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शनिवार, 13 अप्रैल 2024

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) काम और क्रोध को नियंत्रित करने का उपाय (श्लोक 36-43)

 भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) काम और क्रोध को नियंत्रित करने का उपाय (श्लोक 36-43) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 36

अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥

अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: "हे वार्ष्णेय (कृष्ण), मनुष्य किसके द्वारा प्रेरित होकर अनिच्छा के बावजूद पाप करता है, जैसे कि उसे बलपूर्वक विवश किया गया हो?"

व्याख्या:
अर्जुन यह जानना चाहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति गलत कार्य करना नहीं चाहता, तो वह किस कारण से ऐसा करता है। यह श्लोक मानव स्वभाव और पाप की प्रकृति पर प्रश्न उठाता है।


श्लोक 37

श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥

अर्थ:
भगवान ने कहा: "यह काम (इच्छा) और क्रोध है, जो रजोगुण से उत्पन्न होता है। यह महाभोगी और महापापी है। इसे इस संसार में अपना शत्रु समझो।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण ने पाप का मूल कारण काम (इच्छा) और क्रोध को बताया। यह दोनों रजोगुण से उत्पन्न होते हैं और आत्मा को बंधन में डालते हैं।


श्लोक 38

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥

अर्थ:
"जैसे अग्नि धुएँ से, दर्पण मैल से, और भ्रूण गर्भाशय से ढका रहता है, वैसे ही कामना आत्मा को ढक लेती है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि कामना आत्मा के प्रकाश को ढक लेती है और व्यक्ति को उसके सच्चे स्वरूप का अनुभव करने से रोकती है।


श्लोक 39

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पुरेणानलेन च॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, यह काम रूपी शत्रु, जो कभी संतुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान है, ज्ञान को ढक लेता है।"

व्याख्या:
कामना को संतुष्ट करना कठिन है, और यह आत्मज्ञान को बाधित करती है। यह आत्मा के विकास के मार्ग में सबसे बड़ा शत्रु है।


श्लोक 40

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥

अर्थ:
"इंद्रियाँ, मन और बुद्धि इस कामना के निवास स्थान कहे जाते हैं। यह इनके माध्यम से आत्मा को भ्रमित करके ज्ञान को ढक देती है।"

व्याख्या:
कामना इंद्रियों, मन और बुद्धि के माध्यम से कार्य करती है और व्यक्ति को भौतिक वस्तुओं में आसक्त कर देती है।


श्लोक 41

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥

अर्थ:
"इसलिए, हे भरतश्रेष्ठ, पहले इंद्रियों को नियंत्रित करके इस पापमय कामना का नाश करो, जो ज्ञान और विज्ञान दोनों को नष्ट कर देती है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण इंद्रियों को नियंत्रित करने पर बल देते हैं। इंद्रिय-नियंत्रण से काम और क्रोध पर विजय पाई जा सकती है।


श्लोक 42

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥

अर्थ:
"इंद्रियों को श्रेष्ठ कहा गया है, लेकिन मन इंद्रियों से श्रेष्ठ है। बुद्धि मन से भी श्रेष्ठ है, और आत्मा बुद्धि से परे है।"

व्याख्या:
यह श्लोक आत्मा के पदानुक्रम को समझाता है। आत्मा सर्वोच्च है, और इसे पहचानने के लिए मन और बुद्धि को नियंत्रित करना आवश्यक है।


श्लोक 43

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥

अर्थ:
"इस प्रकार बुद्धि से परे आत्मा को जानकर, अपनी आत्मा के द्वारा अपने मन को स्थिर करो और इस कामना रूपी दुष्प्राप्य शत्रु को जीत लो, हे महाबाहु।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा की महत्ता समझाते हैं। कामना पर विजय पाने के लिए आत्मज्ञान और आत्म-नियंत्रण आवश्यक है।


सारांश:

  • अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में श्रीकृष्ण बताते हैं कि पाप का मूल कारण काम (इच्छा) और क्रोध है।
  • यह कामना इंद्रियों, मन और बुद्धि में निवास करती है और आत्मा के ज्ञान को ढक लेती है।
  • इंद्रिय-नियंत्रण, आत्मज्ञान, और आत्म-नियंत्रण से इस शत्रु पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
  • व्यक्ति को आत्मा को समझकर, उसके श्रेष्ठ स्थान को पहचानकर, कामना पर विजय पानी चाहिए।


शनिवार, 6 अप्रैल 2024

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) इन्द्रियों का संयम और स्वार्थरहित कर्म (श्लोक 25-35)

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) इन्द्रियों का संयम और स्वार्थरहित कर्म (श्लोक 25-35) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 25

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥

अर्थ:
"हे भारत, जैसे अज्ञानी लोग आसक्ति के साथ कर्म करते हैं, वैसे ही ज्ञानी लोग भी, परंतु बिना आसक्ति के, लोकसंग्रह (सामाजिक संतुलन) के लिए कर्म करते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि ज्ञानी व्यक्ति भी कर्म करते हैं, लेकिन उनका उद्देश्य समाज का कल्याण और प्रेरणा देना होता है, न कि व्यक्तिगत लाभ।


श्लोक 26

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्॥

अर्थ:
"ज्ञानी व्यक्ति को अज्ञानियों की बुद्धि का भ्रम नहीं करना चाहिए जो कर्म में आसक्त हैं। उसे स्वयं कर्म करते हुए उन्हें प्रेरित करना चाहिए।"

व्याख्या:
ज्ञानी को अज्ञानियों के कर्मों का तिरस्कार करने के बजाय, अपने आचरण से उन्हें सही मार्ग पर लाना चाहिए।


श्लोक 27

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥

अर्थ:
"प्रकृति के गुणों द्वारा सभी कर्म किए जाते हैं, लेकिन अहंकार से भ्रमित व्यक्ति सोचता है कि वह कर्ता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि सभी कर्म प्रकृति के गुणों (सत्व, रजस, तमस) से होते हैं। अहंकार से व्यक्ति यह मान लेता है कि वह स्वयं कर्ता है, जबकि वास्तविक कर्ता प्रकृति है।


श्लोक 28

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥

अर्थ:
"हे महाबाहु, तत्वज्ञानी व्यक्ति गुण और कर्म के भेद को समझते हैं और जानते हैं कि गुण (प्रकृति) गुणों में ही कार्य कर रहे हैं। इसलिए वह आसक्त नहीं होते।"

व्याख्या:
ज्ञानी व्यक्ति यह समझता है कि जो कुछ भी हो रहा है, वह प्रकृति के गुणों के आपसी संपर्क का परिणाम है। वह स्वयं को इनसे अलग मानता है।


श्लोक 29

प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥

अर्थ:
"जो लोग प्रकृति के गुणों से मोहित होते हैं, वे गुणों और कर्मों में आसक्त रहते हैं। ज्ञानी व्यक्ति को ऐसे अज्ञानी लोगों को विचलित नहीं करना चाहिए।"

व्याख्या:
ज्ञानी को अज्ञानी लोगों की आलोचना नहीं करनी चाहिए। उन्हें धीरे-धीरे सही मार्ग दिखाना चाहिए ताकि वे सत्य को समझ सकें।


श्लोक 30

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥

अर्थ:
"अपने सभी कर्म मुझमें अर्पित कर, अध्यात्मचेतना में स्थित होकर, निराश्रय और ममत्व रहित होकर, बिना किसी चिंता के युद्ध करो।"

व्याख्या:
यह श्लोक निष्काम कर्मयोग का मर्म समझाता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मों को ईश्वर को अर्पित कर बिना चिंता और आसक्ति के कार्य करने की शिक्षा देते हैं।


श्लोक 31

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः॥

अर्थ:
"जो मनुष्य मेरे इस मत का पालन श्रद्धा और बिना किसी ईर्ष्या के करते हैं, वे कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।"

व्याख्या:
जो लोग भगवान के उपदेशों को श्रद्धा से स्वीकारते हैं और उनका पालन करते हैं, वे सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।


श्लोक 32

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥

अर्थ:
"जो मेरे इस मत का पालन नहीं करते और इसका तिरस्कार करते हैं, उन्हें अज्ञान से अंधे और विनाश को प्राप्त समझो।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि जो लोग उनके उपदेशों की अवहेलना करते हैं, वे आत्मज्ञान से वंचित रहते हैं और जीवन के उद्देश्य को समझने में असमर्थ होते हैं।


श्लोक 33

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥

अर्थ:
"ज्ञानी व्यक्ति भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करता है। सभी प्राणी अपनी प्रकृति का अनुसरण करते हैं। इसे दबाने से क्या लाभ होगा?"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि व्यक्ति अपनी प्रकृति (स्वभाव) के अनुसार कार्य करता है। इसे नियंत्रित करने के बजाय, इसे सही दिशा में लगाना चाहिए।


श्लोक 34

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥

अर्थ:
"प्रत्येक इंद्रिय के विषय में राग (आसक्ति) और द्वेष (घृणा) होते हैं। मनुष्य को उनके वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे दोनों उसके मार्ग में बाधा डालते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक इंद्रिय-नियंत्रण की महत्ता को बताता है। राग और द्वेष को संतुलित करना आवश्यक है, क्योंकि ये आत्मिक उन्नति में बाधक होते हैं।


श्लोक 35

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥

अर्थ:
"अपना धर्म (कर्तव्य), चाहे वह दोषपूर्ण क्यों न हो, परधर्म (दूसरों का कर्तव्य) के पालन से श्रेष्ठ है। अपने धर्म में मरना भी श्रेष्ठ है, जबकि परधर्म भयावह होता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक स्वधर्म के पालन की महत्ता को बताता है। हर व्यक्ति को अपनी प्रकृति और स्वभाव के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। दूसरों के कार्यों की नकल करना विनाशकारी हो सकता है।


सारांश:

  • ज्ञानी व्यक्ति को लोकसंग्रह के लिए कर्म करना चाहिए और दूसरों को प्रेरित करना चाहिए।
  • राग-द्वेष और आसक्ति को त्यागकर कर्म करना आत्मज्ञान की ओर ले जाता है।
  • हर व्यक्ति को अपनी प्रकृति और कर्तव्य का पालन करना चाहिए, क्योंकि स्वधर्म का पालन ही कल्याणकारी है।

शनिवार, 30 मार्च 2024

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) आदर्श कर्मयोगी के लक्षण (श्लोक 17-24)

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) आदर्श कर्मयोगी के लक्षण (श्लोक 17-24) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 17

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति आत्मा में रत है, आत्मा से तृप्त है और आत्मा में ही संतुष्ट है, उसके लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि आत्म-साक्षात्कार प्राप्त व्यक्ति सभी बाहरी कर्तव्यों और कर्मों से ऊपर होता है। वह आत्मा के आनंद में लीन रहता है और बाहरी कर्म उसके लिए बाध्यता नहीं होते।


श्लोक 18

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥

अर्थ:
"उस व्यक्ति का न तो कर्म में कोई प्रयोजन होता है और न ही अकर्म में। वह किसी भी प्राणी पर निर्भर नहीं रहता।"

व्याख्या:
आत्मज्ञानी व्यक्ति स्वतंत्र होता है। वह किसी भी कर्म या उसके परिणाम से प्रभावित नहीं होता और किसी भी भौतिक या सामाजिक संरचना पर निर्भर नहीं रहता।


श्लोक 19

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः॥

अर्थ:
"इसलिए, आसक्ति रहित होकर सदा अपने कर्तव्य का पालन करो। क्योंकि आसक्ति रहित होकर कर्म करने से व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक निष्काम कर्मयोग का सार है। आसक्ति से मुक्त होकर किया गया कर्म मोक्ष की ओर ले जाता है।


श्लोक 20

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि॥

अर्थ:
"जनक जैसे महान व्यक्ति भी कर्म के द्वारा सिद्धि को प्राप्त हुए। इसलिए, लोकसंग्रह (जनहित) के लिए तुम्हें कर्म करना चाहिए।"

व्याख्या:
यह श्लोक कर्म की सामाजिक और नैतिक भूमिका को स्पष्ट करता है। यहां तक कि सिद्ध महापुरुष भी समाज का मार्गदर्शन करने के लिए कर्म करते हैं।


श्लोक 21

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥

अर्थ:
"श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करते हैं, अन्य लोग भी उसी का अनुकरण करते हैं। जो मानक वह स्थापित करते हैं, वही समाज के लोग अपनाते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक नेतृत्व और आदर्श की महत्ता को बताता है। श्रेष्ठ व्यक्तियों का आचरण समाज को प्रेरित करता है।


श्लोक 22

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥

अर्थ:
"हे पार्थ, तीनों लोकों में मेरे लिए कुछ भी करने योग्य नहीं है। फिर भी, मैं कर्म में लगा रहता हूँ।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि ईश्वर के लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं है, लेकिन वे लोककल्याण और सृष्टि के संचालन के लिए कर्म करते हैं। यह कर्मयोग का आदर्श रूप है।


श्लोक 23

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥

अर्थ:
"यदि मैं कर्म में तत्पर न रहूँ, तो हे पार्थ, सभी मनुष्य मेरे मार्ग का अनुसरण करेंगे।"

व्याख्या:
ईश्वर का कर्म में लगा रहना यह सिखाता है कि कर्म समाज और सृष्टि के लिए आवश्यक है। अगर ईश्वर कर्म न करें, तो मनुष्य अनुशासनहीन हो जाएंगे।


श्लोक 24

उत्सीदेयुरिमे लोकाः न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः॥

अर्थ:
"यदि मैं कर्म न करूं, तो ये लोक नष्ट हो जाएंगे। मैं वर्णसंकरता का कारण बनूंगा और प्रजा का विनाश करूंगा।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि कर्म का त्याग सृष्टि के संतुलन को भंग कर देगा। इसीलिए, हर व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।


सारांश:

  • आत्मसाक्षात्कार प्राप्त व्यक्ति कर्म में आसक्त नहीं होता, लेकिन वह लोकहित के लिए कर्म करता है।
  • श्रेष्ठ व्यक्तियों का आचरण समाज के लिए आदर्श बनता है।
  • श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि सभी को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, क्योंकि कर्म से ही सृष्टि का संतुलन बना रहता है।

शनिवार, 23 मार्च 2024

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) यज्ञ और कर्म का संबंध (श्लोक 10-16)

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) यज्ञ और कर्म का संबंध (श्लोक 10-16) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 10

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥

अर्थ:
"सृष्टि के प्रारंभ में प्रजापति ने यज्ञ के साथ प्रजा को उत्पन्न करके कहा, ‘इस यज्ञ के द्वारा तुम繁 (वृद्धि) को प्राप्त करोगे और यह यज्ञ तुम्हारी इच्छाओं को पूर्ण करेगा।'"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि यज्ञ (समर्पण और सेवा) सृष्टि का आधार है। यज्ञ के माध्यम से मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है और सृष्टि का संतुलन बनाए रख सकता है।


श्लोक 11

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥

अर्थ:
"इस यज्ञ के द्वारा तुम देवताओं को संतुष्ट करो और देवता तुम्हारी आवश्यकताओं को पूर्ण करेंगे। इस प्रकार परस्पर सहयोग से तुम परम कल्याण को प्राप्त करोगे।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहां यज्ञ के सिद्धांत को समझाते हैं। यज्ञ के माध्यम से मनुष्य और देवताओं का परस्पर सहयोग सृष्टि को सुचारु रूप से चलाता है। यह संतुलन और समृद्धि का प्रतीक है।


श्लोक 12

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः॥

अर्थ:
"देवता यज्ञ द्वारा संतुष्ट होकर तुम्हें इच्छित भोग प्रदान करेंगे। लेकिन जो उनके द्वारा दी गई वस्तुओं का उपयोग उन्हें अर्पण किए बिना करता है, वह चोर कहलाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक कर्म और उपभोग की नैतिकता को समझाता है। भोग को पहले यज्ञ (ईश्वर और समाज की सेवा) में अर्पित करना चाहिए। इसे न करना चौर्य कर्म के समान है।


श्लोक 13

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥

अर्थ:
"जो लोग यज्ञ के बाद बचा हुआ भोजन ग्रहण करते हैं, वे सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं। लेकिन जो केवल अपने लिए भोजन बनाते हैं, वे पाप का भोग करते हैं।"

व्याख्या:
यज्ञ (समर्पण) से प्राप्त आहार शुद्ध और पवित्र होता है। केवल स्वार्थ के लिए भोग करना अधर्म है और यह पाप का कारण बनता है।


श्लोक 14

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥

अर्थ:
"सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है, वर्षा यज्ञ से होती है, और यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक सृष्टि के चक्र को दर्शाता है। कर्म और यज्ञ सृष्टि के संचालन के लिए आवश्यक हैं।


श्लोक 15

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥

अर्थ:
"कर्म वेद से उत्पन्न होते हैं, और वेद अक्षर (परमात्मा) से उत्पन्न हुए हैं। इसलिए, सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञ में सदा स्थित है।"

व्याख्या:
यह श्लोक कर्म, यज्ञ, और ब्रह्म के बीच संबंध को दर्शाता है। सभी कर्म और यज्ञ ईश्वर की कृपा से संभव होते हैं।


श्लोक 16

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥

अर्थ:
"जो इस सृष्टि के चक्र का पालन नहीं करता और केवल इंद्रियों के सुख में लिप्त रहता है, वह पापमय जीवन जीता है और उसका जीवन व्यर्थ हो जाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि सृष्टि के नियमों और कर्तव्यों का पालन करना अनिवार्य है। केवल भौतिक सुखों में लिप्त रहना जीवन को व्यर्थ बना देता है।


सारांश:

  • यज्ञ (समर्पण और सेवा) सृष्टि के संतुलन और समृद्धि का आधार है।
  • यज्ञ के बिना भोग करना चोर की तरह है और पाप का कारण बनता है।
  • कर्म, यज्ञ, और ब्रह्म का परस्पर संबंध सृष्टि के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • सृष्टि के चक्र का पालन करना और इंद्रिय-आसक्ति से बचना आवश्यक है।

शनिवार, 16 मार्च 2024

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) कर्मयोग का परिचय और महत्व (श्लोक 1-9)

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) कर्मयोग का परिचय और महत्व (श्लोक 1-9) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 1

अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥

अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: "हे जनार्दन, यदि आपकी दृष्टि में बुद्धि (ज्ञान) कर्म से श्रेष्ठ है, तो फिर मुझे इस घोर कर्म (युद्ध) में क्यों लगाते हैं, हे केशव?"

व्याख्या:
अर्जुन को कर्म और ज्ञान के बीच भ्रम हो रहा है। वह श्रीकृष्ण से स्पष्ट करना चाहते हैं कि यदि ज्ञान श्रेष्ठ है, तो उन्हें कर्म क्यों करना चाहिए।


श्लोक 2

व्यमिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥

अर्थ:
"आपके मिश्रित वचनों ने मेरी बुद्धि को भ्रमित कर दिया है। कृपया एक निश्चित बात बताइए, जिससे मैं कल्याण प्राप्त कर सकूं।"

व्याख्या:
अर्जुन चाहते हैं कि श्रीकृष्ण उन्हें सीधा और स्पष्ट मार्गदर्शन दें, ताकि वे यह समझ सकें कि उनके लिए सबसे अच्छा क्या है।


श्लोक 3

श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥

अर्थ:
भगवान ने कहा: "हे निष्पाप, मैंने पहले भी बताया है कि इस संसार में दो प्रकार की निष्ठाएँ हैं। सांख्ययोगियों (ज्ञानी जनों) के लिए ज्ञानयोग और कर्मयोगियों के लिए कर्मयोग।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि दोनों मार्ग — ज्ञानयोग (आध्यात्मिक ज्ञान) और कर्मयोग (कर्तव्य पालन) — उचित हैं, और व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार उन्हें अपनाया जाता है।


श्लोक 4

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥

अर्थ:
"केवल कर्म का त्याग करने से कोई निष्कर्मता (कर्मबंधन से मुक्ति) प्राप्त नहीं करता। और न ही केवल संन्यास से सिद्धि प्राप्त होती है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि कर्म का त्याग किए बिना सिद्धि प्राप्त करना संभव नहीं है। केवल संन्यास धारण करना पर्याप्त नहीं है, कर्म करना भी आवश्यक है।


श्लोक 5

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥

अर्थ:
"कोई भी व्यक्ति एक क्षण के लिए भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता। क्योंकि प्रकृति के गुणों द्वारा उसे कर्म करने के लिए विवश किया जाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि कर्म स्वाभाविक है। यहाँ तक कि जो व्यक्ति निष्क्रिय रहने की कोशिश करता है, वह भी प्रकृति के गुणों से प्रेरित होकर किसी न किसी प्रकार का कर्म करता है।


श्लोक 6

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति अपने कर्मेंद्रियों को रोककर बैठा रहता है, लेकिन मन से विषयों का चिंतन करता है, वह मूर्ख और कपटी कहलाता है।"

व्याख्या:
केवल बाह्य रूप से कर्म का त्याग करना पर्याप्त नहीं है। यदि मन विषयों में रमता है, तो वह त्याग झूठा और कपटपूर्ण है।


श्लोक 7

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, जो व्यक्ति मन से इंद्रियों को नियंत्रित करके कर्मयोग के मार्ग पर कार्य करता है और आसक्त नहीं रहता, वही श्रेष्ठ है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि सच्चा योगी वही है जो कर्म करता है, लेकिन उसके प्रति आसक्त नहीं होता। यह निष्काम कर्मयोग का सिद्धांत है।


श्लोक 8

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥

अर्थ:
"तुम अपने नियत कर्म का पालन करो, क्योंकि कर्म अकर्म से श्रेष्ठ है। यहां तक कि तुम्हारी शरीर यात्रा भी कर्म के बिना संभव नहीं है।"

व्याख्या:
यह श्लोक कर्म करने की अनिवार्यता पर बल देता है। कर्म न केवल व्यक्तिगत जीवन के लिए आवश्यक है, बल्कि यह समाज और धर्म का भी आधार है।


श्लोक 9

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर॥

अर्थ:
"यज्ञ (ईश्वर के प्रति समर्पण) के लिए किए गए कर्म के अतिरिक्त अन्य सभी कर्म इस संसार में बंधन का कारण बनते हैं। इसलिए, हे कौन्तेय, आसक्ति से मुक्त होकर कर्तव्य का पालन करो।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण समझाते हैं कि कर्म तभी बंधनमुक्त होता है जब वह परमात्मा को समर्पित होकर किया जाए। निष्काम और निस्वार्थ कर्म ही मुक्ति का मार्ग है।


सारांश:

  • अर्जुन ने कर्म और ज्ञान के बीच स्पष्टता मांगी।
  • श्रीकृष्ण ने बताया कि ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों ही श्रेष्ठ हैं, लेकिन कर्म के बिना कोई भी सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता।
  • निष्काम कर्मयोग का पालन करते हुए, ईश्वर को समर्पित होकर कर्म करना ही सच्चा मार्ग है।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...