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शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

भागवत गीता: अध्याय 11 (विश्वरूप दर्शन योग) भगवान का उपदेश और आशीर्वाद (श्लोक 31-46)

भागवत गीता: अध्याय 11 (विश्वरूप दर्शन योग) भगवान का उपदेश और आशीर्वाद (श्लोक 31-46) का अर्थ और व्याख्या

श्लोक 31

अख्याहि मे को भवानुग्ररूपो।
नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यम्।
न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्॥

अर्थ:
"हे उग्ररूप वाले देव, आप कौन हैं? मैं आपको प्रणाम करता हूँ। कृपया मुझ पर कृपा करें। मैं आपके प्रारंभिक स्वरूप को जानना चाहता हूँ क्योंकि मैं आपकी प्रवृत्ति (कार्य) को नहीं समझ पा रहा हूँ।"

व्याख्या:
भगवान के विश्वरूप की विशालता और भयानकता देखकर अर्जुन भयभीत हो जाते हैं। वे भगवान से उनके रूप और उद्देश्य को स्पष्ट करने की प्रार्थना करते हैं।


श्लोक 32

श्रीभगवानुवाच
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो।
लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे।
येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: मैं समय (काल) हूँ, जो लोकों के विनाश के लिए बढ़ा हुआ हूँ। यहाँ आए सभी योद्धा, चाहे तुम्हारे बिना भी, नष्ट हो जाएंगे।"

व्याख्या:
भगवान अपने रूप को "काल" के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो सृष्टि का संहारक है। वे अर्जुन को बताते हैं कि महाभारत के युद्ध में सभी योद्धाओं का विनाश निश्चित है।


श्लोक 33

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व।
जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव।
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥

अर्थ:
"इसलिए, उठो और यश प्राप्त करो। अपने शत्रुओं को पराजित करो और समृद्ध राज्य का आनंद लो। इन योद्धाओं का वध पहले ही मेरे द्वारा तय किया जा चुका है। हे सव्यसाचिन, तुम केवल निमित्त मात्र हो।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन से कहते हैं कि उन्हें युद्ध करना है, लेकिन वह केवल एक माध्यम हैं। भगवान ने पहले ही नियति तय कर दी है, और अर्जुन को केवल अपने कर्तव्य का पालन करना है।


श्लोक 34

द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च।
कर्णं तथान्यानपि योधवीरान्।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा।
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्॥

अर्थ:
"द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण और अन्य महान योद्धा मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं। इसलिए, तुम इन्हें मारो और चिंता मत करो। युद्ध करो और शत्रुओं को पराजित करो।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को आश्वासन देते हैं कि उनका विजय निश्चित है क्योंकि उनके शत्रु पहले ही भगवान की योजना के तहत नष्ट हो चुके हैं।


श्लोक 35

संजय उवाच
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य।
कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं।
सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य॥

अर्थ:
"संजय ने कहा: केशव के इन वचनों को सुनकर, अर्जुन (किरीटी) भयभीत और काँपते हुए, हाथ जोड़कर भगवान को बार-बार प्रणाम करते हुए, गदगद वाणी में बोले।"

व्याख्या:
भगवान के वचनों और विश्वरूप को देखकर अर्जुन भय और श्रद्धा से भर गए। उनकी विनम्रता और समर्पण भगवान के प्रति उनकी गहरी भक्ति को दर्शाते हैं।


श्लोक 36

अर्जुन उवाच
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या।
जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति।
सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः॥

अर्थ:
"अर्जुन ने कहा: हे हृषीकेश, आपके यश का वर्णन करना उचित है, जिससे यह जगत हर्षित और प्रसन्न होता है। राक्षस भयभीत होकर भागते हैं और सिद्धगण आपकी स्तुति करते हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के दिव्य स्वरूप और उनकी महिमा को स्वीकार करते हैं। भगवान की महिमा से दुष्ट प्राणी भयभीत होते हैं और भक्त प्रसन्न होते हैं।


श्लोक 37

कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्।
गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास।
त्वमक्षरं सत्यमसत्परं यत्॥

अर्थ:
"हे महात्मा, ब्रह्मा के भी आदिकर्ता, अनंत, देवताओं के स्वामी और जगत के निवास स्थान, आपको कौन प्रणाम न करे? आप अक्षय और सत्य हैं, जो इस सृष्टि के परे हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान की श्रेष्ठता और उनकी महिमा का वर्णन करते हैं। भगवान ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ और सृष्टि का आधार हैं।


श्लोक 38

त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः।
त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम।
त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥

अर्थ:
"आप आदिदेव, पुरातन पुरुष और इस विश्व के परम आधार हैं। आप जानने वाले, जानने योग्य और परम धाम हैं। यह सम्पूर्ण विश्व आपके अनंत रूप से व्याप्त है।"

व्याख्या:
भगवान को सृष्टि के मूल और सर्वोच्च तत्व के रूप में वर्णित किया गया है। वे ही सबकुछ हैं और सबकुछ उनमें स्थित है।


श्लोक 39

वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः।
प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः।
पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥

अर्थ:
"आप वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चंद्रमा, प्रजापति और प्रपितामह हैं। मैं आपको हजारों बार प्रणाम करता हूँ और बार-बार आपको प्रणाम करता हूँ।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान को सभी प्राकृतिक शक्तियों और देवताओं का स्रोत मानकर बार-बार उनकी स्तुति और प्रणाम करते हैं।


श्लोक 40

नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते।
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं।
सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥

अर्थ:
"आपको आगे, पीछे और हर दिशा में प्रणाम। हे सर्वशक्तिमान, आपकी शक्ति और पराक्रम अनंत हैं। आप सबकुछ व्याप्त करते हैं, इसलिए आप ही सबकुछ हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के सर्वव्यापक स्वरूप को स्वीकार करते हैं और उन्हें हर दिशा में प्रणाम करते हैं।


श्लोक 41-42

सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं।
हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदं।
मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि।
विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं।
तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्॥

अर्थ:
"हे कृष्ण, हे यादव, हे सखा, मैंने आपको मित्र मानकर जो भी अज्ञानतावश, प्रेमवश या लापरवाही में कहा है, चाहे हँसी में, खेल में, शय्या पर, भोजन में या अन्यत्र – उन सभी के लिए मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान के विश्वरूप को देखकर अर्जुन को अपनी गलती का अहसास होता है। वे भगवान से क्षमा माँगते हैं कि उन्होंने उन्हें एक सामान्य मित्र समझकर कई बार असम्मानजनक बातें कीं।


श्लोक 43

पितासि लोकस्य चराचरस्य।
त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो।
लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव॥

अर्थ:
"आप इस चराचर संसार के पिता, पूज्य और महान गुरु हैं। तीनों लोकों में कोई भी आपके समान या आपसे श्रेष्ठ नहीं है। आपकी महिमा अप्रतिम है।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान को चराचर संसार का आधार और सभी के पूज्य गुरु के रूप में स्वीकार करते हैं। वे बताते हैं कि उनकी महिमा की कोई तुलना नहीं है।


श्लोक 44

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं।
प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः।
प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्॥

अर्थ:
"इसलिए मैं आपको प्रणाम करता हूँ और अपने शरीर को झुकाकर आपसे क्षमा की प्रार्थना करता हूँ। जैसे पिता पुत्र को, सखा सखा को, और प्रिय प्रियजन को सहन करता है, वैसे ही आप भी मुझे क्षमा करें।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान से प्रार्थना करते हैं कि वे उन्हें अपनी शरण में लें और उनकी गलतियों को क्षमा करें। यह भगवान के प्रति अर्जुन के पूर्ण समर्पण और विनम्रता को दर्शाता है।


श्लोक 45-46

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा।
भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देव रूपं।
प्रसीद देवेश जगन्निवास॥
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तम्।
इच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन।
सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते॥

अर्थ:
"आपके इस अद्भुत रूप को देखकर मैं हर्षित हुआ हूँ, लेकिन मेरा मन भयभीत हो गया है। हे देवेश, हे जगन्निवास, कृपया मुझ पर कृपा करें और मुझे फिर से आपका चतुर्भुज रूप दिखाएँ। हे सहस्रबाहु, मैं आपको उसी रूप में देखना चाहता हूँ।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के विश्वरूप को देखकर उत्साहित होने के साथ-साथ भयभीत भी हैं। वे भगवान से अनुरोध करते हैं कि वे अपने शांत और चतुर्भुज रूप में प्रकट हों, जो अधिक सहज और प्रिय है।


सारांश (श्लोक 31-46):

  1. भगवान ने अपने विश्वरूप में स्वयं को "काल" (विनाश का रूप) बताया।
  1. अर्जुन ने देखा कि सभी योद्धा भगवान के मुख में प्रवेश कर रहे हैं।
  2. अर्जुन ने भगवान से क्षमा मांगी और उनकी महिमा का वर्णन किया।
  3. भगवान के भयंकर रूप को देखकर अर्जुन भयभीत हो गए और उनसे कृपा की प्रार्थना की।
  4. अर्जुन ने भगवान से अपने चतुर्भुज रूप में प्रकट होने का अनुरोध किया।

शनिवार, 25 जनवरी 2025

भागवत गीता: अध्याय 11 (विश्वरूप दर्शन योग) अर्जुन का भय और श्रद्धा (श्लोक 21-30)

भागवत गीता: अध्याय 11 (विश्वरूप दर्शन योग) अर्जुन का भय और श्रद्धा (श्लोक 21-30) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 21

अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति।
केचिद्भीताः प्रांजलयो गृणन्ति।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः।
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः॥

अर्थ:
"देवताओं के समूह आपके इस रूप में प्रवेश कर रहे हैं। कुछ भयभीत होकर हाथ जोड़कर आपकी स्तुति कर रहे हैं। महर्षि और सिद्धजन ‘स्वस्ति’ कहकर आपको अत्यधिक स्तुतियों से प्रशंसा कर रहे हैं।"

व्याख्या:
भगवान के विश्वरूप को देखकर देवता और ऋषि विस्मित हैं। कुछ भयभीत हैं, तो कुछ भगवान की महिमा का गुणगान कर रहे हैं। यह उनकी दिव्यता और भयावहता दोनों को दर्शाता है।


श्लोक 22

रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या।
विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च।
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा।
वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे॥

अर्थ:
"रुद्र, आदित्य, वसु, साध्य, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार, मरुत, पितर, गंधर्व, यक्ष, असुर, और सिद्धगण, सभी आपको देख रहे हैं और विस्मित हो रहे हैं।"

व्याख्या:
भगवान के विश्वरूप के दर्शन से देवता, गंधर्व, यक्ष, और सिद्धजन सभी चकित और विस्मयपूर्ण भाव से उनकी महिमा का अनुभव कर रहे हैं।


श्लोक 23

रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं।
महाबाहो बहुबाहूरुपादम्।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं।
दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम्॥

अर्थ:
"हे महाबाहु, आपके इस विशाल रूप में अनेक मुख, नेत्र, भुजाएँ, जंघाएँ, पैर, उदर और भयंकर दाँत हैं। इसे देखकर लोक और मैं स्वयं भी भयभीत हो रहे हैं।"

व्याख्या:
भगवान का विश्वरूप उनकी विशालता, विविधता और शक्ति का प्रतीक है। इस रूप का भव्य और भयानक स्वरूप लोकों को और अर्जुन को भयभीत कर रहा है।


श्लोक 24

नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं।
व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्।
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा।
धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो॥

अर्थ:
"आपका रूप, जो आकाश तक फैला हुआ है, जो तेज से भरपूर और विभिन्न रंगों वाला है, जिसमें विशाल और प्रज्वलित नेत्र हैं – इसे देखकर मेरा अंतःकरण भयभीत हो गया है। हे विष्णु, मुझे न धैर्य मिल रहा है और न शांति।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के तेजस्वी और भयानक रूप को देखकर भयभीत और अशांत हो जाते हैं। उनका मन इस रूप की विशालता को समझने में असमर्थ हो रहा है।


श्लोक 25

दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि।
दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि।
दिशो न जाने न लभे च शर्म।
प्रसीद देवेश जगन्निवास॥

अर्थ:
"आपके मुख, जो भयंकर दाँतों से युक्त और कालानल (महान अग्नि) के समान प्रतीत हो रहे हैं, देखकर मैं दिशाओं को नहीं पहचान पा रहा हूँ और मुझे शांति भी नहीं मिल रही है। हे देवताओं के स्वामी और जगत के आधार, मुझ पर कृपा करें।"

व्याख्या:
भगवान के मुख, जो विनाश का प्रतीक हैं, अर्जुन को भयभीत कर देते हैं। वे भगवान से शांत और कृपालु रूप दिखाने की प्रार्थना करते हैं।


श्लोक 26-27

अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः।
सर्वे सहैवावनिपालसङ्घैः।
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ।
सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः॥
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति।
दंष्ट्राकरालानि भयानकानि।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु।
संदृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः॥

अर्थ:
"यहाँ धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, राजा, भीष्म, द्रोण, कर्ण और हमारी ओर के प्रमुख योद्धा आपके भयानक मुखों में तेजी से प्रवेश कर रहे हैं। कुछ उनके भयंकर दाँतों के बीच फँसे हुए हैं और उनके सिर कुचले जा रहे हैं।"

व्याख्या:
भगवान के विश्वरूप में अर्जुन महाभारत के युद्ध में योद्धाओं के विनाश को स्पष्ट रूप से देख रहे हैं। यह श्लोक समय की सर्वभक्षी शक्ति और भगवान की अजेयता को प्रकट करता है।


श्लोक 28

यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः।
समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति।
तथा तवामी नरलोकवीरा।
विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति॥

अर्थ:
"जैसे नदियों की अनेक धाराएँ जल के वेग से समुद्र की ओर जाती हैं, वैसे ही ये नरलोक के वीर आपके प्रज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक जीवन के चक्र को दर्शाता है, जिसमें सभी प्राणी भगवान की ओर लौटते हैं। युद्ध के वीर योद्धा भगवान के मुखों में समाहित हो रहे हैं, जो समय के प्रवाह को दर्शाता है।


श्लोक 29

यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गाः।
विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः।
तथैव नाशाय विशन्ति लोकाः।
तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः॥

अर्थ:
"जैसे पतंगे आग में तीव्र वेग से प्रवेश करके नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही ये लोक भी आपके मुखों में तीव्र वेग से प्रवेश करके विनाश को प्राप्त हो रहे हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के विश्वरूप की विनाशकारी शक्ति को प्रकट करता है। समय की अनिवार्यता और सृष्टि के अंत का यह दृश्य अर्जुन को गहरे भय में डाल देता है।


श्लोक 30

लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्तात्।
लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं।
भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो॥

अर्थ:
"आप अपने प्रज्वलित मुखों से चारों ओर समस्त लोकों को निगल रहे हैं। आपकी तेजस्वी ज्वालाओं ने समस्त जगत को भर दिया है और आपकी उग्र चमक इसे झुलसा रही है।"

व्याख्या:
भगवान के विश्वरूप में उनकी सर्वभक्षी शक्ति और तेजस्विता का वर्णन किया गया है। यह उनकी सृष्टि और विनाश दोनों की अनिवार्यता को दर्शाता है।


सारांश (श्लोक 21-30):

  1. भगवान के विश्वरूप को देखकर देवता, ऋषि और अन्य प्राणी विस्मय और भय से भर जाते हैं।
  2. अर्जुन देखते हैं कि महाभारत के युद्ध के सभी योद्धा भगवान के भयानक मुखों में प्रवेश कर रहे हैं, जो समय के विनाशकारी स्वरूप का प्रतीक है।
  3. भगवान का विश्वरूप उनकी अनंतता, शक्ति और सृष्टि-विनाश दोनों का प्रतीक है।
  4. यह दृश्य अर्जुन को भयभीत और विस्मित कर देता है, और वह भगवान से कृपा की प्रार्थना करते हैं।

शनिवार, 18 जनवरी 2025

भागवत गीता: अध्याय 11 (विश्वरूप दर्शन योग) भगवान का विराट रूप (श्लोक 6-20)

भागवत गीता: अध्याय 11 (विश्वरूप दर्शन योग) भगवान का विराट रूप (श्लोक 6-20) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 6

पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत॥

अर्थ:
"हे भारत (अर्जुन), आदित्य, वसु, रुद्र, अश्विनीकुमार और मरुतगणों को देखो। इसके अतिरिक्त, अनेक ऐसे अद्भुत दृश्य देखो, जिन्हें तुमने पहले कभी नहीं देखा।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को अपने विश्वरूप में सृष्टि के प्रमुख देवताओं, तत्वों और असाधारण दृश्यों को देखने का आमंत्रण देते हैं। यह उनकी अनंत महिमा को प्रकट करता है।


श्लोक 7

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि॥

अर्थ:
"हे गुडाकेश (अर्जुन), इस शरीर में ही तुम संपूर्ण चर और अचर जगत को देखो और वह सब भी देखो जिसे तुम देखना चाहते हो।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को बताते हैं कि उनके विश्वरूप में सारा संसार समाहित है। यह श्लोक उनकी सर्वव्यापकता और सृष्टि में उनकी उपस्थिति को प्रकट करता है।


श्लोक 8

न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्॥

अर्थ:
"तुम मुझे अपने सामान्य नेत्रों से नहीं देख सकते। इसलिए, मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूँ। मेरे इस दिव्य योग ऐश्वर्य को देखो।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि उनका विश्वरूप साधारण नेत्रों से देख पाना संभव नहीं है। वे अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान करते हैं ताकि वे इस अद्भुत रूप का अनुभव कर सकें।


श्लोक 9

संजय उवाच
एवमुक्त्वा ततः कृष्णो महायोगेश्वरो हरिः।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्॥

अर्थ:
"संजय ने कहा: इस प्रकार कहकर महायोगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना परम ऐश्वर्यपूर्ण रूप दिखाया।"

व्याख्या:
संजय धृतराष्ट्र को बताते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उनका विश्वरूप दिखाया, जो उनकी दिव्यता और महिमा का प्रतीक है।


श्लोक 10-11

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्॥
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्॥

अर्थ:
"भगवान का वह रूप अनेक मुखों, आँखों और अद्भुत दृश्यों वाला था। उसमें अनेक दिव्य आभूषण और दिव्य शस्त्र थे। वह दिव्य माला और वस्त्र धारण किए हुए, दिव्य गंध से सुशोभित, और सभी दिशाओं में मुख वाले, अनंत और सर्वत्र व्याप्त था।"

व्याख्या:
भगवान के विश्वरूप का यह वर्णन उनकी अनंत महिमा और दिव्यता को दर्शाता है। उनके इस स्वरूप में सृष्टि के सभी तत्व और शक्तियाँ समाहित थीं।


श्लोक 12

दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः॥

अर्थ:
"यदि आकाश में एक साथ हजार सूर्य उदय हों, तो वह प्रकाश उस महान आत्मा (भगवान) के तेज के समान होगा।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के विश्वरूप के असीम तेज और दिव्यता का वर्णन करता है, जो मनुष्य की कल्पना से परे है।


श्लोक 13

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा॥

अर्थ:
"अर्जुन ने उस समय भगवान के शरीर में एक ही स्थान पर सम्पूर्ण जगत को अनेक भेदों में विभक्त देखा।"

व्याख्या:
अर्जुन ने भगवान के विश्वरूप में संपूर्ण सृष्टि को देखा। यह उनके सर्वव्यापी स्वरूप को दर्शाता है, जिसमें सब कुछ समाहित है।


श्लोक 14

ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजयः।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत॥

अर्थ:
"उस दृश्य को देखकर धनंजय (अर्जुन) विस्मय से भर गए और उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो गए। उन्होंने भगवान को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा।"

व्याख्या:
भगवान का विश्वरूप देखकर अर्जुन विस्मय और श्रद्धा से अभिभूत हो गए। उनका यह अनुभव भगवान की दिव्यता के प्रति उनके समर्पण को दर्शाता है।


श्लोक 15

अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देवे देव।
शरीरे सर्वानथ भूतविशेषसंघान्।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थम्।
ऋषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्॥

अर्थ:
"अर्जुन ने कहा: हे देवों के देव, मैं आपके शरीर में सभी देवताओं, विभिन्न प्राणियों के समूह, कमलासन पर स्थित ब्रह्मा और सभी ऋषियों और दिव्य नागों को देख रहा हूँ।"

व्याख्या:
अर्जुन ने भगवान के विश्वरूप में संपूर्ण सृष्टि के जीवों, देवताओं और ब्रह्मा को देखा। यह भगवान की अनंतता और उनकी सृष्टि की संरचना को दर्शाता है।


श्लोक 16

अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं।
पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं।
पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप॥

अर्थ:
"मैं आपके अनंत रूप को हर दिशा में देख रहा हूँ, जिसमें अनेक भुजाएँ, पेट, मुख और नेत्र हैं। हे विश्वेश्वर, मुझे न तो आपका अंत दिखाई देता है, न मध्य और न ही आदि।"

व्याख्या:
भगवान के विश्वरूप की अनंतता और उनकी महिमा को व्यक्त करते हुए अर्जुन बताते हैं कि यह रूप किसी सीमा में बंधा हुआ नहीं है।


श्लोक 17

किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च।
तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्।
दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्॥

अर्थ:
"मैं आपको मुकुट, गदा और चक्र धारण किए हुए देख रहा हूँ। आपका तेज चारों ओर से प्रकाशमान है, जो अग्नि और सूर्य के तेज के समान है और जिसे देख पाना कठिन है।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के विश्वरूप की दिव्यता और तेज को प्रकट करता है, जो मानव नेत्रों से देखना अत्यंत कठिन है।


श्लोक 18

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं।
त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता।
सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे॥

अर्थ:
"आप अविनाशी, परम और जानने योग्य सत्य हैं। आप इस विश्व के परम आधार हैं। आप अविनाशी, शाश्वत धर्म के रक्षक और सनातन पुरुष हैं। यही मेरा मत है।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के स्वरूप की महिमा को बताता है। अर्जुन उन्हें सृष्टि के मूल आधार और धर्म के संरक्षक के रूप में स्वीकार करते हैं।


श्लोक 19

अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यम्।
अनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम्।
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्॥

अर्थ:
"आप अनादि, मध्य और अंतहीन हैं। आपकी भुजाएँ अनंत हैं, और आपके नेत्र चंद्रमा और सूर्य के समान हैं। आपके मुख अग्नि के समान दीप्तिमान हैं, और अपने तेज से आप इस समस्त विश्व को प्रकाशित कर

रहे हैं।"

व्याख्या:
भगवान के विश्वरूप का यह वर्णन उनकी अनंतता, शक्ति और दिव्यता को दर्शाता है। यह रूप संपूर्ण ब्रह्मांड को प्रकाशित करता है।


श्लोक 20

द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि।
व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदम्।
लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्॥

अर्थ:
"आपके इस अद्भुत और भयानक रूप से आकाश और पृथ्वी के बीच का यह अंतराल और सभी दिशाएँ व्याप्त हो गई हैं। हे महात्मा, आपके इस रूप को देखकर तीनों लोक विचलित हो रहे हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के विश्वरूप की व्यापकता और भयावहता को दर्शाता है। यह रूप पूरे ब्रह्मांड को भर देता है और इसे देखकर सभी लोक (भूत, भविष्य, वर्तमान) हिल जाते हैं।


सारांश (श्लोक 6-20):

  1. भगवान ने अर्जुन को अपना विश्वरूप दिखाया, जिसमें सृष्टि के सभी तत्व और देवता समाहित हैं।
  2. यह रूप अनंत, तेजस्वी और सर्वव्यापक है, जिसे देखना सामान्य नेत्रों से संभव नहीं है।
  3. अर्जुन ने भगवान की अनंतता, दिव्यता और सृष्टि के आधार के रूप में उनकी महिमा का अनुभव किया।
  4. भगवान का विश्वरूप सम्पूर्ण ब्रह्मांड को प्रकाशित करता है और तीनों लोकों को प्रभावित करता है।

शनिवार, 11 जनवरी 2025

भागवत गीता: अध्याय 11 (विश्वरूप दर्शन योग) अर्जुन का श्रीकृष्ण से अनुरोध (श्लोक 1-5)

भागवत गीता: अध्याय 11 (विश्वरूप दर्शन योग) अर्जुन का श्रीकृष्ण से अनुरोध (श्लोक 1-5) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 1

अर्जुन उवाच
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम॥

अर्थ:
"अर्जुन ने कहा: आपकी कृपा से, आपने जो आत्मा से संबंधित परम गोपनीय ज्ञान मुझे दिया है, उससे मेरा मोह समाप्त हो गया है।"

व्याख्या:
यह श्लोक दर्शाता है कि अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों से आत्मिक ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं और उनका मानसिक भ्रम अब समाप्त हो गया है। अर्जुन अपने हृदय में स्पष्टता और शांति महसूस कर रहे हैं।


श्लोक 2

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।
त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्॥

अर्थ:
"हे कमलनयन, मैंने आपसे विस्तार से प्राणियों की उत्पत्ति और विनाश के बारे में सुना है, और साथ ही आपकी अविनाशी महिमा को भी जाना है।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के उपदेशों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं। वे कहते हैं कि उन्होंने भगवान से सृष्टि के चक्र (उत्पत्ति और विनाश) और भगवान की अनंत महिमा के बारे में जाना है।


श्लोक 3

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम॥

अर्थ:
"हे परमेश्वर, आपने जैसा अपने विषय में कहा, वह सत्य है। हे पुरुषोत्तम, मैं आपके उस ऐश्वर्यपूर्ण स्वरूप को देखना चाहता हूँ।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के प्रति श्रद्धा और विश्वास व्यक्त करते हुए उनसे उनके दिव्य विश्वरूप (संपूर्ण स्वरूप) को देखने की इच्छा प्रकट करते हैं। अर्जुन का यह प्रश्न भगवान की दिव्यता को प्रत्यक्ष अनुभव करने की उनकी उत्कंठा को दर्शाता है।


श्लोक 4

मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयाऽत्मानमव्ययम्॥

अर्थ:
"हे प्रभो, यदि आप मानते हैं कि मैं आपके उस रूप को देखने में सक्षम हूँ, तो हे योगेश्वर, कृपया मुझे अपना वह अविनाशी रूप दिखाइए।"

व्याख्या:
अर्जुन विनम्रता और समर्पण के साथ भगवान से निवेदन करते हैं कि यदि वे योग्य हैं, तो भगवान उन्हें अपना विश्वरूप दिखाएँ। यह अर्जुन की नम्रता और भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण को प्रकट करता है।


श्लोक 5

श्रीभगवानुवाच
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च॥

अर्थ:
"श्रीभगवान ने कहा: हे पार्थ, मेरे सैकड़ों और हजारों दिव्य रूपों को देखो, जो विभिन्न प्रकार, रंग और आकार के हैं।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को उनका अनुरोध स्वीकार करते हुए विश्वरूप के दर्शन का प्रस्ताव देते हैं। वे कहते हैं कि वे अर्जुन को अपनी अनंत और विविध महिमा दिखाएंगे। यह भगवान की अनंतता और उनकी सभी रूपों में विद्यमान दिव्यता को प्रकट करता है।


सारांश (श्लोक 1-5):

  1. अर्जुन ने भगवान के उपदेशों से अपने भ्रम के समाप्त होने और आत्मिक ज्ञान प्राप्त करने की बात कही।
  2. अर्जुन ने भगवान से उनके दिव्य ऐश्वर्यपूर्ण विश्वरूप के दर्शन करने की विनती की।
  3. भगवान ने अर्जुन की विनती स्वीकार की और उन्हें अपने अनंत और विविध दिव्य रूपों को देखने का अवसर दिया।
  4. यह श्लोक भक्त और भगवान के बीच के प्रेम, विश्वास और समर्पण को दर्शाता है।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

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