भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) परमात्मा की विभूतियाँ (श्लोक 13-22) का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 13
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्॥
अर्थ:
"यह सम्पूर्ण संसार तीन गुणों (सत्त्व, रजस, और तमस) से मोहित है और मुझे, जो इन गुणों से परे और अविनाशी हूँ, नहीं जानता।"
व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि संसार के सभी प्राणी इन तीन गुणों (प्रकृति के प्रभाव) में उलझे रहते हैं। इस मोह के कारण वे भगवान के परम और निर्गुण स्वरूप को नहीं पहचान पाते।
श्लोक 14
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
अर्थ:
"यह मेरी माया, जो इन तीन गुणों से बनी है, दैवी और अत्यंत कठिन है। लेकिन जो मेरी शरण लेते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ यह बताते हैं कि संसार की माया अत्यंत प्रभावशाली है। इसे केवल भगवान की शरण लेने से ही पार किया जा सकता है। भक्ति मार्ग ही इससे मुक्ति का उपाय है।
श्लोक 15
न मां दु्ष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः॥
अर्थ:
"जो पाप में लिप्त हैं, मूर्ख हैं, और जिनकी बुद्धि माया से छीन ली गई है, वे मेरी शरण में नहीं आते। ऐसे लोग आसुरी स्वभाव को अपनाते हैं।"
व्याख्या:
भगवान समझाते हैं कि जिनका ज्ञान माया के प्रभाव से ढक गया है और जो आसुरी स्वभाव में फंसे हुए हैं, वे भगवान के प्रति भक्ति और श्रद्धा नहीं रखते।
श्लोक 16
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥
अर्थ:
"हे अर्जुन, चार प्रकार के पुण्यात्मा लोग मेरी भक्ति करते हैं – पीड़ित, जिज्ञासु, धन चाहने वाले, और ज्ञानी।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ भक्तों के चार प्रकार बताते हैं। इन चारों में से सभी भगवान के प्रति झुकाव रखते हैं, लेकिन इनमें ज्ञानी श्रेष्ठ है क्योंकि वह भगवान को उनकी पूर्णता में समझता है।
श्लोक 17
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः॥
अर्थ:
"इनमें ज्ञानी, जो सदा मुझमें स्थिर रहता है और जिसकी भक्ति केवल मुझमें है, सबसे श्रेष्ठ है। वह मुझे अत्यंत प्रिय है, और मैं भी उसे प्रिय हूँ।"
व्याख्या:
भगवान ज्ञानी को सर्वोच्च भक्त बताते हैं क्योंकि वह भक्ति और ज्ञान के साथ भगवान में पूर्ण रूप से स्थिर रहता है। यह परिपूर्ण प्रेम और श्रद्धा का प्रतीक है।
श्लोक 18
उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थित: स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्॥
अर्थ:
"सभी भक्त उदार हैं, लेकिन ज्ञानी तो मेरा ही स्वरूप है। क्योंकि वह अपने आत्मा में मुझमें स्थित रहता है और मुझे ही परम उद्देश्य मानता है।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण सभी प्रकार के भक्तों को श्रेष्ठ और उदार मानते हैं, लेकिन ज्ञानी को विशेष मानते हैं क्योंकि वह भगवान में आत्मसाक्षात्कार के साथ पूर्णत: स्थित होता है।
श्लोक 19
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥
अर्थ:
"कई जन्मों के बाद ज्ञान प्राप्त करने वाला मुझे इस सत्य के साथ शरण लेता है कि 'वासुदेव ही सब कुछ हैं।' ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।"
व्याख्या:
यह श्लोक ज्ञान प्राप्ति की यात्रा की गहराई को दर्शाता है। भगवान को पूर्ण रूप से जानने वाला व्यक्ति समझता है कि वासुदेव (श्रीकृष्ण) ही संपूर्ण सृष्टि का आधार हैं। ऐसा भक्त महान और दुर्लभ होता है।
श्लोक 20
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता:।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियता: स्वया॥
अर्थ:
"जिनका ज्ञान कामनाओं से ढक गया है, वे अन्य देवताओं की पूजा करते हैं और अपनी प्रकृति के अनुसार नियमों का पालन करते हैं।"
व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि जो लोग अपनी इच्छाओं में फंसे होते हैं, वे अन्य देवताओं की पूजा करते हैं। उनकी पूजा भौतिक लाभों के लिए होती है और यह भगवान की भक्ति से भिन्न है।
श्लोक 21
यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्॥
अर्थ:
"जो भी भक्त किसी विशेष देवता की श्रद्धा से पूजा करना चाहता है, मैं उसी की श्रद्धा को स्थिर करता हूँ।"
व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे ही भक्तों की विभिन्न इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए उनकी श्रद्धा को स्थिर करते हैं। सभी प्रकार की भक्ति में भगवान ही मूल शक्ति हैं।
श्लोक 22
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हि तान्॥
अर्थ:
"वह भक्त उसी श्रद्धा से प्रेरित होकर उस देवता की पूजा करता है और अपनी इच्छाएँ प्राप्त करता है। लेकिन वे इच्छाएँ वास्तव में मेरे द्वारा ही प्रदान की जाती हैं।"
व्याख्या:
भगवान यह स्पष्ट करते हैं कि सभी देवताओं द्वारा दिया गया फल वास्तव में भगवान के आदेश से प्राप्त होता है। भगवान सृष्टि का मूल स्रोत हैं और अन्य देवता उनके माध्यम हैं।
सारांश:
- यह संसार प्रकृति के तीन गुणों से मोहित है, जिससे भगवान का सच्चा स्वरूप छिपा रहता है।
- माया को पार करने के लिए भगवान की शरण लेना अनिवार्य है।
- चार प्रकार के भक्त भगवान की भक्ति करते हैं: आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी, और ज्ञानी। इनमें ज्ञानी को सर्वोच्च माना गया है।
- सभी इच्छाएँ और भक्ति अंततः भगवान से प्रेरित और उन्हीं से पूरी होती हैं।
- भगवान ही समस्त सृष्टि के केंद्र हैं, और यह समझने वाला महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।
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