भागवत गीता: अध्याय 9 (राजविद्या-राजगुह्य योग) भगवान की दिव्य विभूतियाँ और भक्ति (श्लोक 20-26) का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 20
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा।
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकम्।
अश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥
अर्थ:
"जो लोग वेदों के तीन भागों (त्रैविद्या) को जानते हैं, सोम रस का पान करके और यज्ञों द्वारा मुझे पूजते हैं, वे पापों से मुक्त होकर स्वर्ग की प्राप्ति की कामना करते हैं। वे स्वर्गलोक में पहुँचकर दिव्य भोगों का आनंद लेते हैं।"
व्याख्या:
यह श्लोक उन लोगों का वर्णन करता है जो वेदों के कर्मकांडीय ज्ञान का पालन करते हैं और स्वर्ग की प्राप्ति के लिए यज्ञ आदि करते हैं। वे पुण्य अर्जित करके स्वर्गीय सुखों का आनंद लेते हैं, लेकिन यह स्थिति स्थायी नहीं है।
श्लोक 21
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं।
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना।
गतागतं कामकामा लभन्ते॥
अर्थ:
"स्वर्ग के विशाल लोक का भोग करने के बाद, जब उनके पुण्य समाप्त हो जाते हैं, तो वे फिर से मर्त्यलोक (पृथ्वी) पर लौट आते हैं। इस प्रकार, जो कामना के वश होकर त्रयीधर्म का पालन करते हैं, वे जन्म-मरण के चक्र में फँसे रहते हैं।"
व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि स्वर्गलोक में पुण्य के आधार पर सुख भोगने के बाद व्यक्ति को फिर से जन्म लेना पड़ता है। यह सुख अस्थायी है, और स्वर्ग भी मोक्ष का स्थान नहीं है। केवल भगवान की भक्ति ही इस चक्र से मुक्त कर सकती है।
श्लोक 22
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
अर्थ:
"जो भक्त मुझमें अनन्य भाव से चिंतन और भक्ति करते हैं, उनके लिए मैं योग (आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त वस्तुओं की रक्षा) का पालन करता हूँ।"
व्याख्या:
भगवान अपने भक्तों को आश्वासन देते हैं कि वे उन सभी की जिम्मेदारी लेते हैं जो उन्हें पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ याद करते हैं। वे उनकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं और उनकी सुरक्षा का भी ध्यान रखते हैं।
श्लोक 23
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥
अर्थ:
"जो अन्य देवताओं के भक्त हैं और श्रद्धा से उनकी पूजा करते हैं, वे भी वास्तव में मेरी ही पूजा करते हैं, लेकिन यह अविधिपूर्वक (अनजाने में) होता है।"
व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि जो अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे भी अंततः भगवान की ही पूजा कर रहे होते हैं, क्योंकि भगवान ही सबका मूल हैं। लेकिन यह पूजा सीधे भगवान तक नहीं पहुँचती, क्योंकि यह विधिपूर्वक नहीं होती।
श्लोक 24
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥
अर्थ:
"मैं ही सभी यज्ञों का भोक्ता (उपभोग करने वाला) और स्वामी हूँ। लेकिन जो लोग मेरे इस सत्य को नहीं जानते, वे चक्र (जन्म-मरण के चक्र) में गिर जाते हैं।"
व्याख्या:
भगवान स्पष्ट करते हैं कि सभी यज्ञ और धार्मिक कृत्य अंततः उन्हें ही समर्पित हैं। लेकिन जो लोग इस सत्य को नहीं समझते और भौतिक लाभ के लिए यज्ञ करते हैं, वे जन्म और मृत्यु के चक्र में फँसे रहते हैं।
श्लोक 25
देवव्रता देवान् पितृव्रता पितॄन्यान्ति।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्॥
अर्थ:
"जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं को प्राप्त होते हैं। जो पितरों की पूजा करते हैं, वे पितरों को प्राप्त होते हैं। जो भूत-प्रेतों की पूजा करते हैं, वे उन्हें प्राप्त होते हैं। लेकिन जो मेरी भक्ति करते हैं, वे मुझे प्राप्त होते हैं।"
व्याख्या:
भगवान समझाते हैं कि हर पूजा का फल उसी दिशा में जाता है। लेकिन केवल भगवान की भक्ति ही आत्मा को शाश्वत और सर्वोच्च लक्ष्य (मोक्ष) तक पहुंचाती है। अन्य प्रकार की पूजा अस्थायी फल देती है और व्यक्ति को भौतिक चक्र में बांधकर रखती है।
श्लोक 26
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥
अर्थ:
"जो व्यक्ति मुझे भक्ति से पत्ता, फूल, फल, या जल अर्पित करता है, मैं उस भक्तिपूर्ण अर्पण को स्वीकार करता हूँ।"
व्याख्या:
यह श्लोक भगवान की करुणा और सरलता को दर्शाता है। वे अपने भक्तों से केवल प्रेम और भक्ति की अपेक्षा करते हैं, न कि भौतिक संपत्ति की। सच्चे हृदय से किया गया छोटा सा अर्पण भी उन्हें प्रिय है।
सारांश (श्लोक 20-26):
- स्वर्ग के सुख अस्थायी हैं: जो लोग यज्ञ और कर्मकांड के माध्यम से स्वर्ग प्राप्त करते हैं, वे पुण्य समाप्त होने पर फिर से संसार में लौट आते हैं।
- भक्ति योग सर्वोत्तम है: भगवान अपने भक्तों के योग (आवश्यकता) और क्षेम (सुरक्षा) का ध्यान रखते हैं।
- अन्य पूजा भगवान तक अप्रत्यक्ष रूप से पहुँचती है: जो लोग अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे भी भगवान की ही पूजा करते हैं, लेकिन यह पूजा भगवान को सीधे नहीं पहुंचती।
- सच्ची भक्ति सरल और हृदय से होती है: भगवान प्रेम और भक्ति से किए गए किसी भी अर्पण को स्वीकार करते हैं।
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