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शनिवार, 3 मई 2025

भागवत गीता: अध्याय 14 (गुणत्रय विभाग योग) गुणों से परे जाने का मार्ग (श्लोक 23-27)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 14 (गुणत्रय विभाग योग) के श्लोक 23 से श्लोक 27 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने "गुणातीत" (त्रिगुणों से ऊपर उठे हुए व्यक्ति) के लक्षण और भगवान की प्राप्ति के मार्ग का वर्णन किया है।


श्लोक 23

उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति उदासीन भाव से रहता है और गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) से विचलित नहीं होता, जो यह समझता है कि गुण ही अपने-आप कार्य कर रहे हैं, और वह स्थिर रहता है – ऐसा व्यक्ति त्रिगुणों से ऊपर है।"

व्याख्या:
त्रिगुणों से परे व्यक्ति गुणों के कार्यों को देखकर शांत और स्थिर रहता है। वह स्वयं को उनसे अलग मानता है और इन गुणों के प्रभाव से प्रभावित नहीं होता।


श्लोक 24

समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति सुख-दुःख में समान रहता है, स्थिर रहता है, मिट्टी, पत्थर और सोने को समान मानता है; जो प्रिय-अप्रिय, निंदा और प्रशंसा में समान भाव रखता है – ऐसा धीर (स्थिरचित्त) व्यक्ति गुणातीत कहलाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक दर्शाता है कि त्रिगुणों से परे व्यक्ति जीवन की सभी स्थितियों में समभाव रखता है। वह किसी भी भौतिक वस्तु, स्थिति या भावनात्मक प्रतिक्रियाओं से प्रभावित नहीं होता।


श्लोक 25

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते॥

अर्थ:
"जो मान-अपमान, मित्र-शत्रु दोनों में समान रहता है और सभी प्रकार के आरंभों (कर्मों) को त्याग देता है, वह गुणातीत कहलाता है।"

व्याख्या:
गुणातीत व्यक्ति का मन न तो मान-अपमान से विचलित होता है, न ही मित्र-शत्रु में भेद करता है। वह सभी कर्मों और आसक्तियों का त्याग करके शांति में स्थित रहता है।


श्लोक 26

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति अनन्य भक्ति के द्वारा मेरी सेवा करता है, वह इन तीनों गुणों को पार कर जाता है और ब्रह्मभाव (परमात्मा की स्थिति) को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि अनन्य भक्ति (अखंड भक्ति) ही त्रिगुणों से ऊपर उठने का सबसे श्रेष्ठ मार्ग है। ऐसा व्यक्ति ब्रह्मभाव को प्राप्त करता है, जो शाश्वत, अचल और अनंत है।


श्लोक 27

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥

अर्थ:
"क्योंकि मैं ही उस ब्रह्म का आधार हूँ, जो अमर, अविनाशी, शाश्वत धर्म और परम आनंद का स्रोत है।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि वे स्वयं ब्रह्म (परम तत्व) का आधार हैं। वे अमरता, शाश्वत धर्म और सर्वोच्च सुख के स्रोत हैं। जो व्यक्ति उन्हें भजता है, वह इस परम स्थिति को प्राप्त करता है।


सारांश (श्लोक 23-27):

  1. गुणातीत के लक्षण:

    • उदासीनता: गुणों के प्रभावों से अप्रभावित रहना।
    • समभाव: सुख-दुःख, मान-अपमान, प्रिय-अप्रिय, और मित्र-शत्रु में समान दृष्टि रखना।
    • त्याग: सभी आरंभों और आसक्तियों का त्याग करना।
  2. गुणों से पार होने का मार्ग:

    • भगवान की अनन्य भक्ति करना।
    • भक्ति से व्यक्ति गुणों के प्रभाव से ऊपर उठकर ब्रह्मभाव को प्राप्त करता है।
  3. परमात्मा का स्वरूप:

    • भगवान स्वयं ब्रह्म का आधार हैं।
    • वे अमरता, शाश्वत धर्म और पूर्ण सुख का स्रोत हैं।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि गुणों से ऊपर उठने का सर्वोत्तम उपाय अनन्य भक्ति है। ऐसा भक्त ब्रह्म (परम सत्य) को प्राप्त करता है और भगवान की दिव्यता में लीन हो जाता है।

शनिवार, 26 अप्रैल 2025

भागवत गीता: अध्याय 14 (गुणत्रय विभाग योग) गुणों के प्रभाव और उनका फल (श्लोक 14-22)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 14 (गुणत्रय विभाग योग) के श्लोक 14 से श्लोक 22 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने तीनों गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) के प्रभाव और उनसे ऊपर उठने के मार्ग का वर्णन किया है।


श्लोक 14

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते॥

अर्थ:
"जब सत्त्व गुण बढ़ा हुआ होता है और देहधारी मृत्यु को प्राप्त करता है, तो वह श्रेष्ठ लोकों में जाता है, जो पवित्र और ज्ञानियों के लोक हैं।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि सत्त्व गुण में मृत्यु होने पर व्यक्ति उच्चतर लोकों में जाता है, जहाँ शुद्धता, ज्ञान और शांति का वास होता है। यह शुभ कर्मों और आत्मज्ञान का परिणाम है।


श्लोक 15

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते॥

अर्थ:
"रजस गुण में मृत्यु होने पर, व्यक्ति कर्म के प्रति आसक्त प्राणियों के बीच जन्म लेता है। तमस गुण में मृत्यु होने पर, वह अज्ञानमय योनियों में जन्म लेता है।"

व्याख्या:

  • रजस गुण में मृत्यु होने पर व्यक्ति भौतिक कर्मों और इच्छाओं में लिप्त योनियों में जन्म लेता है।
  • तमस गुण में मृत्यु होने पर व्यक्ति अज्ञानपूर्ण और अधम योनियों (पशु आदि) में जन्म लेता है।

श्लोक 16

कर्मणः सुकृतस्याहु: सात्त्विकं निर्मलं फलम्।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्॥

अर्थ:
"सात्त्विक कर्म का फल शुद्ध (निर्मल) और सुखद होता है, रजस का फल दुःख होता है, और तमस का फल अज्ञान होता है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि हर गुण का फल अलग होता है:

  • सत्त्व गुण शांति और शुद्धता लाता है।
  • रजस गुण तनाव और अशांति देता है।
  • तमस गुण अज्ञान और आलस्य को बढ़ावा देता है।

श्लोक 17

सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च॥

अर्थ:
"सत्त्व से ज्ञान उत्पन्न होता है, रजस से लोभ, और तमस से प्रमाद (लापरवाही), मोह और अज्ञान उत्पन्न होते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक गुणों के प्रभाव को स्पष्ट करता है:

  • सत्त्व ज्ञान और विवेक को बढ़ाता है।
  • रजस भौतिक इच्छाओं और लोभ को उत्पन्न करता है।
  • तमस व्यक्ति को अज्ञान और भ्रम में डाल देता है।

श्लोक 18

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्थाः मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः॥

अर्थ:
"जो सत्त्व में स्थित हैं, वे ऊपर (उच्च लोकों) को जाते हैं। जो रजस में स्थित हैं, वे मध्य में रहते हैं। और जो तमस में स्थित हैं, वे निम्न लोकों (अधोगति) को जाते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि व्यक्ति के गुण उसकी गति (जीवन के बाद की अवस्था) को निर्धारित करते हैं:

  • सत्त्व गुण आत्मा को ऊर्ध्व (मोक्ष या उच्च लोकों) की ओर ले जाता है।
  • रजस गुण व्यक्ति को सांसारिक बंधनों में फँसाए रखता है।
  • तमस गुण अधोगति (निचली योनियाँ) को उत्पन्न करता है।

श्लोक 19

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति॥

अर्थ:
"जब व्यक्ति देखता है कि गुणों के सिवा अन्य कोई कर्ता नहीं है, और वह गुणों से परे मेरे स्वरूप को जानता है, तो वह मेरी स्थिति (मोक्ष) को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि गुण ही सभी कर्मों के मूल कारण हैं। जब व्यक्ति इसे समझता है और भगवान के शुद्ध स्वरूप को जानता है, तो वह गुणों से परे जाकर मोक्ष को प्राप्त करता है।


श्लोक 20

गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते॥

अर्थ:
"जो आत्मा इन तीन गुणों (सत्त्व, रजस और तमस) को पार कर लेता है, वह जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा और दुःख से मुक्त होकर अमृत (मोक्ष) को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि मोक्ष प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को त्रिगुणों से ऊपर उठना होगा। इन गुणों से मुक्त होने पर आत्मा जन्म और मृत्यु के चक्र से बाहर निकलकर शाश्वत आनंद (मोक्ष) प्राप्त करती है।


श्लोक 21

अर्जुन उवाच
कैर्लिङ्गैस्त्रींगुणानेतानतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रींगुणानतिवर्तते॥

अर्थ:
"अर्जुन ने पूछा: हे प्रभु, किन लक्षणों से यह जाना जा सकता है कि कोई त्रिगुणों को पार कर गया है? ऐसे व्यक्ति का आचरण कैसा होता है और वह इन गुणों को कैसे पार करता है?"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान से पूछते हैं कि जो व्यक्ति त्रिगुणों को पार कर चुका है, उसे कैसे पहचाना जाए, उसका जीवन कैसा होता है, और वह इन गुणों से ऊपर कैसे उठता है। यह आत्मा की प्रगति का मार्ग जानने की जिज्ञासा है।


श्लोक 22

श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति॥

अर्थ:
"श्रीभगवान ने कहा: हे पाण्डव, जो व्यक्ति सत्त्व के प्रकाश, रजस की क्रियाशीलता और तमस के मोह को प्राप्त होने पर घृणा नहीं करता और उनके दूर होने पर उन्हें चाहता भी नहीं, वह त्रिगुणों से ऊपर होता है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि गुणों से परे होने का लक्षण यह है कि व्यक्ति इन गुणों से प्रभावित नहीं होता। वह गुणों की उपस्थिति या अनुपस्थिति में समान रहता है।


सारांश (श्लोक 14-22):

  1. गुणों की मृत्यु के समय की गति:
    • सत्त्व गुण मृत्यु के बाद उच्च लोकों की प्राप्ति कराता है।
    • रजस गुण व्यक्ति को कर्मों में फँसाए रखता है।
    • तमस गुण व्यक्ति को अधोगति की ओर ले जाता है।
  2. गुणों का प्रभाव:
    • सत्त्व सुख और ज्ञान लाता है।
    • रजस कर्मों में उलझाता है।
    • तमस अज्ञान और प्रमाद बढ़ाता है।
  3. त्रिगुणों से मुक्ति:
    • गुणों को पार करके जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हुआ जा सकता है।
    • गुणों से ऊपर उठने वाला व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है।
  4. गुणातीत के लक्षण:
    • गुणों की उपस्थिति और अनुपस्थिति में समान भाव रखना।

शनिवार, 19 अप्रैल 2025

भागवत गीता: अध्याय 14 (गुणत्रय विभाग योग) गुणों का परिचय (श्लोक 1-13)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 14 (गुणत्रय विभाग योग) के श्लोक 1 से 13 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने सत्व, रजस और तमस – इन तीन गुणों (प्रकृति के त्रिगुणों) के प्रभाव और उनके पार जाने के उपायों का वर्णन किया है।


श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: मैं फिर से उस परम ज्ञान को बताऊँगा, जो सभी ज्ञानों में श्रेष्ठ है। इसे जानकर सभी ऋषि परम सिद्धि को प्राप्त हो गए।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को सर्वोच्च ज्ञान प्रदान करने की घोषणा करते हैं। यह ज्ञान प्रकृति और उसके गुणों का है, जिसे समझकर व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है।


श्लोक 2

इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च॥

अर्थ:
"इस ज्ञान को प्राप्त करके मेरे समान स्वरूप को प्राप्त करने वाले साधक न तो सृष्टि के समय जन्म लेते हैं और न प्रलय के समय कष्ट पाते हैं।"

व्याख्या:
जो लोग प्रकृति और त्रिगुणों को समझ लेते हैं, वे जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाते हैं और भगवान की दिव्यता को प्राप्त करते हैं।


श्लोक 3

मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत॥

अर्थ:
"मेरा महान ब्रह्म (प्रकृति) वह गर्भ है, जिसमें मैं बीज स्थापित करता हूँ, और उससे सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि उनकी प्रकृति सृष्टि की आधारभूत शक्ति है, और वह स्वयं इसमें जीवन का बीज स्थापित करते हैं।


श्लोक 4

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, सभी योनियों (जीवों) में जो-जो रूप उत्पन्न होते हैं, उनके लिए प्रकृति माता है और मैं बीज देने वाला पिता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ सृष्टि के माता-पिता (प्रकृति और परमात्मा) के संबंध को स्पष्ट करते हैं। सभी जीव भगवान की कृपा और प्रकृति से उत्पन्न होते हैं।


श्लोक 5

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्॥

अर्थ:
"सत्त्व, रजस और तमस – ये तीन गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं और अविनाशी आत्मा को शरीर में बाँधते हैं।"

व्याख्या:
तीनों गुण (सत्व – पवित्रता, रजस – क्रिया, और तमस – अज्ञान) आत्मा को शरीर और संसार से जोड़ते हैं।


श्लोक 6

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ॥

अर्थ:
"सत्त्व गुण पवित्र और प्रकाशमान होने के कारण सुख और ज्ञान के साथ आत्मा को बाँधता है।"

व्याख्या:
सत्त्व गुण आत्मा को सुख और ज्ञान से जोड़े रखता है, लेकिन यह भी मुक्ति में बाधा बन सकता है, क्योंकि यह बंधन पैदा करता है।


श्लोक 7

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्॥

अर्थ:
"रजस गुण राग (आसक्ति) से युक्त है और तृष्णा और कर्मों की लालसा को उत्पन्न करता है। यह आत्मा को कर्मों के बंधन में बाँधता है।"

व्याख्या:
रजस गुण व्यक्ति में भौतिक इच्छाएँ और कर्म करने की प्रवृत्ति उत्पन्न करता है। यह गुण भौतिक जीवन में उलझाव बढ़ाता है।


श्लोक 8

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत॥

अर्थ:
"तमस गुण अज्ञान से उत्पन्न होता है और सभी प्राणियों को मोह में डाल देता है। यह प्रमाद (लापरवाही), आलस्य और निद्रा के साथ आत्मा को बाँधता है।"

व्याख्या:
तमस गुण अज्ञान, आलस्य और लापरवाही का कारण बनता है। यह आत्मा को अंधकार में बाँधता है और आध्यात्मिक प्रगति में बाधा डालता है।


श्लोक 9

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत॥

अर्थ:
"सत्त्व गुण सुख से जोड़ता है, रजस गुण कर्म में लगाता है, और तमस ज्ञान को ढँककर प्रमाद (लापरवाही) से जोड़ता है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि तीनों गुण अलग-अलग प्रकार के बंधन उत्पन्न करते हैं: सत्त्व सुख का बंधन, रजस कर्मों का बंधन, और तमस अज्ञान और आलस्य का बंधन।


श्लोक 10

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा॥

अर्थ:
"हे भारत, कभी-कभी सत्त्व रजस और तमस को दबाकर प्रबल हो जाता है। इसी प्रकार, रजस सत्त्व और तमस को दबा सकता है, और तमस सत्त्व और रजस को दबा सकता है।"

व्याख्या:
तीनों गुण समय और परिस्थितियों के अनुसार एक-दूसरे पर प्रभाव डालते हैं। कभी एक गुण प्रबल हो जाता है, तो कभी दूसरा।


श्लोक 11

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत॥

अर्थ:
"जब इस शरीर के सभी द्वारों (इंद्रियों) में प्रकाश (ज्ञान) उत्पन्न होता है, तब समझना चाहिए कि सत्त्व गुण बढ़ गया है।"

व्याख्या:
सत्त्व गुण की वृद्धि से व्यक्ति में शुद्धता, शांति और ज्ञान का उदय होता है। उसकी इंद्रियाँ और मन निर्मल हो जाते हैं।


श्लोक 12

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ॥

अर्थ:
"हे भरतश्रेष्ठ, जब रजस गुण बढ़ता है, तो लोभ, क्रियाशीलता, कर्मों का आरंभ, अशांति और तृष्णा उत्पन्न होती है।"

व्याख्या:
रजस गुण की वृद्धि से व्यक्ति में भौतिक इच्छाएँ, असंतोष और निरंतर गतिविधियाँ बढ़ जाती हैं। वह शांत नहीं रह पाता।


श्लोक 13

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन॥

अर्थ:
"हे कुरुनंदन, जब तमस गुण बढ़ता है, तब अंधकार, निष्क्रियता, प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं।"

व्याख्या:
तमस गुण की वृद्धि से व्यक्ति अज्ञान, आलस्य और भ्रम में डूब जाता है। उसकी आध्यात्मिक और भौतिक प्रगति रुक जाती है।


सारांश (श्लोक 1-13):

  1. तीन गुणों का परिचय:
    • सत्त्व: शुद्धता और ज्ञान से जोड़ता है।
    • रजस: कर्म और इच्छाओं को बढ़ाता है।
    • तमस: अज्ञान, आलस्य और मोह का कारण बनता है।
  2. गुणों का प्रभाव:
    • सत्त्व सुख और शांति देता है।
    • रजस कर्मों में सक्रिय करता है लेकिन अशांति लाता है।
    • तमस आलस्य, प्रमाद और अज्ञान बढ़ाता है।
  3. गुणों का पारस्परिक प्रभाव:
    • गुण एक-दूसरे को प्रभावित और नियंत्रित करते हैं।
  4. मुक्ति का मार्ग:
    • इन गुणों को समझकर, और उनके प्रभावों से ऊपर उठकर, व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...