भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) परमधाम और सच्चे योगी का अंत (श्लोक 23-28) का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 23
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ॥
अर्थ:
"हे भरतश्रेष्ठ, मैं अब तुम्हें वह समय बताने जा रहा हूँ, जिसे जानकर योगी पुनर्जन्म (आवृत्ति) से बचते हैं और जिस समय के अनुसार पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं।"
व्याख्या:
यह श्लोक जीवन और मृत्यु के चक्र से जुड़े समय के महत्व को दर्शाता है। श्रीकृष्ण समझा रहे हैं कि योगी किस समय पर भगवान के पास जाकर जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होते हैं और किस समय पर पुनः जन्म लेते हैं।
श्लोक 24
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥
अर्थ:
"जो योगी अग्नि, ज्योति, दिन के समय, शुक्ल पक्ष और उत्तरायण (सूर्य के उत्तर की ओर जाने के छह महीने) के दौरान मृत्यु को प्राप्त होते हैं, वे ब्रह्मलोक जाते हैं।"
व्याख्या:
यह श्लोक संकेत करता है कि यदि योगी शुभ समय (ज्योतिर्मय परिस्थितियों) में शरीर त्यागता है, तो वह ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है। यह "ज्ञान और प्रकाश" के समय पर आधारित आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक है।
श्लोक 25
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥
अर्थ:
"जो योगी धूम, रात्रि, कृष्ण पक्ष, और दक्षिणायन (सूर्य के दक्षिण की ओर जाने के छह महीने) के दौरान शरीर त्यागते हैं, वे चंद्रलोक को प्राप्त करते हैं और पुनः जन्म लेते हैं।"
व्याख्या:
यह श्लोक दर्शाता है कि अशुभ समय (धूम्र और अंधकारमय परिस्थितियाँ) में शरीर त्यागने वाले योगी चंद्रलोक (स्वर्गीय स्थान) में जाते हैं, लेकिन उन्हें पुनः जन्म लेना पड़ता है। यह समय भौतिक संसार में लौटने का प्रतीक है।
श्लोक 26
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्यया आवर्तते पुनः॥
अर्थ:
"शुक्ल (प्रकाश) और कृष्ण (अंधकार) – ये दो गत्याएँ सदा से मानी गई हैं। इनमें से एक (प्रकाश मार्ग) से आत्मा पुनर्जन्म से मुक्त हो जाती है, जबकि दूसरी (अंधकार मार्ग) से वह पुनः संसार में लौटती है।"
व्याख्या:
यह श्लोक दो प्रकार की यात्राओं का वर्णन करता है:
- शुक्ल मार्ग (देवयान): मोक्ष की ओर ले जाता है।
- कृष्ण मार्ग (पितृयान): पुनर्जन्म के चक्र में वापस लाता है।
यह व्यक्त करता है कि आत्मा की गति उसके ज्ञान और कर्मों पर निर्भर करती है।
श्लोक 27
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन॥
अर्थ:
"हे पार्थ, जो योगी इन दोनों मार्गों को जानता है, वह कभी भ्रमित नहीं होता। इसलिए, हर समय योग में स्थित रहो।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन को उपदेश देते हैं कि जो व्यक्ति प्रकाश और अंधकार की इन दोनों गत्याओं को समझता है, वह मृत्यु के समय भ्रमित नहीं होता। योग में स्थित रहकर व्यक्ति सही मार्ग चुन सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
श्लोक 28
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव।
दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा।
योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥
अर्थ:
"योगी वेदों, यज्ञों, तपस्याओं और दान से प्राप्त होने वाले सभी पुण्य फलों को पार कर जाता है और उस परम स्थान को प्राप्त करता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि जो योगी भगवान का साक्षात्कार करता है, वह सभी सांसारिक पुण्य फलों (यज्ञ, दान, तपस्या) को पीछे छोड़कर परम धाम (भगवान के निवास) को प्राप्त करता है। यह दिखाता है कि भक्ति और योग भगवान तक पहुँचने का सर्वोच्च साधन है।
सारांश:
- शुक्ल मार्ग (प्रकाश) मोक्ष और ब्रह्मलोक तक ले जाता है, जबकि कृष्ण मार्ग (अंधकार) पुनर्जन्म के चक्र में वापस लाता है।
- योगी को इन दोनों मार्गों का ज्ञान होना चाहिए ताकि वह भ्रमित न हो।
- योग और भक्ति व्यक्ति को मोक्ष प्रदान करते हैं, जो यज्ञ, तपस्या, और दान से भी अधिक श्रेष्ठ है।
- मृत्यु के समय योग में स्थित व्यक्ति भगवान के परम धाम को प्राप्त करता है।