भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान के अवतार और उनके गुण (श्लोक 31-42) तक का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 31
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी।
अर्थ:
"मछलियों में मैं मकर हूँ और नदियों में मैं गंगा हूँ।"
व्याख्या:
भगवान अपनी महिमा को बताते हुए कहते हैं कि वे मछलियों में सबसे श्रेष्ठ मकर (मगरमच्छ) हैं, और पवित्र नदियों में गंगा का प्रतीक हैं। यह उनकी श्रेष्ठता और पवित्रता को दर्शाता है।
श्लोक 32
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्॥
अर्थ:
"सृष्टि के आरंभ, मध्य और अंत में मैं ही हूँ। विद्याओं में अध्यात्म विद्या (आत्मा का ज्ञान) हूँ और तर्क करने वालों में मैं तर्क शक्ति हूँ।"
व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे सृष्टि के हर चरण में उपस्थित हैं। वे आत्मा के ज्ञान (अध्यात्म) के रूप में विद्या के मूल और तर्क की शक्ति के रूप में वाणी के केंद्र हैं।
श्लोक 33
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः॥
अर्थ:
"अक्षरों में मैं 'अ' हूँ। समासों में मैं द्वंद्व समास हूँ। मैं अक्षय काल (शाश्वत समय) हूँ और सृष्टि का धारण करने वाला और उसका आधार हूँ।"
व्याख्या:
भगवान 'अ' को सभी ध्वनियों का आधार बताते हैं। समासों में द्वंद्व समास, जो दो शब्दों का जोड़ है, उनकी श्रेष्ठता दर्शाता है। वे शाश्वत समय और सृष्टि के आधार हैं।
श्लोक 34
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा॥
अर्थ:
"मैं मृत्यु हूँ, जो सब कुछ हर लेती है, और उत्पत्ति का कारण भी हूँ। स्त्रियों में मैं कीर्ति, श्री (समृद्धि), वाणी, स्मृति, मेधा (बुद्धि), धैर्य और क्षमा हूँ।"
व्याख्या:
भगवान जीवन और मृत्यु दोनों का आधार बताते हैं। वे स्त्रियों में श्रेष्ठ गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जैसे कि सौंदर्य, बुद्धि और सहनशीलता।
श्लोक 35
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥
अर्थ:
"सामवेद के मंत्रों में मैं बृहत्साम हूँ। छंदों में मैं गायत्री हूँ। महीनों में मैं मार्गशीर्ष (अगहन) हूँ और ऋतुओं में मैं वसंत ऋतु हूँ।"
व्याख्या:
भगवान अपने आप को वेदों, छंदों, समय और ऋतुओं के सर्वोत्तम रूपों से जोड़ते हैं। वसंत ऋतु आनंद और सौंदर्य का प्रतीक है।
श्लोक 36
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्॥
अर्थ:
"धोखा देने वालों में मैं जुआ हूँ। तेजस्वी व्यक्तियों का तेज, विजय, दृढ़ता और सतोगुण का आधार भी मैं ही हूँ।"
व्याख्या:
भगवान उन तत्वों का भी प्रतिनिधित्व करते हैं जो संसार में प्रभावशाली हैं, चाहे वे अच्छे हों या बुरे। वे सभी गुणों और कर्मों का स्रोत हैं।
श्लोक 37
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः॥
अर्थ:
"वृष्णि वंश में मैं वासुदेव (श्रीकृष्ण) हूँ। पाण्डवों में मैं अर्जुन हूँ। ऋषियों में मैं व्यास हूँ और कवियों में मैं शुक्राचार्य हूँ।"
व्याख्या:
भगवान अपने आप को अपने दिव्य अवतारों और श्रेष्ठतम व्यक्तियों, जैसे वासुदेव, अर्जुन, व्यास और शुक्राचार्य, के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
श्लोक 38
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्॥
अर्थ:
"सजा देने वालों में मैं दंड हूँ। विजय चाहने वालों में मैं नीति हूँ। रहस्यों में मैं मौन हूँ और ज्ञानी लोगों में मैं ज्ञान हूँ।"
व्याख्या:
भगवान अनुशासन, न्याय, रहस्य और ज्ञान के सर्वोच्च स्वरूप का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे शक्ति और बुद्धि का आधार हैं।
श्लोक 39
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥
अर्थ:
"हे अर्जुन, मैं सभी प्राणियों का बीज हूँ। ऐसा कुछ भी नहीं है जो मेरे बिना चल या अचल हो।"
व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे सृष्टि के हर जीवित और निर्जीव वस्तु का मूल हैं। वे ही सबका आधार और स्रोत हैं।
श्लोक 40
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया॥
अर्थ:
"हे परंतप, मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अंत नहीं है। मैंने यहाँ केवल संक्षेप में अपनी विभूतियों का वर्णन किया है।"
व्याख्या:
भगवान अपनी अनंत महिमा को स्वीकार करते हैं। यह श्लोक उनकी अनंतता और दिव्यता को दर्शाता है।
श्लोक 41
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्॥
अर्थ:
"जो भी विभूतिमान, समृद्ध और शक्तिशाली वस्तु या व्यक्ति है, उसे मेरे तेज के अंश से उत्पन्न मानो।"
व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि संसार में जो भी अद्वितीय और श्रेष्ठ है, वह उनकी महिमा का केवल एक अंश है।
श्लोक 42
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥
अर्थ:
"हे अर्जुन, इतनी बातों को जानने से क्या लाभ? यह सारा जगत मेरे एक छोटे से अंश से ही स्थापित है।"
व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि उनकी अनंत महिमा को समझना मनुष्य के लिए संभव नहीं है। यह सम्पूर्ण सृष्टि उनके छोटे से अंश से संचालित हो रही है।
सारांश (श्लोक 31-42):
- भगवान हर श्रेष्ठ और दिव्य वस्तु या गुण के रूप में प्रकट होते हैं।
- वे जीवन के हर क्षेत्र में, चाहे वह प्रकृति, धर्म, ज्ञान, या शक्ति हो, उपस्थित हैं।
- उनकी विभूतियाँ अनंत हैं और सारा जगत उनके एक छोटे से अंश से संचालित होता है।
- भगवान अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि वह उनकी दिव्यता को समझकर भक्ति में लीन हो जाए।
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