शनिवार, 21 दिसंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान का अद्वितीय रूप (श्लोक 21-30)

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान का अद्वितीय रूप (श्लोक 21-30) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 21

आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी॥

अर्थ:
"आदित्यों (सूर्य देवताओं) में मैं विष्णु हूँ। ज्योतियों (प्रकाश स्रोतों) में मैं तेजस्वी सूर्य हूँ। मरुतों (वायु देवताओं) में मैं मरीचि हूँ, और नक्षत्रों में मैं चंद्रमा हूँ।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे प्रत्येक श्रेणी में सर्वोच्च और दिव्य रूप हैं। वे सृष्टि के महान और चमकदार तत्वों, जैसे सूर्य और चंद्रमा, के रूप में प्रकट होते हैं।


श्लोक 22

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना॥

अर्थ:
"वेदों में मैं सामवेद हूँ। देवताओं में मैं वासव (इंद्र) हूँ। इंद्रियों में मैं मन हूँ और प्राणियों में मैं चेतना हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान की महिमा को दर्शाता है। वे सामवेद के रूप में मधुरता, इंद्र के रूप में बल, मन के रूप में चेतना का केंद्र, और प्राणियों की चेतना के रूप में विद्यमान हैं।


श्लोक 23

रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्॥

अर्थ:
"रुद्रों में मैं शंकर हूँ। यक्षों और राक्षसों में मैं कुबेर हूँ। वसुओं में मैं अग्नि (पावक) हूँ और पर्वतों में मैं मेरु हूँ।"

व्याख्या:
भगवान अपनी दिव्यता के प्रतीकों को बताते हैं। शंकर, कुबेर, अग्नि और मेरु के माध्यम से वे सृष्टि के शक्ति, धन, ऊर्जा और स्थिरता के स्रोत को प्रकट करते हैं।


श्लोक 24

पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः॥

अर्थ:
"हे पार्थ, पुरोहितों में मैं बृहस्पति हूँ। सेनापतियों में मैं स्कंद (कार्तिकेय) हूँ और जलाशयों में मैं सागर हूँ।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे पुरोहितों के ज्ञान, सेनापतियों के नेतृत्व, और सागर की विशालता और गहराई के रूप में प्रकट होते हैं।


श्लोक 25

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः॥

अर्थ:
"महर्षियों में मैं भृगु हूँ। वाणियों में मैं 'ओम' हूँ। यज्ञों में मैं जपयज्ञ हूँ और स्थावरों (अचल वस्तुओं) में मैं हिमालय हूँ।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ ज्ञान, शक्ति और स्थिरता के विभिन्न रूपों को व्यक्त करते हैं। 'ओम' उनके दिव्य स्वरूप का प्रतीक है। जपयज्ञ सरल और प्रभावी साधन है, और हिमालय स्थिरता का प्रतीक है।


श्लोक 26

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः॥

अर्थ:
"सभी वृक्षों में मैं अश्वत्थ (पीपल) हूँ। देवर्षियों में मैं नारद हूँ। गंधर्वों में मैं चित्ररथ हूँ और सिद्धों में मैं कपिल मुनि हूँ।"

व्याख्या:
भगवान उन चीजों का वर्णन करते हैं जो अपनी श्रेणी में अद्वितीय हैं। पीपल स्थायित्व और पवित्रता का प्रतीक है। नारद भक्ति का प्रतीक हैं, चित्ररथ संगीत और कला के प्रतीक हैं, और कपिल मुनि ज्ञान के स्रोत हैं।


श्लोक 27

उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम्।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्॥

अर्थ:
"घोड़ों में मैं उच्चैःश्रवा हूँ, जो समुद्रमंथन से उत्पन्न हुआ। हाथियों में मैं ऐरावत हूँ और मनुष्यों में मैं राजा (नराधिप) हूँ।"

व्याख्या:
भगवान सृष्टि की श्रेष्ठताओं को अपना स्वरूप बताते हैं। उच्चैःश्रवा और ऐरावत दिव्यता के प्रतीक हैं, और राजा नेतृत्व और शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है।


श्लोक 28

आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः॥

अर्थ:
"आयुधों में मैं वज्र हूँ। गायों में मैं कामधेनु हूँ। संतान उत्पन्न करने वालों में मैं कामदेव हूँ और सर्पों में मैं वासुकी हूँ।"

व्याख्या:
भगवान श्रेष्ठताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। वज्र शक्ति का प्रतीक है, कामधेनु इच्छाओं की पूर्ति का, कामदेव सृजन का और वासुकी शक्ति और नेतृत्व का प्रतीक है।


श्लोक 29

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्॥

अर्थ:
"नागों में मैं अनन्त (शेषनाग) हूँ। जलचरों में मैं वरुण हूँ। पितरों में मैं अर्यमा हूँ और नियंत्रकों में मैं यम हूँ।"

व्याख्या:
भगवान यह दर्शाते हैं कि वे सभी श्रेणियों में सबसे श्रेष्ठ हैं। शेषनाग संतुलन और धैर्य का प्रतीक हैं। वरुण जल का राजा है, अर्यमा पितरों का मार्गदर्शक है, और यम धर्म और अनुशासन के प्रतीक हैं।


श्लोक 30

प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहमनन्तश्चास्मि नागिनाम्॥

अर्थ:
"दैत्यों में मैं प्रह्लाद हूँ। गणनाकारों में मैं समय हूँ। पशुओं में मैं सिंह (मृगेन्द्र) हूँ और नागों में मैं अनन्त (शेषनाग) हूँ।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे दैत्यों में भी प्रह्लाद जैसे भक्त के रूप में प्रकट होते हैं। समय सृष्टि का नियंत्रक है, और सिंह शक्ति और नेतृत्व का प्रतीक है।


सारांश (श्लोक 21-30):

  1. भगवान हर श्रेणी में सबसे श्रेष्ठ और दिव्य रूप में प्रकट होते हैं।
  2. वे सृष्टि के शक्ति, स्थिरता, भक्ति और ज्ञान के हर पहलू का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  3. भगवान बताते हैं कि उनकी विभूतियाँ (महिमा) अनगिनत हैं, लेकिन उन्होंने मुख्य रूपों का वर्णन किया।
  4. अर्जुन को भगवान की इन विभूतियों का चिंतन करके उनकी दिव्यता को समझने का मार्ग दिखाया गया।

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