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शनिवार, 28 नवंबर 2020

श्री कृष्ण और सुदामा की कहानी

 श्री कृष्ण और सुदामा की कहानी 

भगवान श्री कृष्ण की एक बहुत ही प्रसिद्ध और प्रेरणादायक कथा है, जो उनके अनंत प्रेम, त्याग और मित्रता के गुणों को दर्शाती है। यह कहानी हमें यह सिखाती है कि सच्चे मित्र की दोस्ती बिना किसी अपेक्षा के होती है, और भगवान अपने भक्तों की भक्ति और सच्चे प्रेम के बदले उन्हें कभी निराश नहीं करते।


श्री कृष्ण और सुदामा की कहानी का सारांश:

1. सुदामा का प्रारंभिक जीवन:

  • सुदामा का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था, और वे बहुत ही गरीब थे। उनकी पत्नी भी गरीब थी, लेकिन फिर भी दोनों ने हमेशा संतुष्ट और संतुष्ट रहने की कोशिश की।
  • सुदामा का जीवन अत्यंत साधारण था, लेकिन वे अपने ईश्वर, श्री कृष्ण के प्रति असीम श्रद्धा रखते थे। वे भगवान श्री कृष्ण के परम भक्त थे।
  • सुदामा की एक बहुत पुरानी मित्रता श्री कृष्ण के साथ थी, जो उनकी बाल्यकाल की यादों से जुड़ी हुई थी। जब वे दोनों गोकुल में छोटे थे, तो साथ में खेलते थे, और श्री कृष्ण ने सुदामा से वचन लिया था कि वे जब भी उन्हें बुलाएँगे, तो वे उनकी सहायता के लिए आएंगे।

2. श्री कृष्ण का उद्धारक रूप:

  • एक दिन, सुदामा की पत्नी ने उन्हें भगवान श्री कृष्ण के पास जाने और उनसे मदद लेने के लिए कहा। क्योंकि वे गरीबी के कारण भिक्षाटन करने में भी असमर्थ थे।
  • सुदामा की पत्नी ने उनसे कहा कि भगवान श्री कृष्ण का दर्शन प्राप्त करने से उनका जीवन सफल हो जाएगा और वे श्री कृष्ण से कुछ भोजन या धन प्राप्त करके वापस आएंगे।
  • सुदामा पहले तो संकोच करते हैं, लेकिन अंत में पत्नी के आग्रह पर वे श्री कृष्ण के पास जाने का निर्णय लेते हैं।
  • सुदामा के पास यात्रा के लिए केवल कुछ मुट्ठी चिउड़े थे, जिन्हें वह श्री कृष्ण को भेंट देने के लिए ले जाते हैं।

3. द्वारका पहुंचना:

  • सुदामा अपने कठिन रास्ते पर चलते हुए द्वारका पहुंचे, जहाँ भगवान श्री कृष्ण रहते थे।
  • द्वारका में प्रवेश करते समय, सुदामा बहुत गरीब और साधारण कपड़े पहने हुए थे, जिससे वह भव्य महलों में अपने आप को असामान्य महसूस करते थे।
  • जब वे श्री कृष्ण के महल पहुंचे, तो द्वारपालों ने उनका तिरस्कार किया और उन्हें अंदर नहीं जाने दिया, लेकिन सुदामा के नाम का उल्लेख होते ही भगवान श्री कृष्ण स्वयं महल से बाहर आए।
  • श्री कृष्ण ने सुदामा का स्वागत किया और उन्हें गले से लगा लिया। उन्होंने सुदामा के पैरों को धोकर उन्हें धोकर अपने महल में आमंत्रित किया।

4. सुदामा की भिक्षाटन की दीन-हीन अवस्था:

  • भगवान श्री कृष्ण ने सुदामा से पूछा कि वे कहाँ से आए हैं और क्यों आए हैं।
  • सुदामा ने उन्हें बताया कि वे बहुत गरीब हैं और भगवान श्री कृष्ण के पास आने के लिए वे अपने जीवन की कठिनाइयों को पार करते हुए आए हैं।
  • श्री कृष्ण ने देखा कि सुदामा के पास भगवान को भेंट देने के लिए केवल कुछ मुट्ठी चिउड़े थे। उन्होंने वह चिउड़े ले लिए और वे उन्हें भगवान श्री कृष्ण के भोजन में मिला दिया।

5. श्री कृष्ण का वरदान:

  • भगवान श्री कृष्ण ने सुदामा की सच्ची भक्ति और प्रेम को समझा। उन्होंने तुरंत अपनी कृपा से सुदामा को धन्य बना दिया।
  • श्री कृष्ण ने सुदामा से कहा कि वे उनके पुराने मित्र हैं और इसलिए उनकी सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। उन्होंने सुदामा को ऐश्वर्य, धन और सुख-समृद्धि से परिपूर्ण किया।
  • सुदामा को बहुत सारे रत्न, आभूषण, धन और सुख-समृद्धि से भरपूर घर मिला।

6. सुदामा का वापस लौटना:

  • सुदामा जब द्वारका से लौटे, तो उन्होंने देखा कि उनका घर और जीवन पूरी तरह बदल चुका था। उनका घर अब रत्नों और सोने से भरा हुआ था।
  • वह बहुत प्रसन्न और आभारी हो गए, और भगवान श्री कृष्ण की स्तुति करते हुए धन्यवाद अर्पित किया।

कहानी से शिक्षा:

  1. सच्ची मित्रता:
    श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता बिना किसी स्वार्थ के थी। यह दर्शाता है कि सच्चे मित्र कभी एक-दूसरे से कुछ नहीं चाहते, बल्कि एक-दूसरे के सुख-दुःख में सहभागी होते हैं।

  2. भगवान की कृपा:
    श्री कृष्ण ने सुदामा की भक्ति, श्रद्धा और प्रेम को स्वीकार किया और उन्हें अपनी अनंत कृपा से धन्य बना दिया। इससे यह संदेश मिलता है कि भगवान अपने सच्चे भक्तों का कभी तिरस्कार नहीं करते और उनकी भक्ति के बदले उन्हें आशीर्वाद देते हैं।

  3. धन और भक्ति का संबंध:
    यह कहानी यह भी सिखाती है कि भक्ति और विश्वास के सामने धन का कोई मूल्य नहीं होता। सुदामा गरीब थे, लेकिन भगवान श्री कृष्ण ने उनके भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें अपार धन और सुख दिया।


श्री कृष्ण और सुदामा की यह कहानी यह दर्शाती है कि भगवान अपने भक्तों के प्रति न केवल अपने प्रेम और समर्थन का प्रदर्शन करते हैं, बल्कि उनकी भक्ति का प्रतिफल भी उन्हें देते हैं।

शनिवार, 21 नवंबर 2020

यदुवंश का अंत भगवान श्रीकृष्ण के जीवन का एक महत्वपूर्ण और गंभीर प्रसंग

 यदुवंश का अंत भगवान श्रीकृष्ण के जीवन का एक महत्वपूर्ण और गंभीर प्रसंग है। यह घटना हमें यह समझाने का प्रयास करती है कि संसार में कोई भी शक्तिशाली वंश या व्यक्ति, चाहे वह कितना ही महान क्यों न हो, जब अहंकार और अधर्म के मार्ग पर चलता है, तो उसका पतन निश्चित है। यदुवंश का विनाश ईश्वर की लीला और प्रकृति के चक्र का हिस्सा था।


1. गांधारी का शाप

  • महाभारत के युद्ध के बाद जब दुर्योधन की मृत्यु हुई, तो उसकी माता गांधारी ने श्रीकृष्ण को श्राप दिया।
  • गांधारी ने कहा कि यदि श्रीकृष्ण चाहते, तो युद्ध को रोका जा सकता था।
  • उन्होंने शाप दिया कि जैसे कौरव वंश नष्ट हुआ, वैसे ही यदुवंश भी आपसी संघर्ष से नष्ट हो जाएगा।
  • श्रीकृष्ण ने गांधारी के शाप को सहर्ष स्वीकार किया और इसे धर्मचक्र का हिस्सा बताया।

2. यदुवंशियों का अहंकार और पतन

  • महाभारत के युद्ध के बाद यदुवंशियों में शक्ति और संपत्ति के कारण घमंड बढ़ गया।
  • उनके अंदर विनम्रता और धर्म का अभाव हो गया।
  • यदुवंशियों के बीच आपसी झगड़े और असहमति बढ़ने लगी।

3. ऋषियों का शाप

  • एक बार यदुवंश के कुछ युवकों ने महर्षि दुर्वासा, वशिष्ठ, और नारद जैसे ऋषियों के साथ मजाक किया।
  • उन्होंने एक युवक को महिला के रूप में सजाकर ऋषियों से पूछा कि उनके गर्भ से कौन जन्म लेगा।
  • ऋषियों ने क्रोधित होकर शाप दिया कि यह गर्भ (जो वास्तव में एक मूसल में बदल गया) यदुवंश का विनाश करेगा।
  • यदुवंशी इस शाप को हल्के में ले गए और मूसल को पीसकर समुद्र में फेंक दिया।

4. प्रभास क्षेत्र में वंश का नाश

  • समुद्र में फेंका गया मूसल पीसकर तिनकों में बदल गया, और उन तिनकों ने एक दिन यदुवंश के विनाश में प्रमुख भूमिका निभाई।
  • एक दिन यदुवंशी प्रभास क्षेत्र में उत्सव मना रहे थे।
  • शराब के नशे में उनके बीच विवाद शुरू हो गया।
  • आपसी झगड़ा इतना बढ़ गया कि उन्होंने एक-दूसरे को पीट-पीटकर मार डाला।
  • मूसल के तिनके हथियार बन गए, और उन्होंने उसी से एक-दूसरे को नष्ट कर दिया।

5. बलराम का समाधि ग्रहण

  • यदुवंश के विनाश के बाद भगवान बलराम ने अपना शरीर त्याग दिया।
  • वे समुद्र के किनारे ध्यानमग्न होकर अपनी आत्मा को त्यागकर सर्प (शेषनाग) के रूप में अपने दिव्य लोक चले गए।

6. श्रीकृष्ण का देह त्याग

  • यदुवंश का विनाश होने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने प्रभास क्षेत्र में एक वृक्ष के नीचे योगमुद्रा में ध्यानमग्न होकर अपने जीवन का समापन किया।
  • जरा नामक शिकारी ने उनकी एड़ी में तीर मारा, और श्रीकृष्ण ने देह त्याग कर वैकुंठ लौट गए।

7. यदुवंश के पतन का आध्यात्मिक संदेश

  • अहंकार का विनाश: यदुवंशियों के अंत का मुख्य कारण उनका अहंकार और धर्म से विचलन था।
  • प्रकृति का चक्र: हर वंश और शक्ति का उत्थान और पतन निश्चित है।
  • संयम और विनम्रता: शक्ति और समृद्धि के साथ विनम्रता और धर्म का पालन आवश्यक है।
  • ईश्वर की योजना: यह घटना यह दर्शाती है कि हर कार्य ईश्वर की योजना का हिस्सा है।

8. नए युग की शुरुआत

  • यदुवंश के अंत के साथ द्वापर युग का समापन हुआ।
  • इसके बाद कलियुग का आरंभ हुआ, जो धर्म और अधर्म के बीच संतुलन बनाए रखने का युग है।

निष्कर्ष

यदुवंश का अंत एक शिक्षाप्रद घटना है, जो बताती है कि शक्ति, संपत्ति, और अहंकार से विनाश निश्चित है। यह घटना श्रीकृष्ण की लीला का हिस्सा थी, जो मानव जीवन को धर्म, संयम, और विनम्रता का महत्व सिखाती है। यदुवंश का विनाश यह भी दर्शाता है कि सृष्टि में हर घटना ईश्वर के नियोजन का हिस्सा है।

शनिवार, 14 नवंबर 2020

श्रीकृष्ण का मोक्ष और देह त्याग

 श्रीकृष्ण का मोक्ष और देह त्याग एक महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक प्रसंग है। उनके जीवन की अंतिम घटना भी उनके जीवन का सार प्रस्तुत करती है, जिसमें धर्म, सत्य, और कर्म के प्रति उनकी निष्ठा परिलक्षित होती है।


1. यदुवंश का अंत

  • महाभारत युद्ध के बाद श्रीकृष्ण ने यदुवंश को उजड़ते हुए देखा।
  • गांधारी के शाप और यदुवंश के बढ़ते अहंकार के कारण आपसी कलह ने वंश का विनाश कर दिया।
  • श्रीकृष्ण ने इसे प्रकृति का नियम मानते हुए स्वीकार किया और इसे धर्मचक्र का हिस्सा बताया।

2. प्रभास क्षेत्र में निवास

  • यदुवंश के विनाश के बाद श्रीकृष्ण ने अपने अंतिम दिन प्रभास क्षेत्र (वर्तमान गुजरात) में बिताने का निर्णय लिया।
  • उन्होंने सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर योगनिद्रा में प्रवेश किया।

3. जरा नामक शिकारी का प्रसंग

  • जब श्रीकृष्ण एक वृक्ष के नीचे योगमुद्रा में ध्यानमग्न थे, तब जरा नामक शिकारी ने उनकी बाईं एड़ी पर तीर चलाया।
  • जरा ने उन्हें हिरण समझकर तीर मारा था।
  • तीर उनके शरीर के उसी स्थान पर लगा जहां उन्हें महाभारत के युद्ध के समय गांधारी के शाप के कारण एक कमजोर बिंदु के रूप में चिह्नित किया गया था।

4. जरा का पश्चाताप और क्षमा

  • जरा ने अपने अपराध का एहसास होते ही भगवान श्रीकृष्ण से क्षमा मांगी।
  • श्रीकृष्ण ने उसे तुरंत क्षमा कर दिया और कहा कि यह घटना उनके पृथ्वी पर अवतार समाप्त करने का साधन थी।
  • उन्होंने उसे बताया कि यह ईश्वर की योजना का हिस्सा था।

5. देह त्याग

  • श्रीकृष्ण ने योगमुद्रा में ध्यान करते हुए अपनी लीला समाप्त की।
  • उन्होंने अपनी आत्मा को अपने वास्तविक स्वरूप, अर्थात् विष्णु के रूप में लौटा लिया।
  • उनके शरीर को देह मानने वाले लोग इसे अंत समझ सकते हैं, लेकिन यह उनके दिव्य स्वरूप की लीला का समापन था।

6. मोक्ष का संदेश

श्रीकृष्ण का देह त्याग इस बात का प्रतीक है कि:

  1. आत्मा अमर है: देह नश्वर है, लेकिन आत्मा शाश्वत है।
  2. कर्म और धर्म का पालन: अपने जीवन में कर्म और धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है।
  3. संसार के बंधनों से मुक्ति: सांसारिक कर्तव्यों को पूर्ण कर मनुष्य ईश्वर में विलीन हो सकता है।
  4. निष्काम जीवन: श्रीकृष्ण ने स्वयं को कभी भी सांसारिक मोह या अहंकार से नहीं जोड़ा।

7. पृथ्वी से विष्णु रूप में वापसी

  • श्रीकृष्ण ने पृथ्वी पर विष्णु के आठवें अवतार के रूप में अपने कर्तव्यों को पूर्ण किया।
  • उन्होंने अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना की, और फिर अपने लोक (वैकुंठ) में लौट गए।

8. श्रीकृष्ण की शिक्षाएँ उनके मोक्ष में भी परिलक्षित होती हैं

  • क्षमा और करुणा: उन्होंने शिकारी जरा को तुरंत क्षमा कर दिया।
  • संतुलन: उन्होंने अपने जीवन का हर कार्य संतुलन और धर्म के अनुरूप किया।
  • अहंकार का त्याग: उन्होंने अपने जीवन और मृत्यु को भी ईश्वर की योजना के अनुसार स्वीकार किया।

निष्कर्ष

श्रीकृष्ण का मोक्ष और देह त्याग यह सिखाता है कि जीवन का उद्देश्य धर्म का पालन, सत्य की रक्षा, और सांसारिक मोह से मुक्त होकर आत्मा की पूर्णता प्राप्त करना है। उनका जीवन और मृत्यु दोनों ही मानव जाति के लिए प्रेरणा और मार्गदर्शन हैं।

शनिवार, 7 नवंबर 2020

भगवान श्रीकृष्ण की शिक्षाएँ

 भगवान श्रीकृष्ण की शिक्षाएँ मानव जीवन को दिशा देने वाली और जीवन के सभी पहलुओं को स्पर्श करने वाली हैं। उनके उपदेशों का सार भगवद्गीता, महाभारत, और उनकी विभिन्न लीलाओं में मिलता है। ये शिक्षाएँ न केवल आध्यात्मिक, बल्कि सांसारिक जीवन के लिए भी प्रासंगिक हैं।


1. कर्म का सिद्धांत

"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"

  • श्रीकृष्ण ने सिखाया कि मनुष्य को केवल अपने कर्म करने का अधिकार है, लेकिन कर्म के फल की चिंता नहीं करनी चाहिए।
  • जीवन में लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करें और फल के बारे में चिंता छोड़ दें।

2. धर्म और अधर्म का ज्ञान

  • धर्म का पालन करना जीवन का मूल कर्तव्य है।
  • अधर्म के रास्ते पर चलने वाले का अंत निश्चित है, चाहे वह कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो।
  • धर्म की रक्षा के लिए कर्म करना आवश्यक है, जैसा कि उन्होंने अर्जुन को युद्ध में प्रेरित किया।

3. आत्मा का अमरत्व

"न जायते म्रियते वा कदाचित्।"

  • आत्मा न जन्म लेती है और न मरती है। यह अमर और अविनाशी है।
  • मृत्यु केवल शरीर का अंत है, आत्मा का नहीं।
  • यह शिक्षा भय, शोक और मोह से मुक्ति का मार्ग दिखाती है।

4. समत्व का संदेश

"योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय।"

  • जीवन में सफलता और असफलता, सुख और दुःख में समान भाव रखना चाहिए।
  • समत्व योग का अभ्यास करना ही सच्चा धर्म है।

5. भक्ति और शरणागति

"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।"

  • भगवान की शरण में जाने से सभी पापों का नाश होता है।
  • भक्ति योग से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।
  • भक्ति में प्रेम, समर्पण और विश्वास का होना आवश्यक है।

6. स्वधर्म का पालन

"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।"

  • प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वधर्म (स्वयं के कर्तव्यों) का पालन करना चाहिए, चाहे वह कठिन ही क्यों न हो।
  • दूसरों के धर्म का अनुकरण करना हानिकारक हो सकता है।

7. अहंकार का त्याग

  • अहंकार विनाश का कारण है।
  • श्रीकृष्ण ने सिखाया कि विनम्रता, क्षमा और दूसरों के प्रति करुणा का भाव ही सच्चा गुण है।
  • अपने अहंकार को त्यागकर ईश्वर की महिमा को स्वीकार करना चाहिए।

8. संगति का महत्व

  • संगति का प्रभाव व्यक्ति के जीवन पर पड़ता है।
  • सज्जनों की संगति (सत्संग) से जीवन में सकारात्मकता और उन्नति आती है।

9. योग का महत्व

"योगः कर्मसु कौशलम्।"

  • श्रीकृष्ण ने कर्मयोग, ज्ञानयोग, और भक्तियोग का संदेश दिया।
  • उन्होंने बताया कि योग का अर्थ केवल ध्यान नहीं, बल्कि जीवन में कर्म करते हुए ध्यानस्थ रहना है।

10. मोह और आसक्ति से मुक्ति

  • मोह और आसक्ति मनुष्य के ज्ञान को ढक देती है।
  • जीवन में निर्लिप्त भाव से कर्म करने की शिक्षा दी।
  • जैसे कमल का फूल जल में रहकर भी उससे अलग रहता है, वैसे ही मनुष्य को सांसारिक कार्यों में निर्लिप्त रहना चाहिए।

11. परिवार और समाज के प्रति जिम्मेदारी

  • श्रीकृष्ण ने सिखाया कि अपने परिवार और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना महत्वपूर्ण है।
  • व्यक्ति को अपने हित से पहले समाज और धर्म का हित देखना चाहिए।

12. सत्य और न्याय की स्थापना

  • सत्य और न्याय की विजय अनिवार्य है।
  • अधर्म, अन्याय, और अहंकार का अंत निश्चित है।
  • धर्मयुद्ध (धर्म के लिए युद्ध) में भाग लेना कर्तव्य है।

13. सर्व धर्म समभाव

  • सभी धर्म समान हैं, और सबमें एक ही ईश्वर का निवास है।
  • किसी भी व्यक्ति के प्रति भेदभाव नहीं करना चाहिए।

14. प्रकृति और सृष्टि का सम्मान

  • श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पूजा के माध्यम से यह सिखाया कि प्रकृति का सम्मान करना चाहिए।
  • मनुष्य और प्रकृति का संतुलन जीवन के लिए आवश्यक है।

15. आध्यात्मिक स्वतंत्रता

  • व्यक्ति अपने कर्म, भक्ति और ज्ञान के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।
  • किसी भी धर्म या परंपरा से बंधे बिना आत्मा की मुक्ति संभव है।

निष्कर्ष

श्रीकृष्ण की शिक्षाएँ आज भी मानव जीवन को सही दिशा दिखाने वाली हैं। उन्होंने धर्म, भक्ति, और कर्म का ऐसा मार्ग प्रस्तुत किया, जो न केवल मोक्ष प्राप्ति का साधन है, बल्कि जीवन की सभी समस्याओं का समाधान भी। उनकी शिक्षाएँ हर व्यक्ति के जीवन में प्रेरणा का स्रोत हैं।

शनिवार, 31 अक्टूबर 2020

श्रीकृष्ण के विवाह

 श्रीकृष्ण के विवाह उनकी लीलाओं का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। उनका पहला और प्रमुख विवाह रुक्मिणी से हुआ, लेकिन इसके अलावा उनके कई अन्य विवाह भी हुए। ये विवाह न केवल प्रेम और भक्ति का प्रतीक हैं, बल्कि धर्म की स्थापना और धर्मरक्षा के लिए उठाए गए कदम भी हैं।


1. रुक्मिणी विवाह

रुक्मिणी विदर्भ देश के राजा भीष्मक की पुत्री थीं। रुक्मिणी बचपन से ही श्रीकृष्ण को अपने पति के रूप में स्वीकार कर चुकी थीं।

  • दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति: रुक्मिणी का भाई रुक्मी उनका विवाह चेदि राजा शिशुपाल से करवाना चाहता था, जो श्रीकृष्ण का शत्रु था।
  • प्रेमपत्र: रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण को एक पत्र भेजकर उनसे अनुरोध किया कि वे आकर उन्हें शिशुपाल से बचाएं।
  • स्वयंवर से अपहरण: श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी को स्वयंवर के दिन चेदि राजकुमारों और अन्य राजाओं के बीच से उठाकर विवाह किया।
  • रुक्मी का पराजय: रुक्मी ने श्रीकृष्ण का विरोध किया, लेकिन श्रीकृष्ण ने उसे पराजित कर दिया और उसकी जान बख्श दी।

रुक्मिणी श्रीकृष्ण की प्रमुख पत्नी बनीं और उन्हें लक्ष्मी का अवतार माना जाता है।


2. जाम्बवती विवाह

जाम्बवती, ऋक्षराज जाम्बवन्त की पुत्री थीं।

  • स्यमंतक मणि का प्रसंग: जब सत्राजित नामक राजा की स्यमंतक मणि खो गई, तो कृष्ण ने उसे खोजने का बीड़ा उठाया।
  • मणि जाम्बवन्त के पास थी, और उसे प्राप्त करने के लिए कृष्ण ने जाम्बवन्त के साथ 28 दिनों तक युद्ध किया।
  • अंततः जाम्बवन्त ने अपनी हार स्वीकार की और अपनी पुत्री जाम्बवती का विवाह श्रीकृष्ण से कर दिया।

3. सत्यभामा विवाह

सत्यभामा सत्राजित की पुत्री थीं।

  • स्यमंतक मणि: जब स्यमंतक मणि को लेकर विवाद हुआ, तो श्रीकृष्ण ने मणि लौटाकर सत्राजित का विश्वास जीता।
  • विवाह प्रस्ताव: सत्राजित ने अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण से कर दिया।
  • सत्यभामा को भूदेवी का अवतार माना जाता है।

4. कालिंदी विवाह

कालिंदी सूर्यदेव की पुत्री थीं।

  • कालिंदी यमुना के तट पर तपस्या कर रही थीं और उन्होंने श्रीकृष्ण को पति के रूप में पाने की प्रार्थना की।
  • श्रीकृष्ण ने उनकी तपस्या स्वीकार की और उनसे विवाह किया।

5. मित्रवृंदा विवाह

मित्रवृंदा अवंती के राजा की पुत्री थीं।

  • उनका स्वयंवर आयोजित किया गया था, जिसमें श्रीकृष्ण ने भाग लेकर उनका हरण किया और उनसे विवाह किया।

6. नागनजिति विवाह

नागनजिति, जिन्हें सत्य भी कहा जाता है, कोसल देश के राजा नागंजित की पुत्री थीं।

  • शर्त: नागनजित ने शर्त रखी थी कि जो राजकुमार सात उग्र बैलों को वश में करेगा, वही उनकी पुत्री से विवाह कर सकता है।
  • श्रीकृष्ण ने अपनी शक्ति से यह शर्त पूरी की और नागनजिति से विवाह किया।

7. भद्रा विवाह

भद्रा, कौरव वंश की एक राजकुमारी थीं।

  • उनका विवाह उनके परिवार की इच्छा से श्रीकृष्ण के साथ संपन्न हुआ।

8. लक्ष्मणा (मद्रा) विवाह

लक्ष्मणा, मद्र देश की राजकुमारी थीं।

  • उनके स्वयंवर में श्रीकृष्ण ने विजयी होकर उनसे विवाह किया।

9. 16,100 कन्याओं से विवाह

  • नरकासुर वध का प्रसंग: नरकासुर ने 16,100 राजकुमारियों का अपहरण कर उन्हें बंदी बना लिया था।
  • श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध कर सभी कन्याओं को मुक्त कराया।
  • सामाजिक सम्मान के लिए श्रीकृष्ण ने इन कन्याओं से विवाह किया, ताकि वे समाज में स्वीकार्य हो सकें।

विवाहों का महत्व

  1. धर्म की स्थापना: श्रीकृष्ण के सभी विवाह धार्मिक और सामाजिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए थे।
  2. भक्ति का प्रतीक: प्रत्येक पत्नी उनके प्रति भक्ति और प्रेम का प्रतीक है।
  3. संस्कृति और परंपरा: इन विवाहों के माध्यम से श्रीकृष्ण ने विभिन्न राज्यों और संस्कृतियों को जोड़ने का कार्य किया।
  4. अवतारी उद्देश्य: उनके विवाह मानव समाज में धर्म, करुणा और न्याय की स्थापना के लिए किए गए दिव्य कृत्य हैं।

श्रीकृष्ण का विवाह केवल सांसारिक घटना नहीं, बल्कि धर्म, भक्ति और प्रेम की स्थापना का माध्यम था।

शनिवार, 24 अक्टूबर 2020

श्रीकृष्ण की महाभारत में भूमिका

 श्रीकृष्ण की महाभारत में भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण और बहुआयामी है। वे न केवल इस महाकाव्य के केंद्र बिंदु हैं, बल्कि धर्म, सत्य और न्याय की स्थापना के प्रेरणास्रोत भी हैं। महाभारत में उनकी भूमिका एक मार्गदर्शक, कूटनीतिज्ञ, मित्र, और भगवान के रूप में दिखाई देती है।


1. कुरुक्षेत्र युद्ध के पीछे का कारण

महाभारत के युद्ध का मुख्य कारण कौरवों और पांडवों के बीच का सत्ता संघर्ष था।

  • दुर्योधन का अधर्म: दुर्योधन ने छल और धोखे से पांडवों को हस्तिनापुर से निर्वासित कर दिया।
  • द्रौपदी का अपमान: कौरवों ने द्रौपदी का चीरहरण करने का प्रयास किया, जिसे श्रीकृष्ण ने अपनी माया से रोका। यह घटना युद्ध की नींव बनी।

2. कूटनीतिक भूमिका

कृष्ण ने पांडवों और कौरवों के बीच युद्ध रोकने के लिए कई प्रयास किए।

  • शांति दूत: श्रीकृष्ण ने हस्तिनापुर जाकर दुर्योधन और कौरवों को समझाने का प्रयास किया। उन्होंने पांडवों के लिए सिर्फ पांच गांव मांगे, लेकिन दुर्योधन ने इनकार कर दिया और युद्ध को अनिवार्य बना दिया।
  • दुर्योधन का अहंकार: दुर्योधन ने न केवल शांति प्रस्ताव ठुकराया, बल्कि श्रीकृष्ण को बंदी बनाने का प्रयास भी किया।

3. पांडवों के मित्र और मार्गदर्शक

कृष्ण पांडवों के परम मित्र और मार्गदर्शक थे।

  • अर्जुन के सखा: अर्जुन और श्रीकृष्ण का मित्रता संबंध विशेष था। अर्जुन हर कठिन परिस्थिति में कृष्ण से मार्गदर्शन लेते थे।
  • द्रौपदी की रक्षा: द्रौपदी के चीरहरण के समय कृष्ण ने उसे अनंत वस्त्र प्रदान करके उसकी लज्जा की रक्षा की।
  • युद्ध रणनीति: श्रीकृष्ण ने युद्ध के दौरान पांडवों को कई महत्वपूर्ण रणनीतियाँ सुझाईं, जैसे भीष्म और द्रोण का पराभव।

4. गीता का उपदेश

महाभारत में श्रीकृष्ण की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका भगवद्गीता का उपदेश देना है।

  • अर्जुन का मोह भंग: युद्ध शुरू होने से पहले अर्जुन अपने संबंधियों को मारने के विचार से दुखी और असमंजस में था।
  • कृष्ण का उपदेश: श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म, भक्ति, ज्ञान और धर्म के मार्ग पर चलने की शिक्षा दी।
  • गीता का मुख्य संदेश:
    1. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन - "कर्म करो, फल की चिंता मत करो।"
    2. सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज - "सभी धर्मों को त्यागकर मेरी शरण में आओ।"
    3. आत्मा अमर है: श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि आत्मा अजर-अमर है और शरीर मात्र नश्वर है।

5. कूटनीति और रणनीतियाँ

श्रीकृष्ण ने पांडवों को युद्ध में विजय दिलाने के लिए कई कूटनीतिक निर्णय लिए।

  • शिखंडी का उपयोग: भीष्म पितामह को हराने के लिए शिखंडी को आगे रखा, क्योंकि भीष्म ने शिखंडी पर शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा ली थी।
  • द्रोण का वध: द्रोणाचार्य को हराने के लिए श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से असत्य कहलवाया ("अश्वत्थामा हतोऽगजः")।
  • कर्ण का वध: कर्ण को कमजोर करने के लिए उसकी कवच-कुंडल को इंद्र द्वारा छीनने की योजना बनाई।
  • दुर्योधन का अंत: भीम को गदा युद्ध में दुर्योधन की जंघा पर प्रहार करने की प्रेरणा दी।

6. धर्म और अधर्म के बीच विभाजन

कृष्ण ने स्पष्ट किया कि धर्म के मार्ग पर चलना ही सत्य और न्याय की स्थापना का आधार है।

  • कौरव अधर्म के मार्ग पर थे, जबकि पांडव धर्म के रक्षक थे।
  • श्रीकृष्ण ने पांडवों को युद्ध के लिए प्रेरित किया, यह बताते हुए कि अधर्म का नाश अनिवार्य है।

7. युद्ध में निष्पक्षता

जब युद्ध की तैयारी हो रही थी, तो श्रीकृष्ण ने निष्पक्षता बनाए रखी।

  • उन्होंने कहा कि एक ओर उनकी नारायणी सेना होगी और दूसरी ओर वे स्वयं बिना शस्त्र उठाए रहेंगे।
  • अर्जुन ने श्रीकृष्ण को चुना, जबकि दुर्योधन ने उनकी नारायणी सेना को।

8. युद्ध के बाद की भूमिका

  • धर्म की स्थापना: युद्ध के बाद, श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को धर्म के मार्ग पर चलने और न्यायपूर्वक राज्य करने की शिक्षा दी।
  • गांधारी का शाप: गांधारी ने अपने सौ पुत्रों की मृत्यु से दुखी होकर कृष्ण को शाप दिया कि उनके यदुवंश का भी अंत होगा। कृष्ण ने इसे स्वीकार किया और कहा कि यह धर्म का चक्र है।

महाभारत में श्रीकृष्ण का संदेश

  1. धर्म और सत्य की विजय निश्चित है।
  2. जीवन में कर्म करना ही सबसे महत्वपूर्ण है।
  3. अहंकार और अधर्म का अंत तय है।
  4. भगवान अपने भक्तों के साथ हर परिस्थिति में खड़े रहते हैं।

श्रीकृष्ण की भूमिका महाभारत में केवल एक मार्गदर्शक या भगवान के रूप में नहीं, बल्कि धर्म के सार को स्पष्ट करने वाले के रूप में महत्वपूर्ण है। उनका जीवन और शिक्षाएँ आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं।

शनिवार, 17 अक्टूबर 2020

द्वारका नगरी की स्थापना

 द्वारका नगरी की स्थापना श्रीकृष्ण की जीवनगाथा का एक महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक प्रसंग है। यह घटना उनके कूटनीतिक कौशल, नेतृत्व और धर्म की स्थापना के लिए उनकी दूरदर्शिता का परिचय देती है। द्वारका नगरी को आज भी "स्वर्ण नगरी" और "कृष्ण की राजधानी" के रूप में जाना जाता है।


मथुरा पर आक्रमण और समस्या

कंस वध के बाद, श्रीकृष्ण ने अपने नाना उग्रसेन को मथुरा का राजा बनाया। लेकिन कंस का ससुर और मगध का शक्तिशाली राजा जरासंध श्रीकृष्ण और बलराम से प्रतिशोध लेने के लिए मथुरा पर बार-बार आक्रमण करने लगा।

  • जरासंध के आक्रमण: जरासंध ने मथुरा पर 17 बार हमला किया। हर बार कृष्ण और बलराम ने उसकी सेना को हराया, लेकिन जरासंध को नहीं मारा।
  • कालयवन का हमला: जरासंध के साथ-साथ कालयवन नामक मलेच्छ राजा ने भी मथुरा पर आक्रमण कर दिया।
    इस स्थिति में मथुरा की रक्षा करना और वहां के नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना कठिन हो गया।

द्वारका नगरी की स्थापना का निर्णय

श्रीकृष्ण ने यह समझा कि जरासंध और अन्य शत्रुओं से बार-बार युद्ध करना मथुरा और वहां के नागरिकों के लिए नुकसानदेह होगा। उन्होंने शांति और सुरक्षा के लिए एक नई नगरी बसाने का निर्णय लिया।

  • श्रीकृष्ण ने समुद्र देवता से प्रार्थना की और उनसे भूमि प्रदान करने का अनुरोध किया।
  • समुद्र ने अपने जल से पीछे हटकर भूमि का एक भाग प्रदान किया।

स्वर्ण नगरी द्वारका का निर्माण

  1. मय दानव का सहयोग: द्वारका नगरी के निर्माण में असुरों के महान शिल्पकार मय दानव ने श्रीकृष्ण की सहायता की। उन्होंने द्वारका को सुंदर महलों, मंदिरों, और जल निकासी व्यवस्था से सुसज्जित किया।
  2. विशेषताएँ:
    • द्वारका चारों ओर से समुद्र से घिरी हुई थी, जिससे यह शत्रुओं के आक्रमण से सुरक्षित थी।
    • नगरी में स्वर्ण और रत्नों से सुसज्जित भव्य महल थे।
    • द्वारका के द्वार इतने विशाल और सुंदर थे कि इसे "द्वारावती" भी कहा जाता है।

द्वारका में यदुवंश का पुनर्वास

श्रीकृष्ण ने मथुरा के सभी यदुवंशियों को द्वारका में बसने के लिए बुलाया। उन्होंने यदुवंश के लिए एक सुरक्षित और शांतिपूर्ण जीवन की व्यवस्था की।

  • यदुवंशी द्वारका में खुशी-खुशी रहने लगे और वहां श्रीकृष्ण को अपना राजा मान लिया।
  • द्वारका न केवल राजनीति और व्यापार का केंद्र बनी, बल्कि यह धर्म, संस्कृति और अध्यात्म का भी प्रमुख केंद्र बन गई।

कालयवन और जरासंध का अंत

द्वारका स्थापित करने के बाद श्रीकृष्ण ने कालयवन का वध किया। उन्होंने जरासंध का अंत सीधे युद्ध में नहीं किया, बल्कि पांडवों की सहायता से उसकी मृत्यु का मार्ग प्रशस्त किया।


द्वारका का महत्व

  1. शांति और सुरक्षा का प्रतीक: द्वारका नगरी ने यह संदेश दिया कि युद्ध से बचने के लिए कूटनीति और शांतिपूर्ण समाधान अधिक महत्वपूर्ण हैं।
  2. धर्म और संस्कृति का केंद्र: द्वारका श्रीकृष्ण की शिक्षाओं और उनकी लीलाओं का केंद्र रही।
  3. अखंड समृद्धि: द्वारका का निर्माण यह दिखाता है कि भगवान अपने भक्तों की सुख-शांति के लिए हर संभव प्रयास करते हैं।

द्वारका का अंत

महाभारत युद्ध के बाद, यदुवंशियों में आपसी कलह और विनाश हुआ। इस घटना के बाद, श्रीकृष्ण ने अपनी लीलाएं समाप्त कीं और द्वारका नगरी समुद्र में विलीन हो गई।
आज भी गुजरात के तटीय क्षेत्र में समुद्र के नीचे प्राचीन द्वारका के अवशेष पाए जाते हैं, जो इसकी ऐतिहासिकता और दिव्यता को प्रमाणित करते हैं।

द्वारका नगरी श्रीकृष्ण के नेतृत्व, कूटनीति और धर्म की विजय का अद्भुत उदाहरण है।

शनिवार, 10 अक्टूबर 2020

कंस वध

 कंस वध श्रीकृष्ण की जीवन गाथा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और धर्म विजय का प्रतीक प्रसंग है। यह घटना अधर्म और अत्याचार के अंत तथा धर्म और न्याय की स्थापना का संदेश देती है।

कंस का आतंक

कंस मथुरा का क्रूर राजा था। उसने अपने पिता उग्रसेन को बंदी बनाकर मथुरा का शासन छीन लिया था। कंस ने अपनी बहन देवकी और बहनोई वसुदेव को जेल में बंद कर दिया, क्योंकि आकाशवाणी हुई थी कि देवकी का आठवां पुत्र उसका वध करेगा। कंस ने देवकी के छह पुत्रों को मार डाला, लेकिन सातवां पुत्र (बलराम) और आठवां पुत्र (कृष्ण) चमत्कारिक ढंग से बच गए।

श्रीकृष्ण का गोकुल और वृंदावन में पालन-पोषण

कृष्ण को वसुदेव ने गोकुल में नंद बाबा और यशोदा माता के पास छोड़ दिया था। गोकुल और वृंदावन में अपनी बाललीलाओं के दौरान कृष्ण ने कई राक्षसों का वध किया, जिन्हें कंस ने भेजा था। इनमें पूतना, तृणावर्त, बकासुर और कालिया नाग जैसे राक्षस शामिल थे।

कंस द्वारा अक्रूर का भेजना

जब कंस को यह पता चला कि गोकुल में नंद बाबा के यहां रहने वाला बालक ही देवकी का आठवां पुत्र है, तो उसने कृष्ण और बलराम को मथुरा बुलाने की योजना बनाई। उसने अपने मंत्री अक्रूर को भेजा और कृष्ण-बलराम को मथुरा आने का निमंत्रण दिया।

अक्रूर ने कृष्ण और बलराम को मथुरा बुलाने का अनुरोध किया। भगवान श्रीकृष्ण और बलराम ने इसे स्वीकार किया और मथुरा जाने के लिए तैयार हुए।

मथुरा में प्रवेश

जब कृष्ण और बलराम मथुरा पहुंचे, तो उन्होंने वहां कंस के अत्याचारों को देखा। उन्होंने मल्लयुद्ध (कुश्ती) का आयोजन किया था, जिसमें चाणूर और मुष्टिक जैसे बलवान पहलवानों को भेजा गया।

  1. कुश्ती का आयोजन: कंस ने योजना बनाई कि चाणूर और मुष्टिक, जो उसके मुख्य पहलवान थे, कृष्ण और बलराम को कुश्ती में मार डालेंगे। लेकिन कृष्ण ने चाणूर का वध किया और बलराम ने मुष्टिक का वध कर दिया।

  2. हाथी कुबलयापीड़ का वध: कुश्ती से पहले कंस ने कृष्ण को रोकने के लिए विशाल हाथी कुबलयापीड़ को भेजा, लेकिन कृष्ण ने उसे भी मार गिराया।

कंस का वध

कुश्ती के बाद कृष्ण ने कंस को खुला चुनौती दी। कंस ने अपने सैनिकों को बुलाया, लेकिन कृष्ण ने उन्हें हराकर सीधे कंस के सिंहासन पर चढ़ाई की।

  • कृष्ण ने कंस को उसके बाल पकड़कर नीचे गिरा दिया और अपने गदा से उसका वध कर दिया।
  • बलराम ने कंस के आठ भाइयों का वध किया, जो उसकी सहायता के लिए आए थे।

कंस वध के बाद

  1. माता-पिता की मुक्ति: कंस का वध करने के बाद श्रीकृष्ण और बलराम ने अपने माता-पिता देवकी और वसुदेव को कारागार से मुक्त किया।
  2. उग्रसेन को राजगद्दी पर बैठाना: कृष्ण ने अपने नाना उग्रसेन को मथुरा का राजा बनाया और मथुरा के शासन को पुनः धर्म के पथ पर स्थापित किया।
  3. जरा और अधर्म का अंत: कंस वध ने यह प्रमाणित किया कि अधर्म और अहंकार का अंत निश्चित है।

महत्व

कंस वध केवल एक राक्षस या अत्याचारी का अंत नहीं था, बल्कि यह धर्म की स्थापना और सत्य की विजय का प्रतीक है। यह घटना यह सिखाती है कि भगवान अपने भक्तों और धर्म की रक्षा के लिए अवतार लेते हैं और अधर्म को नष्ट करते हैं।

शनिवार, 3 अक्टूबर 2020

श्रीकृष्ण बाललीलाएँ

 श्रीकृष्ण की बाललीलाएँ उनके दिव्य व्यक्तित्व का परिचय कराती हैं और उनकी अलौकिक शक्तियों को प्रकट करती हैं। गोकुल और वृंदावन में उनके बचपन के समय की लीलाएँ अत्यंत मनोरम और शिक्षाप्रद हैं।

1. माखन चुराना और माखन चोर कहलाना

श्रीकृष्ण को बचपन से ही माखन बहुत प्रिय था। वे गोकुल की गोपियों के घर जाकर माखन चुराते थे। कई बार गोपियाँ उन्हें पकड़ने की कोशिश करतीं, लेकिन वे अपनी चतुराई और बाल सुलभ मासूमियत से बच निकलते।
महत्व: यह लीला सिखाती है कि भगवान अपने भक्तों के प्रेम के लिए हर तरह की लीला कर सकते हैं।


2. तृणावर्त का वध

कंस ने गोकुल में श्रीकृष्ण को मारने के लिए एक असुर तृणावर्त को भेजा, जो प्रचंड आंधी का रूप लेकर आया। तृणावर्त ने कृष्ण को उठाकर आकाश में ले जाने का प्रयास किया, लेकिन कृष्ण ने उसका गला इतनी शक्ति से पकड़ा कि वह वहीं मरकर गिर पड़ा।
महत्व: यह लीला दर्शाती है कि भगवान अपने भक्तों की हर विपत्ति से रक्षा करते हैं।


3. कालिया नाग का दमन

यमुना नदी में कालिया नामक विषैला नाग रहता था, जिससे नदी का पानी जहरीला हो गया था। जब गोकुलवासी इस समस्या से परेशान हुए, तो कृष्ण ने यमुना में जाकर कालिया नाग के फनों पर नृत्य किया और उसे नदी छोड़कर जाने को विवश कर दिया।
महत्व: यह लीला हमें सिखाती है कि अहंकारी और दुष्ट प्रवृत्तियों का नाश करने के लिए भगवान स्वयं अवतार लेते हैं।


4. गोपियों के वस्त्र हरण

श्रीकृष्ण ने एक बार गोपियों के वस्त्र चुराकर उन्हें पेड़ पर रख दिया। जब गोपियाँ उन्हें लेने आईं, तो कृष्ण ने कहा कि वे भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण का प्रतीक हैं और अपने अहंकार को त्यागकर ही उन्हें वस्त्र मिलेंगे।
महत्व: इस लीला का आध्यात्मिक अर्थ है कि आत्मा को परमात्मा के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होना चाहिए।


5. गोवर्धन पर्वत उठाना

गोकुलवासी हर वर्ष इंद्र देव की पूजा करते थे। कृष्ण ने उन्हें समझाया कि गोवर्धन पर्वत और प्रकृति की पूजा करनी चाहिए क्योंकि वे प्रत्यक्ष रूप से जीवन देते हैं। इंद्र ने क्रोधित होकर मूसलधार बारिश शुरू कर दी। कृष्ण ने अपनी छोटी उंगली पर गोवर्धन पर्वत उठाकर गोकुलवासियों को आश्रय दिया।
महत्व: यह लीला सिखाती है कि अहंकार का त्याग और प्रकृति का सम्मान आवश्यक है।


6. पूतना वध

कंस ने कृष्ण को मारने के लिए पूतना नामक राक्षसी को भेजा। वह सुंदर स्त्री का रूप धारण करके गोकुल आई और कृष्ण को विषपान कराने का प्रयास किया। लेकिन कृष्ण ने उसकी छाती से प्राण निकाल लिए।
महत्व: भगवान भक्त और अभक्त दोनों को उनके कर्मों का फल देते हैं।


7. उखल बंधन (दामोदर लीला)

यशोदा मैया ने एक दिन कृष्ण को माखन चुराने के कारण ऊखल (जोड़ने की लकड़ी) से बांध दिया। बंधन में रहते हुए भी कृष्ण ने दो विशाल वृक्षों को गिरा दिया। ये वृक्ष वास्तव में नलकूबर और मणिग्रीव नामक देवता थे, जिन्हें शाप मिला था।
महत्व: यह लीला दर्शाती है कि भगवान अपने भक्तों को उनके बंधनों से मुक्त कर देते हैं।


8. धेनुकासुर और बकासुर का वध

धेनुकासुर और बकासुर जैसे राक्षसों को कंस ने कृष्ण को मारने के लिए भेजा। लेकिन कृष्ण और बलराम ने अपनी अलौकिक शक्तियों से उनका वध कर गोकुलवासियों को सुरक्षित किया।
महत्व: भगवान धर्म की स्थापना के लिए अधर्म का नाश करते हैं।


9. राधा-कृष्ण का प्रेम

कृष्ण और राधा का प्रेम दिव्यता और भक्ति का प्रतीक है। उनका प्रेम सांसारिक नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा के मिलन का प्रतीक है। वृंदावन में रासलीला के माध्यम से उन्होंने भक्ति योग का संदेश दिया।
महत्व: राधा-कृष्ण का प्रेम भक्त और भगवान के शुद्ध, निश्छल और अनन्य प्रेम का आदर्श है।


श्रीकृष्ण की बाललीलाएँ न केवल उनकी अलौकिकता का परिचय कराती हैं, बल्कि यह सिखाती हैं कि जीवन में भक्ति, प्रेम, समर्पण और धर्म का पालन ही सबसे महत्वपूर्ण है।

शनिवार, 26 सितंबर 2020

श्रीकृष्ण जन्म कथा

श्रीकृष्ण भगवान की जन्म कथा बहुत ही रोचक, रहस्यमयी और चमत्कारिक है। यह कथा श्रीमद्भागवत पुराण, महाभारत और हरिवंश पुराण में विस्तार से वर्णित है।

कंस का आतंक और आकाशवाणी

मथुरा के राजा उग्रसेन का पुत्र कंस, अत्याचारी और क्रूर शासक था। उसने अपने पिता को बंदी बनाकर मथुरा का राजपद छीन लिया था। कंस की बहन देवकी का विवाह यदुवंशी वीर वसुदेव से हुआ। विवाह के समय कंस स्वयं देवकी को स्नेहपूर्वक विदा कर रहा था। तभी आकाशवाणी हुई:

"हे कंस! तेरी बहन देवकी का आठवां पुत्र तेरा वध करेगा।"

यह सुनकर कंस भयभीत और क्रोधित हो गया। उसने तुरंत देवकी को मारने का निर्णय लिया, लेकिन वसुदेव ने उसे यह आश्वासन देकर रोक दिया कि वे अपने सभी संतानों को कंस के हवाले कर देंगे।

देवकी और वसुदेव का कारावास

कंस ने देवकी और वसुदेव को कारावास में डाल दिया। देवकी की हर संतान को कंस जन्म लेते ही मार डालता था। उसने छह संतानों को निर्ममता से मार दिया। देवकी और वसुदेव अपने पुत्रों की मृत्यु से अत्यंत दुःखी थे, लेकिन उन्होंने भगवान विष्णु पर अपनी आस्था बनाए रखी।

सातवां और आठवां संतान

  1. सातवां संतान (बलराम): देवकी की सातवीं संतान को भगवान विष्णु की माया से योगमाया ने वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित कर दिया। यह बालक आगे चलकर बलराम कहलाया।

  2. आठवां संतान (कृष्ण): जब देवकी के गर्भ में आठवां बालक आया, तो भगवान विष्णु ने वसुदेव और देवकी को दर्शन दिए। उन्होंने कहा,
    "मैं तुम्हारे पुत्र रूप में अवतार लूंगा और संसार से अधर्म का नाश करूंगा।"

कृष्ण का चमत्कारिक जन्म

आषाढ़ मास की अष्टमी तिथि को, रोहिणी नक्षत्र में, आधी रात के समय भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण रूप में जन्म लिया। उनका जन्म मथुरा के कारागार में हुआ। जैसे ही श्रीकृष्ण का जन्म हुआ,

  1. जेल के दरवाजे स्वतः खुल गए।
  2. पहरेदार गहरी निद्रा में सो गए।
  3. वसुदेव की बेड़ियां टूट गईं।

वसुदेव ने कृष्ण को एक टोकरी में रखा और यमुना नदी पार करके गोकुल में नंद बाबा और यशोदा के घर पहुंचाया। उस रात नंद और यशोदा के घर एक कन्या का जन्म हुआ था।

योगमाया का चमत्कार

वसुदेव ने श्रीकृष्ण को यशोदा के पास छोड़कर उनकी कन्या को लेकर वापस कारावास लौट आए। जब कंस ने उस कन्या को मारने का प्रयास किया, तो वह कन्या आकाश में उड़ गई और देवी के रूप में प्रकट होकर बोली:
"हे कंस! तुझे मारने वाला तो गोकुल में जन्म ले चुका है।"

यह सुनकर कंस और अधिक भयभीत हो गया और श्रीकृष्ण को मारने के लिए कई प्रयास किए, लेकिन हर बार असफल रहा।

यहीं से कृष्ण की लीलाओं का आरंभ हुआ, जो आगे चलकर धर्म और सत्य की विजय का प्रतीक बनीं।

शनिवार, 19 सितंबर 2020

कृष्ण भगवान की सम्पूर्ण जीवन गाथा

 श्रीकृष्ण भगवान की सम्पूर्ण जीवन गाथा अत्यंत प्रेरणादायक, रहस्यमयी और दिव्य है। उनका जीवन भारतीय संस्कृति, धर्म और अध्यात्म का अद्वितीय उदाहरण है। श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार माना जाता है, और उनका जीवन न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से, बल्कि मानवता के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करता है।

जन्म कथा

कृष्ण का जन्म द्वापर युग में मथुरा नगरी में कंस के कारावास में हुआ। कंस ने अपनी बहन देवकी और उनके पति वसुदेव को बंदी बना लिया था क्योंकि उसे आकाशवाणी से पता चला था कि देवकी का आठवां पुत्र उसका वध करेगा। जब कृष्ण का जन्म हुआ, तो विष्णु की कृपा से वसुदेव जेल से बाहर निकल सके और उन्होंने कृष्ण को गोकुल में नंद बाबा और यशोदा के पास छोड़ दिया।

बाललीलाएँ

गोकुल में श्रीकृष्ण ने अपनी बाललीलाओं से सबका मन मोह लिया।

  1. माखन चोरी: कृष्ण का माखन चुराने का प्रेमपूर्ण स्वभाव उनकी बाल सुलभ लीलाओं का अद्भुत उदाहरण है।
  2. कालिया नाग का वध: यमुना नदी में विषैले कालिया नाग का दमन कर कृष्ण ने गोकुलवासियों को भय से मुक्त किया।
  3. गोवर्धन पूजा: इंद्र के क्रोध से बचाने के लिए कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी उंगली पर उठा लिया और गोकुलवासियों को आश्रय दिया।

कंस वध

जब कृष्ण किशोर अवस्था में पहुंचे, तो कंस ने उन्हें मारने के लिए कई राक्षस भेजे, लेकिन कृष्ण ने सभी का वध कर दिया। अंततः मथुरा जाकर उन्होंने कंस का वध किया और अपने माता-पिता को कारावास से मुक्त कराया।

द्वारका नगरी की स्थापना

कृष्ण ने मथुरा को कंस के आतंक से मुक्त किया, लेकिन जरासंध के बार-बार आक्रमण से बचाने के लिए उन्होंने द्वारका नगरी की स्थापना की और इसे समुद्र के बीच में बसाया।

महाभारत में भूमिका

श्रीकृष्ण का जीवन महाभारत से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। उन्होंने पांडवों का साथ दिया और धर्म की स्थापना के लिए मार्गदर्शन किया। महाभारत के युद्ध में कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया, जिसमें कर्म, धर्म, भक्ति और ज्ञान का सार प्रस्तुत किया गया।

रुक्मिणी और अन्य विवाह

कृष्ण का विवाह रुक्मिणी से हुआ, जो उनकी परम भक्त थीं। इसके अलावा, उन्होंने सत्यभामा, जाम्बवती और अन्य राजकुमारियों से भी विवाह किया।

भगवान कृष्ण की शिक्षाएँ

श्रीकृष्ण ने अपने जीवन के माध्यम से और गीता के उपदेशों में कई महत्वपूर्ण संदेश दिए:

  1. कर्म का महत्व: फल की चिंता किए बिना कर्म करते रहना चाहिए।
  2. भक्ति योग: भगवान में अटूट भक्ति ही मोक्ष का मार्ग है।
  3. सांख्य योग: आत्मा अजर-अमर है, मृत्यु केवल शरीर का परिवर्तन है।

मोक्ष और देह त्याग

अपनी लीलाओं के अंत में, श्रीकृष्ण ने अपनी देह का त्याग किया। कहा जाता है कि एक बहेलिये के तीर से उनके पैर में चोट लगी और उन्होंने पृथ्वी से अपनी लीला समाप्त की।

श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण जीवन धर्म, भक्ति, कर्म और प्रेम का अद्वितीय उदाहरण है। उनकी शिक्षाएँ और लीलाएँ आज भी मानवता को प्रेरित करती हैं।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...