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शनिवार, 18 मई 2024

भागवत गीता: अध्याय 4 (ज्ञानयोग) ज्ञान का महत्व और उसकी प्राप्ति (श्लोक 34-42)

 भागवत गीता: अध्याय 4 (ज्ञानयोग) ज्ञान का महत्व और उसकी प्राप्ति (श्लोक 34-42) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 34

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥

अर्थ:
"उस ज्ञान को जानने के लिए विनम्र होकर गुरु के पास जाओ, उनसे प्रश्न करो और उनकी सेवा करो। तत्वदर्शी ज्ञानी तुम्हें उस ज्ञान का उपदेश देंगे।"

व्याख्या:
यह श्लोक आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु की महत्ता पर बल देता है। विनम्रता, जिज्ञासा और सेवा के माध्यम से गुरु से ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।


श्लोक 35

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषाणि द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥

अर्थ:
"उस ज्ञान को प्राप्त करके, हे पाण्डव, तुम फिर कभी मोह में नहीं पड़ोगे। उस ज्ञान के द्वारा तुम सभी प्राणियों को अपने भीतर और मुझे (ईश्वर) में देखोगे।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि आत्मज्ञान से व्यक्ति का मोह समाप्त हो जाता है और वह आत्मा और परमात्मा की एकता को पहचानने लगता है।


श्लोक 36

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि॥

अर्थ:
"यदि तुम सभी पापियों में सबसे बड़े पापी भी हो, तो भी ज्ञानरूपी नौका के द्वारा सभी पापों को पार कर जाओगे।"

व्याख्या:
यह श्लोक ज्ञान की शक्ति को दर्शाता है। आत्मज्ञान से व्यक्ति अपने सभी पापों से मुक्त हो सकता है।


श्लोक 37

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, जैसे जलती हुई अग्नि लकड़ी को भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सभी कर्मों को भस्म कर देती है।"

व्याख्या:
यह श्लोक ज्ञान की शुद्धिकरण शक्ति को समझाता है। आत्मज्ञान से व्यक्ति कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है।


श्लोक 38

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विंदति॥

अर्थ:
"इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र कुछ भी नहीं है। योग के माध्यम से सिद्ध हुआ व्यक्ति समय के साथ इसे अपने भीतर अनुभव करता है।"

व्याख्या:
ज्ञान को सबसे पवित्र और मूल्यवान बताया गया है। यह केवल योग और आत्म-संयम के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।


श्लोक 39

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥

अर्थ:
"श्रद्धावान, समर्पित और इंद्रियों को नियंत्रित रखने वाला व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान प्राप्त करके वह शीघ्र ही परम शांति को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
श्रद्धा, समर्पण और इंद्रिय-नियंत्रण ज्ञान प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं। ज्ञान से व्यक्ति शांति और संतोष प्राप्त करता है।


श्लोक 40

अज्ञश्चाश्रद्धधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥

अर्थ:
"जो अज्ञानी, श्रद्धा रहित और संदेहपूर्ण है, वह विनाश को प्राप्त होता है। ऐसे व्यक्ति को न तो इस लोक में सुख मिलता है, न परलोक में।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि श्रद्धा और विश्वास के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता। संदेहशील व्यक्ति आत्मिक और भौतिक दोनों ही जीवन में सफल नहीं होता।


श्लोक 41

योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति योग द्वारा कर्मों को त्याग चुका है, जिसका संदेह ज्ञान से नष्ट हो चुका है और जो आत्मवान है, उसे कर्म बांध नहीं सकते, हे धनंजय।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि आत्मज्ञान और संदेह का नाश व्यक्ति को कर्मबंधन से मुक्त कर देता है। योग का अभ्यास इस मुक्ति का मार्ग है।


श्लोक 42

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत॥

अर्थ:
"इसलिए, अज्ञान से उत्पन्न अपने हृदय में स्थित संदेह को ज्ञान की तलवार से काट डालो और योग में स्थित होकर खड़े हो जाओ, हे भारत।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को ज्ञान प्राप्त कर संदेह का त्याग करने और योग के माध्यम से अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए प्रेरित करते हैं।


सारांश:

  • आत्मज्ञान गुरु की कृपा, विनम्रता और जिज्ञासा से प्राप्त होता है।
  • ज्ञान व्यक्ति को पापों और मोह से मुक्त करता है।
  • श्रद्धा, इंद्रिय-नियंत्रण, और संदेह का त्याग ज्ञान प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं।
  • श्रीकृष्ण अर्जुन को योग के माध्यम से संदेह त्यागने और कर्तव्य निभाने के लिए प्रेरित करते हैं।

शनिवार, 11 मई 2024

भागवत गीता: अध्याय 4 (ज्ञानयोग) यज्ञ के प्रकार और उनका महत्व (श्लोक 25-33)

 भागवत गीता: अध्याय 4 (ज्ञानयोग) यज्ञ के प्रकार और उनका महत्व (श्लोक 25-33) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 25

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति॥

अर्थ:
"कुछ योगी देवताओं को यज्ञ के रूप में पूजते हैं, जबकि अन्य योगी ब्रह्म रूपी अग्नि में स्वयं को यज्ञ के रूप में अर्पित करते हैं।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहां विभिन्न प्रकार के यज्ञों का वर्णन करते हैं। कुछ लोग भौतिक यज्ञ करते हैं (देवताओं की पूजा), जबकि अन्य आत्मा और ब्रह्म को जानने के लिए आत्म-समर्पण करते हैं।


श्लोक 26

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति॥

अर्थ:
"कुछ लोग अपने श्रोत्र (कान) और अन्य इंद्रियों को संयम रूपी अग्नि में अर्पित करते हैं, जबकि अन्य लोग इंद्रियों के विषयों को इंद्रिय रूपी अग्नि में अर्पित करते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक इंद्रिय-नियंत्रण और इंद्रिय-संयम को यज्ञ के रूप में प्रस्तुत करता है। योगी अपने इंद्रियों और उनकी इच्छाओं को संयमित करके आत्मज्ञान प्राप्त करते हैं।


श्लोक 27

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते॥

अर्थ:
"कुछ लोग सभी इंद्रियों और प्राणों के कार्यों को आत्मसंयम रूपी अग्नि में, जो ज्ञान से प्रकाशित है, अर्पित करते हैं।"

व्याख्या:
आत्मसंयम और ज्ञान को यज्ञ के रूप में उपयोग करके व्यक्ति आत्मा का साक्षात्कार कर सकता है।


श्लोक 28

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः॥

अर्थ:
"कुछ तपस्वी द्रव्य (सामग्री) यज्ञ, तपस्या यज्ञ, योग यज्ञ, स्वाध्याय (अध्ययन) यज्ञ और ज्ञान यज्ञ करते हैं।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण विभिन्न प्रकार के यज्ञों का वर्णन करते हैं, जो व्यक्ति की प्रकृति और झुकाव के अनुसार होते हैं। इनमें से सभी यज्ञ आत्मिक उन्नति के साधन हैं।


श्लोक 29

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥

अर्थ:
"कुछ लोग प्राण को अपान में और अपान को प्राण में अर्पित करते हैं, प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणायाम में रत होते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक प्राणायाम यज्ञ का वर्णन करता है, जिसमें श्वास और प्रश्वास को नियंत्रित करके मन को स्थिर किया जाता है।


श्लोक 30

अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥

अर्थ:
"अन्य लोग नियमित आहार लेकर अपने प्राणों को प्राण में अर्पित करते हैं। ये सभी यज्ञ के ज्ञाता हैं और यज्ञ के माध्यम से अपने पापों को नष्ट कर लेते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक संयमित जीवन और नियमित आहार को यज्ञ के रूप में प्रस्तुत करता है। संयम के माध्यम से व्यक्ति शुद्ध होता है।


श्लोक 31

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम॥

अर्थ:
"जो यज्ञ के अवशिष्ट अमृत को ग्रहण करते हैं, वे शाश्वत ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। हे कुरुसत्तम, यज्ञरहित व्यक्ति को न इस लोक में सुख मिलता है, न परलोक में।"

व्याख्या:
यज्ञ के माध्यम से आत्मा शुद्ध होती है और परमात्मा की ओर अग्रसर होती है। बिना यज्ञ किए जीवन व्यर्थ है।


श्लोक 32

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे॥

अर्थ:
"इस प्रकार ब्रह्म के मुख से अनेक प्रकार के यज्ञ प्रकट हुए हैं। इन्हें कर्मजन्य समझो, और ऐसा जानकर तुम बंधनों से मुक्त हो जाओगे।"

व्याख्या:
सभी यज्ञ ब्रह्म के ही रूप हैं। इनका पालन करके व्यक्ति कर्मबंधन से मुक्त हो सकता है।


श्लोक 33

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते॥

अर्थ:
"हे परंतप, द्रव्य (सामग्री) यज्ञ से ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है। हे पार्थ, सभी कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक ज्ञान यज्ञ के महत्व को समझाता है। भौतिक कर्म सीमित हैं, लेकिन आत्मज्ञान व्यक्ति को मुक्ति प्रदान करता है।


सारांश:

  • इन श्लोकों में विभिन्न प्रकार के यज्ञों का वर्णन किया गया है, जैसे द्रव्य यज्ञ, तप यज्ञ, योग यज्ञ, प्राणायाम यज्ञ, और ज्ञान यज्ञ।
  • सभी यज्ञ आत्मा की शुद्धि और मोक्ष का साधन हैं।
  • ज्ञान यज्ञ सर्वोच्च है, क्योंकि यह सभी कर्मों को समाप्त करके आत्मज्ञान और मोक्ष प्रदान करता है।

शनिवार, 4 मई 2024

भागवत गीता: अध्याय 4 (ज्ञानयोग) कर्म और अकर्म का रहस्य (श्लोक 11-24)

भागवत गीता: अध्याय 4 (ज्ञानयोग) कर्म और अकर्म का रहस्य (श्लोक 11-24) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 11

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥

अर्थ:
"जो जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उसी प्रकार उनका सम्मान करता हूँ। हे पार्थ, सभी मनुष्य मेरे मार्ग का ही अनुसरण करते हैं।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि भगवान सबके लिए समान हैं। जो जैसा भाव लेकर उनकी ओर आता है, उसे वैसा ही फल मिलता है। यह भक्ति और कर्म के महत्व को समझाता है।


श्लोक 12

काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥

अर्थ:
"जो लोग कर्मों की सिद्धि चाहते हैं, वे देवताओं की पूजा करते हैं। इस मानव संसार में कर्मों से सिद्धि शीघ्र प्राप्त होती है।"

व्याख्या:
जो भौतिक इच्छाएँ रखते हैं, वे देवताओं की पूजा करके अपने लक्ष्यों को प्राप्त करते हैं। लेकिन यह सांसारिक और अस्थायी है।


श्लोक 13

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥

अर्थ:
"गुण और कर्म के आधार पर मैंने चार वर्णों की रचना की है। हालांकि मैं इसका रचयिता हूँ, फिर भी मैं अकर्ता और अविनाशी हूँ।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण वर्ण व्यवस्था को कर्म और गुण के आधार पर बताते हैं, न कि जन्म पर। वह स्वयं को इससे परे और निष्काम कहते हैं।


श्लोक 14

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥

अर्थ:
"मुझे कर्म बंधन में नहीं डालते, न ही मुझे उनके फलों की इच्छा होती है। जो यह समझता है, वह भी कर्मों से बंधता नहीं है।"

व्याख्या:
भगवान कर्म करते हुए भी उनसे बंधनमुक्त रहते हैं। यही स्थिति भक्तों के लिए भी संभव है, यदि वे निष्काम भाव से कर्म करें।


श्लोक 15

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्॥

अर्थ:
"इस ज्ञान को जानकर प्राचीन मुमुक्षुओं (मुक्ति चाहने वालों) ने भी कर्म किए। इसलिए, तुम्हें भी उसी प्रकार कर्म करना चाहिए जैसा उन्होंने किया।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि वह पूर्वजों के मार्ग का अनुसरण करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करें।


श्लोक 16

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥

अर्थ:
"क्या कर्म है और क्या अकर्म है, इसे लेकर महान ज्ञानी भी भ्रमित होते हैं। इसलिए मैं तुम्हें कर्म का सही ज्ञान दूँगा, जिसे जानकर तुम अशुभ से मुक्त हो जाओगे।"

व्याख्या:
यह श्लोक कर्म की गहराई और जटिलता को समझाता है। श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्म का वास्तविक अर्थ सिखाने का वादा करते हैं।


श्लोक 17

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥

अर्थ:
"कर्म को समझना चाहिए, विकर्म (विपरीत कर्म) को भी जानना चाहिए और अकर्म को भी समझना चाहिए। कर्म की गति अत्यंत गहन है।"

व्याख्या:
कर्म, विकर्म और अकर्म के भेद को समझना आवश्यक है। यह व्यक्ति को सही दिशा में कार्य करने की प्रेरणा देता है।


श्लोक 18

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्॥

अर्थ:
"जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को देखता है, वही मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योग में स्थित होकर सभी कर्मों को पूरा करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक निष्काम कर्मयोग का सार है। कर्म को सही दृष्टि से देखने वाला व्यक्ति जीवन में स्थिर और सफल होता है।


श्लोक 19

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः॥

अर्थ:
"जिसके सभी कर्म कामना और संकल्प से रहित होते हैं और जो ज्ञान की अग्नि से कर्मों को जला चुका होता है, उसे ज्ञानी कहते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक कर्मयोग की पराकाष्ठा को दर्शाता है। कामना और आसक्ति से रहित कर्म ही मोक्ष का मार्ग है।


श्लोक 20

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः॥

अर्थ:
"जो कर्मफल की आसक्ति छोड़ चुका है, नित्य संतुष्ट और निराश्रित है, वह कर्म करता हुआ भी वास्तव में कुछ नहीं करता।"

व्याख्या:
निष्काम कर्मयोगी कर्म करता है लेकिन उसमें आसक्ति नहीं रखता। इसलिए, वह कर्मों के बंधन से मुक्त रहता है।


श्लोक 21

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥

अर्थ:
"जो आशा रहित, संयमित चित्त और आत्मा वाला है और जिसने सभी प्रकार के भौतिक परिग्रह त्याग दिए हैं, वह केवल शरीर निर्वाह के लिए कर्म करता है और पाप को प्राप्त नहीं होता।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण समझाते हैं कि जो व्यक्ति निष्काम और संयमित है, वह अपने जीवन निर्वाह के लिए कर्म करता हुआ भी पाप से मुक्त रहता है।


श्लोक 22

यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति यदृच्छा (स्वाभाविक रूप से प्राप्त) में संतुष्ट रहता है, द्वंद्वों से परे है, और ईर्ष्या रहित है, वह सफलता और असफलता में समान भाव रखता है और कर्म करते हुए भी बंधता नहीं।"

व्याख्या:
यह श्लोक निष्काम कर्मयोग के सिद्धांत को स्पष्ट करता है। संतोष और समभाव के साथ किया गया कर्म बंधन का कारण नहीं बनता।


श्लोक 23

गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते॥

अर्थ:
"जिसका संग (आसक्ति) समाप्त हो गया है, जो मुक्त है और जिसका चित्त ज्ञान में स्थित है, उसके सभी कर्म यज्ञ के लिए किए जाते हैं और वे पूरी तरह से नष्ट हो जाते हैं।"

व्याख्या:
ज्ञान और यज्ञ भावना से किया गया कर्म व्यक्ति को सभी बंधनों से मुक्त करता है।


श्लोक 24

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेना गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥

अर्थ:
"जिसके लिए अर्पण ब्रह्म है, हव्य ब्रह्म है, और अग्नि भी ब्रह्म है, वह ब्रह्म में ही लीन हो जाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक कर्म को ब्रह्म की पूजा के रूप में करने की महिमा को दर्शाता है। ऐसी भावना से किया गया कर्म व्यक्ति को ब्रह्म के साथ एकाकार कर देता है।


सारांश:

  • भगवान ने कर्म, अकर्म और विकर्म के भेद को स्पष्ट किया।
  • निष्काम कर्मयोग से व्यक्ति बंधनों से मुक्त हो सकता है।
  • कर्म को यज्ञ के रूप में करना, आसक्ति से मुक्त होकर ब्रह्म के प्रति समर्पित होना मोक्ष का मार्ग है।
  • संतोष, समभाव और ज्ञान से किया गया कर्म आत्मा को शुद्ध करता है।

शनिवार, 27 अप्रैल 2024

भागवत गीता: अध्याय 4 (ज्ञानयोग) श्रीकृष्ण द्वारा सनातन ज्ञान का उपदेश (श्लोक 1-10)

 भागवत गीता: अध्याय 4 (ज्ञानयोग) श्रीकृष्ण द्वारा सनातन ज्ञान का उपदेश (श्लोक 1-10) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥

अर्थ:
भगवान ने कहा: "मैंने इस अविनाशी योग को पहले सूर्य देव (विवस्वान) को सिखाया। विवस्वान ने इसे मनु को बताया और मनु ने इसे इक्ष्वाकु को सिखाया।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण कहते हैं कि ज्ञानयोग शाश्वत है और इसे युगों से पीढ़ी दर पीढ़ी महान आत्माओं को सिखाया गया है।


श्लोक 2

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप॥

अर्थ:
"इस प्रकार परंपरा के माध्यम से इस योग को राजर्षियों ने जाना। लेकिन समय के साथ, यह योग नष्ट हो गया, हे परंतप (अर्जुन)।"

व्याख्या:
ज्ञानयोग का महत्व राजर्षियों द्वारा समझा गया, लेकिन समय के साथ इसका सही अर्थ लुप्त हो गया। अब इसे पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है।


श्लोक 3

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्॥

अर्थ:
"आज मैंने तुम्हें वही पुरातन योग सिखाया है, क्योंकि तुम मेरे भक्त और मित्र हो। यह महान रहस्य है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को इस ज्ञान का अधिकारी मानते हैं क्योंकि वह उनके प्रति भक्ति और मित्रता का भाव रखते हैं।


श्लोक 4

अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥

अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: "आपका जन्म तो हाल का है, जबकि विवस्वान का जन्म बहुत पहले हुआ। फिर मैं कैसे मानूं कि आपने सबसे पहले यह योग सिखाया था?"

व्याख्या:
अर्जुन को श्रीकृष्ण के इस कथन पर संशय होता है। यह उनकी जिज्ञासा और ज्ञान प्राप्ति की इच्छा को दर्शाता है।


श्लोक 5

श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप॥

अर्थ:
भगवान ने कहा: "हे अर्जुन, मेरे और तुम्हारे कई जन्म हुए हैं। मैं उन सभी को जानता हूँ, लेकिन तुम उन्हें नहीं जानते, हे परंतप।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि वे साक्षात ईश्वर हैं, जिनकी स्मृति और ज्ञान असीमित है। अर्जुन को यह आत्मा और परमात्मा के अंतर को समझाने के लिए कहा गया।


श्लोक 6

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥

अर्थ:
"यद्यपि मैं अजन्मा, अविनाशी और सभी प्राणियों का स्वामी हूँ, फिर भी अपनी माया (शक्ति) से मैं प्रकृति को अधीन कर जन्म लेता हूँ।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि उनका अवतार आत्मा के नियमों से मुक्त है। वे अपने इच्छानुसार माया का उपयोग करके जन्म लेते हैं।


श्लोक 7

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

अर्थ:
"हे भारत, जब-जब धर्म का क्षय और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के अवतार का उद्देश्य समझाता है। जब समाज में धर्म कमजोर हो जाता है और अधर्म बढ़ने लगता है, तब वे अवतार लेकर संतुलन स्थापित करते हैं।


श्लोक 8

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥

अर्थ:
"साधुओं की रक्षा, दुष्टों के विनाश और धर्म की पुनः स्थापना के लिए मैं प्रत्येक युग में प्रकट होता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान का अवतार धर्म और न्याय की पुनर्स्थापना के लिए होता है। यह उनकी करुणा और दया का प्रतीक है।


श्लोक 9

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥

अर्थ:
"जो मेरे दिव्य जन्म और कर्म को यथार्थ में जानता है, वह इस शरीर को त्यागने के बाद पुनर्जन्म नहीं लेता और मेरी शरण में आता है।"

व्याख्या:
भगवान के दिव्य स्वरूप को जानने वाला व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है और जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है।


श्लोक 10

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥

अर्थ:
"राग, भय और क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें मन लगाकर, ज्ञान और तपस्या द्वारा पवित्र हुए अनेक लोग मेरे स्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि राग, भय और क्रोध को त्यागकर, तपस्या और ज्ञान के माध्यम से व्यक्ति भगवान की दिव्यता को प्राप्त कर सकता है।


सारांश:

  • श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ज्ञानयोग की परंपरा और उसके महत्व को समझाया।
  • उन्होंने बताया कि उनका अवतार धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश के लिए होता है।
  • भगवान के दिव्य जन्म और कर्म को समझने से मोक्ष प्राप्त होता है।
  • राग, भय और क्रोध से मुक्त होकर ज्ञान और तपस्या के माध्यम से भगवान की प्राप्ति संभव है।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...