैं वह बुद्धियोग प्रदान करता हूँ, जिससे वे मुझे प्राप्त कर सकें।"

व्याख्या:
भगवान अपने भक्तों को ज्ञान और दिशा प्रदान करते हैं, जिससे वे उनकी ओर अग्रसर हो सकें। उनकी भक्ति में लगा हुआ व्यक्ति ईश्वर की कृपा से मोक्ष प्राप्त करता है।


श्लोक 11

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भाजवत॥

अर्थ:
"उन पर अनुकंपा करने के लिए मैं उनके भीतर स्थित होकर उनके अज्ञान के अंधकार को ज्ञान के दीपक से नष्ट कर देता हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान की करुणा और कृपा को दर्शाता है। भगवान अपने भक्तों के अज्ञान को मिटाने के लिए उनके भीतर ज्ञान का प्रकाश जलाते हैं।


श्लोक 12-13

अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्॥
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे॥

अर्थ:
अर्जुन ने कहा: "आप परम ब्रह्म, परम धाम, परम पवित्र, शाश्वत पुरुष, दिव्य, आदि देव, अजन्मा और सर्वव्यापक हैं। सभी ऋषि, जैसे नारद, असित, देवल, और व्यास, ऐसा ही कहते हैं, और स्वयं आप भी यही कह रहे हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान की महिमा और उनकी दिव्यता को स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि भगवान स्वयं शाश्वत, अजन्मा और सर्वोच्च सत्ता हैं। यह श्लोक भगवान के प्रति अर्जुन की श्रद्धा और विश्वास को प्रकट करता है।


श्लोक 14

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः॥

अर्थ:
"हे केशव, जो कुछ आप मुझे बता रहे हैं, उसे मैं सत्य मानता हूँ। आपकी वास्तविकता को न तो देवता जानते हैं और न ही दानव।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के वचनों को पूर्ण सत्य मानते हैं। वे कहते हैं कि भगवान की दिव्यता को समझ पाना देवताओं और दानवों के लिए भी संभव नहीं है।


श्लोक 15

स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते॥

अर्थ:
"हे पुरुषोत्तम, आप स्वयं ही अपने स्वरूप को जानते हैं। आप भूतों के सृजक, भूतों के स्वामी, देवताओं के देवता, और समस्त जगत के स्वामी हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं। भगवान स्वयं अपनी वास्तविकता को जानते हैं क्योंकि वे सृष्टि के मूल और सर्वोच्च देवता हैं।


श्लोक 16

वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि॥

अर्थ:
"आप कृपया अपनी सभी दिव्य विभूतियों को विस्तार से बताइए, जिनके द्वारा आप इन सभी लोकों को व्याप्त करते हुए स्थित हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान से उनकी विभूतियों (दिव्य महिमाओं) का वर्णन सुनने की इच्छा प्रकट करते हैं। यह अर्जुन की भगवान को गहराई से जानने की जिज्ञासा को दर्शाता है।


श्लोक 17

कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया॥

अर्थ:
"हे योगेश्वर, मैं आपको सदा कैसे जान सकता हूँ और किन-किन भावों में आपका चिंतन कर सकता हूँ?"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान से पूछते हैं कि वे भगवान का सदा ध्यान कैसे करें और उनकी विभूतियों के किस-किस रूप में भगवान को देख सकते हैं।


श्लोक 18

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्॥

अर्थ:
"हे जनार्दन, कृपया विस्तार से अपनी योगशक्ति और विभूतियों का वर्णन करें। आपकी अमृतमयी बातें सुनने में मेरी तृप्ति नहीं होती।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान की बातों को अमृत के समान मानते हैं और उनसे उनकी विभूतियों के विस्तार में वर्णन की विनती करते हैं।


श्लोक 19

श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे॥

अर्थ:
"श्रीभगवान ने कहा: हे कुरुश्रेष्ठ, मैं तुम्हें अपनी दिव्य विभूतियों को संक्षेप में बताऊंगा, क्योंकि मेरी विभूतियों का कोई अंत नहीं है।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि उनकी महिमा और विभूतियाँ अनंत हैं। वे अर्जुन को उनकी प्रमुख विभूतियों के बारे में बताएंगे।


श्लोक 20

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥

अर्थ:
"हे गुडाकेश (अर्जुन), मैं सभी प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ। मैं ही सभी प्राणियों का आरंभ, मध्य और अंत हूँ।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे प्रत्येक जीव के भीतर आत्मा के रूप में स्थित हैं और वे ही सृष्टि के आरंभ, मध्य और अंत का कारण हैं।


सारांश (श्लोक 8-20):

  1. भगवान सृष्टि का मूल कारण और सभी प्राणियों के जीवन का आधार हैं।
  2. ज्ञानी भक्त भगवान के स्वरूप को समझकर उनकी भक्ति में लीन हो जाते हैं।
  3. भगवान अपने भक्तों के अज्ञान को ज्ञान के दीपक से मिटाते हैं।
  4. अर्जुन भगवान की महिमा सुनने के लिए उत्सुक हैं और उनकी विभूतियों का वर्णन विस्तार से चाहते हैं।
  5. भगवान कहते हैं कि उनकी विभूतियाँ अनंत हैं और वे सृष्टि के प्रत्येक पहलू में व्याप्त हैं।

शनिवार, 7 दिसंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान का दिव्य रूप (श्लोक 1-7)

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान का दिव्य रूप (श्लोक 1-7) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया॥

अर्थ:
"श्रीभगवान ने कहा: हे महाबाहु (अर्जुन), फिर से मेरा परम वचन सुनो, जिसे मैं तुम्हारे लिए कह रहा हूँ, क्योंकि तुम मेरे प्रिय हो और मैं तुम्हारा कल्याण चाहता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बताते हैं कि वह उसे एक बार फिर अपने दिव्य ज्ञान और महिमा का वर्णन करेंगे। यह प्रेम और मित्रता का एक उदाहरण है, जहाँ भगवान अर्जुन के हित के लिए ज्ञान दे रहे हैं।


श्लोक 2

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः॥

अर्थ:
"मेरा मूलस्वरूप न तो देवता जानते हैं और न ही महर्षि। क्योंकि मैं ही देवताओं और महर्षियों का आदि कारण हूँ।"

व्याख्या:
भगवान अपनी सर्वज्ञता और सर्वोच्चता को स्पष्ट करते हैं। वे देवताओं और महर्षियों के भी सृष्टिकर्ता हैं, इसलिए वे भगवान के पूर्ण स्वरूप को नहीं जान सकते।


श्लोक 3

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥

अर्थ:
"जो मुझे अजन्मा, अनादि और समस्त लोकों का स्वामी जानता है, वह अज्ञानी नहीं है और वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के दिव्य स्वरूप को पहचानने के महत्व को दर्शाता है। जो व्यक्ति भगवान को अजन्मा और अनादि मानकर उनकी शरण में आता है, वह संसार के भ्रम और पापों से मुक्त हो जाता है।


श्लोक 4-5

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः॥

अर्थ:
"बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह (भ्रम का न होना), क्षमा, सत्य, आत्मसंयम, मन की शांति, सुख, दुःख, सृजन, विनाश, भय, अभय, अहिंसा, समभाव, संतोष, तप, दान, यश और अपयश – ये सभी भूतों (प्राणियों) में अलग-अलग प्रकार से मुझसे ही उत्पन्न होते हैं।"

व्याख्या:
भगवान स्पष्ट करते हैं कि सभी गुण, चाहे वे सकारात्मक हों या नकारात्मक, उनकी शक्ति और माया से उत्पन्न होते हैं। वे सृष्टि के हर पहलू का मूल कारण हैं।


श्लोक 6

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः॥

अर्थ:
"सप्त ऋषि, चार कुमार और चौदह मनु मेरे मन से उत्पन्न हुए हैं। इन्हीं के द्वारा यह समस्त सृष्टि उत्पन्न हुई है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि सृष्टि के आरंभ में उन्होंने अपने मन से सप्त ऋषियों, चार कुमारों, और मनुओं को उत्पन्न किया। ये प्राचीन ऋषि और मनु सृष्टि के मूलभूत रचयिता हैं।


श्लोक 7

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्वतः।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः॥

अर्थ:
"जो मेरी इन विभूतियों (महिमाओं) और योगशक्ति को तत्व से जानता है, वह अविचल योग के साथ मुझसे जुड़ जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान की महिमा और उनकी योगशक्ति को पहचानने के महत्व को बताता है। जो व्यक्ति भगवान के स्वरूप को समझता है, वह उनकी भक्ति में स्थिर हो जाता है और आत्मिक शांति को प्राप्त करता है।


सारांश (श्लोक 1-7):

  1. भगवान अर्जुन को अपनी महिमा और दिव्यता का ज्ञान देने के लिए तत्पर हैं।
  2. भगवान अजन्मा और अनादि हैं, और सभी देवता और महर्षि उनके द्वारा उत्पन्न हुए हैं।
  3. भगवान के दिव्य स्वरूप को पहचानने से व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो सकता है।
  4. सभी गुण (सकारात्मक और नकारात्मक) भगवान के द्वारा उत्पन्न होते हैं।
  5. सप्त ऋषि, मनु और प्राचीन ऋषि भगवान की इच्छा से सृष्टि का आधार बने।
  6. जो व्यक्ति भगवान की विभूतियों को समझता है, वह उनकी भक्ति में स्थिर हो जाता है।

शनिवार, 30 नवंबर 2024

भगवद्गीता: अध्याय 10 - विभूति योग

भगवद गीता – दशम अध्याय: विभूति योग

(Vibhuti Yoga – The Yoga of Divine Glories)

📖 अध्याय 10 का परिचय

विभूति योग भगवद गीता का दसवाँ अध्याय है, जिसमें श्रीकृष्ण अपनी दिव्य विभूतियों (Divine Glories) का विस्तार से वर्णन करते हैं। वे अर्जुन को बताते हैं कि संपूर्ण सृष्टि में जो भी महान, शक्तिशाली और दिव्य है, वह केवल उनकी महिमा का अंश मात्र है।

👉 मुख्य भाव:

  • भगवान का सर्वज्ञान और सर्वशक्तिमान स्वरूप
  • श्रद्धा और भक्ति से ही भगवान को जाना जा सकता है
  • भगवान की विभूतियाँ (Divine Glories) सृष्टि के हर उत्तम रूप में प्रकट होती हैं

📖 श्लोक (10.20):

"अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥"

📖 अर्थ: हे अर्जुन! मैं सभी जीवों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ। मैं सभी भूतों का आदि, मध्य और अंत हूँ।

👉 यह अध्याय हमें भगवान की सर्वव्यापकता और उनकी दिव्य शक्तियों का ज्ञान कराता है।


🔹 1️⃣ भगवान के दिव्य गुण और भक्ति का महत्व

📌 1. भगवान की सर्वज्ञता और उनकी महिमा (Verses 1-7)

  • श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे ही संपूर्ण ब्रह्मांड के स्रष्टा, पालनहार और संहारकर्ता हैं।
  • केवल श्रद्धावान भक्त ही उनकी महिमा को समझ सकते हैं।

📖 श्लोक (10.3):

"यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असंमूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥"

📖 अर्थ: जो मुझे अजन्मा, अनादि और संपूर्ण लोकों का स्वामी जानता है, वह मोह से मुक्त होकर सभी पापों से मुक्त हो जाता है।

👉 भगवान को जानने से ही जन्म-मरण के बंधनों से मुक्ति संभव है।


🔹 2️⃣ भगवान भक्तों को विशेष ज्ञान प्रदान करते हैं

📌 2. भगवान स्वयं भक्तों को दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं (Verses 8-11)

  • जो भक्त सच्चे प्रेम से भगवान की भक्ति करते हैं, उन्हें स्वयं भगवान विशेष ज्ञान (दिव्य बुद्धि) प्रदान करते हैं।

📖 श्लोक (10.10):

"तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥"

📖 अर्थ: जो भक्त सदा प्रेमपूर्वक मेरी भक्ति में लगे रहते हैं, उन्हें मैं वह दिव्य बुद्धि प्रदान करता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त कर सकें।

👉 सच्ची भक्ति करने से भगवान स्वयं भक्तों को सही मार्ग दिखाते हैं।


🔹 3️⃣ अर्जुन की जिज्ञासा और भगवान की विभूतियाँ

📌 3. अर्जुन भगवान की महिमा जानना चाहते हैं (Verses 12-18)

  • अर्जुन श्रीकृष्ण से प्रार्थना करते हैं कि "हे कृष्ण! कृपया अपनी महान विभूतियों (Divine Glories) का वर्णन करें।"
  • वे स्वीकार करते हैं कि केवल भगवान ही स्वयं को पूर्ण रूप से जान सकते हैं।

📖 श्लोक (10.14):

"सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः॥"

📖 अर्थ: हे केशव! जो कुछ भी आप कह रहे हैं, मैं उसे पूर्ण सत्य मानता हूँ। आपकी वास्तविक महिमा को न देवता जानते हैं, न ही दानव।

👉 केवल भगवान ही अपनी वास्तविक शक्ति को पूर्ण रूप से जानते हैं।


🔹 4️⃣ भगवान की प्रमुख विभूतियाँ

📌 4. श्रीकृष्ण की 20 महत्वपूर्ण विभूतियाँ (Verses 19-42)

  • श्रीकृष्ण बताते हैं कि उनकी महिमा सृष्टि के प्रत्येक महान, दिव्य और शक्तिशाली वस्तु या व्यक्ति में प्रकट होती है।
  • वे स्वयं को प्रत्येक वर्ग के श्रेष्ठतम व्यक्ति या वस्तु के रूप में प्रकट करते हैं।

📖 श्लोक (10.41):

"यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्॥"

📖 अर्थ: जो कुछ भी तेजस्वी, प्रभावशाली और दिव्य है, उसे मेरी ही शक्ति का एक अंश जानो।

👉 संसार में जो भी दिव्य, महान और शक्तिशाली है, वह भगवान की ही झलक है।


🔹 श्रीकृष्ण की कुछ महत्वपूर्ण विभूतियाँ

वर्ग भगवान की विभूति
ऋषियों में नारद, व्यास, शुकदेव
देवताओं में इंद्र
सिद्धों में कपिल मुनि
वेदों में सामवेद
यज्ञों में जप-यज्ञ (मंत्र जप)
नदियों में गंगा
पर्वतों में हिमालय
वृक्षों में पीपल
पशुओं में सिंह
पक्षियों में गरुड़
युद्धनीतियों में नीति (नीतिशास्त्र)
दैत्यों में प्रह्लाद
शस्त्रधारियों में राम
नक्षत्रों में चंद्रमा
सांस्कृतिक कलाओं में नृत्य और संगीत

👉 भगवान की विभूतियाँ सृष्टि के प्रत्येक श्रेष्ठतम तत्व में विद्यमान हैं।


🔹 5️⃣ भगवान की अपार शक्ति का सारांश

📌 5. भगवान की शक्ति अनंत है (Verses 42)

  • श्रीकृष्ण कहते हैं कि उनकी विभूतियाँ अनंत हैं और इस पूरी सृष्टि को उन्होंने केवल अपने एक अंश से धारण कर रखा है।

📖 श्लोक (10.42):

"अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥"

📖 अर्थ: हे अर्जुन! इतनी विभूतियों को जानकर क्या करोगे? मैंने तो इस समस्त जगत को अपने एक छोटे से अंश से धारण कर रखा है।

👉 भगवान की महिमा अनंत है, और उन्होंने पूरी सृष्टि को केवल अपने एक अंश से धारण किया हुआ है।


🔹 6️⃣ अध्याय से मिलने वाली शिक्षाएँ

📖 इस अध्याय में श्रीकृष्ण के उपदेश से हमें कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं:

1. भगवान की महिमा संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है।
2. भक्ति के माध्यम से ही भगवान को सच्चे रूप में जाना जा सकता है।
3. भगवान स्वयं अपने भक्तों को दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं।
4. संसार की हर महान वस्तु और शक्ति भगवान की ही झलक है।
5. भगवान ने पूरे ब्रह्मांड को अपने केवल एक अंश से धारण किया है।


🔹 निष्कर्ष

1️⃣ विभूति योग गीता का वह अध्याय है, जिसमें श्रीकृष्ण अपनी अनंत शक्तियों और विभूतियों का वर्णन करते हैं।
2️⃣ संसार में जो कुछ भी दिव्य, शक्तिशाली और महान है, वह भगवान की ही महिमा का अंश है।
3️⃣ भगवान की भक्ति करने वाले भक्तों को वे स्वयं दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं।
4️⃣ संपूर्ण ब्रह्मांड भगवान की ऊर्जा से व्याप्त है, और उन्होंने इसे अपने केवल एक अंश से धारण किया है।

शनिवार, 23 नवंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 9 (राजविद्या-राजगुह्य योग) भक्तों के गुण और भगवान के प्रति भक्ति (श्लोक 27-34)

भागवत गीता: अध्याय 9 (राजविद्या-राजगुह्य योग) भक्तों के गुण और भगवान के प्रति भक्ति (श्लोक 27-34) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 27

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, जो कुछ भी तुम करते हो, जो खाते हो, जो यज्ञ करते हो, जो दान देते हो और जो तप करते हो, वह सब मुझे अर्पण करो।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जीवन के हर कर्म को भगवान को अर्पण करना चाहिए। यह मानसिकता व्यक्ति को अहंकार और फलासक्ति से मुक्त करती है और उसे भगवान के प्रति समर्पित करती है।


श्लोक 28

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥

अर्थ:
"इस प्रकार, शुभ और अशुभ कर्मों के फलों से मुक्त होकर, संन्यास योग में स्थित होकर, तुम मुझमें समर्पित हो जाओगे और मुझ तक पहुँचोगे।"

व्याख्या:
यह श्लोक समझाता है कि जब व्यक्ति अपने सभी कर्म भगवान को अर्पित करता है, तो वह शुभ और अशुभ कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है। यह मुक्ति उसे भगवान के दिव्य धाम तक पहुँचाती है।


श्लोक 29

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥

अर्थ:
"मैं सभी प्राणियों के प्रति समान हूँ। न कोई मुझे प्रिय है, न कोई अप्रिय। लेकिन जो भक्त मुझे भक्ति से पूजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ।"

व्याख्या:
भगवान सभी प्राणियों के प्रति समान भाव रखते हैं। लेकिन भक्ति के कारण भक्त और भगवान का गहरा संबंध बनता है, जो उन्हें और करीब ले आता है।


श्लोक 30

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥

अर्थ:
"यदि कोई व्यक्ति बहुत दुराचारपूर्ण आचरण वाला हो, लेकिन वह अनन्य भाव से मेरी भक्ति करता है, तो उसे साधु ही समझा जाना चाहिए, क्योंकि उसने सही निश्चय किया है।"

व्याख्या:
यह श्लोक भक्ति के महान महत्व को दर्शाता है। भक्ति से व्यक्ति के दुष्कर्म मिट सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति सच्चे हृदय से भगवान की भक्ति करता है, तो वह साधु के रूप में स्वीकार्य है।


श्लोक 31

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥

अर्थ:
"वह (दुराचारी) शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शांति को प्राप्त करता है। हे कौन्तेय, यह जान लो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता।"

व्याख्या:
भगवान अपने भक्तों को आश्वासन देते हैं कि सच्ची भक्ति से कोई भी व्यक्ति, चाहे उसका अतीत कैसा भी रहा हो, धर्मात्मा बन सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है।


श्लोक 32

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥

अर्थ:
"हे पार्थ, जो लोग पाप योनि में जन्मे हैं, जैसे स्त्रियाँ, वैश्य, और शूद्र, वे भी मेरी शरण लेकर परमगति को प्राप्त कर सकते हैं।"

व्याख्या:
भगवान यह कहते हैं कि उनकी भक्ति के लिए किसी की जाति, लिंग, या जन्म मायने नहीं रखता। हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी परिस्थिति में हो, उनकी शरण में जाकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है।


श्लोक 33

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥

अर्थ:
"तो फिर वे पुण्य आत्मा, ब्राह्मण और भक्तराजर्षि क्यों नहीं (मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं)? इसलिए, इस अस्थायी और दुखमय संसार में आकर, मेरी भक्ति करो।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि यदि असामान्य परिस्थितियों वाले लोग मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, तो श्रेष्ठ जन्म वाले और भक्त निश्चित रूप से भगवान को प्राप्त कर सकते हैं। यह संसार अस्थायी और दुखमय है, इसलिए भक्ति ही सच्चा समाधान है।


श्लोक 34

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥

अर्थ:
"मुझमें मन लगाओ, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार, मुझमें एकीकृत होकर, तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त करोगे।"

व्याख्या:
यह श्लोक भक्ति योग का सार है। भगवान अपने भक्तों से प्रेम और समर्पण के साथ अपनी भक्ति करने को कहते हैं। भक्ति, पूजा, और भगवान में मन लगाने से मोक्ष प्राप्त होता है।


सारांश (श्लोक 27-34):

  1. सभी कर्मों को भगवान को अर्पण करने से व्यक्ति कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है।
  2. भगवान सभी के प्रति समान हैं, लेकिन भक्ति करने वालों से उनका विशेष संबंध बनता है।
  3. भक्ति योग में प्रवेश करने वाला व्यक्ति, चाहे उसका अतीत कैसा भी हो, मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
  4. जाति, लिंग, या सामाजिक स्थिति के बावजूद, हर व्यक्ति भगवान की भक्ति के द्वारा परमगति प्राप्त कर सकता है।
  5. यह संसार अस्थायी और दुखमय है, और भगवान की भक्ति ही इसे पार करने का मार्ग है।

शनिवार, 16 नवंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 9 (राजविद्या-राजगुह्य योग) भगवान की दिव्य विभूतियाँ और भक्ति (श्लोक 20-26)

 भागवत गीता: अध्याय 9 (राजविद्या-राजगुह्य योग) भगवान की दिव्य विभूतियाँ और भक्ति (श्लोक 20-26) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 20

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा।
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकम्।
अश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥

अर्थ:
"जो लोग वेदों के तीन भागों (त्रैविद्या) को जानते हैं, सोम रस का पान करके और यज्ञों द्वारा मुझे पूजते हैं, वे पापों से मुक्त होकर स्वर्ग की प्राप्ति की कामना करते हैं। वे स्वर्गलोक में पहुँचकर दिव्य भोगों का आनंद लेते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक उन लोगों का वर्णन करता है जो वेदों के कर्मकांडीय ज्ञान का पालन करते हैं और स्वर्ग की प्राप्ति के लिए यज्ञ आदि करते हैं। वे पुण्य अर्जित करके स्वर्गीय सुखों का आनंद लेते हैं, लेकिन यह स्थिति स्थायी नहीं है।


श्लोक 21

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं।
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना।
गतागतं कामकामा लभन्ते॥

अर्थ:
"स्वर्ग के विशाल लोक का भोग करने के बाद, जब उनके पुण्य समाप्त हो जाते हैं, तो वे फिर से मर्त्यलोक (पृथ्वी) पर लौट आते हैं। इस प्रकार, जो कामना के वश होकर त्रयीधर्म का पालन करते हैं, वे जन्म-मरण के चक्र में फँसे रहते हैं।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि स्वर्गलोक में पुण्य के आधार पर सुख भोगने के बाद व्यक्ति को फिर से जन्म लेना पड़ता है। यह सुख अस्थायी है, और स्वर्ग भी मोक्ष का स्थान नहीं है। केवल भगवान की भक्ति ही इस चक्र से मुक्त कर सकती है।


श्लोक 22

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥

अर्थ:
"जो भक्त मुझमें अनन्य भाव से चिंतन और भक्ति करते हैं, उनके लिए मैं योग (आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त वस्तुओं की रक्षा) का पालन करता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान अपने भक्तों को आश्वासन देते हैं कि वे उन सभी की जिम्मेदारी लेते हैं जो उन्हें पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ याद करते हैं। वे उनकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं और उनकी सुरक्षा का भी ध्यान रखते हैं।


श्लोक 23

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥

अर्थ:
"जो अन्य देवताओं के भक्त हैं और श्रद्धा से उनकी पूजा करते हैं, वे भी वास्तव में मेरी ही पूजा करते हैं, लेकिन यह अविधिपूर्वक (अनजाने में) होता है।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि जो अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे भी अंततः भगवान की ही पूजा कर रहे होते हैं, क्योंकि भगवान ही सबका मूल हैं। लेकिन यह पूजा सीधे भगवान तक नहीं पहुँचती, क्योंकि यह विधिपूर्वक नहीं होती।


श्लोक 24

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥

अर्थ:
"मैं ही सभी यज्ञों का भोक्ता (उपभोग करने वाला) और स्वामी हूँ। लेकिन जो लोग मेरे इस सत्य को नहीं जानते, वे चक्र (जन्म-मरण के चक्र) में गिर जाते हैं।"

व्याख्या:
भगवान स्पष्ट करते हैं कि सभी यज्ञ और धार्मिक कृत्य अंततः उन्हें ही समर्पित हैं। लेकिन जो लोग इस सत्य को नहीं समझते और भौतिक लाभ के लिए यज्ञ करते हैं, वे जन्म और मृत्यु के चक्र में फँसे रहते हैं।


श्लोक 25

देवव्रता देवान् पितृव्रता पितॄन्यान्ति।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्॥

अर्थ:
"जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं को प्राप्त होते हैं। जो पितरों की पूजा करते हैं, वे पितरों को प्राप्त होते हैं। जो भूत-प्रेतों की पूजा करते हैं, वे उन्हें प्राप्त होते हैं। लेकिन जो मेरी भक्ति करते हैं, वे मुझे प्राप्त होते हैं।"

व्याख्या:
भगवान समझाते हैं कि हर पूजा का फल उसी दिशा में जाता है। लेकिन केवल भगवान की भक्ति ही आत्मा को शाश्वत और सर्वोच्च लक्ष्य (मोक्ष) तक पहुंचाती है। अन्य प्रकार की पूजा अस्थायी फल देती है और व्यक्ति को भौतिक चक्र में बांधकर रखती है।


श्लोक 26

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति मुझे भक्ति से पत्ता, फूल, फल, या जल अर्पित करता है, मैं उस भक्तिपूर्ण अर्पण को स्वीकार करता हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान की करुणा और सरलता को दर्शाता है। वे अपने भक्तों से केवल प्रेम और भक्ति की अपेक्षा करते हैं, न कि भौतिक संपत्ति की। सच्चे हृदय से किया गया छोटा सा अर्पण भी उन्हें प्रिय है।


सारांश (श्लोक 20-26):

  1. स्वर्ग के सुख अस्थायी हैं: जो लोग यज्ञ और कर्मकांड के माध्यम से स्वर्ग प्राप्त करते हैं, वे पुण्य समाप्त होने पर फिर से संसार में लौट आते हैं।
  2. भक्ति योग सर्वोत्तम है: भगवान अपने भक्तों के योग (आवश्यकता) और क्षेम (सुरक्षा) का ध्यान रखते हैं।
  3. अन्य पूजा भगवान तक अप्रत्यक्ष रूप से पहुँचती है: जो लोग अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे भी भगवान की ही पूजा करते हैं, लेकिन यह पूजा भगवान को सीधे नहीं पहुंचती।
  4. सच्ची भक्ति सरल और हृदय से होती है: भगवान प्रेम और भक्ति से किए गए किसी भी अर्पण को स्वीकार करते हैं।

शनिवार, 9 नवंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 9 (राजविद्या-राजगुह्य योग) सृष्टि और भगवान का कार्य (श्लोक 11-19)

भागवत गीता: अध्याय 9 (राजविद्या-राजगुह्य योग) सृष्टि और भगवान का कार्य (श्लोक 11-19) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 11

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥

अर्थ:
"मूर्ख लोग मेरी इस मानुषी देह को देखकर मेरी अवहेलना करते हैं। वे मेरे परे दिव्य स्वरूप और समस्त प्राणियों के स्वामी होने को नहीं समझते।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि अज्ञानी लोग उन्हें केवल एक साधारण मनुष्य समझते हैं और उनके दिव्य स्वरूप को नहीं पहचानते। उनकी योगमाया के कारण, वे उनके वास्तविक स्वरूप को समझने में असमर्थ रहते हैं।


श्लोक 12

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः॥

अर्थ:
"जिनकी आशाएँ, कर्म, और ज्ञान व्यर्थ हैं, वे लोग राक्षसी और आसुरी प्रकृति में स्थित होते हैं और मोह में पड़ जाते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि जो लोग भगवान के प्रति श्रद्धा नहीं रखते, वे व्यर्थ प्रयास करते हैं। उनका ज्ञान और कर्म निष्फल हो जाता है, क्योंकि वे राक्षसी (अहंकारयुक्त) और आसुरी (भौतिकता में लिप्त) स्वभाव को अपनाते हैं।


श्लोक 13

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥

अर्थ:
"हे पार्थ, महात्मा लोग दैवी प्रकृति को अपनाकर मेरी भक्ति करते हैं। वे मुझे भूतों का आदि और अविनाशी जानकर अनन्य मन से मेरी आराधना करते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक महात्माओं की विशेषताओं को बताता है। वे दैवी गुणों से युक्त होकर भगवान के अविनाशी और शाश्वत स्वरूप को समझते हैं और एकाग्र मन से उनकी भक्ति करते हैं।


श्लोक 14

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥

अर्थ:
"महात्मा सदा मेरा गुणगान करते हुए, दृढ़ निश्चय के साथ मेरी भक्ति करते हैं। वे मेरी नम्रतापूर्वक पूजा करते हैं और मुझसे सदा जुड़े रहते हैं।"

व्याख्या:
महात्माओं की भक्ति नित्य और अखंड होती है। वे भगवान के प्रति समर्पित रहते हैं, उनके नाम का जाप करते हैं और हर समय उनकी आराधना में लीन रहते हैं।


श्लोक 15

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥

अर्थ:
"कुछ लोग ज्ञान यज्ञ के माध्यम से मुझे उपासते हैं। वे मुझे एकत्व (एक रूप), पृथक्त्व (अलग-अलग रूपों), और अनेक रूपों में विश्व के रूप में देखते हैं।"

व्याख्या:
भगवान विभिन्न भक्तों के उपासना के तरीकों का वर्णन करते हैं। कुछ भक्त उन्हें ब्रह्म (निर्गुण), भगवन् (सगुण), और विश्व (सर्वव्यापक रूप) के रूप में पूजते हैं।


श्लोक 16

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्॥

अर्थ:
"मैं ही यज्ञ हूँ, मैं ही क्रतु (विधान यज्ञ) हूँ, मैं ही स्वधा (पितरों का आह्वान) हूँ, मैं ही औषधि (जड़ी-बूटी) हूँ। मैं ही मंत्र, मैं ही घी, मैं ही अग्नि और मैं ही हवन सामग्री हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि भगवान हर यज्ञ और उसके सभी तत्वों के मूल हैं। सभी धार्मिक कृत्य भगवान के स्वरूप में ही निहित हैं, और उनकी पूजा ही हर यज्ञ का अंतिम उद्देश्य है।


श्लोक 17

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च॥

अर्थ:
"मैं इस जगत का पिता, माता, पालनकर्ता और पितामह (पूर्वज) हूँ। मैं जानने योग्य, पवित्र, ओंकार और वेदों (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद) का आधार हूँ।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे इस संसार के सृजन, पालन और संहार के मूल आधार हैं। वे वेदों के मर्म और सभी धार्मिक ज्ञान के केंद्र हैं।


श्लोक 18

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥

अर्थ:
"मैं ही सबका गंतव्य, पालनकर्ता, स्वामी, साक्षी, निवास स्थान, शरण, सच्चा मित्र, सृष्टि का उद्गम, प्रलय, आधार, आश्रय और अविनाशी बीज हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के विविध दिव्य स्वरूपों को दर्शाता है। वे सभी प्राणियों के लिए शरणस्थल और मार्गदर्शक हैं। वे सृष्टि का आरंभ, मध्य और अंत हैं।


श्लोक 19

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥

अर्थ:
"मैं ही तपन करता हूँ, मैं ही वर्षा करता हूँ। मैं ही इसे रोकता और उत्पन्न करता हूँ। हे अर्जुन, मैं ही अमृत (जीवन), मृत्यु, सत्य और असत्य हूँ।"

व्याख्या:
भगवान अपनी सर्वव्यापकता और सृष्टि में अपनी भूमिका को समझाते हैं। वे ही सभी प्रक्रियाओं के कारण हैं – जीवन और मृत्यु, निर्माण और विनाश, सत्य और असत्य। यह उनकी दिव्यता और सर्वशक्तिमान स्वरूप को प्रकट करता है।


सारांश:

  1. भगवान के स्वरूप को न पहचानने वाले अज्ञानी लोग उनकी अवमानना करते हैं।
  2. महात्मा लोग दैवी प्रकृति को अपनाकर नित्य भक्ति करते हैं और भगवान के दिव्य स्वरूप को पहचानते हैं।
  3. भगवान यज्ञ, वेद, मंत्र, और सभी धार्मिक कृत्यों के मूल हैं।
  4. वे इस संसार के सृजन, पालन और प्रलय के कारण हैं।
  5. भगवान जीवन और मृत्यु, सत्य और असत्य, और हर प्रक्रिया के मूल आधार हैं।

शनिवार, 2 नवंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 9 (राजविद्या-राजगुह्य योग) राजविद्या और राजगुह्य का उद्घाटन (श्लोक 1-10)

भागवत गीता: अध्याय 9 (राजविद्या-राजगुह्य योग) राजविद्या और राजगुह्य का उद्घाटन (श्लोक 1-10) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: मैं तुम्हें यह सबसे गोपनीय ज्ञान (राजविद्या) और अनुभवसहित विज्ञान बताने जा रहा हूँ। इसे जानकर तुम अशुभ (संसार के बंधनों) से मुक्त हो जाओगे।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बताते हैं कि वह उसे सबसे पवित्र और गोपनीय ज्ञान देने वाले हैं, जिसमें केवल सिद्धांत (ज्ञान) ही नहीं, बल्कि उसका व्यावहारिक अनुभव (विज्ञान) भी शामिल है। यह ज्ञान मोक्ष का मार्ग है।


श्लोक 2

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥

अर्थ:
"यह ज्ञान राजविद्या (ज्ञानों में राजा) और राजगुह्य (गोपनीय रहस्यों में सबसे श्रेष्ठ) है। यह पवित्र, परम उत्तम, प्रत्यक्ष अनुभव करने योग्य, धर्मयुक्त, सुलभ और अविनाशी है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि यह ज्ञान न केवल उच्च और पवित्र है, बल्कि व्यावहारिक रूप से अनुभव किया जा सकता है। यह धर्म के अनुरूप और आत्मा को स्थायी सुख प्रदान करने वाला है।


श्लोक 3

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परंतप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि॥

अर्थ:
"हे परंतप (अर्जुन), जो लोग इस धर्म (ज्ञान) में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे प्राप्त नहीं कर पाते और मृत्यु तथा संसार के चक्र में फँसे रहते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि भगवान में श्रद्धा और विश्वास के बिना व्यक्ति संसार के जन्म-मरण के चक्र से मुक्त नहीं हो सकता। श्रद्धा ही भगवान की भक्ति का आधार है।


श्लोक 4

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मस्तानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः॥

अर्थ:
"यह सम्पूर्ण जगत मेरी अव्यक्त मूर्ति (दिव्य स्वरूप) से व्याप्त है। सभी प्राणी मुझमें स्थित हैं, लेकिन मैं उनमें स्थित नहीं हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के सर्वव्यापक और निराकार स्वरूप को दर्शाता है। भगवान सभी जगह मौजूद हैं, लेकिन वे सृष्टि से अलग रहते हुए भी उसे संचालित करते हैं।


श्लोक 5

न च मस्तानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः॥

अर्थ:
"और फिर भी, ये सभी प्राणी मुझमें स्थित नहीं हैं। यह मेरा दिव्य योग है। मैं भूतों का पालनकर्ता हूँ, लेकिन उनमें स्थित नहीं हूँ। मेरा आत्मा सबका आधार है।"

व्याख्या:
भगवान अपनी योगमाया (दैवी शक्ति) के माध्यम से सृष्टि का संचालन करते हैं। वे संसार के सभी प्राणियों का पालन करते हैं, लेकिन वे सृष्टि में बंधे नहीं हैं।


श्लोक 6

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मयि स्थितानि पृथिवि॥

अर्थ:
"जैसे वायु, जो सर्वत्र व्याप्त है, आकाश में स्थित रहती है, वैसे ही सभी प्राणी मुझमें स्थित रहते हैं।"

व्याख्या:
भगवान इस श्लोक में एक उदाहरण देकर बताते हैं कि जैसे वायु आकाश में रहती है लेकिन आकाश पर निर्भर नहीं होती, वैसे ही सृष्टि उनके भीतर है, लेकिन वे उससे अप्रभावित रहते हैं।


श्लोक 7

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, कल्प के अंत में, सभी प्राणी मेरी प्रकृति में विलीन हो जाते हैं और कल्प के आरंभ में, मैं उन्हें पुनः उत्पन्न करता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान यह स्पष्ट करते हैं कि सृष्टि एक चक्र के रूप में चलती है। कल्प (ब्रह्मा के दिन) के अंत में प्रलय होता है और सभी प्राणी भगवान की प्रकृति में विलीन हो जाते हैं। जब सृष्टि पुनः आरंभ होती है, तो वे सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं।


श्लोक 8

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्॥

अर्थ:
"मैं अपनी प्रकृति को अधीन करके इस सम्पूर्ण सृष्टि को बार-बार उत्पन्न करता हूँ। सभी प्राणी प्रकृति के अधीन होकर जन्म लेते हैं।"

व्याख्या:
भगवान यह बताते हैं कि सृष्टि और प्रलय उनकी प्रकृति के माध्यम से होती है। सभी प्राणी प्रकृति के नियमों के अधीन रहते हैं और भगवान की इच्छा से संचालित होते हैं।


श्लोक 9

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु॥

अर्थ:
"हे धनञ्जय, ये कर्म मुझे बाँधते नहीं हैं, क्योंकि मैं इन कर्मों में अनासक्त और उदासीन (अप्रभावित) रहता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि सृष्टि का संचालन उनके द्वारा होता है, लेकिन वे इन कर्मों से बंधित नहीं होते। उनकी स्थिति कर्मों से परे और पूर्णतः स्वतंत्र है।


श्लोक 10

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥

अर्थ:
"मेरे अधीन रहते हुए प्रकृति चल-अचल सम्पूर्ण सृष्टि को उत्पन्न करती है। हे कौन्तेय, इस कारण से यह संसार चक्र में चलता रहता है।"

व्याख्या:
भगवान अपनी स्थिति को सृष्टि के संचालक के रूप में स्पष्ट करते हैं। वे प्रकृति को संचालित करते हैं, जिससे संसार का निर्माण, पालन और प्रलय होता है।


सारांश:

  1. भगवान सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान हैं, लेकिन सृष्टि के कर्मों से अप्रभावित रहते हैं।
  2. सृष्टि और प्रलय प्रकृति के माध्यम से भगवान की इच्छा से होते हैं।
  3. इस ज्ञान और अनुभव को जानकर व्यक्ति संसार के बंधनों से मुक्त हो सकता है।
  4. भगवान के अधीन सब कुछ चलता है, लेकिन वे स्वयं कर्मों के बंधन से परे हैं।
  5. यह ज्ञान मोक्ष का मार्ग प्रदान करता है और व्यक्ति को सृष्टि के रहस्यों को समझने में सक्षम बनाता है।

शनिवार, 26 अक्टूबर 2024

भगवद्गीता: अध्याय 9 - राजविद्या राजगुह्य योग

भगवद गीता – नवम अध्याय: राजविद्या राजगुह्य योग

(Rāja-Vidyā Rāja-Guhya Yoga – The Yoga of Royal Knowledge and Royal Secret)

📖 अध्याय 9 का परिचय

राजविद्या राजगुह्य योग भगवद गीता का नवम अध्याय है, जिसे "सर्वोच्च ज्ञान और महानतम रहस्य" कहा गया है। इसमें श्रीकृष्ण अपनी भक्ति की महिमा, अपनी सर्वव्यापकता, और अपनी करुणा को उजागर करते हैं।

👉 मुख्य भाव:

  • राजविद्या (सर्वोच्च ज्ञान) – भगवान की भक्ति ही सबसे महान ज्ञान है।
  • राजगुह्य (गोपनीयतम रहस्य) – भगवान की भक्ति सबसे गुप्त लेकिन सबसे आसान साधना है।
  • भगवान की सर्वव्यापकता – सबकुछ भगवान में स्थित है, लेकिन भगवान किसी से बंधे नहीं हैं।
  • भगवान की शरण लेने वाले भक्तों का कल्याण

📖 श्लोक (9.22):

"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥"

📖 अर्थ: जो भक्त अनन्य भाव से मेरा चिंतन करते हैं और मेरी भक्ति करते हैं, उनके योग (आवश्यकताओं की प्राप्ति) और क्षेम (जो कुछ उन्होंने प्राप्त किया है उसकी रक्षा) का दायित्व मैं स्वयं लेता हूँ।

👉 यह अध्याय हमें विश्वास दिलाता है कि जो भक्त पूर्ण समर्पण के साथ भगवान की शरण में आता है, उसकी रक्षा स्वयं भगवान करते हैं।


🔹 1️⃣ राजविद्या और राजगुह्य का अर्थ

📌 1. श्रीकृष्ण द्वारा सर्वोच्च ज्ञान का वर्णन (Verses 1-6)

  • श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि वे उसे सबसे गोपनीय और पवित्र ज्ञान (राजविद्या) और रहस्य (राजगुह्य) देने जा रहे हैं।
  • यह ज्ञान केवल श्रद्धालु भक्तों को ही प्राप्त होता है, संशय करने वालों को नहीं।
  • भगवान ही इस पूरी सृष्टि के कारण हैं, लेकिन वे किसी भी वस्तु से बंधे नहीं हैं।

📖 श्लोक (9.4):

"मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः॥"

📖 अर्थ: यह संपूर्ण जगत मेरी अव्यक्त (अदृश्य) शक्ति से व्याप्त है। सभी जीव मुझमें स्थित हैं, परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ।

👉 भगवान सृष्टि के कण-कण में व्याप्त हैं, फिर भी वे किसी से बंधे नहीं हैं।


🔹 2️⃣ भगवान की भक्ति का प्रभाव

📌 2. भक्ति सबसे श्रेष्ठ साधना है (Verses 7-12)

  • जो व्यक्ति भगवान को सच्चे प्रेम से भजता है, वह परम गति को प्राप्त करता है।
  • भगवान कहते हैं कि जो लोग उन्हें नहीं पहचानते, वे मोह (अज्ञान) के कारण उन्हें केवल एक साधारण मनुष्य समझते हैं।

📖 श्लोक (9.11):

"अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥"

📖 अर्थ: मूर्ख लोग मुझे सामान्य मनुष्य समझते हैं और मेरे परम दिव्य स्वरूप को नहीं पहचानते।

👉 इसका अर्थ यह है कि भगवान की भक्ति बिना अहंकार और श्रद्धा के संभव नहीं है।


🔹 3️⃣ भगवान के भक्त और उनकी कृपा

📌 3. जो भक्त भगवान को भजते हैं, वे सबसे श्रेष्ठ हैं (Verses 13-19)

  • भगवान के सच्चे भक्त निरंतर उनकी भक्ति में लीन रहते हैं और उन्हें ही सर्वोच्च मानते हैं।
  • श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे ही सभी यज्ञों, तपस्याओं और साधनाओं का अंतिम फल हैं।

📖 श्लोक (9.14):

"सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥"

📖 अर्थ: मेरे सच्चे भक्त निरंतर मेरा कीर्तन करते हैं, दृढ़ संकल्प के साथ मेरी आराधना करते हैं और सदा मेरी भक्ति में लीन रहते हैं।

👉 भगवान कहते हैं कि सच्चा भक्त वही है जो प्रेमपूर्वक, निरंतर उनकी भक्ति करता है।


🔹 4️⃣ अनन्य भक्ति करने वालों की रक्षा भगवान स्वयं करते हैं

📌 4. भगवान स्वयं अपने भक्तों का कल्याण करते हैं (Verse 22)

  • जो लोग भगवान की अनन्य भक्ति करते हैं, उनकी सारी जिम्मेदारी भगवान स्वयं लेते हैं।
  • उन्हें न तो भौतिक चीजों की चिंता करनी चाहिए, न ही सुरक्षा की।

📖 श्लोक (9.22):

"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥"

📖 अर्थ: जो भक्त अनन्य भाव से मेरा चिंतन करते हैं और मेरी भक्ति करते हैं, उनके योग (आवश्यकताओं की प्राप्ति) और क्षेम (जो कुछ उन्होंने प्राप्त किया है उसकी रक्षा) का दायित्व मैं स्वयं लेता हूँ।

👉 भगवान अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और उन्हें जीवन में किसी चीज़ की कमी नहीं होने देते।


🔹 5️⃣ सभी लोग भगवान को प्राप्त कर सकते हैं

📌 5. भगवान की भक्ति के लिए कोई प्रतिबंध नहीं (Verses 23-34)

  • श्रीकृष्ण कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति उनकी भक्ति कर सकता है, चाहे वह किसी भी जाति, लिंग, या स्थिति में हो।
  • भक्ति के लिए केवल श्रद्धा और प्रेम की आवश्यकता होती है।
  • भगवान कहते हैं कि यदि कोई भक्त प्रेम से उन्हें एक फूल, फल, जल, या पत्ता अर्पित करता है, तो वे उसे सहर्ष स्वीकार करते हैं।

📖 श्लोक (9.26):

"पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥"

📖 अर्थ: यदि कोई भक्त प्रेमपूर्वक मुझे पत्र (पत्ता), पुष्प (फूल), फल या जल अर्पित करता है, तो मैं उसे सहर्ष स्वीकार करता हूँ।

👉 भगवान बाहरी वस्तुओं से प्रभावित नहीं होते, बल्कि वे केवल प्रेम और भक्ति को ही स्वीकार करते हैं।


🔹 6️⃣ अध्याय से मिलने वाली शिक्षाएँ

📖 इस अध्याय में श्रीकृष्ण के उपदेश से हमें कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं:

1. भगवान की भक्ति ही सर्वोच्च ज्ञान (राजविद्या) और सबसे गुप्त रहस्य (राजगुह्य) है।
2. भगवान इस संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त हैं, लेकिन वे इससे बंधे नहीं हैं।
3. जो अनन्य भक्ति करता है, उसकी सारी जिम्मेदारी स्वयं भगवान लेते हैं।
4. भगवान को पाने के लिए जाति, धर्म या समाजिक स्थिति बाधा नहीं होती, केवल श्रद्धा और प्रेम चाहिए।
5. भगवान प्रेम से अर्पित की गई किसी भी वस्तु को स्वीकार करते हैं, चाहे वह छोटा ही क्यों न हो।


🔹 निष्कर्ष

1️⃣ राजविद्या राजगुह्य योग में श्रीकृष्ण बताते हैं कि भक्ति ही सर्वोच्च साधना है।
2️⃣ भगवान अपने भक्तों की रक्षा स्वयं करते हैं और उनके योग-क्षेम का दायित्व लेते हैं।
3️⃣ भगवान को केवल श्रद्धा, प्रेम, और समर्पण से प्राप्त किया जा सकता है।
4️⃣ भगवान हर व्यक्ति को स्वीकार करते हैं, चाहे वह किसी भी स्थिति में हो।

शनिवार, 19 अक्टूबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) परमधाम और सच्चे योगी का अंत (श्लोक 23-28)

भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) परमधाम और सच्चे योगी का अंत (श्लोक 23-28) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 23

यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ॥

अर्थ:
"हे भरतश्रेष्ठ, मैं अब तुम्हें वह समय बताने जा रहा हूँ, जिसे जानकर योगी पुनर्जन्म (आवृत्ति) से बचते हैं और जिस समय के अनुसार पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक जीवन और मृत्यु के चक्र से जुड़े समय के महत्व को दर्शाता है। श्रीकृष्ण समझा रहे हैं कि योगी किस समय पर भगवान के पास जाकर जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होते हैं और किस समय पर पुनः जन्म लेते हैं।


श्लोक 24

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥

अर्थ:
"जो योगी अग्नि, ज्योति, दिन के समय, शुक्ल पक्ष और उत्तरायण (सूर्य के उत्तर की ओर जाने के छह महीने) के दौरान मृत्यु को प्राप्त होते हैं, वे ब्रह्मलोक जाते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक संकेत करता है कि यदि योगी शुभ समय (ज्योतिर्मय परिस्थितियों) में शरीर त्यागता है, तो वह ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है। यह "ज्ञान और प्रकाश" के समय पर आधारित आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक है।


श्लोक 25

धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥

अर्थ:
"जो योगी धूम, रात्रि, कृष्ण पक्ष, और दक्षिणायन (सूर्य के दक्षिण की ओर जाने के छह महीने) के दौरान शरीर त्यागते हैं, वे चंद्रलोक को प्राप्त करते हैं और पुनः जन्म लेते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक दर्शाता है कि अशुभ समय (धूम्र और अंधकारमय परिस्थितियाँ) में शरीर त्यागने वाले योगी चंद्रलोक (स्वर्गीय स्थान) में जाते हैं, लेकिन उन्हें पुनः जन्म लेना पड़ता है। यह समय भौतिक संसार में लौटने का प्रतीक है।


श्लोक 26

शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्यया आवर्तते पुनः॥

अर्थ:
"शुक्ल (प्रकाश) और कृष्ण (अंधकार) – ये दो गत्याएँ सदा से मानी गई हैं। इनमें से एक (प्रकाश मार्ग) से आत्मा पुनर्जन्म से मुक्त हो जाती है, जबकि दूसरी (अंधकार मार्ग) से वह पुनः संसार में लौटती है।"

व्याख्या:
यह श्लोक दो प्रकार की यात्राओं का वर्णन करता है:

  1. शुक्ल मार्ग (देवयान): मोक्ष की ओर ले जाता है।
  2. कृष्ण मार्ग (पितृयान): पुनर्जन्म के चक्र में वापस लाता है।

यह व्यक्त करता है कि आत्मा की गति उसके ज्ञान और कर्मों पर निर्भर करती है।


श्लोक 27

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन॥

अर्थ:
"हे पार्थ, जो योगी इन दोनों मार्गों को जानता है, वह कभी भ्रमित नहीं होता। इसलिए, हर समय योग में स्थित रहो।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन को उपदेश देते हैं कि जो व्यक्ति प्रकाश और अंधकार की इन दोनों गत्याओं को समझता है, वह मृत्यु के समय भ्रमित नहीं होता। योग में स्थित रहकर व्यक्ति सही मार्ग चुन सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है।


श्लोक 28

वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव।
दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा।
योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥

अर्थ:
"योगी वेदों, यज्ञों, तपस्याओं और दान से प्राप्त होने वाले सभी पुण्य फलों को पार कर जाता है और उस परम स्थान को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि जो योगी भगवान का साक्षात्कार करता है, वह सभी सांसारिक पुण्य फलों (यज्ञ, दान, तपस्या) को पीछे छोड़कर परम धाम (भगवान के निवास) को प्राप्त करता है। यह दिखाता है कि भक्ति और योग भगवान तक पहुँचने का सर्वोच्च साधन है।


सारांश:

  1. शुक्ल मार्ग (प्रकाश) मोक्ष और ब्रह्मलोक तक ले जाता है, जबकि कृष्ण मार्ग (अंधकार) पुनर्जन्म के चक्र में वापस लाता है।
  2. योगी को इन दोनों मार्गों का ज्ञान होना चाहिए ताकि वह भ्रमित न हो।
  3. योग और भक्ति व्यक्ति को मोक्ष प्रदान करते हैं, जो यज्ञ, तपस्या, और दान से भी अधिक श्रेष्ठ है।
  4. मृत्यु के समय योग में स्थित व्यक्ति भगवान के परम धाम को प्राप्त करता है।

शनिवार, 12 अक्टूबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) अक्षर ब्रह्म का ध्यान (श्लोक 17-22)

भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) अक्षर ब्रह्म का ध्यान (श्लोक 17-22) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 17

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः॥

अर्थ:
"जो लोग ब्रह्मा के दिन और रात को समझते हैं, वे जानते हैं कि ब्रह्मा का एक दिन एक सहस्र युगों (चार युगों के हजार चक्र) के बराबर है, और उनकी रात भी इतनी ही लंबी होती है।"

व्याख्या:
यह श्लोक ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) के कालचक्र का वर्णन करता है। ब्रह्मा का एक दिन 1000 युगों (सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, और कलियुग के 1000 चक्र) के बराबर होता है। यह समझ सृष्टि और प्रलय के ब्रह्मांडीय समय के गहरे विज्ञान को व्यक्त करती है।


श्लोक 18

अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥

अर्थ:
"ब्रह्मा के दिन की शुरुआत में सभी प्राणी अव्यक्त (अदृश्य) से प्रकट होते हैं, और उनकी रात में, वे सभी पुनः उसी अव्यक्त में लीन हो जाते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि ब्रह्मा के दिन सृष्टि उत्पन्न होती है और उनकी रात में सब कुछ प्रलय (विनाश) में विलीन हो जाता है। यह संसार ब्रह्मा के दिन-रात के चक्र में निरंतर उत्पन्न और विनष्ट होता रहता है।


श्लोक 19

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥

अर्थ:
"हे पार्थ, वही प्राणियों का समूह बार-बार उत्पन्न होता है और रात्रि के समय प्रलय में लीन हो जाता है, तथा दिन के आगमन पर पुनः अवश्य प्रकट होता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि जीवों का जन्म और मृत्यु का यह चक्र ब्रह्मा के समय चक्र के अधीन होता है। यह सृष्टि बार-बार उत्पन्न होती है और फिर प्रलय में विलीन हो जाती है।


श्लोक 20

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥

अर्थ:
"उस अव्यक्त से परे एक और शाश्वत अव्यक्त भाव है, जो सभी प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ बताते हैं कि भौतिक सृष्टि का अव्यक्त रूप तो नश्वर है, लेकिन उसके परे एक शाश्वत, दिव्य और अविनाशी स्वरूप (परमात्मा) है, जो कभी नष्ट नहीं होता। यही परम सत्य है।


श्लोक 21

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥

अर्थ:
"जो अव्यक्त और अक्षर (अविनाशी) कहा गया है, उसे ही परम गति कहा जाता है। जिसे प्राप्त करके प्राणी वापस नहीं लौटते, वही मेरी परम स्थिति है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि भगवान का परम धाम (आध्यात्मिक लोक) शाश्वत है। उसे प्राप्त करने के बाद प्राणी जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाते हैं और भगवान के दिव्य धाम में स्थायी निवास करते हैं।


श्लोक 22

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥

अर्थ:
"हे पार्थ, वह परम पुरुष, जिसके भीतर सभी प्राणी स्थित हैं और जिसने इस सम्पूर्ण सृष्टि को व्याप्त कर रखा है, अनन्य भक्ति के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक अनन्य भक्ति के महत्व को दर्शाता है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो भक्त अनन्य भाव से उनकी आराधना करता है, वही उनके शाश्वत धाम को प्राप्त कर सकता है। भगवान ही समस्त सृष्टि के आधार हैं।


सारांश:

  1. ब्रह्मा का दिन और रात सृष्टि के जन्म और प्रलय का कारण है।
  2. सृष्टि बार-बार उत्पन्न और नष्ट होती है, लेकिन इसके परे एक शाश्वत सत्य (भगवान) है।
  3. भगवान का धाम अविनाशी और शाश्वत है। इसे प्राप्त करने के बाद प्राणी संसार के चक्र से मुक्त हो जाता है।
  4. भगवान को प्राप्त करने का मार्ग अनन्य भक्ति है, जो सभी भौतिक इच्छाओं से परे है।
  5. भगवान समस्त सृष्टि में व्याप्त हैं और सभी प्राणियों के भीतर स्थित हैं।

शनिवार, 5 अक्टूबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) मृत्यु के बाद के जीवन और योग की प्रक्रिया (श्लोक 8-16)

भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) मृत्यु के बाद के जीवन और योग की प्रक्रिया (श्लोक 8-16) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 8

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति अभ्यास योग के द्वारा अनन्य भक्ति और एकाग्र मन से परम पुरुष (भगवान) का चिंतन करता है, वह उस दिव्य स्वरूप को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान की प्राप्ति के लिए अनन्य भक्ति और अभ्यास का महत्व बताता है। एकाग्र मन और लगातार अभ्यास से भगवान का स्मरण साकार होता है और व्यक्ति परम लक्ष्य तक पहुँचता है।


श्लोक 9

कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति परम कवि (सर्वज्ञ), पुरातन, समस्त प्राणियों का शासक, अणु से भी सूक्ष्म, सृष्टि का धारण करने वाला, अचिंत्य रूप, सूर्य के समान प्रकाशमान और अज्ञान के अंधकार से परे भगवान का स्मरण करता है, वह उन्हें प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के दिव्य गुणों को उजागर करता है। वे सर्वज्ञ, शाश्वत और समस्त ब्रह्मांड का आधार हैं। उनका स्मरण व्यक्ति को अज्ञान से परे ले जाकर दिव्यता तक पहुँचाता है।


श्लोक 10

प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥

अर्थ:
"मृत्यु के समय, जो व्यक्ति योग बल और भक्ति से मन को स्थिर कर, भौहों के मध्य में प्राण को केंद्रित करता है, वह उस दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि मृत्यु के समय योग, भक्ति और ध्यान का सही उपयोग व्यक्ति को परमात्मा तक ले जाता है। मन और प्राण को नियंत्रित करके भगवान का स्मरण करना मोक्ष का मार्ग है।


श्लोक 11

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥

अर्थ:
"जो अक्षर (अविनाशी) ब्रह्म को वेदज्ञानी वर्णन करते हैं, जिसे वीतराग योगी प्राप्त करते हैं और जिसकी प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है, उस पद (परम स्थिति) को मैं संक्षेप में बताने जा रहा हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के उस शाश्वत स्वरूप को प्रस्तुत करता है, जो ज्ञानियों, योगियों और तपस्वियों का परम लक्ष्य है। यह ब्रह्म की दिव्यता और उसके प्राप्ति मार्ग का परिचय है।


श्लोक 12

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥

अर्थ:
"सभी इंद्रियों को संयमित करके, मन को हृदय में स्थिर करके, और प्राण को सिर के मध्य में स्थित करके, योगधारण करने वाला व्यक्ति भगवान का साक्षात्कार करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक योग की गहन प्रक्रिया का वर्णन करता है। इंद्रियों का संयम, मन की स्थिरता और प्राण का उचित स्थान पर नियंत्रण योग की सफलता के लिए आवश्यक हैं।


श्लोक 13

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति 'ओम' (एक अक्षर ब्रह्म) का उच्चारण करते हुए और मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक "ओम" के महत्व को दर्शाता है। मृत्यु के समय भगवान का स्मरण और "ओम" का उच्चारण व्यक्ति को मोक्ष प्रदान करता है। "ओम" ब्रह्म का प्रतीक है।


श्लोक 14

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति अनन्य भक्ति के साथ सतत मेरा स्मरण करता है, उसके लिए मैं आसानी से प्राप्त हो जाता हूँ, क्योंकि वह सदा मुझसे जुड़ा रहता है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ भक्ति योग की महिमा का वर्णन करते हैं। जो व्यक्ति अपने मन को भगवान में स्थिर रखता है, वह उनकी कृपा से आसानी से भगवान को प्राप्त कर सकता है।


श्लोक 15

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः॥

अर्थ:
"जो महात्मा मुझे प्राप्त करते हैं, वे फिर से इस दुःखमय और अस्थायी संसार में जन्म नहीं लेते। वे परम सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त कर लेते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक मोक्ष की महिमा को दर्शाता है। भगवान का साक्षात्कार प्राप्त करने वाले महात्मा संसार के जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाते हैं और शाश्वत शांति में स्थित रहते हैं।


श्लोक 16

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, ब्रह्मलोक तक सभी लोक पुनर्जन्म के अधीन हैं। लेकिन जो मुझे प्राप्त करते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि भौतिक संसार के सभी लोक, चाहे वे ब्रह्मलोक ही क्यों न हों, जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त नहीं हैं। केवल भगवान की प्राप्ति से ही इस चक्र से मुक्ति संभव है।


सारांश:

  1. भगवान का ध्यान और "ओम" का उच्चारण व्यक्ति को मृत्यु के समय मोक्ष दिलाता है।
  2. योग और भक्ति से मन को नियंत्रित करके भगवान की दिव्यता को प्राप्त किया जा सकता है।
  3. भगवान की प्राप्ति से जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिलती है।
  4. ब्रह्मलोक सहित सभी भौतिक लोक अस्थायी हैं।
  5. अनन्य भक्ति और भगवान का स्मरण मोक्ष का सर्वोच्च मार्ग है।

शनिवार, 28 सितंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) अक्षर ब्रह्म का स्वरूप (श्लोक 1-7)

 भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) अक्षर ब्रह्म का स्वरूप (श्लोक 1-7) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 1

अर्जुन उवाच
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥

अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: "हे पुरुषोत्तम, वह ब्रह्म क्या है? आध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत क्या है और अधिदैव क्या कहा गया है?"

व्याख्या:
अर्जुन श्रीकृष्ण से गहरे प्रश्न पूछते हैं ताकि भगवान के द्वारा बताए गए उच्च ज्ञान को ठीक से समझ सकें। वह ब्रह्म, आत्मा, कर्म, भौतिक तत्वों और देवताओं के संदर्भ में स्पष्टता चाहते हैं।


श्लोक 2

अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः॥

अर्थ:
"हे मधुसूदन, इस शरीर में अधियज्ञ कौन है? और मृत्यु के समय आत्मा के द्वारा आपको कैसे जाना जा सकता है?"

व्याख्या:
अर्जुन यह समझना चाहते हैं कि यज्ञ के अधिष्ठाता के रूप में भगवान का स्वरूप क्या है और मृत्यु के समय भगवान का स्मरण कैसे किया जा सकता है। यह मोक्ष के मार्ग पर अर्जुन की जिज्ञासा को दर्शाता है।


श्लोक 3

श्रीभगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: ब्रह्म अविनाशी और परम है। आत्मा का स्वभाव आध्यात्म कहलाता है, और भूतों (जीवों) की उत्पत्ति का कारण कर्म है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं:

  1. ब्रह्म: शाश्वत और अविनाशी सत्य।
  2. आध्यात्म: आत्मा का आंतरिक स्वभाव।
  3. कर्म: वह क्रिया जिससे भौतिक संसार में जीवों की उत्पत्ति होती है।

श्लोक 4

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥

अर्थ:
"अधिभूत (भौतिक तत्व) नाशवान है, अधिदैव पुरुष है, और अधियज्ञ मैं ही हूँ, जो इस शरीर में स्थित हूँ।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ बताते हैं:

  1. अधिभूत: भौतिक संसार और उसकी नश्वरता।
  2. अधिदैव: देवताओं का स्वरूप।
  3. अधियज्ञ: भगवान स्वयं, जो प्रत्येक यज्ञ के अधिष्ठाता हैं और शरीर में स्थित आत्मा के साथ यज्ञ को संचालित करते हैं।

श्लोक 5

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥

अर्थ:
"मृत्यु के समय जो मुझे स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त करता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।"

व्याख्या:
यह श्लोक मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करने के महत्व को दर्शाता है। भगवान के स्मरण से आत्मा भगवान के दिव्य स्वरूप को प्राप्त करती है और मोक्ष प्राप्त होता है।


श्लोक 6

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, मृत्यु के समय जो भी भाव स्मरण करता हुआ व्यक्ति शरीर त्यागता है, वह उसी भाव को प्राप्त होता है, क्योंकि वह जीवनभर उसी भाव से जुड़ा रहता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि मृत्यु के समय व्यक्ति जिस भाव में होता है, वही उसकी आत्मा की स्थिति को निर्धारित करता है। इसलिए जीवनभर भगवान का ध्यान और भक्ति करना आवश्यक है।


श्लोक 7

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः॥

अर्थ:
"इसलिए, हर समय मेरा स्मरण करते हुए युद्ध करो। अपना मन और बुद्धि मुझमें अर्पित करो, और तुम निःसंदेह मुझे प्राप्त करोगे।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को निर्देश देते हैं कि वह अपने कर्तव्यों (युद्ध) का पालन करते हुए हमेशा भगवान का स्मरण करें। भगवान का स्मरण और कर्तव्य का पालन दोनों ही मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं।


सारांश:

  1. अर्जुन ने ब्रह्म, आध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव, और अधियज्ञ के बारे में पूछा।
  2. भगवान ने इन सभी की परिभाषा दी, जिसमें ब्रह्म को अविनाशी और आत्मा को परम तत्व बताया।
  3. मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करने से व्यक्ति भगवान के दिव्य स्वरूप को प्राप्त करता है।
  4. जीवनभर भगवान का ध्यान और भक्ति करना आवश्यक है ताकि मृत्यु के समय भगवान का स्मरण स्वाभाविक हो।
  5. भगवान का स्मरण और कर्तव्य का पालन, दोनों एक साथ मोक्ष का मार्ग बनाते हैं।

शनिवार, 21 सितंबर 2024

भगवद्गीता: अध्याय 8 - अक्षर ब्रह्म योग

भगवद गीता – अष्टम अध्याय: अक्षर ब्रह्म योग

(Akshara Brahma Yoga – The Yoga of the Imperishable Absolute)

📖 अध्याय 8 का परिचय

अक्षर ब्रह्म योग भगवद गीता का आठवाँ अध्याय है, जिसमें श्रीकृष्ण परम ब्रह्म (Ultimate Reality), मृत्यु के समय भगवान का स्मरण, मोक्ष प्राप्ति का रहस्य और दो प्रकार के मार्ग (श्वेत-श्याम पथ) के बारे में बताते हैं।

👉 मुख्य भाव:

  • परम ब्रह्म (Supreme Reality) क्या है?
  • मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करने का महत्व।
  • मोक्ष प्राप्त करने का सर्वोत्तम मार्ग।
  • दो पथ – एक मोक्ष की ओर और दूसरा पुनर्जन्म की ओर।

📖 श्लोक (8.5):

"अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥"

📖 अर्थ: जो मृत्यु के समय मेरा स्मरण करते हुए शरीर त्यागता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है – इसमें कोई संदेह नहीं।

👉 यह अध्याय बताता है कि जीवन के अंतिम क्षणों में भगवान का स्मरण करने से मोक्ष प्राप्त हो सकता है।


🔹 1️⃣ अर्जुन के प्रश्न और श्रीकृष्ण के उत्तर

📌 1. अर्जुन के सात प्रश्न (Verse 1-2)

अर्जुन श्रीकृष्ण से सात महत्वपूर्ण प्रश्न पूछते हैं:
1️⃣ ब्रह्म क्या है? (What is Brahman?)
2️⃣ अध्यात्म क्या है? (What is Adhyatma - the Self?)
3️⃣ कर्म क्या है? (What is Karma?)
4️⃣ अधिभूत क्या है? (What is Adhibhuta - the material world?)
5️⃣ अधिदैव क्या है? (What is Adhidaiva - the divine being?)
6️⃣ अधियज्ञ कौन है? (Who is Adhiyajna - the lord of sacrifice?)
7️⃣ मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करने से क्या होता है? (What happens if one remembers God at the time of death?)

📖 श्लोक (8.1):

"अर्जुन उवाच: किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥"

📖 अर्थ: अर्जुन बोले – हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? और कर्म क्या है? अधिभूत और अधिदैव क्या कहलाते हैं?

👉 अर्जुन की जिज्ञासा हमें आध्यात्मिकता को गहराई से समझने में मदद करती है।


🔹 2️⃣ भगवान श्रीकृष्ण के उत्तर

📌 2. ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ का अर्थ (Verses 3-4)

1️⃣ ब्रह्म (Brahman) – परम अविनाशी तत्व, जिसे "अक्षर" कहा जाता है।
2️⃣ अध्यात्म (Adhyatma) – जीवात्मा (Individual Soul)।
3️⃣ कर्म (Karma) – भौतिक संसार में कारण और परिणाम का नियम।
4️⃣ अधिभूत (Adhibhuta) – पंच महाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) का समूह।
5️⃣ अधिदैव (Adhidaiva) – ब्रह्मांड में देवताओं की शक्तियाँ।
6️⃣ अधियज्ञ (Adhiyajna) – परमात्मा जो सभी यज्ञों (त्याग और भक्ति) के केंद्र हैं।

📖 श्लोक (8.3):

"श्रीभगवानुवाच: अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥"

📖 अर्थ: श्रीकृष्ण बोले – जो अविनाशी और परम है, वही ब्रह्म है। जीवात्मा को अध्यात्म कहा जाता है, और भूतों की उत्पत्ति करने वाला जो त्याग (कर्म) है, उसे कर्म कहते हैं।

👉 इन उत्तरों से स्पष्ट होता है कि ब्रह्म, आत्मा, और कर्म का आपस में गहरा संबंध है।


🔹 3️⃣ मृत्यु के समय भगवान का स्मरण और मोक्ष प्राप्ति

📌 3. मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करने का महत्व (Verses 5-10)

  • श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति मृत्यु के समय जिस चीज़ का स्मरण करता है, वह उसी को प्राप्त करता है।
  • यदि कोई मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करता है, तो वह परमगति (मोक्ष) प्राप्त करता है।

📖 श्लोक (8.6):

"यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥"

📖 अर्थ: हे अर्जुन! जो व्यक्ति मृत्यु के समय जिस भाव का स्मरण करता है, वह उसी को प्राप्त करता है।

👉 इसलिए, हमें सदैव भगवान के ध्यान में रहना चाहिए, ताकि मृत्यु के समय भी उनका स्मरण हो सके।


🔹 4️⃣ ओंकार और भगवान की भक्ति द्वारा मोक्ष

📌 4. ओंकार (ॐ) और भगवान का ध्यान (Verses 11-22)

  • श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो व्यक्ति "ॐ" का जप करते हुए ध्यान करता है, वह परम धाम को प्राप्त करता है।
  • जो भगवान के धाम (सच्चिदानंद लोक) को प्राप्त करता है, वह फिर कभी जन्म-मरण के चक्र में नहीं आता।

📖 श्लोक (8.13):

"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥"

📖 अर्थ: जो व्यक्ति "ॐ" (एकाक्षर ब्रह्म) का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है, वह परमगति को प्राप्त होता है।

👉 इसका अर्थ है कि यदि हम भगवान का स्मरण और "ॐ" का जप करें, तो हमें मोक्ष मिल सकता है।


🔹 5️⃣ दो पथ – एक मोक्ष का और दूसरा पुनर्जन्म का

📌 5. उत्तम और अधम मार्ग (Verses 23-28)

  • श्रीकृष्ण बताते हैं कि मृत्यु के बाद दो मार्ग होते हैं:

1️⃣ उत्तरायण (देवयान मार्ग) – मोक्ष का मार्ग
✅ इसमें मृत्यु के बाद आत्मा ब्रह्मलोक या परमधाम को प्राप्त करती है और पुनर्जन्म नहीं लेती।

2️⃣ दक्षिणायन (पितृयान मार्ग) – पुनर्जन्म का मार्ग
✅ इसमें मृत्यु के बाद आत्मा पुनः जन्म लेती है और संसार के चक्र में फँस जाती है।

📖 श्लोक (8.26):

"शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः॥"

📖 अर्थ: ये दो मार्ग (शुक्ल और कृष्ण) सदा से हैं – एक से आत्मा मुक्त होकर परम धाम जाती है, और दूसरे से संसार में वापस आ जाती है।

👉 इसलिए, हमें उत्तरायण मार्ग अपनाकर मोक्ष की ओर बढ़ना चाहिए।


🔹 6️⃣ अध्याय से मिलने वाली शिक्षाएँ

📖 इस अध्याय में श्रीकृष्ण के उपदेश से हमें कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं:

1. मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करने से मोक्ष प्राप्त होता है।
2. "ॐ" के जप से आत्मा को परमगति मिलती है।
3. भगवान को जानने के लिए भक्ति आवश्यक है।
4. मृत्यु के बाद दो मार्ग होते हैं – एक मोक्ष का और दूसरा पुनर्जन्म का।
5. भगवान के धाम को प्राप्त करने वाला पुनः जन्म नहीं लेता।


🔹 निष्कर्ष

1️⃣ अक्षर ब्रह्म योग में श्रीकृष्ण बताते हैं कि मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करना सबसे महत्वपूर्ण है।
2️⃣ "ॐ" का जप और भगवान की भक्ति से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
3️⃣ मृत्यु के बाद आत्मा दो मार्गों में से किसी एक को प्राप्त करती है – मोक्ष या पुनर्जन्म।
4️⃣ भगवान के धाम को प्राप्त करने वाले व्यक्ति को फिर कभी जन्म-मरण के चक्र में नहीं आना पड़ता।

शनिवार, 14 सितंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) सच्चे ज्ञान की प्राप्ति (श्लोक 31-34)

 भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) सच्चे ज्ञान की प्राप्ति (श्लोक 31-34) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 31

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥

अर्थ:
"अक्षर (अविनाशी) ब्रह्म परम है, स्वभाव को आध्यात्म कहा गया है। भूतों (जीवों) की उत्पत्ति का कारण विसर्ग (त्याग या सृजन) है, जिसे कर्म कहा जाता है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण ब्रह्म, आध्यात्म और कर्म का परिचय देते हैं।

  1. अक्षर ब्रह्म: यह परम तत्व है, जो अविनाशी और शाश्वत है।
  2. स्वभाव: आत्मा का स्वाभाविक गुण है, जो उसके आध्यात्मिक स्वरूप को दर्शाता है।
  3. कर्म: यह सृष्टि के सृजन और प्राणियों के जन्म का कारण है।

यह श्लोक ब्रह्म और आत्मा के गहरे संबंध को समझाने का प्रयास करता है।


श्लोक 32

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥

अर्थ:
"हे देहधारी श्रेष्ठ (अर्जुन), अधिभूत (भौतिक तत्व) नाशवान है, अधिदैव (देवता) पुरुष है, और अधियज्ञ मैं ही हूँ, जो इस शरीर में स्थित हूँ।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ तीन महत्वपूर्ण तत्वों का वर्णन करते हैं:

  1. अधिभूत: भौतिक संसार और तत्व, जो नाशवान हैं।
  2. अधिदैव: देवता, जो सृष्टि और जीवों के संचालन में भूमिका निभाते हैं।
  3. अधियज्ञ: भगवान स्वयं, जो यज्ञ और बलिदानों के अधिष्ठाता हैं।

यह श्लोक समझाता है कि भगवान ही यज्ञ के पीछे की दिव्य शक्ति हैं और वे प्रत्येक जीव के भीतर स्थित हैं।


श्लोक 33

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति मृत्यु के समय मुझे स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त करता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को यह बताने की कोशिश करते हैं कि मृत्यु के समय जो व्यक्ति भगवान का स्मरण करता है, वह भगवान की दिव्यता और शाश्वत स्वरूप को प्राप्त करता है। यह मोक्ष का मार्ग है। मृत्यु के समय मन की स्थिरता और भगवान का ध्यान महत्वपूर्ण है।


श्लोक 34

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, मृत्यु के समय जो भी भाव स्मरण करता हुआ व्यक्ति शरीर छोड़ता है, वह उसी भाव को प्राप्त होता है, क्योंकि वह उस भाव से सदैव जुड़ा रहता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि मृत्यु के समय व्यक्ति का अंतःकरण जिस भाव में होता है, वही उसके अगले जीवन का आधार बनता है। अतः जीवनभर भगवान के ध्यान और भक्ति में लगे रहना चाहिए ताकि मृत्यु के समय मन भगवान में स्थिर रहे और मोक्ष प्राप्त हो सके।


सारांश:

  1. अक्षर ब्रह्म शाश्वत और अविनाशी है, जबकि अधिभूत (भौतिक तत्व) नाशवान है।
  2. भगवान प्रत्येक जीव में अधियज्ञ के रूप में स्थित हैं।
  3. मृत्यु के समय भगवान का स्मरण मोक्ष का मुख्य मार्ग है।
  4. जीवनभर मन और ध्यान को भगवान में स्थिर रखने से मृत्यु के समय उनकी प्राप्ति संभव होती है।
  5. व्यक्ति जिस भाव के साथ जीवन जीता है, वही उसका अंतिम परिणाम और भविष्य निर्धारित करता है।

शनिवार, 7 सितंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) भक्तों की विशेषता और उनका प्रेम (श्लोक 23-30)

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) भक्तों की विशेषता और उनका प्रेम (श्लोक 23-30) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 23

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि॥

अर्थ:
"उनकी बुद्धि कम है जो अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, क्योंकि उनके द्वारा प्राप्त फल अस्थायी होते हैं। जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं को प्राप्त होते हैं, जबकि मेरे भक्त मुझे प्राप्त होते हैं।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि अन्य देवताओं की पूजा भौतिक इच्छाओं को पूरा करती है, लेकिन वे अस्थायी होती हैं। भगवान की भक्ति व्यक्ति को भगवान तक पहुंचाती है, जो शाश्वत और सर्वोच्च फल है।


श्लोक 24

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्॥

अर्थ:
"जो अज्ञानी हैं, वे मुझे (भगवान को) अव्यक्त से व्यक्त हुआ मानते हैं। वे मेरे सर्वोच्च और अविनाशी स्वरूप को नहीं जानते।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के दिव्य और शाश्वत स्वरूप का वर्णन करता है। अज्ञानी लोग भगवान को केवल एक भौतिक व्यक्तित्व मानते हैं और उनके परम आत्मा स्वरूप को नहीं समझ पाते।


श्लोक 25

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥

अर्थ:
"मैं सबके लिए प्रकट नहीं हूँ, क्योंकि मैं अपनी योगमाया से ढका हुआ हूँ। यह मूढ़ (अज्ञानी) लोग मुझे अजन्मा और अविनाशी नहीं जानते।"

व्याख्या:
भगवान अपनी योगमाया के माध्यम से अपने दिव्य स्वरूप को छुपाते हैं। अज्ञानी लोग उनकी वास्तविकता को नहीं समझ पाते और उन्हें भौतिक सीमाओं में बांधकर देखते हैं।


श्लोक 26

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, मैं भूत, वर्तमान, और भविष्य के सभी प्राणियों को जानता हूँ। लेकिन कोई मुझे नहीं जानता।"

व्याख्या:
भगवान सर्वज्ञ हैं और समय के तीनों कालों (भूत, वर्तमान, भविष्य) को जानते हैं। लेकिन उनकी योगमाया के कारण, प्राणी उनकी वास्तविकता को समझने में असमर्थ हैं।


श्लोक 27

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप॥

अर्थ:
"हे भारत, इच्छा और द्वेष से उत्पन्न द्वंद्वों के कारण, सभी प्राणी सृष्टि में भ्रमित हो जाते हैं।"

व्याख्या:
इच्छा (लालसा) और द्वेष (नफरत) के कारण प्राणी भौतिक संसार के मोह में फंसे रहते हैं। यह मोह उन्हें भगवान के वास्तविक स्वरूप को जानने से रोकता है।


श्लोक 28

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः॥

अर्थ:
"लेकिन जिनके पाप नष्ट हो चुके हैं और जिन्होंने पुण्य कर्म किए हैं, वे द्वंद्वों के मोह से मुक्त होकर दृढ़ निश्चय के साथ मेरी भक्ति करते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि भगवान की भक्ति में आने के लिए पापों का नाश और मन की शुद्धि आवश्यक है। ऐसे व्यक्ति भगवान के प्रति समर्पित होकर द्वंद्वों से मुक्त हो जाते हैं।


श्लोक 29

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्॥

अर्थ:
"जो लोग बुढ़ापे और मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए मेरी शरण लेते हैं, वे ब्रह्म, आध्यात्मिक ज्ञान, और समस्त कर्मों के रहस्य को जानते हैं।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो लोग मोक्ष प्राप्ति की इच्छा रखते हैं और उनकी शरण में आते हैं, वे ब्रह्म और आत्मा के ज्ञान को समझते हैं और अपने कर्मों को समझदारी से करते हैं।


श्लोक 30

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः॥

अर्थ:
"जो लोग मुझे अधिभूत (भौतिक तत्व), अधिदैव (देवता), और अधियज्ञ (यज्ञ का अधिष्ठाता) के रूप में जानते हैं, वे मृत्यु के समय भी मुझे जानते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक उन लोगों का वर्णन करता है जो भगवान के व्यापक स्वरूप को समझते हैं। ऐसे व्यक्ति मृत्यु के समय भी भगवान का स्मरण करते हुए मोक्ष प्राप्त करते हैं।


सारांश:

  1. अन्य देवताओं की पूजा अस्थायी फल देती है, जबकि भगवान की भक्ति शाश्वत फल प्रदान करती है।
  2. भगवान योगमाया से ढके होते हैं, इसलिए अज्ञानी लोग उनके दिव्य स्वरूप को नहीं समझ पाते।
  3. इच्छा और द्वेष से प्राणी संसार के मोह में फंसे रहते हैं।
  4. पुण्य कर्म और पापों का नाश भगवान की भक्ति के लिए आवश्यक हैं।
  5. भगवान का व्यापक ज्ञान (अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ) समझकर मृत्यु के समय भी उन्हें प्राप्त किया जा सकता है।

शनिवार, 31 अगस्त 2024

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) परमात्मा की विभूतियाँ (श्लोक 13-22)

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) परमात्मा की विभूतियाँ (श्लोक 13-22) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 13

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्॥

अर्थ:
"यह सम्पूर्ण संसार तीन गुणों (सत्त्व, रजस, और तमस) से मोहित है और मुझे, जो इन गुणों से परे और अविनाशी हूँ, नहीं जानता।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि संसार के सभी प्राणी इन तीन गुणों (प्रकृति के प्रभाव) में उलझे रहते हैं। इस मोह के कारण वे भगवान के परम और निर्गुण स्वरूप को नहीं पहचान पाते।


श्लोक 14

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥

अर्थ:
"यह मेरी माया, जो इन तीन गुणों से बनी है, दैवी और अत्यंत कठिन है। लेकिन जो मेरी शरण लेते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ यह बताते हैं कि संसार की माया अत्यंत प्रभावशाली है। इसे केवल भगवान की शरण लेने से ही पार किया जा सकता है। भक्ति मार्ग ही इससे मुक्ति का उपाय है।


श्लोक 15

न मां दु्ष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः॥

अर्थ:
"जो पाप में लिप्त हैं, मूर्ख हैं, और जिनकी बुद्धि माया से छीन ली गई है, वे मेरी शरण में नहीं आते। ऐसे लोग आसुरी स्वभाव को अपनाते हैं।"

व्याख्या:
भगवान समझाते हैं कि जिनका ज्ञान माया के प्रभाव से ढक गया है और जो आसुरी स्वभाव में फंसे हुए हैं, वे भगवान के प्रति भक्ति और श्रद्धा नहीं रखते।


श्लोक 16

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, चार प्रकार के पुण्यात्मा लोग मेरी भक्ति करते हैं – पीड़ित, जिज्ञासु, धन चाहने वाले, और ज्ञानी।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ भक्तों के चार प्रकार बताते हैं। इन चारों में से सभी भगवान के प्रति झुकाव रखते हैं, लेकिन इनमें ज्ञानी श्रेष्ठ है क्योंकि वह भगवान को उनकी पूर्णता में समझता है।


श्लोक 17

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः॥

अर्थ:
"इनमें ज्ञानी, जो सदा मुझमें स्थिर रहता है और जिसकी भक्ति केवल मुझमें है, सबसे श्रेष्ठ है। वह मुझे अत्यंत प्रिय है, और मैं भी उसे प्रिय हूँ।"

व्याख्या:
भगवान ज्ञानी को सर्वोच्च भक्त बताते हैं क्योंकि वह भक्ति और ज्ञान के साथ भगवान में पूर्ण रूप से स्थिर रहता है। यह परिपूर्ण प्रेम और श्रद्धा का प्रतीक है।


श्लोक 18

उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थित: स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्॥

अर्थ:
"सभी भक्त उदार हैं, लेकिन ज्ञानी तो मेरा ही स्वरूप है। क्योंकि वह अपने आत्मा में मुझमें स्थित रहता है और मुझे ही परम उद्देश्य मानता है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण सभी प्रकार के भक्तों को श्रेष्ठ और उदार मानते हैं, लेकिन ज्ञानी को विशेष मानते हैं क्योंकि वह भगवान में आत्मसाक्षात्कार के साथ पूर्णत: स्थित होता है।


श्लोक 19

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥

अर्थ:
"कई जन्मों के बाद ज्ञान प्राप्त करने वाला मुझे इस सत्य के साथ शरण लेता है कि 'वासुदेव ही सब कुछ हैं।' ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।"

व्याख्या:
यह श्लोक ज्ञान प्राप्ति की यात्रा की गहराई को दर्शाता है। भगवान को पूर्ण रूप से जानने वाला व्यक्ति समझता है कि वासुदेव (श्रीकृष्ण) ही संपूर्ण सृष्टि का आधार हैं। ऐसा भक्त महान और दुर्लभ होता है।


श्लोक 20

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता:।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियता: स्वया॥

अर्थ:
"जिनका ज्ञान कामनाओं से ढक गया है, वे अन्य देवताओं की पूजा करते हैं और अपनी प्रकृति के अनुसार नियमों का पालन करते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि जो लोग अपनी इच्छाओं में फंसे होते हैं, वे अन्य देवताओं की पूजा करते हैं। उनकी पूजा भौतिक लाभों के लिए होती है और यह भगवान की भक्ति से भिन्न है।


श्लोक 21

यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्॥

अर्थ:
"जो भी भक्त किसी विशेष देवता की श्रद्धा से पूजा करना चाहता है, मैं उसी की श्रद्धा को स्थिर करता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे ही भक्तों की विभिन्न इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए उनकी श्रद्धा को स्थिर करते हैं। सभी प्रकार की भक्ति में भगवान ही मूल शक्ति हैं।


श्लोक 22

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हि तान्॥

अर्थ:
"वह भक्त उसी श्रद्धा से प्रेरित होकर उस देवता की पूजा करता है और अपनी इच्छाएँ प्राप्त करता है। लेकिन वे इच्छाएँ वास्तव में मेरे द्वारा ही प्रदान की जाती हैं।"

व्याख्या:
भगवान यह स्पष्ट करते हैं कि सभी देवताओं द्वारा दिया गया फल वास्तव में भगवान के आदेश से प्राप्त होता है। भगवान सृष्टि का मूल स्रोत हैं और अन्य देवता उनके माध्यम हैं।


सारांश:

  1. यह संसार प्रकृति के तीन गुणों से मोहित है, जिससे भगवान का सच्चा स्वरूप छिपा रहता है।
  2. माया को पार करने के लिए भगवान की शरण लेना अनिवार्य है।
  3. चार प्रकार के भक्त भगवान की भक्ति करते हैं: आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी, और ज्ञानी। इनमें ज्ञानी को सर्वोच्च माना गया है।
  4. सभी इच्छाएँ और भक्ति अंततः भगवान से प्रेरित और उन्हीं से पूरी होती हैं।
  5. भगवान ही समस्त सृष्टि के केंद्र हैं, और यह समझने वाला महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।

शनिवार, 24 अगस्त 2024

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) भूत, भविष्य और वर्तमान का वर्णन (श्लोक 8-12)

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) भूत, भविष्य और वर्तमान का वर्णन (श्लोक 8-12) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 8

रसोहं अप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, मैं जल में रस हूँ, चंद्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सभी वेदों में 'ॐ' (प्रणव) हूँ, आकाश में ध्वनि और मनुष्यों में पुरुषार्थ हूँ।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे सृष्टि के प्रत्येक तत्व में विद्यमान हैं। जल का रस, चंद्रमा और सूर्य का प्रकाश, और मनुष्य की पुरुषार्थ शक्ति सभी उनके दिव्य स्वरूप का प्रतीक हैं। वे यह दिखा रहे हैं कि उनका अस्तित्व हर जगह है।


श्लोक 9

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु॥

अर्थ:
"मैं पृथ्वी में पवित्र सुगंध हूँ, अग्नि में तेज हूँ, सभी प्राणियों में जीवन हूँ और तपस्वियों में तपस्या हूँ।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे हर चीज की आत्मा और गुण हैं। पृथ्वी की सुगंध, अग्नि का तेज, और प्रत्येक प्राणी का जीवन उनके अस्तित्व का प्रमाण है। उनकी उपस्थिति प्रत्येक तपस्वी की तपस्या में भी अनुभव की जा सकती है।


श्लोक 10

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्॥

अर्थ:
"हे पार्थ, सभी प्राणियों का शाश्वत बीज मुझे जानो। मैं बुद्धिमान व्यक्तियों की बुद्धि और तेजस्वी लोगों का तेज हूँ।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे समस्त सृष्टि का मूल कारण हैं। बुद्धिमान व्यक्तियों में उनकी बुद्धि और तेजस्वी व्यक्तियों में उनका तेज विद्यमान है। वे सबके मूल स्रोत हैं।


श्लोक 11

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ॥

अर्थ:
"हे भरतर्षभ, मैं बलवानों का बल हूँ, जो कामना और आसक्ति से रहित है। मैं प्राणियों में धर्म के विरुद्ध न जाने वाली कामना हूँ।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि उनका स्वरूप पवित्र और धर्मसंगत है। वे उस शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं जो कामना और आसक्ति से मुक्त हो। वे धर्म के अनुकूल इच्छाओं और ऊर्जा के रूप में प्रकट होते हैं।


श्लोक 12

ये चैव सात्त्विका भावाः राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि॥

अर्थ:
"जो भी सात्त्विक (शुद्ध), राजसिक (सक्रिय) और तामसिक (निष्क्रिय) भाव हैं, वे सभी मुझसे उत्पन्न होते हैं। लेकिन मैं उनमें स्थित नहीं हूँ, वे मुझमें स्थित हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक सृष्टि के तीन गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) का वर्णन करता है। भगवान बताते हैं कि ये गुण उनसे उत्पन्न होते हैं, लेकिन वे स्वयं इनसे अछूते और निर्लिप्त हैं। उनकी स्थिति इन गुणों से परे है।


सारांश:

  1. भगवान हर चीज का सार और आत्मा हैं। वे जल के रस, अग्नि के तेज, और प्राणियों के जीवन के रूप में प्रकट होते हैं।
  2. वे हर प्राणी का मूल कारण (बीज) हैं और सभी गुणों के आधारभूत स्रोत हैं।
  3. भगवान धर्मसंगत इच्छाओं, बुद्धि, और बल का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  4. सृष्टि के तीनों गुण (सत्त्व, रजस, तमस) भगवान से उत्पन्न होते हैं, लेकिन भगवान स्वयं इनसे परे हैं।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...