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शनिवार, 14 सितंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) सच्चे ज्ञान की प्राप्ति (श्लोक 31-34)

 भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) सच्चे ज्ञान की प्राप्ति (श्लोक 31-34) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 31

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥

अर्थ:
"अक्षर (अविनाशी) ब्रह्म परम है, स्वभाव को आध्यात्म कहा गया है। भूतों (जीवों) की उत्पत्ति का कारण विसर्ग (त्याग या सृजन) है, जिसे कर्म कहा जाता है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण ब्रह्म, आध्यात्म और कर्म का परिचय देते हैं।

  1. अक्षर ब्रह्म: यह परम तत्व है, जो अविनाशी और शाश्वत है।
  2. स्वभाव: आत्मा का स्वाभाविक गुण है, जो उसके आध्यात्मिक स्वरूप को दर्शाता है।
  3. कर्म: यह सृष्टि के सृजन और प्राणियों के जन्म का कारण है।

यह श्लोक ब्रह्म और आत्मा के गहरे संबंध को समझाने का प्रयास करता है।


श्लोक 32

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥

अर्थ:
"हे देहधारी श्रेष्ठ (अर्जुन), अधिभूत (भौतिक तत्व) नाशवान है, अधिदैव (देवता) पुरुष है, और अधियज्ञ मैं ही हूँ, जो इस शरीर में स्थित हूँ।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ तीन महत्वपूर्ण तत्वों का वर्णन करते हैं:

  1. अधिभूत: भौतिक संसार और तत्व, जो नाशवान हैं।
  2. अधिदैव: देवता, जो सृष्टि और जीवों के संचालन में भूमिका निभाते हैं।
  3. अधियज्ञ: भगवान स्वयं, जो यज्ञ और बलिदानों के अधिष्ठाता हैं।

यह श्लोक समझाता है कि भगवान ही यज्ञ के पीछे की दिव्य शक्ति हैं और वे प्रत्येक जीव के भीतर स्थित हैं।


श्लोक 33

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति मृत्यु के समय मुझे स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त करता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को यह बताने की कोशिश करते हैं कि मृत्यु के समय जो व्यक्ति भगवान का स्मरण करता है, वह भगवान की दिव्यता और शाश्वत स्वरूप को प्राप्त करता है। यह मोक्ष का मार्ग है। मृत्यु के समय मन की स्थिरता और भगवान का ध्यान महत्वपूर्ण है।


श्लोक 34

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, मृत्यु के समय जो भी भाव स्मरण करता हुआ व्यक्ति शरीर छोड़ता है, वह उसी भाव को प्राप्त होता है, क्योंकि वह उस भाव से सदैव जुड़ा रहता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि मृत्यु के समय व्यक्ति का अंतःकरण जिस भाव में होता है, वही उसके अगले जीवन का आधार बनता है। अतः जीवनभर भगवान के ध्यान और भक्ति में लगे रहना चाहिए ताकि मृत्यु के समय मन भगवान में स्थिर रहे और मोक्ष प्राप्त हो सके।


सारांश:

  1. अक्षर ब्रह्म शाश्वत और अविनाशी है, जबकि अधिभूत (भौतिक तत्व) नाशवान है।
  2. भगवान प्रत्येक जीव में अधियज्ञ के रूप में स्थित हैं।
  3. मृत्यु के समय भगवान का स्मरण मोक्ष का मुख्य मार्ग है।
  4. जीवनभर मन और ध्यान को भगवान में स्थिर रखने से मृत्यु के समय उनकी प्राप्ति संभव होती है।
  5. व्यक्ति जिस भाव के साथ जीवन जीता है, वही उसका अंतिम परिणाम और भविष्य निर्धारित करता है।

शनिवार, 7 सितंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) भक्तों की विशेषता और उनका प्रेम (श्लोक 23-30)

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) भक्तों की विशेषता और उनका प्रेम (श्लोक 23-30) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 23

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि॥

अर्थ:
"उनकी बुद्धि कम है जो अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, क्योंकि उनके द्वारा प्राप्त फल अस्थायी होते हैं। जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं को प्राप्त होते हैं, जबकि मेरे भक्त मुझे प्राप्त होते हैं।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि अन्य देवताओं की पूजा भौतिक इच्छाओं को पूरा करती है, लेकिन वे अस्थायी होती हैं। भगवान की भक्ति व्यक्ति को भगवान तक पहुंचाती है, जो शाश्वत और सर्वोच्च फल है।


श्लोक 24

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्॥

अर्थ:
"जो अज्ञानी हैं, वे मुझे (भगवान को) अव्यक्त से व्यक्त हुआ मानते हैं। वे मेरे सर्वोच्च और अविनाशी स्वरूप को नहीं जानते।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के दिव्य और शाश्वत स्वरूप का वर्णन करता है। अज्ञानी लोग भगवान को केवल एक भौतिक व्यक्तित्व मानते हैं और उनके परम आत्मा स्वरूप को नहीं समझ पाते।


श्लोक 25

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥

अर्थ:
"मैं सबके लिए प्रकट नहीं हूँ, क्योंकि मैं अपनी योगमाया से ढका हुआ हूँ। यह मूढ़ (अज्ञानी) लोग मुझे अजन्मा और अविनाशी नहीं जानते।"

व्याख्या:
भगवान अपनी योगमाया के माध्यम से अपने दिव्य स्वरूप को छुपाते हैं। अज्ञानी लोग उनकी वास्तविकता को नहीं समझ पाते और उन्हें भौतिक सीमाओं में बांधकर देखते हैं।


श्लोक 26

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, मैं भूत, वर्तमान, और भविष्य के सभी प्राणियों को जानता हूँ। लेकिन कोई मुझे नहीं जानता।"

व्याख्या:
भगवान सर्वज्ञ हैं और समय के तीनों कालों (भूत, वर्तमान, भविष्य) को जानते हैं। लेकिन उनकी योगमाया के कारण, प्राणी उनकी वास्तविकता को समझने में असमर्थ हैं।


श्लोक 27

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप॥

अर्थ:
"हे भारत, इच्छा और द्वेष से उत्पन्न द्वंद्वों के कारण, सभी प्राणी सृष्टि में भ्रमित हो जाते हैं।"

व्याख्या:
इच्छा (लालसा) और द्वेष (नफरत) के कारण प्राणी भौतिक संसार के मोह में फंसे रहते हैं। यह मोह उन्हें भगवान के वास्तविक स्वरूप को जानने से रोकता है।


श्लोक 28

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः॥

अर्थ:
"लेकिन जिनके पाप नष्ट हो चुके हैं और जिन्होंने पुण्य कर्म किए हैं, वे द्वंद्वों के मोह से मुक्त होकर दृढ़ निश्चय के साथ मेरी भक्ति करते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि भगवान की भक्ति में आने के लिए पापों का नाश और मन की शुद्धि आवश्यक है। ऐसे व्यक्ति भगवान के प्रति समर्पित होकर द्वंद्वों से मुक्त हो जाते हैं।


श्लोक 29

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्॥

अर्थ:
"जो लोग बुढ़ापे और मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए मेरी शरण लेते हैं, वे ब्रह्म, आध्यात्मिक ज्ञान, और समस्त कर्मों के रहस्य को जानते हैं।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो लोग मोक्ष प्राप्ति की इच्छा रखते हैं और उनकी शरण में आते हैं, वे ब्रह्म और आत्मा के ज्ञान को समझते हैं और अपने कर्मों को समझदारी से करते हैं।


श्लोक 30

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः॥

अर्थ:
"जो लोग मुझे अधिभूत (भौतिक तत्व), अधिदैव (देवता), और अधियज्ञ (यज्ञ का अधिष्ठाता) के रूप में जानते हैं, वे मृत्यु के समय भी मुझे जानते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक उन लोगों का वर्णन करता है जो भगवान के व्यापक स्वरूप को समझते हैं। ऐसे व्यक्ति मृत्यु के समय भी भगवान का स्मरण करते हुए मोक्ष प्राप्त करते हैं।


सारांश:

  1. अन्य देवताओं की पूजा अस्थायी फल देती है, जबकि भगवान की भक्ति शाश्वत फल प्रदान करती है।
  2. भगवान योगमाया से ढके होते हैं, इसलिए अज्ञानी लोग उनके दिव्य स्वरूप को नहीं समझ पाते।
  3. इच्छा और द्वेष से प्राणी संसार के मोह में फंसे रहते हैं।
  4. पुण्य कर्म और पापों का नाश भगवान की भक्ति के लिए आवश्यक हैं।
  5. भगवान का व्यापक ज्ञान (अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ) समझकर मृत्यु के समय भी उन्हें प्राप्त किया जा सकता है।

शनिवार, 31 अगस्त 2024

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) परमात्मा की विभूतियाँ (श्लोक 13-22)

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) परमात्मा की विभूतियाँ (श्लोक 13-22) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 13

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्॥

अर्थ:
"यह सम्पूर्ण संसार तीन गुणों (सत्त्व, रजस, और तमस) से मोहित है और मुझे, जो इन गुणों से परे और अविनाशी हूँ, नहीं जानता।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि संसार के सभी प्राणी इन तीन गुणों (प्रकृति के प्रभाव) में उलझे रहते हैं। इस मोह के कारण वे भगवान के परम और निर्गुण स्वरूप को नहीं पहचान पाते।


श्लोक 14

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥

अर्थ:
"यह मेरी माया, जो इन तीन गुणों से बनी है, दैवी और अत्यंत कठिन है। लेकिन जो मेरी शरण लेते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ यह बताते हैं कि संसार की माया अत्यंत प्रभावशाली है। इसे केवल भगवान की शरण लेने से ही पार किया जा सकता है। भक्ति मार्ग ही इससे मुक्ति का उपाय है।


श्लोक 15

न मां दु्ष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः॥

अर्थ:
"जो पाप में लिप्त हैं, मूर्ख हैं, और जिनकी बुद्धि माया से छीन ली गई है, वे मेरी शरण में नहीं आते। ऐसे लोग आसुरी स्वभाव को अपनाते हैं।"

व्याख्या:
भगवान समझाते हैं कि जिनका ज्ञान माया के प्रभाव से ढक गया है और जो आसुरी स्वभाव में फंसे हुए हैं, वे भगवान के प्रति भक्ति और श्रद्धा नहीं रखते।


श्लोक 16

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, चार प्रकार के पुण्यात्मा लोग मेरी भक्ति करते हैं – पीड़ित, जिज्ञासु, धन चाहने वाले, और ज्ञानी।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ भक्तों के चार प्रकार बताते हैं। इन चारों में से सभी भगवान के प्रति झुकाव रखते हैं, लेकिन इनमें ज्ञानी श्रेष्ठ है क्योंकि वह भगवान को उनकी पूर्णता में समझता है।


श्लोक 17

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः॥

अर्थ:
"इनमें ज्ञानी, जो सदा मुझमें स्थिर रहता है और जिसकी भक्ति केवल मुझमें है, सबसे श्रेष्ठ है। वह मुझे अत्यंत प्रिय है, और मैं भी उसे प्रिय हूँ।"

व्याख्या:
भगवान ज्ञानी को सर्वोच्च भक्त बताते हैं क्योंकि वह भक्ति और ज्ञान के साथ भगवान में पूर्ण रूप से स्थिर रहता है। यह परिपूर्ण प्रेम और श्रद्धा का प्रतीक है।


श्लोक 18

उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थित: स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्॥

अर्थ:
"सभी भक्त उदार हैं, लेकिन ज्ञानी तो मेरा ही स्वरूप है। क्योंकि वह अपने आत्मा में मुझमें स्थित रहता है और मुझे ही परम उद्देश्य मानता है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण सभी प्रकार के भक्तों को श्रेष्ठ और उदार मानते हैं, लेकिन ज्ञानी को विशेष मानते हैं क्योंकि वह भगवान में आत्मसाक्षात्कार के साथ पूर्णत: स्थित होता है।


श्लोक 19

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥

अर्थ:
"कई जन्मों के बाद ज्ञान प्राप्त करने वाला मुझे इस सत्य के साथ शरण लेता है कि 'वासुदेव ही सब कुछ हैं।' ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।"

व्याख्या:
यह श्लोक ज्ञान प्राप्ति की यात्रा की गहराई को दर्शाता है। भगवान को पूर्ण रूप से जानने वाला व्यक्ति समझता है कि वासुदेव (श्रीकृष्ण) ही संपूर्ण सृष्टि का आधार हैं। ऐसा भक्त महान और दुर्लभ होता है।


श्लोक 20

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता:।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियता: स्वया॥

अर्थ:
"जिनका ज्ञान कामनाओं से ढक गया है, वे अन्य देवताओं की पूजा करते हैं और अपनी प्रकृति के अनुसार नियमों का पालन करते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि जो लोग अपनी इच्छाओं में फंसे होते हैं, वे अन्य देवताओं की पूजा करते हैं। उनकी पूजा भौतिक लाभों के लिए होती है और यह भगवान की भक्ति से भिन्न है।


श्लोक 21

यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्॥

अर्थ:
"जो भी भक्त किसी विशेष देवता की श्रद्धा से पूजा करना चाहता है, मैं उसी की श्रद्धा को स्थिर करता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे ही भक्तों की विभिन्न इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए उनकी श्रद्धा को स्थिर करते हैं। सभी प्रकार की भक्ति में भगवान ही मूल शक्ति हैं।


श्लोक 22

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हि तान्॥

अर्थ:
"वह भक्त उसी श्रद्धा से प्रेरित होकर उस देवता की पूजा करता है और अपनी इच्छाएँ प्राप्त करता है। लेकिन वे इच्छाएँ वास्तव में मेरे द्वारा ही प्रदान की जाती हैं।"

व्याख्या:
भगवान यह स्पष्ट करते हैं कि सभी देवताओं द्वारा दिया गया फल वास्तव में भगवान के आदेश से प्राप्त होता है। भगवान सृष्टि का मूल स्रोत हैं और अन्य देवता उनके माध्यम हैं।


सारांश:

  1. यह संसार प्रकृति के तीन गुणों से मोहित है, जिससे भगवान का सच्चा स्वरूप छिपा रहता है।
  2. माया को पार करने के लिए भगवान की शरण लेना अनिवार्य है।
  3. चार प्रकार के भक्त भगवान की भक्ति करते हैं: आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी, और ज्ञानी। इनमें ज्ञानी को सर्वोच्च माना गया है।
  4. सभी इच्छाएँ और भक्ति अंततः भगवान से प्रेरित और उन्हीं से पूरी होती हैं।
  5. भगवान ही समस्त सृष्टि के केंद्र हैं, और यह समझने वाला महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।

शनिवार, 24 अगस्त 2024

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) भूत, भविष्य और वर्तमान का वर्णन (श्लोक 8-12)

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) भूत, भविष्य और वर्तमान का वर्णन (श्लोक 8-12) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 8

रसोहं अप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, मैं जल में रस हूँ, चंद्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सभी वेदों में 'ॐ' (प्रणव) हूँ, आकाश में ध्वनि और मनुष्यों में पुरुषार्थ हूँ।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे सृष्टि के प्रत्येक तत्व में विद्यमान हैं। जल का रस, चंद्रमा और सूर्य का प्रकाश, और मनुष्य की पुरुषार्थ शक्ति सभी उनके दिव्य स्वरूप का प्रतीक हैं। वे यह दिखा रहे हैं कि उनका अस्तित्व हर जगह है।


श्लोक 9

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु॥

अर्थ:
"मैं पृथ्वी में पवित्र सुगंध हूँ, अग्नि में तेज हूँ, सभी प्राणियों में जीवन हूँ और तपस्वियों में तपस्या हूँ।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे हर चीज की आत्मा और गुण हैं। पृथ्वी की सुगंध, अग्नि का तेज, और प्रत्येक प्राणी का जीवन उनके अस्तित्व का प्रमाण है। उनकी उपस्थिति प्रत्येक तपस्वी की तपस्या में भी अनुभव की जा सकती है।


श्लोक 10

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्॥

अर्थ:
"हे पार्थ, सभी प्राणियों का शाश्वत बीज मुझे जानो। मैं बुद्धिमान व्यक्तियों की बुद्धि और तेजस्वी लोगों का तेज हूँ।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे समस्त सृष्टि का मूल कारण हैं। बुद्धिमान व्यक्तियों में उनकी बुद्धि और तेजस्वी व्यक्तियों में उनका तेज विद्यमान है। वे सबके मूल स्रोत हैं।


श्लोक 11

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ॥

अर्थ:
"हे भरतर्षभ, मैं बलवानों का बल हूँ, जो कामना और आसक्ति से रहित है। मैं प्राणियों में धर्म के विरुद्ध न जाने वाली कामना हूँ।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि उनका स्वरूप पवित्र और धर्मसंगत है। वे उस शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं जो कामना और आसक्ति से मुक्त हो। वे धर्म के अनुकूल इच्छाओं और ऊर्जा के रूप में प्रकट होते हैं।


श्लोक 12

ये चैव सात्त्विका भावाः राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि॥

अर्थ:
"जो भी सात्त्विक (शुद्ध), राजसिक (सक्रिय) और तामसिक (निष्क्रिय) भाव हैं, वे सभी मुझसे उत्पन्न होते हैं। लेकिन मैं उनमें स्थित नहीं हूँ, वे मुझमें स्थित हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक सृष्टि के तीन गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) का वर्णन करता है। भगवान बताते हैं कि ये गुण उनसे उत्पन्न होते हैं, लेकिन वे स्वयं इनसे अछूते और निर्लिप्त हैं। उनकी स्थिति इन गुणों से परे है।


सारांश:

  1. भगवान हर चीज का सार और आत्मा हैं। वे जल के रस, अग्नि के तेज, और प्राणियों के जीवन के रूप में प्रकट होते हैं।
  2. वे हर प्राणी का मूल कारण (बीज) हैं और सभी गुणों के आधारभूत स्रोत हैं।
  3. भगवान धर्मसंगत इच्छाओं, बुद्धि, और बल का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  4. सृष्टि के तीनों गुण (सत्त्व, रजस, तमस) भगवान से उत्पन्न होते हैं, लेकिन भगवान स्वयं इनसे परे हैं।

शनिवार, 17 अगस्त 2024

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) ज्ञान और विज्ञान का स्वरूप (श्लोक 1-7)

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) ज्ञान और विज्ञान का स्वरूप (श्लोक 1-7) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमना: पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रय:।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: हे पार्थ, मुझमें आसक्त मन लगाकर, मेरे आश्रय में रहते हुए, योग का अभ्यास करो। इस प्रकार तुम मुझे पूरी तरह से, बिना किसी संदेह के जान सकोगे।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को मुझमें मन लगाकर और भक्ति के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। वे कहते हैं कि मेरे प्रति ध्यान और समर्पण से पूर्ण ज्ञान प्राप्त होगा।


श्लोक 2

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते॥

अर्थ:
"मैं तुम्हें ज्ञान और विज्ञान सहित इस रहस्य को पूरी तरह से समझाऊंगा। इसे जान लेने के बाद इस संसार में और कुछ जानने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण ज्ञान (सिद्धांत) और विज्ञान (अनुभवजन्य सत्य) को समझाने की बात करते हैं। यह आत्मा और परमात्मा के संबंध में सम्पूर्ण सत्य का ज्ञान है।


श्लोक 3

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः॥

अर्थ:
"हजारों मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयास करता है, और सिद्धि प्राप्त करने वालों में से शायद ही कोई मुझे तत्व से जान पाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि भगवान को जानना अत्यंत दुर्लभ है। केवल विशेष प्रयास और भक्ति से ही व्यक्ति भगवान के वास्तविक स्वरूप को समझ सकता है।


श्लोक 4

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥

अर्थ:
"पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार – ये आठ प्रकार की मेरी विभाजित भौतिक प्रकृति हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान की भौतिक प्रकृति का वर्णन करता है। ये आठ तत्व भौतिक जगत की संरचना करते हैं, और वे भगवान की अधीनता में कार्य करते हैं।


श्लोक 5

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥

अर्थ:
"हे महाबाहु, यह भौतिक प्रकृति तो मेरी निम्नतर प्रकृति है। इसे पार कर एक उच्चतर प्रकृति है – जीवात्मा, जो इस संसार को धारण करती है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ भौतिक प्रकृति (जड़ प्रकृति) और आत्मा (चेतन प्रकृति) के बीच अंतर बताते हैं। आत्मा, जो भगवान का अंश है, ही इस भौतिक जगत को धारण करती है।


श्लोक 6

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा॥

अर्थ:
"सभी प्राणी इन दोनों प्रकृतियों से उत्पन्न होते हैं। जान लो कि मैं सम्पूर्ण सृष्टि का उद्गम (सृजन) और लय (विनाश) हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि भगवान ही सृष्टि का कारण और अंत हैं। भौतिक और आध्यात्मिक प्रकृति दोनों उनके अधीन हैं।


श्लोक 7

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥

अर्थ:
"हे धनंजय, मुझसे परे और कुछ भी नहीं है। यह सम्पूर्ण संसार मुझमें उसी प्रकार पिरोया हुआ है, जैसे माला में मोती धागे में पिरोए हुए रहते हैं।"

व्याख्या:
भगवान स्वयं को सर्वोच्च सत्य बताते हैं। यह संसार उनके द्वारा संचालित है और उनके भीतर स्थित है। वे मूल स्रोत हैं, जिनसे सब कुछ उत्पन्न होता है।


सारांश:

  1. श्रीकृष्ण अर्जुन को ज्ञान (सिद्धांत) और विज्ञान (अनुभव) का अद्वितीय ज्ञान प्रदान करने का वादा करते हैं।
  2. भगवान को जानना दुर्लभ है, लेकिन भक्ति और समर्पण से इसे संभव बनाया जा सकता है।
  3. संसार दो प्रकृतियों से बना है – भौतिक और आध्यात्मिक। भौतिक प्रकृति जड़ है, जबकि आत्मा चेतन है।
  4. भगवान सृष्टि का स्रोत और उसका आधार हैं। समस्त सृष्टि उन्हीं में स्थित है।
  5. भगवान को सर्वोच्च सत्य के रूप में स्वीकार करना, समग्र ज्ञान का मूल है।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...