भागवत गीता: अध्याय 6 (ध्यानयोग) ध्यानस्थ योगी के लक्षण (श्लोक 18-32) का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 18
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥
अर्थ:
"जब योगी का चित्त पूर्ण रूप से नियंत्रित होकर आत्मा में स्थिर हो जाता है और वह सभी कामनाओं से मुक्त हो जाता है, तब उसे योग में स्थिर कहा जाता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक योग की परिपूर्ण अवस्था को परिभाषित करता है। योगी जब आत्मा में स्थित होकर सभी इच्छाओं और सांसारिक आसक्तियों से मुक्त हो जाता है, तभी वह योग में स्थिर होता है।
श्लोक 19
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः॥
अर्थ:
"जैसे हवा रहित स्थान में दीपक की लौ स्थिर रहती है, उसी प्रकार योग में स्थित और अपने मन को संयमित करने वाले योगी का चित्त स्थिर रहता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक ध्यान की गहन अवस्था को समझाने के लिए दीपक की लौ का उदाहरण देता है। मन शांत और स्थिर होना चाहिए, जैसे हवा से रहित स्थान में दीपक की लौ।
श्लोक 20-21
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्वतः॥
अर्थ:
"जहाँ योगाभ्यास द्वारा चित्त शांत और नियंत्रित हो जाता है, और जहाँ योगी आत्मा में आत्मा का अनुभव कर आनंदित होता है, वहाँ वह परम सुख का अनुभव करता है, जो बुद्धि से समझने योग्य है और इंद्रियों से परे है। उस अवस्था में स्थित होकर वह सत्य से विचलित नहीं होता।"
व्याख्या:
यह श्लोक आत्म-साक्षात्कार और परमानंद की स्थिति का वर्णन करता है। इस अवस्था में योगी को आत्मा का साक्षात्कार होता है और वह स्थायी शांति और आनंद का अनुभव करता है।
श्लोक 22
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥
अर्थ:
"जिस स्थिति को प्राप्त करने के बाद योगी किसी अन्य लाभ को उससे श्रेष्ठ नहीं मानता, और जिसमें स्थित होकर वह महान दुःखों से भी विचलित नहीं होता, वही अवस्था परम है।"
व्याख्या:
यह श्लोक ध्यान योग की सर्वोच्च अवस्था का वर्णन करता है, जहाँ आत्म-साक्षात्कार के बाद सभी सांसारिक लाभ तुच्छ लगने लगते हैं।
श्लोक 23
तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥
अर्थ:
"जिसे दुःखों के संयोग से वियोग (छुटकारा) कहा जाता है, उसे योग जानो। इसे दृढ़ निश्चय और उत्साह के साथ अभ्यास करना चाहिए।"
व्याख्या:
योग का मुख्य उद्देश्य मन और आत्मा को शांत करना और दुःखों से छुटकारा पाना है। यह अभ्यास दृढ़ता और लगन से किया जाना चाहिए।
श्लोक 24
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥
अर्थ:
"सभी संकल्पों (इच्छाओं) को पूरी तरह से त्यागकर, मन और इंद्रियों को सभी दिशाओं से वश में करते हुए योग का अभ्यास करो।"
व्याख्या:
यह श्लोक योग के लिए आत्म-संयम और इच्छाओं के त्याग की अनिवार्यता को दर्शाता है। इंद्रिय-नियंत्रण के बिना योग संभव नहीं है।
श्लोक 25
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्॥
अर्थ:
"धीरे-धीरे, धैर्य और बुद्धि के सहारे मन को आत्मा में स्थिर करो और अन्य किसी भी विषय का चिंतन मत करो।"
व्याख्या:
यह श्लोक योग में ध्यान की प्रक्रिया को बताता है। मन को धैर्यपूर्वक आत्मा पर केंद्रित करना चाहिए और उसे भटकने नहीं देना चाहिए।
श्लोक 26
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥
अर्थ:
"जहाँ-जहाँ चंचल और अस्थिर मन भटकता है, वहाँ-वहाँ से उसे नियंत्रित करके आत्मा में लगाओ।"
व्याख्या:
योग का अभ्यास करते समय, मन चंचल हो सकता है। इस चंचलता को आत्मनियंत्रण से रोककर मन को आत्मा पर केंद्रित करना चाहिए।
श्लोक 27-28
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तराजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते॥
अर्थ:
"जिस योगी का मन शांत है, जिसने रजोगुण को शांत कर लिया है और जो पाप रहित है, वह परम शांति और आनंद को प्राप्त करता है। ऐसा योगी ब्रह्म को स्पर्श करता है और परमानंद का अनुभव करता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक ध्यान की पूर्णता को दर्शाता है, जिसमें योगी आत्मा और ब्रह्म के साक्षात्कार से परमानंद को अनुभव करता है।
श्लोक 29
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥
अर्थ:
"योग में स्थित व्यक्ति सभी प्राणियों में आत्मा को देखता है और आत्मा में सभी प्राणियों को देखता है। वह हर जगह समदर्शी होता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक आत्मा और ब्रह्म की एकता को दर्शाता है। योगी सभी में ईश्वर की समान उपस्थिति को देखता है और भेदभाव से मुक्त हो जाता है।
श्लोक 30
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
अर्थ:
"जो मुझे सभी जगह देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है, मैं उससे कभी अलग नहीं होता और वह मुझसे अलग नहीं होता।"
व्याख्या:
यह श्लोक योगी की भक्ति और ईश्वर के प्रति उसकी निकटता को दर्शाता है। योगी और भगवान के बीच एकता की अनुभूति होती है।
श्लोक 31
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥
अर्थ:
"जो व्यक्ति मुझे सभी प्राणियों में स्थित देखता है और एकता में स्थित होकर मेरी भक्ति करता है, वह हर स्थिति में योगी रहता है और मुझमें स्थित होता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि सच्चा योगी हर प्राणी में भगवान को देखता है और उसकी भक्ति करता है। वह हर स्थिति में ईश्वर से जुड़ा रहता है।
श्लोक 32
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥
अर्थ:
"हे अर्जुन, जो व्यक्ति सभी जगह आत्मा को समान देखता है और दूसरों के सुख-दुःख को अपने समान मानता है, वह परम योगी है।"
व्याख्या:
यह श्लोक समदृष्टि और करुणा के महत्व को बताता है। सच्चा योगी वही है जो दूसरों के अनुभवों को अपने अनुभवों के समान समझता है।
सारांश:
- योग का उद्देश्य आत्मा में स्थिर होकर सभी कामनाओं और चंचलता से मुक्त होना है।
- योगी सभी प्राणियों में आत्मा और परमात्मा को समान रूप से देखता है।
- ध्यान और आत्म-नियंत्रण से मन को स्थिर करना और ब्रह्म का साक्षात्कार करना योग की पूर्णता है।
- सच्चा योगी दूसरों के सुख-दुःख को अपने जैसा मानता है और समभाव में स्थित रहता है।