भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) भक्तों की विशेषता और उनका प्रेम (श्लोक 23-30) का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 23
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि॥
अर्थ:
"उनकी बुद्धि कम है जो अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, क्योंकि उनके द्वारा प्राप्त फल अस्थायी होते हैं। जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं को प्राप्त होते हैं, जबकि मेरे भक्त मुझे प्राप्त होते हैं।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि अन्य देवताओं की पूजा भौतिक इच्छाओं को पूरा करती है, लेकिन वे अस्थायी होती हैं। भगवान की भक्ति व्यक्ति को भगवान तक पहुंचाती है, जो शाश्वत और सर्वोच्च फल है।
श्लोक 24
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्॥
अर्थ:
"जो अज्ञानी हैं, वे मुझे (भगवान को) अव्यक्त से व्यक्त हुआ मानते हैं। वे मेरे सर्वोच्च और अविनाशी स्वरूप को नहीं जानते।"
व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के दिव्य और शाश्वत स्वरूप का वर्णन करता है। अज्ञानी लोग भगवान को केवल एक भौतिक व्यक्तित्व मानते हैं और उनके परम आत्मा स्वरूप को नहीं समझ पाते।
श्लोक 25
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥
अर्थ:
"मैं सबके लिए प्रकट नहीं हूँ, क्योंकि मैं अपनी योगमाया से ढका हुआ हूँ। यह मूढ़ (अज्ञानी) लोग मुझे अजन्मा और अविनाशी नहीं जानते।"
व्याख्या:
भगवान अपनी योगमाया के माध्यम से अपने दिव्य स्वरूप को छुपाते हैं। अज्ञानी लोग उनकी वास्तविकता को नहीं समझ पाते और उन्हें भौतिक सीमाओं में बांधकर देखते हैं।
श्लोक 26
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥
अर्थ:
"हे अर्जुन, मैं भूत, वर्तमान, और भविष्य के सभी प्राणियों को जानता हूँ। लेकिन कोई मुझे नहीं जानता।"
व्याख्या:
भगवान सर्वज्ञ हैं और समय के तीनों कालों (भूत, वर्तमान, भविष्य) को जानते हैं। लेकिन उनकी योगमाया के कारण, प्राणी उनकी वास्तविकता को समझने में असमर्थ हैं।
श्लोक 27
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप॥
अर्थ:
"हे भारत, इच्छा और द्वेष से उत्पन्न द्वंद्वों के कारण, सभी प्राणी सृष्टि में भ्रमित हो जाते हैं।"
व्याख्या:
इच्छा (लालसा) और द्वेष (नफरत) के कारण प्राणी भौतिक संसार के मोह में फंसे रहते हैं। यह मोह उन्हें भगवान के वास्तविक स्वरूप को जानने से रोकता है।
श्लोक 28
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः॥
अर्थ:
"लेकिन जिनके पाप नष्ट हो चुके हैं और जिन्होंने पुण्य कर्म किए हैं, वे द्वंद्वों के मोह से मुक्त होकर दृढ़ निश्चय के साथ मेरी भक्ति करते हैं।"
व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि भगवान की भक्ति में आने के लिए पापों का नाश और मन की शुद्धि आवश्यक है। ऐसे व्यक्ति भगवान के प्रति समर्पित होकर द्वंद्वों से मुक्त हो जाते हैं।
श्लोक 29
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्॥
अर्थ:
"जो लोग बुढ़ापे और मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए मेरी शरण लेते हैं, वे ब्रह्म, आध्यात्मिक ज्ञान, और समस्त कर्मों के रहस्य को जानते हैं।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो लोग मोक्ष प्राप्ति की इच्छा रखते हैं और उनकी शरण में आते हैं, वे ब्रह्म और आत्मा के ज्ञान को समझते हैं और अपने कर्मों को समझदारी से करते हैं।
श्लोक 30
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः॥
अर्थ:
"जो लोग मुझे अधिभूत (भौतिक तत्व), अधिदैव (देवता), और अधियज्ञ (यज्ञ का अधिष्ठाता) के रूप में जानते हैं, वे मृत्यु के समय भी मुझे जानते हैं।"
व्याख्या:
यह श्लोक उन लोगों का वर्णन करता है जो भगवान के व्यापक स्वरूप को समझते हैं। ऐसे व्यक्ति मृत्यु के समय भी भगवान का स्मरण करते हुए मोक्ष प्राप्त करते हैं।
सारांश:
- अन्य देवताओं की पूजा अस्थायी फल देती है, जबकि भगवान की भक्ति शाश्वत फल प्रदान करती है।
- भगवान योगमाया से ढके होते हैं, इसलिए अज्ञानी लोग उनके दिव्य स्वरूप को नहीं समझ पाते।
- इच्छा और द्वेष से प्राणी संसार के मोह में फंसे रहते हैं।
- पुण्य कर्म और पापों का नाश भगवान की भक्ति के लिए आवश्यक हैं।
- भगवान का व्यापक ज्ञान (अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ) समझकर मृत्यु के समय भी उन्हें प्राप्त किया जा सकता है।
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