शनिवार, 14 दिसंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान की विभूतियाँ (श्लोक 8-20)

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान की विभूतियाँ (श्लोक 8-20) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 8

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः॥

अर्थ:
"मैं ही सबका उद्गम हूँ और मुझसे ही सब कुछ संचालित होता है। जो बुद्धिमान यह जानते हैं, वे मेरे प्रति भक्ति और भावपूर्ण श्रद्धा से मेरी आराधना करते हैं।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे सृष्टि के मूल कारण हैं। जो ज्ञानी उनके इस सत्य को समझते हैं, वे भगवान की भक्ति करते हैं और उनसे जुड़े रहते हैं।


श्लोक 9

मच्चित्तः मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥

अर्थ:
"जो मेरे प्रति चित्त और प्राण लगाए रखते हैं, वे परस्पर मेरा गुणगान करते हुए और मेरी चर्चा करते हुए संतुष्ट और आनंदित होते हैं।"

व्याख्या:
भक्त अपने मन और प्राण भगवान में समर्पित करते हैं। वे उनकी कथा और गुणगान के माध्यम से प्रसन्न और आनंदित रहते हैं। यह श्लोक भक्तों के आनंदपूर्ण जीवन को दर्शाता है।


श्लोक 10

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥

अर्थ:
"जो भक्त सदा मुझसे जुड़े रहते हैं और प्रेमपूर्वक मेरी भक्ति करते हैं, उन्हें मैं वह बुद्धियोग प्रदान करता हूँ, जिससे वे मुझे प्राप्त कर सकें।"

व्याख्या:
भगवान अपने भक्तों को ज्ञान और दिशा प्रदान करते हैं, जिससे वे उनकी ओर अग्रसर हो सकें। उनकी भक्ति में लगा हुआ व्यक्ति ईश्वर की कृपा से मोक्ष प्राप्त करता है।


श्लोक 11

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भाजवत॥

अर्थ:
"उन पर अनुकंपा करने के लिए मैं उनके भीतर स्थित होकर उनके अज्ञान के अंधकार को ज्ञान के दीपक से नष्ट कर देता हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान की करुणा और कृपा को दर्शाता है। भगवान अपने भक्तों के अज्ञान को मिटाने के लिए उनके भीतर ज्ञान का प्रकाश जलाते हैं।


श्लोक 12-13

अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्॥
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे॥

अर्थ:
अर्जुन ने कहा: "आप परम ब्रह्म, परम धाम, परम पवित्र, शाश्वत पुरुष, दिव्य, आदि देव, अजन्मा और सर्वव्यापक हैं। सभी ऋषि, जैसे नारद, असित, देवल, और व्यास, ऐसा ही कहते हैं, और स्वयं आप भी यही कह रहे हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान की महिमा और उनकी दिव्यता को स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि भगवान स्वयं शाश्वत, अजन्मा और सर्वोच्च सत्ता हैं। यह श्लोक भगवान के प्रति अर्जुन की श्रद्धा और विश्वास को प्रकट करता है।


श्लोक 14

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः॥

अर्थ:
"हे केशव, जो कुछ आप मुझे बता रहे हैं, उसे मैं सत्य मानता हूँ। आपकी वास्तविकता को न तो देवता जानते हैं और न ही दानव।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के वचनों को पूर्ण सत्य मानते हैं। वे कहते हैं कि भगवान की दिव्यता को समझ पाना देवताओं और दानवों के लिए भी संभव नहीं है।


श्लोक 15

स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते॥

अर्थ:
"हे पुरुषोत्तम, आप स्वयं ही अपने स्वरूप को जानते हैं। आप भूतों के सृजक, भूतों के स्वामी, देवताओं के देवता, और समस्त जगत के स्वामी हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं। भगवान स्वयं अपनी वास्तविकता को जानते हैं क्योंकि वे सृष्टि के मूल और सर्वोच्च देवता हैं।


श्लोक 16

वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि॥

अर्थ:
"आप कृपया अपनी सभी दिव्य विभूतियों को विस्तार से बताइए, जिनके द्वारा आप इन सभी लोकों को व्याप्त करते हुए स्थित हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान से उनकी विभूतियों (दिव्य महिमाओं) का वर्णन सुनने की इच्छा प्रकट करते हैं। यह अर्जुन की भगवान को गहराई से जानने की जिज्ञासा को दर्शाता है।


श्लोक 17

कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया॥

अर्थ:
"हे योगेश्वर, मैं आपको सदा कैसे जान सकता हूँ और किन-किन भावों में आपका चिंतन कर सकता हूँ?"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान से पूछते हैं कि वे भगवान का सदा ध्यान कैसे करें और उनकी विभूतियों के किस-किस रूप में भगवान को देख सकते हैं।


श्लोक 18

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्॥

अर्थ:
"हे जनार्दन, कृपया विस्तार से अपनी योगशक्ति और विभूतियों का वर्णन करें। आपकी अमृतमयी बातें सुनने में मेरी तृप्ति नहीं होती।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान की बातों को अमृत के समान मानते हैं और उनसे उनकी विभूतियों के विस्तार में वर्णन की विनती करते हैं।


श्लोक 19

श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे॥

अर्थ:
"श्रीभगवान ने कहा: हे कुरुश्रेष्ठ, मैं तुम्हें अपनी दिव्य विभूतियों को संक्षेप में बताऊंगा, क्योंकि मेरी विभूतियों का कोई अंत नहीं है।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि उनकी महिमा और विभूतियाँ अनंत हैं। वे अर्जुन को उनकी प्रमुख विभूतियों के बारे में बताएंगे।


श्लोक 20

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥

अर्थ:
"हे गुडाकेश (अर्जुन), मैं सभी प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ। मैं ही सभी प्राणियों का आरंभ, मध्य और अंत हूँ।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे प्रत्येक जीव के भीतर आत्मा के रूप में स्थित हैं और वे ही सृष्टि के आरंभ, मध्य और अंत का कारण हैं।


सारांश (श्लोक 8-20):

  1. भगवान सृष्टि का मूल कारण और सभी प्राणियों के जीवन का आधार हैं।
  2. ज्ञानी भक्त भगवान के स्वरूप को समझकर उनकी भक्ति में लीन हो जाते हैं।
  3. भगवान अपने भक्तों के अज्ञान को ज्ञान के दीपक से मिटाते हैं।
  4. अर्जुन भगवान की महिमा सुनने के लिए उत्सुक हैं और उनकी विभूतियों का वर्णन विस्तार से चाहते हैं।
  5. भगवान कहते हैं कि उनकी विभूतियाँ अनंत हैं और वे सृष्टि के प्रत्येक पहलू में व्याप्त हैं।

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