शनिवार, 30 अगस्त 2025

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के बाद की स्थिति, भक्ति योग की महिमा, और अर्जुन को दिए गए उनके अंतिम उपदेशों का वर्णन किया है। साथ ही, उन्होंने गीता के महत्त्व और इसके पाठ के लाभों का उल्लेख किया है।


श्लोक 54

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥

अर्थ:
"ब्रह्म की अवस्था को प्राप्त व्यक्ति प्रसन्नचित्त रहता है, न शोक करता है और न ही किसी चीज़ की कामना करता है। वह सभी प्राणियों के प्रति समभाव रखता है और मेरी (भगवान की) सर्वोच्च भक्ति प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
ब्रह्मभूत अवस्था में व्यक्ति अज्ञान, मोह और भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो जाता है। इस स्थिति में भगवान की भक्ति सर्वोच्च होती है, जो आत्मा को शांति और मोक्ष प्रदान करती है।


श्लोक 55

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥

अर्थ:
"केवल भक्ति के द्वारा ही कोई मेरी वास्तविक तत्त्व रूप में पहचान कर मुझे जान सकता है। इस प्रकार मुझे तत्त्व से जानने के बाद, वह मुझमें प्रवेश करता है।"

व्याख्या:
भगवान समझाते हैं कि भक्ति योग के माध्यम से ही उनकी वास्तविक प्रकृति को समझा जा सकता है। भक्ति से व्यक्ति भगवान के साथ एकात्मता प्राप्त करता है।


श्लोक 56

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति सभी कर्म करते हुए भी मुझमें आश्रय लेता है, वह मेरी कृपा से शाश्वत और अविनाशी धाम को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
भक्त अपने सभी कर्म भगवान को अर्पित करता है। भगवान की कृपा से उसे मोक्ष प्राप्त होता है और वह उनके दिव्य धाम में प्रवेश करता है।


श्लोक 57

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव॥

अर्थ:
"अपने मन से सभी कर्म मुझे अर्पित करके, मुझमें समर्पित होकर और बुद्धि योग का आश्रय लेकर, सदा मुझमें चित्त लगाए रखो।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को सलाह देते हैं कि वह अपने सभी कर्म भगवान को समर्पित करे और अपने मन को सदा उनके ध्यान में लगाए रखे। यह मार्ग आत्मा को शुद्ध करता है।


श्लोक 58

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥

अर्थ:
"यदि तुम मुझमें चित्त लगाओगे, तो मेरी कृपा से सभी बाधाओं को पार करोगे। लेकिन यदि अहंकारवश मेरी बात नहीं मानोगे, तो नष्ट हो जाओगे।"

व्याख्या:
भगवान चेतावनी देते हैं कि उनकी शरण में आने से सभी कठिनाइयों का समाधान हो जाता है। लेकिन अहंकार और ईश्वर से विमुखता विनाश का कारण बनती है।


श्लोक 59-60

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति॥
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्॥

अर्थ:
"यदि तुम अहंकारवश यह सोचते हो कि युद्ध नहीं करोगे, तो यह तुम्हारा भ्रम है। तुम्हारा स्वभाव तुम्हें कर्म करने के लिए बाध्य करेगा।
हे कौन्तेय, स्वभाव से बंधे हुए तुम, मोहवश जो करना नहीं चाहते हो, वह भी करने को विवश हो जाओगे।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को बताते हैं कि उनका स्वभाव (क्षत्रिय धर्म) उन्हें युद्ध के लिए बाध्य करेगा। कर्तव्य से बचना संभव नहीं है।


श्लोक 61

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, भगवान सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हैं और अपनी माया से उन्हें जैसे यंत्र पर चढ़े हुए घुमाते रहते हैं।"

व्याख्या:
भगवान सभी जीवों के अंतःकरण में स्थित हैं और उनकी माया से संसार की व्यवस्था चलाते हैं। यह उनकी सर्वव्यापकता का प्रमाण है।


श्लोक 62

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥

अर्थ:
"हे भारत, उस भगवान की शरण में जाओ। उनकी कृपा से तुम परम शांति और शाश्वत धाम को प्राप्त करोगे।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को निर्देश देते हैं कि वह उनकी शरण में आएं, क्योंकि केवल भगवान की कृपा से ही मोक्ष और शांति प्राप्त हो सकती है।


श्लोक 63

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥

अर्थ:
"मैंने तुम्हें यह गुप्त से गुप्ततर ज्ञान बताया है। अब इसे भली-भाँति विचार कर, जैसा उचित लगे वैसा करो।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को स्वतंत्रता देते हैं कि वह विचार करके अपने कर्म का चुनाव करें। यह उनके प्रति भगवान के प्रेम और विश्वास को दर्शाता है।


श्लोक 64-65

सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्॥
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥

अर्थ:
"अब मैं तुम्हें सबसे गुप्त और परम वचन सुनाता हूँ क्योंकि तुम मुझे अत्यंत प्रिय हो।
मेरा स्मरण करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे प्रणाम करो। ऐसा करने से तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। यह मेरा वचन है।"

व्याख्या:
भगवान अपने परम प्रेम को व्यक्त करते हैं और बताते हैं कि भक्ति और समर्पण के द्वारा भक्त भगवान के समीप पहुँच सकता है।


श्लोक 66

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥

अर्थ:
"सभी धर्मों को त्यागकर केवल मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा। शोक मत करो।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि पूर्ण समर्पण और उनकी शरण में आने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है। यह भक्ति और समर्पण का सर्वोच्च संदेश है।


श्लोक 67-68

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥

अर्थ:
"यह गूढ़ ज्ञान न तो तपस्व्य रहित, न अभक्त, न सुनने की इच्छा न रखने वाले और न ही मुझसे द्वेष करने वाले को बताना चाहिए।
जो इस गूढ़ ज्ञान को मेरे भक्तों को बताता है, वह मेरी परम भक्ति प्राप्त करता है और मेरे पास आता है। इसमें संदेह नहीं है।"

व्याख्या:
भगवान इस ज्ञान को केवल भक्तों और योग्य व्यक्तियों को बताने का निर्देश देते हैं। इस ज्ञान का प्रचार करना भी भगवान की सेवा है।


श्लोक 69

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि॥

अर्थ:
"इससे बढ़कर मेरे लिए प्रिय कोई और मनुष्य नहीं है, और न ही ऐसा कोई होगा जो मुझे इससे अधिक प्रिय हो।"

व्याख्या:
जो व्यक्ति गीता के इस ज्ञान का प्रचार करता है, वह भगवान का प्रिय भक्त होता है।


श्लोक 70-71

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः॥
श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति इस धर्ममय संवाद का अध्ययन करता है, वह ज्ञान यज्ञ द्वारा मुझे पूजता है।
जो श्रद्धा और बिना द्वेष के इसे सुनता है, वह भी पवित्र होकर पुण्यलोक को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
गीता का अध्ययन और श्रवण ज्ञान यज्ञ के समान है, जो व्यक्ति को पवित्रता और मोक्ष की ओर ले जाता है।


श्लोक 72-73

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनंजय॥
अर्जुन उवाच।
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव॥

अर्थ:
"हे पार्थ, क्या तुमने इसे एकाग्रचित्त होकर सुना? क्या तुम्हारा अज्ञान और मोह समाप्त हो गया?
अर्जुन ने कहा: हे अच्युत, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे स्मरण शक्ति प्राप्त हो गई है। मैं अब स्थिर हूँ और आपके वचन का पालन करूँगा।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन से उनके मोह की स्थिति के बारे में पूछते हैं। अर्जुन उत्तर देते हैं कि उनका भ्रम समाप्त हो गया है और अब वे अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए तैयार हैं।


श्लोक 74-78

संजय उवाच।
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्॥
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्॥
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः॥
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
विस्मयो मे महान्राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः॥
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥

अर्थ:
"संजय ने कहा: मैंने वासुदेव (कृष्ण) और महात्मा पार्थ (अर्जुन) के इस अद्भुत संवाद को सुना, जो मेरे रोंगटे खड़े कर देने वाला था।
मैंने व्यास की कृपा से भगवान कृष्ण द्वारा प्रत्यक्ष रूप से बताए गए इस परम गूढ़ योग को सुना।
हे राजन, मैं बार-बार इस अद्भुत संवाद और भगवान के दिव्य रूप को स्मरण करता हूँ और प्रसन्नता से भर जाता हूँ।
जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन हैं, वहाँ निश्चित रूप से श्री (संपत्ति), विजय, ऐश्वर्य और नीति विद्यमान है। यह मेरा मत है।"

व्याख्या:
संजय ने इस संवाद को दिव्य दृष्टि से सुना और उसकी महिमा का वर्णन किया। वह यह निष्कर्ष निकालते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन जहाँ हैं, वहाँ विजय और धर्म अवश्य होगा।


सारांश (श्लोक 54-78):

  1. ब्रह्म ज्ञान और भक्ति योग:
    • ब्रह्मभूत अवस्था में व्यक्ति भक्ति के माध्यम से भगवान को प्राप्त करता

है।

  1. भगवान की शरण:

    • भगवान की शरण में जाने से सभी पापों से मुक्ति और मोक्ष प्राप्त होता है।
  2. गीता का महत्त्व:

    • गीता का अध्ययन, श्रवण, और प्रचार पुण्यदायी और मोक्षदायक है।
  3. अर्जुन की दृढ़ता:

    • अर्जुन ने भगवान की शिक्षाओं को स्वीकार कर अपने कर्तव्य का पालन करने का निश्चय किया।
  4. संजय का निष्कर्ष:

    • जहाँ भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं, वहाँ विजय, ऐश्वर्य और धर्म निश्चित है।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में ज्ञान, भक्ति, और कर्म के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताया है। गीता के उपदेश न केवल अर्जुन के लिए, बल्कि समस्त मानवता के लिए प्रेरणा और मार्गदर्शन हैं।

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