भागवत गीता: अध्याय 13 लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
भागवत गीता: अध्याय 13 लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 5 अप्रैल 2025

भागवत गीता: अध्याय 13 (क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभाग योग) ज्ञान और अज्ञान के भेद (श्लोक 20-34)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 13 (क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभाग योग) के श्लोक 20 से श्लोक 34 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने प्रकृति और पुरुष (आत्मा) के संबंध, संसार के कार्य, आत्मा का स्वरूप और मुक्ति के उपायों को समझाया है।


श्लोक 20

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्॥

अर्थ:
"प्रकृति (भौतिक संसार) और पुरुष (आत्मा) को अनादि मानो। विकार (परिवर्तन) और गुण (सत्व, रज, तम) प्रकृति से उत्पन्न होते हैं।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि प्रकृति और आत्मा दोनों ही अनादि (जिसका कोई आरंभ नहीं है) हैं। विकार (शरीर के परिवर्तन) और तीन गुण (सत्व, रजस, तमस) प्रकृति के ही परिणाम हैं।


श्लोक 21

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥

अर्थ:
"सृष्टि के कार्य और करण (इंद्रियाँ) को उत्पन्न करने में प्रकृति कारण है, और सुख-दुःख को भोगने वाला आत्मा (पुरुष) है।"

व्याख्या:
प्रकृति कर्म का आधार है और आत्मा इन कर्मों के फलों का अनुभव करती है। यह आत्मा और प्रकृति के बीच का संबंध है।


श्लोक 22

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥

अर्थ:
"आत्मा प्रकृति में स्थित होकर प्रकृति के गुणों को भोगता है। गुणों के प्रति आसक्ति ही अच्छे और बुरे जन्मों का कारण है।"

व्याख्या:
आत्मा प्रकृति के संपर्क में आने से सुख-दुःख का अनुभव करता है। यह संपर्क ही पुनर्जन्म और कर्मचक्र का आधार बनता है।


श्लोक 23

उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः॥

अर्थ:
"शरीर में स्थित आत्मा (पुरुष) साक्षी, अनुमोदक, धारक, भोक्ता और महेश्वर (परमात्मा) है। इसे परमात्मा भी कहा जाता है।"

व्याख्या:
परमात्मा शरीर में रहते हुए साक्षी के रूप में कर्मों का निरीक्षण करता है, लेकिन वह स्वयं कर्मों में लिप्त नहीं होता। यह परमात्मा ही आत्मा का मार्गदर्शक है।


श्लोक 24

य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते॥

अर्थ:
"जो पुरुष और प्रकृति को गुणों के साथ जान लेता है, वह चाहे जैसे भी कर्म करता हो, फिर जन्म नहीं लेता।"

व्याख्या:
जो व्यक्ति आत्मा और प्रकृति के भेद को समझ लेता है, वह कर्म के बंधन से मुक्त हो जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है।


श्लोक 25

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥

अर्थ:
"कुछ लोग ध्यान द्वारा आत्मा को आत्मा में ही देखते हैं, कुछ सांख्य योग से और कुछ कर्म योग के द्वारा।"

व्याख्या:
मोक्ष के मार्ग भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। कोई ध्यान (मेडिटेशन) के द्वारा आत्मा को जानता है, तो कोई सांख्य योग (तत्व ज्ञान) और कर्म योग के माध्यम से।


श्लोक 26

अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः॥

अर्थ:
"जो लोग इस ज्ञान को नहीं समझते, वे दूसरों से सुनकर भगवान की भक्ति करते हैं। ऐसे श्रवण करने वाले भी मृत्यु के पार चले जाते हैं।"

व्याख्या:
भक्ति और ज्ञान का अभ्यास न कर पाने वाले लोग भी भगवान के नाम का श्रवण और भजन करके मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।


श्लोक 27

यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ॥

अर्थ:
"हे भरतश्रेष्ठ, जो भी स्थावर (अचल) और जंगम (चलायमान) सत्त्व उत्पन्न होता है, उसे क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के संयोग से जानो।"

व्याख्या:
भगवान समझाते हैं कि सभी प्राणी शरीर और आत्मा के संयोग से उत्पन्न होते हैं। शरीर प्रकृति का और आत्मा परमात्मा का अंश है।


श्लोक 28

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति सभी प्राणियों में स्थित परमेश्वर को समान रूप से देखता है और नाशवान शरीर में अविनाशी आत्मा को देखता है, वही सच्चा दृष्टा है।"

व्याख्या:
सच्चा ज्ञानी वही है जो हर प्राणी में परमात्मा की समान उपस्थिति को देखता है और समझता है कि शरीर नाशवान है, पर आत्मा अविनाशी है।


श्लोक 29

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततः याति परां गतिम्॥

अर्थ:
"जो हर जगह परमात्मा को समान रूप से देखता है, वह स्वयं को (आत्मा को) नष्ट नहीं करता और इस प्रकार परम गति को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
समान दृष्टि रखने वाला व्यक्ति अहंकार और भ्रम से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है।


श्लोक 30

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथाऽऽत्मानमकर्तारं स पश्यति॥

अर्थ:
"जो यह देखता है कि सभी कर्म केवल प्रकृति के गुणों द्वारा किए जा रहे हैं और आत्मा अकर्ता (कर्म न करने वाला) है, वही सच्चा दृष्टा है।"

व्याख्या:
आत्मा केवल साक्षी है, वह कर्मों में लिप्त नहीं होती। कर्म प्रकृति के गुणों के कारण होते हैं। इसे समझना मुक्ति का मार्ग है।


श्लोक 31

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तरं ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥

अर्थ:
"जब व्यक्ति विभिन्न प्राणियों के अलग-अलग भावों को एक ही स्थान (परमात्मा) में देखता है और समझता है कि सबकुछ वहीं से विस्तारित हो रहा है, तब वह ब्रह्म को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि सभी प्राणी एक ही परमात्मा के अंश हैं। इसे समझने वाला व्यक्ति ब्रह्मज्ञान प्राप्त करता है।


श्लोक 32

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, परमात्मा अनादि और निर्गुण होने के कारण अविनाशी है। वह शरीर में स्थित होने पर भी न कुछ करता है और न कर्मों से लिप्त होता है।"

व्याख्या:
परमात्मा शरीर में स्थित होकर भी कर्मों से अछूता रहता है, क्योंकि वह निर्गुण और अनादि है।


श्लोक 33

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते॥

अर्थ:
"जैसे आकाश सर्वत्र विद्यमान होने पर भी किसी से लिप्त नहीं होता,

वैसे ही आत्मा शरीर में स्थित होने पर भी उससे लिप्त नहीं होती।"

व्याख्या:
आत्मा का स्वरूप आकाश की तरह है – सर्वव्यापी और निर्लिप्त।


श्लोक 34

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत॥

अर्थ:
"जैसे सूर्य पूरे संसार को प्रकाश देता है, वैसे ही क्षेत्रज्ञ (आत्मा) पूरे शरीर को प्रकाश देता है।"

व्याख्या:
आत्मा शरीर का चेतन तत्व है, जो शरीर को ज्ञान और अनुभव प्रदान करता है, जैसे सूर्य प्रकाश देता है।


सारांश (श्लोक 20-34):

  1. प्रकृति और पुरुष:
    • प्रकृति कर्म और विकारों का कारण है।
    • आत्मा सुख-दुःख का भोक्ता है।
  2. परमात्मा का स्वरूप:
    • वह साक्षी, अनुमोदक और निर्लिप्त है।
    • सभी में समान रूप से विद्यमान है।
  3. ज्ञान का मार्ग:
    • आत्मा और प्रकृति के भेद को समझना।
    • समान दृष्टि रखना और निर्लिप्तता को अपनाना।
  4. मुक्ति का साधन:
    • परमात्मा की सर्वव्यापकता को समझकर, प्रकृति के कर्मों में उलझे बिना जीवन जीना।

शनिवार, 29 मार्च 2025

भागवत गीता: अध्याय 13 (क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभाग योग) क्षेत्रज्ञ का ज्ञान (श्लोक 13-19)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 13 (क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभाग योग) के श्लोक 13 से श्लोक 19 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने "ज्ञेय" (जिसे जानना चाहिए) और परमात्मा के स्वरूप का वर्णन किया है।


श्लोक 13

ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते॥

अर्थ:
"अब मैं उस 'ज्ञेय' (जिसे जानना चाहिए) के बारे में बताऊँगा, जिसे जानकर अमृत (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। वह परम ब्रह्म अनादि है और न ही इसे सत (दृश्य) कहा जा सकता है, न असत (अदृश्य)।"

व्याख्या:
भगवान उस "ज्ञेय" का वर्णन करते हैं जो परमात्मा है। यह अनादि (जिसका कोई आरंभ नहीं है) और अचिन्त्य (जिसे समझा नहीं जा सकता) है। इसे सत (भौतिक) या असत (अभौतिक) किसी भी श्रेणी में बाँधा नहीं जा सकता।


श्लोक 14

सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥

अर्थ:
"उसका हाथ-पैर हर जगह है, उसकी आँखें, सिर और मुख सभी दिशाओं में हैं। उसकी श्रवण शक्ति (सुनने की क्षमता) हर जगह है, और वह सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित है।"

व्याख्या:
यह श्लोक परमात्मा की सर्वव्यापकता का वर्णन करता है। परमात्मा हर जगह उपस्थित हैं और हर दिशा में कार्य करते हैं। वह सभी प्राणियों की चेतना और उनके कार्यों में विद्यमान हैं।


श्लोक 15

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च॥

अर्थ:
"वह (परमात्मा) सभी इंद्रियों के कार्यों को प्रकट करता है, परंतु वह स्वयं इंद्रियों से रहित है। वह असक्त (आसक्ति रहित) होते हुए भी सबकुछ धारण करता है और निर्गुण होते हुए भी गुणों का भोक्ता है।"

व्याख्या:
परमात्मा की सर्वव्यापकता के साथ उनकी निरपेक्षता का वर्णन किया गया है। वह निर्गुण (गुणों से परे) होते हुए भी सृष्टि के हर गुण और कर्म में विद्यमान हैं।


श्लोक 16

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्॥

अर्थ:
"वह (परमात्मा) सभी प्राणियों के भीतर और बाहर है। वह स्थिर भी है और चलायमान भी। अपनी सूक्ष्मता के कारण उसे जाना नहीं जा सकता। वह दूर भी है और निकट भी।"

व्याख्या:
परमात्मा के अचिन्त्य स्वरूप को समझाया गया है। वह प्राणियों के भीतर (आत्मा के रूप में) और बाहर (सृष्टि के रूप में) विद्यमान है। उसकी सूक्ष्मता के कारण उसे साधारण इंद्रियों से नहीं समझा जा सकता।


श्लोक 17

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च॥

अर्थ:
"वह सभी प्राणियों में अविभाज्य (एकरूप) है, फिर भी विभक्त (अलग-अलग) प्रतीत होता है। वह सभी प्राणियों का धारणकर्ता है, उन्हें उत्पन्न करने वाला और अंत में नष्ट करने वाला भी है।"

व्याख्या:
परमात्मा एक ही होते हुए भी हर प्राणी और वस्तु में विद्यमान हैं। वे सृष्टि के निर्माण, पालन और संहार के मूल कारण हैं।


श्लोक 18

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्॥

अर्थ:
"वह (परमात्मा) सभी प्रकाशों का प्रकाश है और अज्ञान (अंधकार) से परे है। वह ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञान से प्राप्त होने वाला है। वह सभी के हृदय में स्थित है।"

व्याख्या:
परमात्मा को "सर्वोच्च प्रकाश" के रूप में वर्णित किया गया है। वह अज्ञान को दूर करता है और आत्मज्ञान के माध्यम से पाया जा सकता है। वह हर प्राणी के भीतर उपस्थित है।


श्लोक 19

इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते॥

अर्थ:
"इस प्रकार, क्षेत्र (शरीर), ज्ञान और ज्ञेय (परमात्मा) को संक्षेप में बताया गया। मेरा भक्त इसे जानकर मेरी दिव्य स्थिति को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
भगवान ने क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, ज्ञान और ज्ञेय का सार बताया। जो भक्त इसे समझता है, वह भगवान की दिव्यता (मोक्ष) को प्राप्त करता है।


सारांश (श्लोक 13-19):

  1. ज्ञेय का स्वरूप:
    • परमात्मा अनादि और अनिर्देश्य है।
    • वह सर्वव्यापक, अचिन्त्य और सृष्टि का आधार है।
  2. परमात्मा के गुण:
    • वह इंद्रियों से परे है लेकिन सभी इंद्रिय कार्यों का मूल है।
    • वह भीतर और बाहर दोनों जगह विद्यमान है।
    • वह सृष्टि का निर्माण, पालन और संहार करता है।
  3. परमात्मा की उपलब्धता:
    • वह सभी के हृदय में स्थित है।
    • उसे केवल ज्ञान और भक्ति के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।
  4. ज्ञान का परिणाम:
    • जो इन तत्वों को समझता है, वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है।

शनिवार, 22 मार्च 2025

भागवत गीता: अध्याय 13 (क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभाग योग) आत्मा और शरीर के बीच का भेद (श्लोक 8-12)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 13 (क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभाग योग) के श्लोक 8 से श्लोक 12 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने "ज्ञान" के लक्षणों का वर्णन किया है, जो आत्मा और परमात्मा को समझने में सहायक हैं।


श्लोक 8

अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः॥

अर्थ:
"अहंकार का अभाव, दंभ (दिखावे) का अभाव, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरु की सेवा, शुद्धता, स्थिरता और आत्म-नियंत्रण – ये ज्ञान के लक्षण हैं।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि ज्ञान पाने के लिए व्यक्ति में विनम्रता, अहिंसा, और धैर्य जैसे गुण होने चाहिए। साथ ही, उसे अपने गुरु का आदर करना, मन और शरीर को शुद्ध रखना, और इंद्रियों पर नियंत्रण रखना चाहिए। यह श्लोक बताता है कि ज्ञान केवल बौद्धिक नहीं, बल्कि व्यवहारिक और नैतिक गुणों से जुड़ा हुआ है।


श्लोक 9

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्॥

अर्थ:
"इंद्रियों के विषयों में वैराग्य, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा और रोग में दुःख और दोष को देखना – ये भी ज्ञान के लक्षण हैं।"

व्याख्या:
भगवान यह समझाते हैं कि सच्चा ज्ञानी वही है जो भौतिक सुखों से मुक्त होकर इंद्रियों के विषयों में वैराग्य रखता है। वह जीवन के अनिवार्य कष्टों (जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, और रोग) को समझता है और उनके पीछे के दोषों को पहचानता है।


श्लोक 10

असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥

अर्थ:
"पुत्र, पत्नी, घर आदि में आसक्ति का अभाव और प्रिय-अप्रिय वस्तुओं की प्राप्ति में समानता का भाव – ये भी ज्ञान के लक्षण हैं।"

व्याख्या:
भगवान यह स्पष्ट करते हैं कि सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए सांसारिक संबंधों और वस्तुओं से अत्यधिक जुड़ाव से बचना आवश्यक है। ज्ञानी व्यक्ति परिस्थितियों में समभाव बनाए रखता है, चाहे वे सुखद हों या दुखद।


श्लोक 11

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥

अर्थ:
"मुझमें अनन्य और अविचल भक्ति, एकांत स्थान में निवास करना, और लोगों के साथ अनावश्यक संपर्क से बचना – ये भी ज्ञान के लक्षण हैं।"

व्याख्या:
भगवान यह बताते हैं कि सच्चे ज्ञान के लिए व्यक्ति को भगवान के प्रति अनन्य भक्ति रखनी चाहिए। उसे एकांत में आत्म-चिंतन करना चाहिए और सामाजिक अतिरेक से बचना चाहिए।


श्लोक 12

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा॥

अर्थ:
"आत्मा के ज्ञान में नित्य स्थिर रहना और सत्य के तत्व को जानने का प्रयत्न करना – ये ज्ञान है। इसके विपरीत जो कुछ है, वह अज्ञान है।"

व्याख्या:
भगवान ने यह निष्कर्ष दिया कि आत्मा के ज्ञान में स्थिर रहना और सत्य को जानने की इच्छा ही सच्चा ज्ञान है। इसके विपरीत भौतिक विषयों में लिप्त रहना अज्ञान है।


सारांश (श्लोक 8-12):

  1. ज्ञान के गुण:
    • अमानित्व: अहंकार का अभाव।
    • अदम्भित्व: दिखावा न करना।
    • अहिंसा और क्षमा: दूसरों को क्षमा करना और किसी को हानि न पहुँचाना।
    • इंद्रिय संयम: इंद्रियों पर नियंत्रण और सांसारिक सुखों से वैराग्य।
    • समभाव: सुख-दुःख में समानता।
    • आत्मज्ञान: आत्मा के सत्य को जानने की इच्छा।
  2. भक्ति और एकांत: भगवान के प्रति अनन्य भक्ति और एकांत में आत्मचिंतन ज्ञान का अभिन्न हिस्सा है।
  3. अज्ञान का त्याग: भौतिक और अस्थायी चीजों से जुड़ाव अज्ञान है।

यहां भगवान ने ज्ञान के साधनों और लक्षणों का मार्गदर्शन दिया है। यह व्यक्ति को आत्मा और परमात्मा के सत्य को समझने में सहायता करता है।

शनिवार, 15 मार्च 2025

भागवत गीता: अध्याय 13 (क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभाग योग) क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का वर्णन (श्लोक 1-7)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 13 (क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभाग योग) के श्लोक 1 से श्लोक 7 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने शरीर (क्षेत्र) और आत्मा (क्षेत्रज्ञ) का वर्णन किया है।


श्लोक 1

अर्जुन उवाच
प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च।
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव॥

अर्थ:
"अर्जुन ने कहा: हे केशव, मैं प्रकृति और पुरुष के साथ क्षेत्र (शरीर), क्षेत्रज्ञ (आत्मा), ज्ञान और ज्ञेय (जिसे जानना चाहिए) को समझना चाहता हूँ।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान से सृष्टि के मूलभूत सिद्धांतों के बारे में जानना चाहते हैं। उनका प्रश्न क्षेत्र (शरीर), क्षेत्रज्ञ (आत्मा), और ज्ञान के तत्वों को समझने की जिज्ञासा को दर्शाता है।


श्लोक 2

श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥

अर्थ:
"श्रीभगवान ने कहा: हे कौन्तेय, यह शरीर क्षेत्र कहलाता है। जो इसे जानता है, उसे क्षेत्रज्ञ (इसका ज्ञाता) कहा जाता है। इसे जानने वाले विद्वान ऐसा कहते हैं।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि शरीर "क्षेत्र" है, जिसमें जीवन के कर्म होते हैं। आत्मा, जो इस शरीर का ज्ञाता है, "क्षेत्रज्ञ" कहलाती है। यह श्लोक शरीर और आत्मा के बीच भेद को स्पष्ट करता है।


श्लोक 3

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥

अर्थ:
"हे भारत (अर्जुन), सभी शरीरों में जो क्षेत्रज्ञ (आत्मा) है, वह मैं ही हूँ। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरा वास्तविक ज्ञान है।"

व्याख्या:
भगवान स्वयं को सभी शरीरों में स्थित क्षेत्रज्ञ (सर्वव्यापी आत्मा) के रूप में प्रस्तुत करते हैं। क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के ज्ञान को ही भगवान सच्चा ज्ञान मानते हैं।


श्लोक 4

तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु॥

अर्थ:
"यह क्षेत्र (शरीर) क्या है, कैसा है, किन-किन विकारों (परिवर्तनों) से युक्त है, किस कारण से उत्पन्न हुआ है और इसमें क्या-क्या प्रभाव हैं – यह सब मैं तुम्हें संक्षेप में बताता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को शरीर (क्षेत्र) के तत्व, उसकी प्रकृति, और उसमें होने वाले परिवर्तनों के बारे में समझाने के लिए कहते हैं। यह ज्ञान शरीर और आत्मा के भेद को गहराई से समझने का मार्गदर्शन है।


श्लोक 5

ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः॥

अर्थ:
"इस विषय को कई ऋषियों ने अनेक प्रकार से बताया है। इसे विभिन्न छंदों में और ब्रह्मसूत्र के युक्तियुक्त पदों के द्वारा भी विस्तार से समझाया गया है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का यह ज्ञान प्राचीन ऋषियों, वेदों और ब्रह्मसूत्र में विस्तृत रूप से वर्णित है। यह शाश्वत सत्य है और इसे तर्क और अनुभव से सिद्ध किया गया है।


श्लोक 6-7

महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः॥
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्॥

अर्थ:
"महाभूत (पांच महान तत्व – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश), अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त (प्रकृति), दस इंद्रियाँ और उनका एक मन, और पाँच इंद्रिय विषय – ये सभी क्षेत्र के घटक हैं। इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, शरीर का संघ, चेतना और धृति (धैर्य) – ये सभी क्षेत्र के विकार (परिवर्तन) हैं।"

व्याख्या:
भगवान क्षेत्र (शरीर) के तत्वों और उसमें होने वाले परिवर्तनों का वर्णन करते हैं। क्षेत्र पाँच भौतिक तत्वों, इंद्रियों, मन, और मानसिक अवस्थाओं (इच्छा, द्वेष, सुख-दुःख) से बना होता है। यह ज्ञान क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को गहराई से समझने में मदद करता है।


सारांश (श्लोक 1-7):

  1. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का परिचय:
    • क्षेत्र (शरीर) वह है जिसमें कर्म और अनुभव होते हैं।
    • क्षेत्रज्ञ (आत्मा) शरीर का ज्ञाता है।
  2. भगवान ने सभी शरीरों में स्थित आत्मा को स्वयं से जोड़ा।
  3. क्षेत्र के घटक:
    • पाँच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश)।
    • अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त प्रकृति।
    • दस इंद्रियाँ और मन।
    • सुख-दुःख, इच्छा-द्वेष और चेतना।
  4. यह ज्ञान वेदों और ऋषियों के उपदेशों पर आधारित है।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...