शनिवार, 24 अगस्त 2024

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) भूत, भविष्य और वर्तमान का वर्णन (श्लोक 8-12)

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) भूत, भविष्य और वर्तमान का वर्णन (श्लोक 8-12) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 8

रसोहं अप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, मैं जल में रस हूँ, चंद्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सभी वेदों में 'ॐ' (प्रणव) हूँ, आकाश में ध्वनि और मनुष्यों में पुरुषार्थ हूँ।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे सृष्टि के प्रत्येक तत्व में विद्यमान हैं। जल का रस, चंद्रमा और सूर्य का प्रकाश, और मनुष्य की पुरुषार्थ शक्ति सभी उनके दिव्य स्वरूप का प्रतीक हैं। वे यह दिखा रहे हैं कि उनका अस्तित्व हर जगह है।


श्लोक 9

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु॥

अर्थ:
"मैं पृथ्वी में पवित्र सुगंध हूँ, अग्नि में तेज हूँ, सभी प्राणियों में जीवन हूँ और तपस्वियों में तपस्या हूँ।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे हर चीज की आत्मा और गुण हैं। पृथ्वी की सुगंध, अग्नि का तेज, और प्रत्येक प्राणी का जीवन उनके अस्तित्व का प्रमाण है। उनकी उपस्थिति प्रत्येक तपस्वी की तपस्या में भी अनुभव की जा सकती है।


श्लोक 10

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्॥

अर्थ:
"हे पार्थ, सभी प्राणियों का शाश्वत बीज मुझे जानो। मैं बुद्धिमान व्यक्तियों की बुद्धि और तेजस्वी लोगों का तेज हूँ।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे समस्त सृष्टि का मूल कारण हैं। बुद्धिमान व्यक्तियों में उनकी बुद्धि और तेजस्वी व्यक्तियों में उनका तेज विद्यमान है। वे सबके मूल स्रोत हैं।


श्लोक 11

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ॥

अर्थ:
"हे भरतर्षभ, मैं बलवानों का बल हूँ, जो कामना और आसक्ति से रहित है। मैं प्राणियों में धर्म के विरुद्ध न जाने वाली कामना हूँ।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि उनका स्वरूप पवित्र और धर्मसंगत है। वे उस शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं जो कामना और आसक्ति से मुक्त हो। वे धर्म के अनुकूल इच्छाओं और ऊर्जा के रूप में प्रकट होते हैं।


श्लोक 12

ये चैव सात्त्विका भावाः राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि॥

अर्थ:
"जो भी सात्त्विक (शुद्ध), राजसिक (सक्रिय) और तामसिक (निष्क्रिय) भाव हैं, वे सभी मुझसे उत्पन्न होते हैं। लेकिन मैं उनमें स्थित नहीं हूँ, वे मुझमें स्थित हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक सृष्टि के तीन गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) का वर्णन करता है। भगवान बताते हैं कि ये गुण उनसे उत्पन्न होते हैं, लेकिन वे स्वयं इनसे अछूते और निर्लिप्त हैं। उनकी स्थिति इन गुणों से परे है।


सारांश:

  1. भगवान हर चीज का सार और आत्मा हैं। वे जल के रस, अग्नि के तेज, और प्राणियों के जीवन के रूप में प्रकट होते हैं।
  2. वे हर प्राणी का मूल कारण (बीज) हैं और सभी गुणों के आधारभूत स्रोत हैं।
  3. भगवान धर्मसंगत इच्छाओं, बुद्धि, और बल का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  4. सृष्टि के तीनों गुण (सत्त्व, रजस, तमस) भगवान से उत्पन्न होते हैं, लेकिन भगवान स्वयं इनसे परे हैं।

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