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शनिवार, 27 जनवरी 2024

भागवत गीता: अध्याय 1 (अर्जुनविषादयोग) कर्तव्य पर दुविधा (श्लोक 31-47)

भागवत गीता: अध्याय 1 (अर्जुनविषादयोग) कर्तव्य पर दुविधा (श्लोक 31-47) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 31

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च॥

अर्थ:
"हे कृष्ण, अपने स्वजनों को युद्ध में मारने के बाद मुझे कोई कल्याण नहीं दिखता। मैं विजय, राज्य, या सुखों की इच्छा नहीं करता।"

व्याख्या:
अर्जुन यह महसूस करते हैं कि अपने प्रियजनों की मृत्यु के बाद राज्य और सुख का कोई मूल्य नहीं रहेगा। यह उनके मोह और करुणा को दर्शाता है।


श्लोक 32-33

किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च॥
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च॥

अर्थ:
"हे गोविंद, हमें राज्य, भोग, या जीवन की क्या आवश्यकता है, जब वे लोग जिनके लिए हम यह सब चाहते हैं, युद्ध के लिए तैयार खड़े हैं, और अपने जीवन और धन का त्याग करने को तत्पर हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन के मन में यह विचार आता है कि जिनके लिए यह सब अर्जित किया जाना है, उनकी अनुपस्थिति में यह सब व्यर्थ है।


श्लोक 34-35

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा॥
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते॥

अर्थ:
"गुरु, पितर, पुत्र, पितामह, मामा, श्वसुर, पौत्र, भाई और अन्य संबंधियों को मैं मारना नहीं चाहता, भले ही मुझे तीनों लोकों का राज्य मिल जाए, फिर पृथ्वी के राज्य का क्या कहना।"

व्याख्या:
यह श्लोक अर्जुन के गहरे मोह और युद्ध से पीछे हटने की मानसिकता को दर्शाता है। वह अपने संबंधियों की हत्या को किसी भी स्थिति में उचित नहीं मानते।


श्लोक 36

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानात्मबान्धवान्॥

अर्थ:
"हे जनार्दन, धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या खुशी मिलेगी? अपने स्वजनों को मारने से हम पाप के भागी बनेंगे।"

व्याख्या:
अर्जुन के मन में यह विश्वास होता है कि युद्ध से प्राप्त विजय केवल पाप और विनाश का कारण बनेगी।


श्लोक 37-38

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव॥
यदि ह्येतेऽप्यपश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्॥

अर्थ:
"इसलिए, हे माधव, हमें अपने स्वजनों और धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारना उचित नहीं है। अपने स्वजनों को मारकर हम कैसे सुखी हो सकते हैं? यदि लोभ से अंधे होकर ये लोग पाप और कुल के विनाश को नहीं समझते, तो हमें तो समझना चाहिए।"

व्याख्या:
अर्जुन धर्म और अधर्म के बीच संतुलन बनाने का प्रयास करते हैं। उनका मानना है कि लोभ से प्रेरित होकर युद्ध करना विनाशकारी होगा।


श्लोक 39

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन॥

अर्थ:
"हे जनार्दन, हम जो कुल के विनाश से उत्पन्न दोष को समझते हैं, हमें इस पाप से क्यों नहीं बचना चाहिए?"

व्याख्या:
अर्जुन कुल विनाश और उसके सामाजिक और नैतिक परिणामों की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं।


श्लोक 40-41

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत॥
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः॥

अर्थ:
"कुल के विनाश से कुल के शाश्वत धर्म नष्ट हो जाते हैं, और धर्म के नष्ट होने से कुल में अधर्म बढ़ जाता है। हे कृष्ण, जब अधर्म बढ़ता है, तो कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं, और उनसे वर्णसंकर संतानों का जन्म होता है।"

व्याख्या:
अर्जुन यह समझाने का प्रयास करते हैं कि युद्ध से समाज और परिवार पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा। वर्णसंकरता सामाजिक व्यवस्था को नष्ट कर देगी।


श्लोक 42-43

सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः॥

अर्थ:
"वर्णसंकरता कुल के विनाश और पाप का कारण बनती है। इससे पितरों का श्राद्ध आदि कर्म बाधित हो जाता है, और वे पतित हो जाते हैं। ऐसे पापों के कारण जाति और कुल के धर्म भी नष्ट हो जाते हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन युद्ध के विनाशकारी प्रभावों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, विशेष रूप से सामाजिक और धार्मिक परंपराओं के क्षरण पर।


श्लोक 44-45

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥

अर्थ:
"हे जनार्दन, जिनका कुल धर्म नष्ट हो चुका है, वे नरक में जाते हैं। हम भी लोभ में आकर अपने स्वजनों को मारने का पाप करने जा रहे हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन अपने निर्णय पर शोक व्यक्त करते हैं। वह सोचते हैं कि स्वजनों की हत्या से केवल नरक का मार्ग प्रशस्त होगा।


श्लोक 46

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥

अर्थ:
"यदि धृतराष्ट्र के पुत्र शस्त्रों से सुसज्जित होकर, बिना प्रतिरोध किए मुझे युद्ध में मार दें, तो यह मेरे लिए बेहतर होगा।"

व्याख्या:
अर्जुन ने पूरी तरह से अपने कर्तव्य से विमुख होकर युद्ध छोड़ने का निर्णय कर लिया है। वह अहिंसा का मार्ग अपनाने के लिए तैयार हैं।


श्लोक 47

एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥

अर्थ:
"इस प्रकार कहकर अर्जुन ने अपने धनुष-बाण छोड़ दिए और रथ में बैठ गए, उनका मन शोक और करुणा से भर गया।"

व्याख्या:
यह श्लोक अर्जुन की मानसिक और शारीरिक असमर्थता को दर्शाता है। वह युद्ध के लिए तैयार नहीं हैं और पूरी तरह से अपने मनोबल को खो चुके हैं।


सारांश:

श्लोक 31 से 47 में अर्जुन के मनोवैज्ञानिक संघर्ष और मोह का विस्तार से वर्णन है। उनके मन में धर्म और अधर्म, कर्तव्य और मोह के बीच द्वंद्व है। यह अध्याय गीता के मुख्य संवाद के लिए आधार तैयार करता है।


शनिवार, 20 जनवरी 2024

भागवत गीता: अध्याय 1 (अर्जुनविषादयोग) अर्जुन का भ्रम और मोह (श्लोक 21-30)

यहां भागवत गीता: अध्याय 1 (अर्जुनविषादयोग) अर्जुन का भ्रम और मोह (श्लोक 21-30) का अर्थ और व्याख्या दी गई है:


श्लोक 21-22

अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्॥
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे॥

अर्थ:
अर्जुन ने कहा, "हे अच्युत (कृष्ण), कृपया मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में स्थापित करें ताकि मैं उन योद्धाओं को देख सकूं जो युद्ध के लिए उपस्थित हैं और यह जान सकूं कि मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना है।"

व्याख्या:
अर्जुन युद्ध की गंभीरता को समझने के लिए अपने शत्रुओं को देखना चाहते हैं। यह श्लोक उनकी युद्ध के प्रति जागरूकता और दुविधा को व्यक्त करता है।


श्लोक 23

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः॥

अर्थ:
"मैं उन लोगों को देखना चाहता हूं जो इस युद्ध में धृतराष्ट्र के पुत्र (दुर्योधन) का साथ देने के लिए एकत्र हुए हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन दुर्योधन और उसके समर्थकों को "दुर्बुद्धि" कहकर उनकी नीयत पर प्रश्न करते हैं। यह उनके मन में उत्पन्न आक्रोश और शोक को दर्शाता है।


श्लोक 24-25

सञ्जय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्॥
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति॥

अर्थ:
संजय बोले: "गुडाकेश (अर्जुन) के इस प्रकार कहने पर, हृषीकेश (कृष्ण) ने दोनों सेनाओं के बीच में रथ स्थापित कर दिया। भीष्म, द्रोण और अन्य योद्धाओं के सामने रथ रखते हुए उन्होंने अर्जुन से कहा, 'देखो, ये सभी कौरव यहाँ एकत्र हुए हैं।'"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को उनकी इच्छा के अनुसार युद्धभूमि का अवलोकन करने का अवसर देते हैं। यह उनके मार्गदर्शन की शुरुआत है।


श्लोक 26-27

तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा॥
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्॥

अर्थ:
"वहाँ अर्जुन ने दोनों सेनाओं में खड़े अपने पितरों, पितामहों, गुरुओं, मामा, भाइयों, पुत्रों, पौत्रों, मित्रों, श्वसुरों और शुभचिंतकों को देखा।"

व्याख्या:
अर्जुन को युद्धभूमि में अपने ही परिवार और प्रियजनों को खड़ा देखकर शोक होता है। वह सोचते हैं कि युद्ध में इन सबका विनाश कैसे उचित हो सकता है।


श्लोक 28

कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥

अर्थ:
"कृपया (करुणा) से अभिभूत होकर और शोकग्रस्त होकर अर्जुन ने कहा, 'हे कृष्ण, इन अपने लोगों को युद्ध के लिए खड़ा देखकर मेरा मन व्यथित हो रहा है।'"

व्याख्या:
अर्जुन मोह और करुणा के कारण दुविधा में पड़ जाते हैं। यह मानवता का सामान्य भाव है, जब व्यक्ति अपने प्रियजनों के प्रति ममता से भर जाता है।


श्लोक 29

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते॥

अर्थ:
"मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं, मेरा मुख सूख रहा है, मेरा शरीर काँप रहा है और मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन के शारीरिक लक्षण उनके आंतरिक भय और मानसिक अशांति को प्रकट करते हैं। यह श्लोक दर्शाता है कि शोक और मोह किस प्रकार व्यक्ति को कमजोर कर सकते हैं।


श्लोक 30

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥

अर्थ:
"मेरा गाण्डीव धनुष मेरे हाथ से छूट रहा है, मेरी त्वचा जल रही है, मैं खड़ा नहीं रह पा रहा हूँ, और मेरा मन चक्कर खा रहा है।"

व्याख्या:
यह श्लोक अर्जुन की मानसिक और शारीरिक स्थिति को दर्शाता है। युद्ध की कल्पना से ही उनका साहस टूट रहा है। यह दर्शाता है कि कैसे मोह और करुणा व्यक्ति को अपने कर्तव्य से विमुख कर सकते हैं।


सारांश:

  • इन श्लोकों में अर्जुन के मानसिक द्वंद्व और युद्ध के परिणामों को लेकर उनकी दुविधा का वर्णन है।
  • अर्जुन अपने स्वजनों के प्रति मोह और कर्तव्य के बीच फँस जाते हैं।
  • यह अध्याय यह दर्शाता है कि शोक और भ्रम किस प्रकार व्यक्ति के मनोबल को कमजोर कर सकते हैं।

शनिवार, 13 जनवरी 2024

भागवत गीता: अध्याय 1, शंखनाद और युद्ध की घोषणा (श्लोक 12-20)

यहां भागवत गीता: अध्याय 1 (अर्जुनविषादयोग) शंखनाद और युद्ध की घोषणा (श्लोक 12-20) का अर्थ और व्याख्या दी गई है:


श्लोक 12

तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्॥

अर्थ:
"कौरवों के वृद्ध पितामह भीष्म ने दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए सिंह की गर्जना के समान जोर से शंख बजाया।"

व्याख्या:
भीष्म पितामह ने शंखनाद कर कौरव सेना को उत्साहित किया और युद्ध के आरंभ का संकेत दिया। यह उनके साहस और सेना में ऊर्जा भरने का प्रतीक है।


श्लोक 13

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्॥

अर्थ:
"इसके बाद, शंख, भेरी, नगाड़े, मृदंग और नरसिंगा एक साथ जोर से बजाए गए, जिससे भयंकर और गगनभेदी आवाज हुई।"

व्याख्या:
दोनों सेनाओं में युद्ध का जोश और उत्साह बढ़ाने के लिए वाद्ययंत्र बजाए गए। यह श्लोक उस ऊर्जावान माहौल का चित्रण करता है जो युद्ध से पहले बना था।


श्लोक 14

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः॥

अर्थ:
"सफेद घोड़ों से युक्त एक महान रथ में स्थित भगवान माधव (कृष्ण) और पांडव अर्जुन ने दिव्य शंखों का नाद किया।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन ने शंखनाद कर यह संकेत दिया कि पांडव युद्ध के लिए पूरी तरह से तैयार हैं। कृष्ण और अर्जुन की उपस्थिति पांडव पक्ष की शक्ति और आत्मविश्वास को दर्शाती है।


श्लोक 15

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः॥

अर्थ:
"हृषीकेश (कृष्ण) ने 'पाञ्चजन्य' नामक शंख, धनंजय (अर्जुन) ने 'देवदत्त' और महाबली भीम ने 'पौण्ड्र' नामक विशाल शंख बजाया।"

व्याख्या:
इस श्लोक में भगवान कृष्ण, अर्जुन और भीम द्वारा बजाए गए शंखों का नाम और उनका महत्व वर्णित है। यह शंखनाद पांडवों की आत्मिक और भौतिक शक्ति का प्रतीक है।


श्लोक 16

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ॥

अर्थ:
"कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने 'अनन्तविजय' नामक शंख बजाया। नकुल ने 'सुघोष' और सहदेव ने 'मणिपुष्पक' नामक शंख बजाए।"

व्याख्या:
इस श्लोक में युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव द्वारा शंख बजाने का वर्णन है। ये शंख उनके संकल्प, आस्था और विजय की आकांक्षा का प्रतीक हैं।


श्लोक 17-18

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः॥
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक्॥

अर्थ:
"काशिराज, महान धनुर्धर; शिखंडी, महारथी; धृष्टद्युम्न, विराट, सात्यकि, द्रुपद, द्रौपदी के पुत्र, और महाबाहु अभिमन्यु ने भी अपने-अपने शंख बजाए।"

व्याख्या:
इस श्लोक में पांडव पक्ष के अन्य प्रमुख योद्धाओं और उनके शंख बजाने का वर्णन है। ये सभी योद्धा अपनी-अपनी भूमिका में दक्ष थे और पांडव सेना की ताकत का प्रतिनिधित्व करते हैं।


श्लोक 19

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलोऽभ्यनुनादयन्॥

अर्थ:
"यह शंखनाद कौरवों के दिलों को चीरता हुआ आकाश और पृथ्वी पर गूंज उठा।"

व्याख्या:
पांडवों की सेना का शंखनाद इतना गगनभेदी और प्रभावशाली था कि उसने कौरवों के मनोबल को हिला दिया। यह उनके आत्मविश्वास और दृढ़ता को दर्शाता है।


श्लोक 20

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः॥
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते॥

अर्थ:
"तब, कपिध्वज (अर्जुन), जो अपने रथ पर हनुमान के प्रतीक के साथ था, कौरवों की सेना को युद्ध के लिए तैयार देखकर धनुष उठाता है और श्रीकृष्ण से यह वचन कहता है।"

व्याख्या:
यहाँ अर्जुन की स्थिति को दिखाया गया है, जो अपने रथ पर स्थित होकर युद्ध के लिए तैयार है। उनकी ध्वजा पर स्थित हनुमान का प्रतीक उनकी ताकत और विजय का संकेत है। यह क्षण अर्जुन के भ्रम और दुविधा के आरंभ का संकेत देता है।


सारांश:

श्लोक 12 से 20 तक के इन अंशों में युद्ध के आरंभिक संकेत, शंखनाद, सेनाओं का परिचय, और अर्जुन की तैयारी का वर्णन है। यह अध्याय दोनों पक्षों की ताकत और मनोबल को उजागर करता है।

अगर आप इन श्लोकों की और गहराई से व्याख्या या अगले श्लोकों का विवरण चाहते हैं, तो कृपया बताएं।

शनिवार, 6 जनवरी 2024

भागवत गीता: अध्याय 1, युद्ध का प्रारंभ (श्लोक 1-11)

भागवत गीता: अध्याय 1 (अर्जुनविषादयोग) युद्ध का प्रारंभ (श्लोक 1-11) का अर्थ और व्याख्या दी गई है:


श्लोक 1

धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय॥

अर्थ:
धृतराष्ट्र ने पूछा, "धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा रखने वाले मेरे पुत्र और पांडव क्या कर रहे हैं, हे संजय?"

व्याख्या:
धृतराष्ट्र इस श्लोक में अपनी चिंता और जिज्ञासा व्यक्त करते हैं। "धर्मक्षेत्र" (पवित्र भूमि) शब्द यह संकेत देता है कि युद्ध धर्म और अधर्म के बीच होगा। वह जानना चाहते हैं कि क्या उनके पुत्र धर्म का पालन करेंगे।


श्लोक 2

सञ्जय उवाच
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्॥

अर्थ:
संजय ने कहा, "तब दुर्योधन ने पांडवों की सेना को युद्ध के लिए व्यवस्थित देखकर, अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास जाकर ये शब्द कहे।"

व्याख्या:
संजय युद्ध के मैदान का वर्णन करते हैं। दुर्योधन, जो युद्ध की तैयारी देख रहा है, अपने सेनापति और गुरु द्रोणाचार्य से बात करता है।


श्लोक 3

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता॥

अर्थ:
"हे आचार्य! देखिए, पांडवों की इस विशाल सेना को, जिसे आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न ने व्यवस्थित किया है।"

व्याख्या:
दुर्योधन पांडवों की सेना को देखकर अपनी चिंता व्यक्त करता है। वह गुरु द्रोणाचार्य को यह याद दिलाता है कि धृष्टद्युम्न उनके ही शिष्य थे।


श्लोक 4-6

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः॥
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः॥
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः॥

अर्थ:
"इस सेना में भीम और अर्जुन जैसे वीर महाबली हैं। यहाँ युयुधान, विराट, द्रुपद, धृष्टकेतु, काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज, शैब्य, युधामन्यु, उत्तमौजा, अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र हैं, ये सभी महारथी हैं।"

व्याख्या:
दुर्योधन पांडवों की सेना के योद्धाओं की प्रशंसा करता है, जो युद्ध में कुशल और वीर हैं। यह उसके मन में पांडवों की ताकत के प्रति आशंका प्रकट करता है।


श्लोक 7

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते॥

अर्थ:
"हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! अब आप हमारी सेना के प्रमुख योद्धाओं को भी सुनिए, जिनकी जानकारी मैं आपको दे रहा हूँ।"

व्याख्या:
दुर्योधन अब अपनी सेना के वीर योद्धाओं का वर्णन करता है, यह दर्शाने के लिए कि उनकी सेना भी शक्तिशाली है।


श्लोक 8-9

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च॥
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः॥

अर्थ:
"आप (द्रोणाचार्य), भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण, और सौमदत्त जैसे योद्धा मेरी ओर से युद्ध के लिए तैयार हैं। इसके अलावा, अन्य कई शूरवीर भी हैं, जो मेरे लिए अपने जीवन का बलिदान देने को तत्पर हैं।"

व्याख्या:
दुर्योधन अपने पक्ष के प्रमुख योद्धाओं और उनकी युद्ध-कुशलता पर प्रकाश डालता है। यह उसके आत्मविश्वास को दिखाता है।


श्लोक 10

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्॥

अर्थ:
"हमारी सेना, जिसकी रक्षा भीष्म कर रहे हैं, असीमित है। पांडवों की सेना, जिसकी रक्षा भीम कर रहे हैं, सीमित है।"

व्याख्या:
दुर्योधन अपनी सेना को पांडवों की तुलना में अधिक शक्तिशाली मानता है। लेकिन उसका यह आत्मविश्वास उसकी अहंकार प्रवृत्ति को दर्शाता है।


श्लोक 11

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि॥

अर्थ:
"आप सब अपने-अपने स्थान पर स्थित रहते हुए भीष्म पितामह की रक्षा करें।"

व्याख्या:
दुर्योधन अपनी सेना को आदेश देता है कि भीष्म पितामह की सुरक्षा सुनिश्चित करें, क्योंकि वह उनकी सेना का मुख्य आधार हैं।


भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...