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शनिवार, 22 जून 2024

भागवत गीता: अध्याय 5 (कर्मसंन्यासयोग) निर्वाण और परम शांति का मार्ग (श्लोक 22-29)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 5 (कर्मसंन्यासयोग) निर्वाण और परम शांति का मार्ग (श्लोक 22-29) का अर्थ और व्याख्या दी गई है:


श्लोक 22

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥

अर्थ:
"जो भोग इंद्रियों और उनके विषयों के संपर्क से उत्पन्न होते हैं, वे दुःख का कारण हैं। हे कौन्तेय, वे प्रारंभ और अंत वाले होते हैं, इसलिए ज्ञानी व्यक्ति उनमें आनंद नहीं लेता।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण समझाते हैं कि इंद्रिय-सुख अस्थायी और क्षणिक हैं। वे प्रारंभ में सुखद लगते हैं, लेकिन अंततः दुःख का कारण बनते हैं। आत्मज्ञानी व्यक्ति ऐसे भोगों से दूर रहता है।


श्लोक 23

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति शरीर छोड़ने से पहले ही काम (इच्छा) और क्रोध से उत्पन्न वेग को सहन कर लेता है, वह योगी और सुखी व्यक्ति है।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि इच्छाओं और क्रोध पर नियंत्रण प्राप्त करना आत्म-संयम की निशानी है। ऐसा व्यक्ति सच्चे सुख का अनुभव करता है।


श्लोक 24

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति आंतरिक सुख में स्थित है, आंतरिक आनंद में रमण करता है, और जिसकी आंतरिक ज्योति प्रकाशित है, वह योगी ब्रह्मनिर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
आत्मज्ञान प्राप्त व्यक्ति बाहरी भोगों में नहीं, बल्कि आंतरिक आत्मा में सुख पाता है। ऐसा योगी ब्रह्म की शांति में स्थित हो जाता है।


श्लोक 25

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः॥

अर्थ:
"जो ऋषि (ज्ञानी) अपने पापों से मुक्त हो गए हैं, जिनके संशय समाप्त हो गए हैं, जिन्होंने आत्मा पर विजय पा ली है, और जो सभी प्राणियों के हित में लगे रहते हैं, वे ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त करते हैं।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ ब्रह्मनिर्वाण (मोक्ष) की योग्यता बताते हैं। आत्मसंयम, संशय का नाश, और परोपकार की भावना इसके लिए आवश्यक हैं।


श्लोक 26

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्॥

अर्थ:
"जो तपस्वी कामना और क्रोध से मुक्त हैं, जिन्होंने अपने चित्त को वश में कर लिया है, और जिन्होंने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया है, उनके लिए ब्रह्मनिर्वाण चारों ओर विद्यमान है।"

व्याख्या:
कामना और क्रोध से मुक्त होकर आत्मा का साक्षात्कार करने वाला व्यक्ति हर स्थिति में ब्रह्म को अनुभव करता है।


श्लोक 27-28

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः॥

अर्थ:
"जो बाहरी विषयों को त्यागकर, अपनी दृष्टि को दोनों भौहों के बीच केंद्रित करता है और प्राण और अपान को सम कर लेता है; जिसकी इंद्रियाँ, मन, और बुद्धि नियंत्रित हैं; जो मोक्ष को अपना परम लक्ष्य मानता है और इच्छा, भय, और क्रोध से मुक्त है, वह सदा मुक्त होता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक ध्यान की प्रक्रिया और योग की अवस्था का वर्णन करता है। इंद्रिय-नियंत्रण, प्राणायाम, और ध्यान द्वारा व्यक्ति अपने चित्त को स्थिर कर मोक्ष प्राप्त कर सकता है।


श्लोक 29

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥

अर्थ:
"जो मुझे यज्ञ और तप के भोक्ता, सभी लोकों का महेश्वर (स्वामी), और सभी प्राणियों का सच्चा मित्र जानता है, वह शांति प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि भगवान को यज्ञों और तपों का भोक्ता, सभी का स्वामी, और सबसे बड़ा हितैषी मानकर भक्ति करने से व्यक्ति शांति और मोक्ष प्राप्त करता है।


सारांश:

  1. इंद्रिय-सुख क्षणिक और दुःख का कारण हैं; ज्ञानी इनसे बचते हैं।
  2. कामना और क्रोध पर विजय प्राप्त करना सच्चे योगी की पहचान है।
  3. आंतरिक सुख और आत्म-साक्षात्कार ब्रह्मनिर्वाण (मोक्ष) की ओर ले जाते हैं।
  4. ध्यान, प्राणायाम, और इंद्रिय-नियंत्रण मोक्ष प्राप्ति के महत्वपूर्ण साधन हैं।
  5. ईश्वर को सर्वस्व मानकर उनकी भक्ति करने से शांति प्राप्त होती है।

शनिवार, 15 जून 2024

भागवत गीता: अध्याय 5 (कर्मसंन्यासयोग) सांसारिक मोह से मुक्त योगी का दृष्टिकोण (श्लोक 13-21)

 भागवत गीता: अध्याय 5 (कर्मसंन्यासयोग) सांसारिक मोह से मुक्त योगी का दृष्टिकोण (श्लोक 13-21) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 13

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति अपने सभी कर्मों को मन से त्याग देता है और आत्मा में स्थित होकर रहता है, वह इस नौ-द्वार वाले शरीर (शरीर-रूपी नगर) में सुखपूर्वक निवास करता है, न तो स्वयं कुछ करता है और न किसी से कराता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक आत्मज्ञानी व्यक्ति के आचरण को दर्शाता है। वह अपने कर्मों को ईश्वर को समर्पित करके निर्लिप्त रहता है। नौ-द्वारों (दो आंखें, दो कान, दो नासिका छिद्र, एक मुख, और दो मल-मूत्र मार्ग) वाला शरीर केवल एक माध्यम बन जाता है।


श्लोक 14

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते॥

अर्थ:
"परमात्मा न तो किसी को कर्ता बनाते हैं, न कर्म करवाते हैं, और न ही कर्म के फल का संयोग कराते हैं। यह सब स्वभाव (प्रकृति) के अनुसार होता है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि परमात्मा कर्म का आरंभ या फल नहीं करते। ये सभी प्रकृति के स्वभाव से होते हैं। आत्मा अकर्ता है और परमात्मा केवल साक्षी हैं।


श्लोक 15

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥

अर्थ:
"परमात्मा न किसी के पाप को ग्रहण करते हैं और न ही पुण्य को। लेकिन अज्ञान से ज्ञान ढक जाता है और इस कारण प्राणी भ्रमित हो जाते हैं।"

व्याख्या:
ईश्वर निष्पक्ष हैं। पाप और पुण्य का फल व्यक्ति के कर्मों पर निर्भर करता है। अज्ञान व्यक्ति को सत्य से दूर कर देता है।


श्लोक 16

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥

अर्थ:
"जिनकी आत्मा का अज्ञान ज्ञान से नष्ट हो चुका है, उनके लिए वह ज्ञान सूर्य के समान परमात्मा का प्रकाश प्रकट करता है।"

व्याख्या:
ज्ञान व्यक्ति को अज्ञान के अंधकार से मुक्त करता है। यह ज्ञान आत्मा के दिव्य स्वरूप और परमात्मा की अनुभूति कराता है।


श्लोक 17

तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः॥

अर्थ:
"जिनकी बुद्धि, आत्मा, निष्ठा और ध्येय सब कुछ परमात्मा में स्थित है, वे ज्ञान के द्वारा पापों से मुक्त होकर पुनर्जन्म से परे जाते हैं।"

व्याख्या:
जो व्यक्ति पूरी तरह से ईश्वर में समर्पित होते हैं, वे ज्ञान के माध्यम से आत्मा को शुद्ध कर मोक्ष प्राप्त करते हैं।


श्लोक 18

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥

अर्थ:
"जो ज्ञानी हैं, वे विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और चांडाल (श्वपाक) में समान दृष्टि रखते हैं।"

व्याख्या:
आत्मज्ञानी व्यक्ति हर प्राणी में एक ही आत्मा को देखता है। उसकी दृष्टि समान होती है और वह भेदभाव नहीं करता।


श्लोक 19

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः॥

अर्थ:
"जिनका मन समभाव में स्थित है, उन्होंने इस संसार को यहीं जीत लिया है। ब्रह्म दोष रहित और सम है, इसलिए वे ब्रह्म में स्थित हैं।"

व्याख्या:
समदर्शी व्यक्ति संसार के द्वंद्वों से मुक्त होकर ब्रह्म में स्थित हो जाता है। यह मोक्ष की स्थिति है।


श्लोक 20

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः॥

अर्थ:
"जो प्रिय वस्तु मिलने पर हर्षित नहीं होता और अप्रिय मिलने पर उद्विग्न नहीं होता, वह स्थिरबुद्धि और भ्रम रहित ब्रह्मज्ञानी ब्रह्म में स्थित होता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि आत्मज्ञानी व्यक्ति समभाव में रहता है। वह सुख-दुख और प्रिय-अप्रिय परिस्थितियों में स्थिर रहता है।


श्लोक 21

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥

अर्थ:
"जो बाहरी विषयों में आसक्त नहीं है और आत्मा में स्थित होकर सुख प्राप्त करता है, वह ब्रह्मयोग में स्थित होकर अक्षय सुख को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि वास्तविक सुख आत्मा के भीतर है, बाहरी विषयों में नहीं। ब्रह्मयोग से व्यक्ति शाश्वत आनंद को प्राप्त करता है।


सारांश:

  1. आत्मज्ञानी व्यक्ति सभी प्राणियों में आत्मा का अनुभव करता है और समान दृष्टि रखता है।
  2. ब्रह्म में स्थित व्यक्ति सुख-दुख और प्रिय-अप्रिय से प्रभावित नहीं होता।
  3. बाहरी विषयों से आसक्ति को त्यागकर आत्मा में स्थित होना शाश्वत सुख का मार्ग है।
  4. ज्ञान अज्ञान को नष्ट कर व्यक्ति को मोक्ष की ओर ले जाता है।

शनिवार, 8 जून 2024

भागवत गीता: अध्याय 5 (कर्मसंन्यासयोग) निष्काम कर्म और ज्ञान का समन्वय (श्लोक 7-12)

 भागवत गीता: अध्याय 5 (कर्मसंन्यासयोग) निष्काम कर्म और ज्ञान का समन्वय (श्लोक 7-12) का अर्थ और व्याख्या दी गई है:


श्लोक 7

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते॥

अर्थ:
"जो योग में स्थित है, जिसकी आत्मा शुद्ध है, जिसने अपने मन और इंद्रियों को जीत लिया है, और जो सभी प्राणियों को आत्मा के रूप में देखता है, वह कर्म करता हुआ भी उनसे लिप्त नहीं होता।"

व्याख्या:
यह श्लोक आत्मज्ञान प्राप्त व्यक्ति की विशेषताओं को दर्शाता है। ऐसा व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए भी कर्म के बंधनों से मुक्त रहता है क्योंकि वह आत्मा की शुद्धता को पहचानता है।


श्लोक 8

नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्।
पश्यन्शृण्वन्स्पृशन्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन्श्वसन्॥

अर्थ:
"आत्मज्ञान से युक्त व्यक्ति यह मानता है कि वह कुछ भी नहीं करता है, चाहे वह देख रहा हो, सुन रहा हो, छू रहा हो, सूंघ रहा हो, खा रहा हो, चल रहा हो, सो रहा हो या साँस ले रहा हो।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि आत्मज्ञानी व्यक्ति अपने कर्मों को आत्मा से अलग मानता है। वह समझता है कि ये सभी कार्य शरीर और इंद्रियों के हैं, न कि आत्मा के।


श्लोक 9

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्॥

अर्थ:
"बोलते हुए, त्यागते हुए, ग्रहण करते हुए, आँखें खोलते और बंद करते हुए भी वह समझता है कि इंद्रियाँ ही इंद्रिय-विषयों में संलग्न हैं।"

व्याख्या:
आत्मज्ञानी व्यक्ति कर्मों को इंद्रियों के कार्य के रूप में देखता है और स्वयं को उनसे अलग मानता है। यह दृष्टिकोण उसे कर्मबंधन से मुक्त करता है।


श्लोक 10

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति अपने सभी कर्मों को ब्रह्म में समर्पित करके आसक्ति को त्यागकर कार्य करता है, वह पाप से वैसे ही अछूता रहता है जैसे जल से कमल का पत्ता।"

व्याख्या:
यह श्लोक निष्काम कर्मयोग का उदाहरण देता है। ईश्वर में समर्पण और आसक्ति का त्याग व्यक्ति को पाप और कर्मबंधन से बचाता है।


श्लोक 11

कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये॥

अर्थ:
"योगी लोग शरीर, मन, बुद्धि और केवल इंद्रियों के द्वारा आसक्ति को त्यागकर आत्मा की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक योगियों के दृष्टिकोण को दर्शाता है। वे अपने कर्मों को आत्मा की शुद्धि के लिए करते हैं, न कि भौतिक सुखों के लिए।


श्लोक 12

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते॥

अर्थ:
"जो योग में स्थित है, वह कर्मफल का त्याग करके निश्चल शांति प्राप्त करता है। लेकिन जो योग में स्थित नहीं है और फल के प्रति आसक्त है, वह बंधन में पड़ जाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक कर्मयोग और आसक्ति के बीच का अंतर बताता है। निष्काम कर्मयोगी शांति और मुक्ति प्राप्त करता है, जबकि आसक्त व्यक्ति बंधनों में उलझा रहता है।


सारांश:

  1. आत्मज्ञानी व्यक्ति स्वयं को इंद्रियों और उनके कार्यों से अलग मानता है।
  2. योग में स्थित व्यक्ति अपने सभी कर्मों को ब्रह्म को समर्पित करता है और पाप से मुक्त रहता है।
  3. आसक्ति रहित कर्म आत्मा की शुद्धि का मार्ग है और शांति प्रदान करता है।
  4. फल की आसक्ति कर्मबंधन का कारण बनती है।

शनिवार, 1 जून 2024

भागवत गीता: अध्याय 5 (कर्मसंन्यासयोग) कर्मसंन्यास और कर्मयोग की तुलना (श्लोक 1-6)

 भागवत गीता: अध्याय 5 (कर्मसंन्यासयोग) कर्मसंन्यास और कर्मयोग की तुलना (श्लोक 1-6) का अर्थ और व्याख्या दी गई है:


श्लोक 1

अर्जुन उवाच
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्॥

अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: "हे कृष्ण, आप कर्मों के संन्यास और योग (कर्म करने) दोनों की प्रशंसा करते हैं। इनमें से जो अधिक श्रेयस्कर है, कृपया उसे निश्चित रूप से बताइए।"

व्याख्या:
अर्जुन संन्यास (कर्मों का त्याग) और कर्मयोग (कर्तव्य पालन) के बीच के भेद को लेकर भ्रमित हैं। वे श्रीकृष्ण से इस विषय पर स्पष्ट उत्तर चाहते हैं।


श्लोक 2

श्रीभगवानुवाच
संन्यासः कर्मयोगश्च निष्श्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥

अर्थ:
भगवान ने कहा: "संन्यास और कर्मयोग दोनों ही मुक्ति के लिए श्रेष्ठ हैं। लेकिन इनमें से कर्मयोग (कर्तव्य पालन) संन्यास से श्रेष्ठ है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि कर्मयोग, जिसमें व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करता है, संन्यास (कर्मों का पूर्ण त्याग) से अधिक श्रेष्ठ और व्यावहारिक है।


श्लोक 3

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति न द्वेष करता है और न किसी वस्तु की कामना करता है, उसे सच्चा संन्यासी समझो। हे महाबाहु, ऐसा निर्द्वंद्व व्यक्ति आसानी से बंधन से मुक्त हो जाता है।"

व्याख्या:
सच्चा संन्यास बाहरी त्याग नहीं, बल्कि आंतरिक निर्लिप्तता है। द्वेष और कामना से मुक्त होकर व्यक्ति वास्तविक स्वतंत्रता प्राप्त करता है।


श्लोक 4

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्॥

अर्थ:
"बच्चे (अज्ञानी) ही सांख्य (ज्ञानयोग) और योग (कर्मयोग) को भिन्न कहते हैं। लेकिन जो व्यक्ति इनमें से किसी एक का सही पालन करता है, वह दोनों का फल प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि ज्ञानयोग और कर्मयोग वास्तव में एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं। सही दृष्टिकोण से दोनों मार्ग मुक्ति प्रदान करते हैं।


श्लोक 5

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति॥

अर्थ:
"जो स्थिति सांख्य (ज्ञानयोग) से प्राप्त होती है, वही योग (कर्मयोग) से भी प्राप्त होती है। जो इन दोनों को एक रूप में देखता है, वही सच्चा देखता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक ज्ञानयोग और कर्मयोग की समानता को स्पष्ट करता है। दोनों मार्ग एक ही सत्य की ओर ले जाते हैं।


श्लोक 6

संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति॥

अर्थ:
"हे महाबाहु, योग के बिना संन्यास कठिन है। लेकिन जो योगयुक्त है, वह शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक कर्मयोग के महत्व को बताता है। बिना योग (कर्तव्य पालन) के, केवल संन्यास के माध्यम से मुक्ति प्राप्त करना कठिन है।


सारांश:

  1. श्रीकृष्ण ने कर्मयोग को संन्यास से श्रेष्ठ बताया।
  2. सच्चा संन्यास बाहरी कर्मों का त्याग नहीं, बल्कि आंतरिक द्वेष और कामना का त्याग है।
  3. ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों ही समान हैं और एक ही लक्ष्य तक पहुँचाते हैं।
  4. कर्मयोग के माध्यम से व्यक्ति ब्रह्म को शीघ्र प्राप्त कर सकता है।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...