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शनिवार, 2 मार्च 2024

भागवत गीता: अध्याय 2 (सांख्ययोग) स्थिरप्रज्ञ की अवस्था (श्लोक 54-72)

भागवत गीता: अध्याय 2 (सांख्ययोग) स्थिरप्रज्ञ की अवस्था (श्लोक 54-72) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 54

अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥

अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: "हे केशव, स्थितप्रज्ञ (स्थिरबुद्धि) व्यक्ति की क्या पहचान है? समाधि में स्थित व्यक्ति कैसे बोलता है, कैसे बैठता है, और कैसे चलता है?"

व्याख्या:
अर्जुन जानना चाहते हैं कि आत्म-ज्ञानी और स्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति का बाहरी आचरण और आंतरिक स्वभाव कैसा होता है। यह श्लोक गीता के आत्मज्ञान की ओर मार्गदर्शन का आरंभ है।


श्लोक 55

श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥

अर्थ:
भगवान ने कहा: "जब कोई व्यक्ति मन के सभी इच्छाओं को त्याग देता है और आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।"

व्याख्या:
स्थितप्रज्ञ वह है जो सभी भौतिक इच्छाओं को त्यागकर आत्मा के आनंद में स्थित हो जाता है।


श्लोक 56

दुःखेष्वनुद्विग्नमना सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति दुःखों में व्याकुल नहीं होता, सुखों में आसक्त नहीं होता, और राग, भय तथा क्रोध से मुक्त रहता है, वह स्थिरबुद्धि और मुनि कहलाता है।"

व्याख्या:
स्थितप्रज्ञ व्यक्ति जीवन के सुख-दुःख के द्वंद्व से प्रभावित नहीं होता। वह शांत, निर्लिप्त और संतुलित रहता है।


श्लोक 57

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति हर स्थिति में आसक्त नहीं होता, चाहे शुभ हो या अशुभ, न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी प्रज्ञा स्थिर होती है।"

व्याख्या:
स्थितप्रज्ञ व्यक्ति हर परिस्थिति में समभाव बनाए रखता है। वह न तो किसी को विशेष प्रिय मानता है और न ही किसी से घृणा करता है।


श्लोक 58

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

अर्थ:
"जैसे कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही जो व्यक्ति इंद्रियों को उनके विषयों से हटाकर नियंत्रित करता है, उसकी बुद्धि स्थिर होती है।"

व्याख्या:
इंद्रिय-नियंत्रण आत्म-संयम की प्राथमिकता है। स्थितप्रज्ञ व्यक्ति अपनी इंद्रियों को विषयों से दूर रखता है।


श्लोक 59

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥

अर्थ:
"विषय (इच्छाएँ) उस व्यक्ति से दूर हो जाती हैं जो उनका त्याग करता है, लेकिन उनके प्रति रस (आसक्ति) बना रहता है। जब वह परम को देख लेता है, तब वह रस भी समाप्त हो जाता है।"

व्याख्या:
स्थितप्रज्ञ बनने के लिए केवल विषयों का त्याग पर्याप्त नहीं है, बल्कि परमात्मा के ज्ञान का अनुभव करना भी आवश्यक है।


श्लोक 60

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, प्रयासरत बुद्धिमान व्यक्ति का मन भी उसकी चंचल और बलवान इंद्रियों द्वारा विचलित हो जाता है।"

व्याख्या:
इंद्रियों का नियंत्रण कठिन है, लेकिन यह आध्यात्मिक उन्नति के लिए अनिवार्य है।


श्लोक 61

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों को संयमित करता है और मेरा (भगवान) आश्रय लेता है, उसकी बुद्धि स्थिर होती है।"

व्याख्या:
ईश्वर की शरण में जाने से इंद्रिय-नियंत्रण और स्थिरबुद्धि बनना संभव है।


श्लोक 62-63

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥

अर्थ:
"विषयों का ध्यान करने से आसक्ति उत्पन्न होती है, आसक्ति से कामना, कामना से क्रोध, क्रोध से भ्रम, भ्रम से स्मृति का नाश, स्मृति के नाश से बुद्धि का विनाश, और बुद्धि के विनाश से व्यक्ति का पतन होता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि कैसे इच्छाएँ व्यक्ति को पतन की ओर ले जाती हैं। इंद्रिय-नियंत्रण के बिना आत्मिक उन्नति असंभव है।


श्लोक 64

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति राग (आसक्ति) और द्वेष से मुक्त होकर इंद्रियों को नियंत्रित करता है, वह प्रसन्नता प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
आत्म-संयम और आसक्ति का त्याग प्रसन्नता और शांति लाता है।


श्लोक 65

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥

अर्थ:
"प्रसन्न मन से सभी दुःख दूर हो जाते हैं, और ऐसी अवस्था में बुद्धि स्थिर हो जाती है।"

व्याख्या:
प्रसन्नता और शांति से बुद्धि में स्थिरता आती है, जो आत्मज्ञान की ओर ले जाती है।


श्लोक 66

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्॥

अर्थ:
"जिसके पास योग (संयम) नहीं है, उसकी बुद्धि स्थिर नहीं होती। जिसके पास स्थिर बुद्धि नहीं है, उसे शांति नहीं मिलती। और शांति के बिना सुख संभव नहीं है।"

व्याख्या:
शांति के बिना सुख की प्राप्ति असंभव है। शांति आत्म-संयम और स्थिर बुद्धि से आती है।


श्लोक 67

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥

अर्थ:
"चंचल इंद्रियों का अनुसरण करने वाला मन बुद्धि को वैसे ही विचलित कर देता है जैसे हवा जल में नौका को।"

व्याख्या:
इंद्रियों का नियंत्रण न होने पर मन स्थिर नहीं रह पाता और बुद्धि भ्रमित हो जाती है।


श्लोक 68

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

अर्थ:
"इसलिए, हे महाबाहु, जिसने अपनी इंद्रियों को उनके विषयों से पूरी तरह से वश में कर लिया है, उसकी बुद्धि स्थिर होती है।"

व्याख्या:
इंद्रियों का संयम ही स्थिरबुद्धि बनने का मार्ग है।


श्लोक 69

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥

अर्थ:
"जो सभी प्राणियों के लिए रात्रि है, उसमें संयमी जागरूक रहता है। और जिसमें सभी प्राणी जागते हैं, वह मुनि के लिए रात्रि है।"

व्याख्या:
आध्यात्मिक और सांसारिक दृष्टिकोण के अंतर को दिखाने वाला यह श्लोक है।


श्लोक 70

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥

अर्थ:
"जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में मिलती हैं लेकिन समुद्र स्थिर रहता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति सभी इच्छाओं को अपने भीतर समाहित करता है, वह शांति प्राप्त करता है, इच्छाओं के पीछे भागने वाला नहीं।"

व्याख्या:
इच्छाओं के त्याग से स्थायी शांति प्राप्त होती है।


श्लोक 71

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति॥

अर्थ:
"जो सभी इच्छाओं को त्यागकर, आसक्ति और अहंकार से मुक्त होकर कार्य करता है, वह शांति प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
शांति प्राप्त करने के लिए त्याग, निर्लिप्तता और अहंकार का परित्याग आवश्यक है।


श्लोक 72

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥

अर्थ:
"हे पार्थ, यह ब्राह्मी अवस्था है। इसे प्राप्त करने के बाद व्यक्ति कभी मोहग्रस्त नहीं होता। इस स्थिति में मृत्यु के समय भी, वह ब्रह्म में लीन हो जाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक ब्राह्मी अवस्था (आध्यात्मिक ज्ञान की उच्चतम स्थिति) को समझाता है।


सारांश:

  • श्रीकृष्ण ने अर्जुन को स्थितप्रज्ञ (स्थिर बुद्धि) की पहचान और गुण बताए।
  • इच्छाओं के त्याग, इंद्रिय-नियंत्रण और समता के अभ्यास से शांति और मुक्ति प्राप्त होती है।
  • यह अध्याय आत्मज्ञान और कर्मयोग के महत्व को उजागर करता है।

शनिवार, 24 फ़रवरी 2024

भागवत गीता: अध्याय 2 (सांख्ययोग) कर्मयोग का सिद्धांत (श्लोक 39-53)

भागवत गीता: अध्याय 2 (सांख्ययोग) कर्मयोग का सिद्धांत (श्लोक 39-53) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 39

एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥

अर्थ:
"अब तक मैंने तुम्हें सांख्य (ज्ञान) के दृष्टिकोण से समझाया है। अब योग (कर्म के मार्ग) की बुद्धि सुनो, जिससे तुम कर्मबंधन से मुक्त हो जाओगे।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को ज्ञान (सांख्य) और कर्म (योग) दोनों के महत्व को बताते हैं। योग का पालन करने से कर्मों के बंधन से मुक्ति मिलती है।


श्लोक 40

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥

अर्थ:
"इस योग में न तो कोई प्रयास व्यर्थ जाता है और न कोई हानि होती है। इसका थोड़ा-सा भी अभ्यास महान भय (जन्म-मृत्यु के चक्र) से रक्षा करता है।"

व्याख्या:
योग का अभ्यास व्यक्ति को आध्यात्मिक लाभ देता है। यहां तक कि इसका अल्प अभ्यास भी आत्मा के विकास के लिए उपयोगी होता है।


श्लोक 41

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥

अर्थ:
"हे कुरुनंदन, इस मार्ग में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है, जबकि अस्थिर बुद्धि वाले लोगों की बुद्धि बहुत शाखाओं में बंटी होती है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को एकाग्रता और निश्चयात्मकता का महत्व समझाते हैं। अस्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकता।


श्लोक 42-43

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥

अर्थ:
"जो लोग अविवेकी हैं, वे वेदों के पुष्पित वचनों में आसक्त रहते हैं और कहते हैं कि स्वर्ग की प्राप्ति ही सर्वोच्च है। वे भोग और ऐश्वर्य के इच्छुक होते हैं और अनेक प्रकार के कर्मकांडों में लिप्त रहते हैं।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि वेदों के भोगवादी दृष्टिकोण में फँसे हुए लोग आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर सकते। उनका लक्ष्य केवल भौतिक सुख और स्वर्ग प्राप्ति तक सीमित रहता है।


श्लोक 44

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥

अर्थ:
"भोग और ऐश्वर्य में आसक्त लोगों की बुद्धि स्थिर नहीं हो सकती और वे समाधि में स्थित नहीं हो सकते।"

व्याख्या:
अध्यात्मिक उन्नति के लिए भौतिक सुखों की लालसा का त्याग आवश्यक है। भोग-आसक्त व्यक्ति ध्यान और योग में सफल नहीं हो सकता।


श्लोक 45

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥

अर्थ:
"वेद तीन गुणों (सत्व, रजस, तमस) के विषय में हैं। हे अर्जुन, तुम इन गुणों से परे हो जाओ, द्वंद्वों से मुक्त होकर नित्य सत्त्व में स्थित हो जाओ और योगक्षेम (सुख-संपत्ति) की चिंता छोड़ दो।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को सिखाते हैं कि आत्मा को भौतिक संसार के गुणों और द्वंद्वों से ऊपर उठना चाहिए।


श्लोक 46

यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥

अर्थ:
"जिस प्रकार बड़े जलाशय में सभी कुओं की आवश्यकता समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार ज्ञानी व्यक्ति के लिए वेदों के कर्मकांड का महत्व समाप्त हो जाता है।"

व्याख्या:
ज्ञान की प्राप्ति से व्यक्ति वेदों के कर्मकांड और भौतिक सुखों से ऊपर उठ जाता है।


श्लोक 47

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥

अर्थ:
"तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में नहीं। कर्म के फल की आसक्ति मत करो और न ही अकर्मण्यता में लिप्त हो।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण निष्काम कर्मयोग का उपदेश देते हैं। कर्म करना व्यक्ति का कर्तव्य है, लेकिन फल की चिंता करना नहीं।


श्लोक 48

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥

अर्थ:
"हे धनंजय, योग में स्थित होकर कर्म करो। सफलता और असफलता में समान रहो, यही समत्व को योग कहा जाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक समभाव और संतुलित दृष्टिकोण की महिमा को उजागर करता है। सफलता और असफलता दोनों में समान रहना योग है।


श्लोक 49

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥

अर्थ:
"हे धनंजय, बुद्धियोग से कर्म बहुत श्रेष्ठ है। फल की आशा करने वाले कृपण (दरिद्र) हैं।"

व्याख्या:
कृष्ण बताते हैं कि बुद्धियोग (निष्काम कर्म) से प्रेरित कर्म करना श्रेष्ठ है। फल की इच्छा रखने वाले आत्मिक उन्नति नहीं कर सकते।


श्लोक 50

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥

अर्थ:
"बुद्धि में स्थित व्यक्ति इस संसार में पुण्य और पाप दोनों को त्याग देता है। इसलिए, योग में स्थित होकर कर्म करो, क्योंकि योग कर्म करने की कुशलता है।"

व्याख्या:
योग से प्रेरित कर्म व्यक्ति को सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त कर देता है। यह जीवन का कौशल है।


श्लोक 51

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्॥

अर्थ:
"बुद्धि में स्थित ज्ञानी व्यक्ति कर्म के फल का त्याग करते हैं और जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर शाश्वत शांति प्राप्त करते हैं।"

व्याख्या:
निष्काम कर्म व्यक्ति को जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त करता है। यह मोक्ष का मार्ग है।


श्लोक 52

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥

अर्थ:
"जब तुम्हारी बुद्धि मोह के घने जंगल को पार कर लेगी, तब तुम सुनने और सुनाई गई बातों के प्रति उदासीन हो जाओगे।"

व्याख्या:
मोह और अज्ञान को पार करना आत्मज्ञान का प्रतीक है।


श्लोक 53

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥

अर्थ:
"जब तुम्हारी बुद्धि श्रुतियों के विरोधाभास से अडिग और स्थिर हो जाएगी, तब तुम योग को प्राप्त करोगे।"

व्याख्या:
ज्ञान और स्थिरता के साथ, व्यक्ति आध्यात्मिक समाधि प्राप्त कर सकता है।


सारांश:

इन श्लोकों में श्रीकृष्ण निष्काम कर्मयोग का उपदेश देते हैं। वे अर्जुन को बताते हैं कि कर्तव्य पालन के साथ समता, स्थिरता और फल की आसक्ति का त्याग ही श्रेष्ठ योग है।

शनिवार, 17 फ़रवरी 2024

भागवत गीता: अध्याय 2 (सांख्ययोग) श्रीकृष्ण द्वारा आत्मा का ज्ञान और अमरता का उपदेश (श्लोक 11-30)

 भागवत गीता: अध्याय 2 (सांख्ययोग) श्रीकृष्ण द्वारा आत्मा का ज्ञान और अमरता का उपदेश (श्लोक 11-30) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 11

श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥

अर्थ:
भगवान ने कहा: "तुम उन चीजों का शोक कर रहे हो जिनके लिए शोक करना योग्य नहीं है। फिर भी तुम प्रज्ञा के वचनों की बात करते हो। जो ज्ञानी व्यक्ति हैं, वे न तो मृत के लिए शोक करते हैं और न ही जीवित के लिए।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि आत्मा अमर है और ज्ञानी लोग नश्वर शरीर के नष्ट होने पर शोक नहीं करते। यह श्लोक गीता के दर्शन की शुरुआत करता है।


श्लोक 12

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्॥

अर्थ:
"कभी ऐसा समय नहीं था जब मैं, तुम, या ये सभी राजा अस्तित्व में न हों। और भविष्य में भी हम सभी का अस्तित्व समाप्त नहीं होगा।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि आत्मा शाश्वत है। यह न तो उत्पन्न होती है और न ही नष्ट होती है।


श्लोक 13

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥

अर्थ:
"जिस प्रकार शरीर में बाल्यकाल, यौवन और वृद्धावस्था आती है, उसी प्रकार आत्मा नया शरीर धारण करती है। धीर (ज्ञानी) व्यक्ति इस पर शोक नहीं करते।"

व्याख्या:
यह श्लोक जीवन के परिवर्तनशील स्वभाव और आत्मा की अमरता को समझाता है।


श्लोक 14

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥

अर्थ:
"हे कुन्तीपुत्र, इंद्रियों और विषयों का संपर्क ही सर्दी-गर्मी, सुख-दुख देता है। ये अस्थायी और परिवर्तनशील हैं। हे भारत, इन्हें सहन करो।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को स्थिरता और सहनशीलता की शिक्षा देते हैं, यह बताते हुए कि सभी संवेदनाएँ क्षणिक हैं।


श्लोक 15

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥

अर्थ:
"हे श्रेष्ठ पुरुष, जिसे सुख-दुख विचलित नहीं करते और जो स्थिर रहता है, वही अमरत्व के योग्य होता है।"

व्याख्या:
स्थिरता और धैर्य आत्मा के ज्ञान की दिशा में महत्वपूर्ण हैं। जो व्यक्ति इन द्वंद्वों से अडिग रहता है, वह मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर होता है।


श्लोक 16

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः॥

अर्थ:
"असत (जो वास्तविक नहीं है) का कोई अस्तित्व नहीं है, और सत (जो वास्तविक है) का कभी अभाव नहीं हो सकता। तत्वदर्शियों ने इन दोनों की प्रकृति का अनुभव किया है।"

व्याख्या:
यह श्लोक सत्य और असत्य के बीच अंतर को समझाता है। केवल आत्मा सत्य है, जबकि शरीर असत्य और नश्वर है।


श्लोक 17

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति॥

अर्थ:
"वह (आत्मा) जो सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है, अविनाशी है। इस अविनाशी आत्मा का विनाश कोई नहीं कर सकता।"

व्याख्या:
यह श्लोक आत्मा की अजेयता और सार्वभौमिकता पर बल देता है।


श्लोक 18

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥

अर्थ:
"ये शरीर नश्वर हैं, लेकिन इनमें स्थित आत्मा शाश्वत, अविनाशी और असीम है। इसलिए, हे भारत, उठो और युद्ध करो।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को यह सिखाते हैं कि आत्मा के शाश्वत सत्य को जानकर, उसे कर्तव्य निभाने में संकोच नहीं करना चाहिए।


श्लोक 19

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥

अर्थ:
"जो यह सोचता है कि आत्मा मारता है या मारा जाता है, वह अज्ञानी है। आत्मा न मारती है, न मारी जाती है।"

व्याख्या:
आत्मा का स्वभाव अजर-अमर है। मारना या मरना केवल भौतिक शरीर से संबंधित है।


श्लोक 20

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नेयं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥

अर्थ:
"आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है। यह नित्य, शाश्वत और पुरातन है। यह शरीर के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होती।"

व्याख्या:
यह श्लोक आत्मा की शाश्वतता और जन्म-मृत्यु के चक्र से उसकी स्वतंत्रता की पुष्टि करता है।


श्लोक 21-22

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥

अर्थ:
"जो आत्मा को नित्य, अजन्मा और अविनाशी जानता है, वह यह नहीं सोच सकता कि कोई इसे मार सकता है। जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करती है।"

व्याख्या:
यह श्लोक पुनर्जन्म के सिद्धांत को स्पष्ट करता है। आत्मा शरीर बदलती है, जैसे पुराने वस्त्र बदलते हैं।


श्लोक 23-25

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥

अर्थ:
"आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न पानी गीला कर सकता है और न वायु सुखा सकती है। यह अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य है। यह स्थायी, सर्वव्यापी, अचल और शाश्वत है। आत्मा अदृश्य, अकल्पनीय और अपरिवर्तनीय है। इसे जानकर शोक नहीं करना चाहिए।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण आत्मा की अविनाशी और शाश्वत प्रकृति का विस्तार से वर्णन करते हैं। यह श्लोक गीता के अद्वैत दर्शन का सार है।


श्लोक 26-30

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि॥

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाऽप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥

देही नित्यं अवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि॥

अर्थ:
"यदि तुम आत्मा को नित्य जन्म और मृत्यु वाला मानो, तब भी शोक करना व्यर्थ है। जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है, और मृत व्यक्ति का पुनर्जन्म निश्चित है। सभी प्राणी पहले अदृश्य थे, फिर प्रकट हुए, और अंत में पुनः अदृश्य हो जाते हैं। आत्मा को समझना अद्भुत है, और इसे समझने वाले भी विरले हैं। आत्मा नित्य और अवध्य है, इसलिए शोक करना व्यर्थ है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ जीवन और मृत्यु के चक्र की अपरिहार्यता को बताते हैं। यह श्लोक अर्जुन को उनकी शोकग्रस्त अवस्था से उबारने के लिए प्रेरित करता है।


सारांश:

श्रीकृष्ण इन श्लोकों में आत्मा की अमरता, शाश्वतता और शरीर की नश्वरता का वर्णन करते हैं। वह अर्जुन को शोक से मुक्त होकर अपने कर्तव्य को निभाने के लिए प्रेरित करते हैं।

भागवत गीता: अध्याय 2 (सांख्ययोग) कर्तव्यपालन और निष्काम कर्म का महत्व (श्लोक 31-38)

भागवत गीता: अध्याय 2 (सांख्ययोग) कर्तव्यपालन और निष्काम कर्म का महत्व (श्लोक 31-38) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 31

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥

अर्थ:
"अपने स्वधर्म (क्षत्रिय धर्म) को देखकर तुम्हें कर्तव्य से विचलित नहीं होना चाहिए। क्योंकि धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर क्षत्रिय के लिए कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को याद दिलाते हैं कि उनके लिए धर्म का पालन करना सबसे बड़ा कर्तव्य है। युद्ध, जब धर्म और सत्य की रक्षा के लिए हो, तो वह पवित्र और आवश्यक है।


श्लोक 32

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥

अर्थ:
"हे पार्थ, जो युद्ध स्वयं अवसर के रूप में आया है, वह स्वर्ग के द्वार के समान खुला हुआ है। ऐसे युद्ध को पाकर क्षत्रिय सुखी होते हैं।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि धर्म की रक्षा के लिए मिला ऐसा युद्ध दुर्लभ है। यह एक अवसर है जो अर्जुन को स्वर्ग तक पहुंचा सकता है।


श्लोक 33

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥

अर्थ:
"यदि तुम इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं लड़ोगे, तो तुम अपने धर्म और कीर्ति दोनों को खो दोगे और पाप के भागी बनोगे।"

व्याख्या:
कृष्ण चेतावनी देते हैं कि अपने कर्तव्य से विमुख होना केवल व्यक्तिगत क्षति नहीं है, बल्कि पाप भी है। अर्जुन को अपने कर्म और धर्म का पालन करना चाहिए।


श्लोक 34

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते॥

अर्थ:
"लोग तुम्हारी निंदा करेंगे, और सम्मानित व्यक्ति के लिए अपकीर्ति मृत्यु से भी अधिक दुखदायी है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझाने का प्रयास करते हैं कि अपने कर्तव्य से भागने पर समाज में उनकी छवि धूमिल होगी। एक योद्धा के लिए अपकीर्ति सबसे बड़ा अपमान है।


श्लोक 35

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥

अर्थ:
"महान योद्धा सोचेंगे कि तुम भय के कारण युद्ध से पीछे हट गए हो। जिन लोगों ने तुम्हारा सम्मान किया है, वे तुम्हें तुच्छ समझेंगे।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि अर्जुन के पीछे हटने से उनकी प्रतिष्ठा को गहरी चोट पहुंचेगी। यह उनकी वीरता पर प्रश्न खड़ा करेगा।


श्लोक 36

अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्॥

अर्थ:
"तुम्हारे शत्रु तुम्हारे बारे में अनुचित बातें कहेंगे और तुम्हारी शक्ति की निंदा करेंगे। इससे बढ़कर तुम्हारे लिए और क्या दुःख हो सकता है?"

व्याख्या:
कृष्ण अर्जुन को यह समझाते हैं कि उनके शत्रु उनकी कायरता का मजाक उड़ाएंगे, जो एक योद्धा के लिए अत्यंत पीड़ादायक होगा।


श्लोक 37

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥

अर्थ:
"यदि तुम युद्ध में मारे जाते हो, तो स्वर्ग प्राप्त करोगे, और यदि तुम विजयी होते हो, तो पृथ्वी पर राज्य का भोग करोगे। इसलिए, हे कौन्तेय, दृढ़ निश्चय के साथ युद्ध के लिए खड़े हो जाओ।"

व्याख्या:
कृष्ण अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि युद्ध हर स्थिति में लाभकारी है। यह उनके कर्तव्य और धर्म का पालन करने का सही समय है।


श्लोक 38

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥

अर्थ:
"सुख-दुःख, लाभ-हानि, और विजय-पराजय को समान मानकर युद्ध करो। ऐसा करने से तुम पाप के भागी नहीं बनोगे।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण निष्काम कर्म का उपदेश देते हैं। वह अर्जुन को सिखाते हैं कि फल की चिंता किए बिना अपने कर्तव्य का पालन करना सबसे बड़ा धर्म है।


सारांश:

  • इन श्लोकों में श्रीकृष्ण अर्जुन को उनके क्षत्रिय धर्म और कर्तव्य का स्मरण कराते हैं।
  • वह अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि उन्हें फल की चिंता किए बिना निष्काम कर्म के मार्ग पर चलना चाहिए।
  • अपकीर्ति और धर्म से विमुख होना एक योद्धा के लिए अयोग्य है।

शनिवार, 10 फ़रवरी 2024

भागवत गीता: अध्याय 2 (सांख्ययोग) अर्जुन की आत्मसमर्पण और दुविधा (श्लोक 1-10)

भागवत गीता: अध्याय 2 (सांख्ययोग) अर्जुन की आत्मसमर्पण और दुविधा (श्लोक 1-10) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 1

सञ्जय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥

अर्थ:
संजय बोले: "अर्जुन को करुणा से अभिभूत, आँसुओं से भरी आँखों वाला और शोक में डूबा देखकर, मधुसूदन (कृष्ण) ने उससे यह वचन कहा।"

व्याख्या:
इस श्लोक में अर्जुन की मानसिक स्थिति को दर्शाया गया है। वह अपने कर्तव्य को भूलकर मोह और करुणा में डूब चुके हैं। भगवान कृष्ण अर्जुन को मार्गदर्शन देने के लिए तैयार हैं।


श्लोक 2

श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥

अर्थ:
भगवान ने कहा: "हे अर्जुन, तुम्हें यह मोह और कायरता इस समय कैसे आ गई? यह आचरण न तो आर्यों के योग्य है, न स्वर्ग को प्राप्त कराने वाला, और न ही यश देने वाला है।"

व्याख्या:
कृष्ण अर्जुन को उनकी कर्तव्यहीनता पर फटकारते हैं। वह बताते हैं कि इस समय मोह का प्रदर्शन उनके क्षत्रिय धर्म के विरुद्ध है और यह उनकी प्रतिष्ठा को भी नष्ट करेगा।


श्लोक 3

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥

अर्थ:
"हे पार्थ, इस कायरता को मत अपनाओ। यह तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं है। हृदय की इस दुर्बलता को त्यागकर खड़े हो जाओ, हे शत्रु-दमन।"

व्याख्या:
कृष्ण अर्जुन को उनके अंदर छुपी कमजोरी को पहचानने और त्यागने के लिए प्रेरित करते हैं। वह उन्हें उनके साहस और कर्तव्य का स्मरण कराते हैं।


श्लोक 4

अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥

अर्थ:
अर्जुन ने कहा: "हे मधुसूदन, मैं युद्ध में भीष्म और द्रोण जैसे पूजनीय व्यक्तियों पर तीर कैसे चला सकता हूँ?"

व्याख्या:
अर्जुन अपने मन के द्वंद्व को प्रकट करते हैं। वह अपने गुरुओं और बुजुर्गों के प्रति आदर और श्रद्धा के कारण उनके खिलाफ युद्ध करने को तैयार नहीं हैं।


श्लोक 5

गुरूनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुञ्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान्॥

अर्थ:
"इन महान गुरुओं को मारकर, मैं भिक्षा मांगकर जीवन बिताना अधिक अच्छा समझता हूँ। इनका वध करके जो भोग मैं प्राप्त करूंगा, वह तो उनके रक्त से सना होगा।"

व्याख्या:
यह श्लोक अर्जुन के मन में उपस्थित गहरे नैतिक और धर्मसंकट को प्रकट करता है। वह युद्ध से उत्पन्न होने वाले पाप और उसके परिणामों को लेकर चिंतित हैं।


श्लोक 6

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषामः
स्तेऽवस्थिता प्रमुखे धार्तराष्ट्राः॥

अर्थ:
"हम यह नहीं जानते कि हमारे लिए क्या बेहतर है—हम विजय प्राप्त करें या वे। जिन्हें मारने के बाद हम जीना भी नहीं चाहते, वे धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़े हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन युद्ध के परिणामों को लेकर अनिश्चित हैं। वह नहीं जानते कि जीत और हार में से कौन सी स्थिति उनके लिए उचित होगी।


श्लोक 7

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥

अर्थ:
"मेरा स्वभाव कायरता से दब गया है और मेरा मन धर्म के बारे में भ्रमित हो गया है। मैं आपसे पूछता हूँ कि मेरे लिए क्या श्रेयस्कर है। मैं आपका शिष्य हूँ और आपकी शरण में हूँ। कृपया मुझे निर्देश दें।"

व्याख्या:
अर्जुन यहाँ अपनी शरणागत अवस्था प्रकट करते हैं। वह स्वीकार करते हैं कि उनका मन भ्रमित है और वे श्रीकृष्ण से मार्गदर्शन की याचना करते हैं।


श्लोक 8

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्
यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्॥

अर्थ:
"मैं उस उपाय को नहीं देखता जो मेरे इंद्रियों को सुखा देने वाले इस शोक को मिटा सके, चाहे मैं बिना विरोधियों वाला समृद्ध राज्य या देवताओं का भी अधिपत्य प्राप्त कर लूँ।"

व्याख्या:
अर्जुन शोक से इतना व्यथित हैं कि उन्हें कोई भौतिक उपलब्धि इसे दूर करने योग्य नहीं लगती। वह आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए श्रीकृष्ण की ओर देखते हैं।


श्लोक 9

सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥

अर्थ:
संजय बोले: "इस प्रकार गुडाकेश (अर्जुन) ने हृषीकेश (कृष्ण) से कहा, 'मैं युद्ध नहीं करूंगा,' और फिर चुप हो गए।"

व्याख्या:
अर्जुन ने अपने युद्ध न करने के निर्णय को श्रीकृष्ण के सामने व्यक्त कर दिया। यह उनके मोह और शोक की चरम स्थिति को दर्शाता है।


श्लोक 10

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः॥

अर्थ:
"हे भारत, सेनाओं के मध्य शोकग्रस्त अर्जुन से हृषीकेश (श्रीकृष्ण) ने मुस्कराते हुए यह वचन कहा।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण मुस्कराते हैं, क्योंकि वह जानते हैं कि अर्जुन का शोक केवल अज्ञान का परिणाम है। वह उसे ज्ञान और धर्म का सही मार्ग दिखाने के लिए तैयार हैं।


सारांश:

इन श्लोकों में अर्जुन के शोक और मोह का विस्तार से वर्णन किया गया है। साथ ही, उनका श्रीकृष्ण से मार्गदर्शन मांगना गीता के उपदेशों की शुरुआत का आधार बनाता है। श्रीकृष्ण अपनी मुस्कराहट के साथ अर्जुन को ज्ञान देने के लिए तत्पर हैं।

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