भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) मृत्यु के बाद के जीवन और योग की प्रक्रिया (श्लोक 8-16) का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 8
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥
अर्थ:
"जो व्यक्ति अभ्यास योग के द्वारा अनन्य भक्ति और एकाग्र मन से परम पुरुष (भगवान) का चिंतन करता है, वह उस दिव्य स्वरूप को प्राप्त करता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक भगवान की प्राप्ति के लिए अनन्य भक्ति और अभ्यास का महत्व बताता है। एकाग्र मन और लगातार अभ्यास से भगवान का स्मरण साकार होता है और व्यक्ति परम लक्ष्य तक पहुँचता है।
श्लोक 9
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥
अर्थ:
"जो व्यक्ति परम कवि (सर्वज्ञ), पुरातन, समस्त प्राणियों का शासक, अणु से भी सूक्ष्म, सृष्टि का धारण करने वाला, अचिंत्य रूप, सूर्य के समान प्रकाशमान और अज्ञान के अंधकार से परे भगवान का स्मरण करता है, वह उन्हें प्राप्त करता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के दिव्य गुणों को उजागर करता है। वे सर्वज्ञ, शाश्वत और समस्त ब्रह्मांड का आधार हैं। उनका स्मरण व्यक्ति को अज्ञान से परे ले जाकर दिव्यता तक पहुँचाता है।
श्लोक 10
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥
अर्थ:
"मृत्यु के समय, जो व्यक्ति योग बल और भक्ति से मन को स्थिर कर, भौहों के मध्य में प्राण को केंद्रित करता है, वह उस दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि मृत्यु के समय योग, भक्ति और ध्यान का सही उपयोग व्यक्ति को परमात्मा तक ले जाता है। मन और प्राण को नियंत्रित करके भगवान का स्मरण करना मोक्ष का मार्ग है।
श्लोक 11
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥
अर्थ:
"जो अक्षर (अविनाशी) ब्रह्म को वेदज्ञानी वर्णन करते हैं, जिसे वीतराग योगी प्राप्त करते हैं और जिसकी प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है, उस पद (परम स्थिति) को मैं संक्षेप में बताने जा रहा हूँ।"
व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के उस शाश्वत स्वरूप को प्रस्तुत करता है, जो ज्ञानियों, योगियों और तपस्वियों का परम लक्ष्य है। यह ब्रह्म की दिव्यता और उसके प्राप्ति मार्ग का परिचय है।
श्लोक 12
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥
अर्थ:
"सभी इंद्रियों को संयमित करके, मन को हृदय में स्थिर करके, और प्राण को सिर के मध्य में स्थित करके, योगधारण करने वाला व्यक्ति भगवान का साक्षात्कार करता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक योग की गहन प्रक्रिया का वर्णन करता है। इंद्रियों का संयम, मन की स्थिरता और प्राण का उचित स्थान पर नियंत्रण योग की सफलता के लिए आवश्यक हैं।
श्लोक 13
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥
अर्थ:
"जो व्यक्ति 'ओम' (एक अक्षर ब्रह्म) का उच्चारण करते हुए और मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त करता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक "ओम" के महत्व को दर्शाता है। मृत्यु के समय भगवान का स्मरण और "ओम" का उच्चारण व्यक्ति को मोक्ष प्रदान करता है। "ओम" ब्रह्म का प्रतीक है।
श्लोक 14
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥
अर्थ:
"जो व्यक्ति अनन्य भक्ति के साथ सतत मेरा स्मरण करता है, उसके लिए मैं आसानी से प्राप्त हो जाता हूँ, क्योंकि वह सदा मुझसे जुड़ा रहता है।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ भक्ति योग की महिमा का वर्णन करते हैं। जो व्यक्ति अपने मन को भगवान में स्थिर रखता है, वह उनकी कृपा से आसानी से भगवान को प्राप्त कर सकता है।
श्लोक 15
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः॥
अर्थ:
"जो महात्मा मुझे प्राप्त करते हैं, वे फिर से इस दुःखमय और अस्थायी संसार में जन्म नहीं लेते। वे परम सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त कर लेते हैं।"
व्याख्या:
यह श्लोक मोक्ष की महिमा को दर्शाता है। भगवान का साक्षात्कार प्राप्त करने वाले महात्मा संसार के जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाते हैं और शाश्वत शांति में स्थित रहते हैं।
श्लोक 16
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥
अर्थ:
"हे अर्जुन, ब्रह्मलोक तक सभी लोक पुनर्जन्म के अधीन हैं। लेकिन जो मुझे प्राप्त करते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता।"
व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि भौतिक संसार के सभी लोक, चाहे वे ब्रह्मलोक ही क्यों न हों, जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त नहीं हैं। केवल भगवान की प्राप्ति से ही इस चक्र से मुक्ति संभव है।
सारांश:
- भगवान का ध्यान और "ओम" का उच्चारण व्यक्ति को मृत्यु के समय मोक्ष दिलाता है।
- योग और भक्ति से मन को नियंत्रित करके भगवान की दिव्यता को प्राप्त किया जा सकता है।
- भगवान की प्राप्ति से जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिलती है।
- ब्रह्मलोक सहित सभी भौतिक लोक अस्थायी हैं।
- अनन्य भक्ति और भगवान का स्मरण मोक्ष का सर्वोच्च मार्ग है।
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