भागवत गीता: अध्याय 9 (राजविद्या-राजगुह्य योग) भक्तों के गुण और भगवान के प्रति भक्ति (श्लोक 27-34) का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 27
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥
अर्थ:
"हे कौन्तेय, जो कुछ भी तुम करते हो, जो खाते हो, जो यज्ञ करते हो, जो दान देते हो और जो तप करते हो, वह सब मुझे अर्पण करो।"
व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जीवन के हर कर्म को भगवान को अर्पण करना चाहिए। यह मानसिकता व्यक्ति को अहंकार और फलासक्ति से मुक्त करती है और उसे भगवान के प्रति समर्पित करती है।
श्लोक 28
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥
अर्थ:
"इस प्रकार, शुभ और अशुभ कर्मों के फलों से मुक्त होकर, संन्यास योग में स्थित होकर, तुम मुझमें समर्पित हो जाओगे और मुझ तक पहुँचोगे।"
व्याख्या:
यह श्लोक समझाता है कि जब व्यक्ति अपने सभी कर्म भगवान को अर्पित करता है, तो वह शुभ और अशुभ कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है। यह मुक्ति उसे भगवान के दिव्य धाम तक पहुँचाती है।
श्लोक 29
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥
अर्थ:
"मैं सभी प्राणियों के प्रति समान हूँ। न कोई मुझे प्रिय है, न कोई अप्रिय। लेकिन जो भक्त मुझे भक्ति से पूजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ।"
व्याख्या:
भगवान सभी प्राणियों के प्रति समान भाव रखते हैं। लेकिन भक्ति के कारण भक्त और भगवान का गहरा संबंध बनता है, जो उन्हें और करीब ले आता है।
श्लोक 30
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥
अर्थ:
"यदि कोई व्यक्ति बहुत दुराचारपूर्ण आचरण वाला हो, लेकिन वह अनन्य भाव से मेरी भक्ति करता है, तो उसे साधु ही समझा जाना चाहिए, क्योंकि उसने सही निश्चय किया है।"
व्याख्या:
यह श्लोक भक्ति के महान महत्व को दर्शाता है। भक्ति से व्यक्ति के दुष्कर्म मिट सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति सच्चे हृदय से भगवान की भक्ति करता है, तो वह साधु के रूप में स्वीकार्य है।
श्लोक 31
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥
अर्थ:
"वह (दुराचारी) शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शांति को प्राप्त करता है। हे कौन्तेय, यह जान लो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता।"
व्याख्या:
भगवान अपने भक्तों को आश्वासन देते हैं कि सच्ची भक्ति से कोई भी व्यक्ति, चाहे उसका अतीत कैसा भी रहा हो, धर्मात्मा बन सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
श्लोक 32
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥
अर्थ:
"हे पार्थ, जो लोग पाप योनि में जन्मे हैं, जैसे स्त्रियाँ, वैश्य, और शूद्र, वे भी मेरी शरण लेकर परमगति को प्राप्त कर सकते हैं।"
व्याख्या:
भगवान यह कहते हैं कि उनकी भक्ति के लिए किसी की जाति, लिंग, या जन्म मायने नहीं रखता। हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी परिस्थिति में हो, उनकी शरण में जाकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
श्लोक 33
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥
अर्थ:
"तो फिर वे पुण्य आत्मा, ब्राह्मण और भक्तराजर्षि क्यों नहीं (मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं)? इसलिए, इस अस्थायी और दुखमय संसार में आकर, मेरी भक्ति करो।"
व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि यदि असामान्य परिस्थितियों वाले लोग मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, तो श्रेष्ठ जन्म वाले और भक्त निश्चित रूप से भगवान को प्राप्त कर सकते हैं। यह संसार अस्थायी और दुखमय है, इसलिए भक्ति ही सच्चा समाधान है।
श्लोक 34
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥
अर्थ:
"मुझमें मन लगाओ, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार, मुझमें एकीकृत होकर, तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त करोगे।"
व्याख्या:
यह श्लोक भक्ति योग का सार है। भगवान अपने भक्तों से प्रेम और समर्पण के साथ अपनी भक्ति करने को कहते हैं। भक्ति, पूजा, और भगवान में मन लगाने से मोक्ष प्राप्त होता है।
सारांश (श्लोक 27-34):
- सभी कर्मों को भगवान को अर्पण करने से व्यक्ति कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है।
- भगवान सभी के प्रति समान हैं, लेकिन भक्ति करने वालों से उनका विशेष संबंध बनता है।
- भक्ति योग में प्रवेश करने वाला व्यक्ति, चाहे उसका अतीत कैसा भी हो, मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
- जाति, लिंग, या सामाजिक स्थिति के बावजूद, हर व्यक्ति भगवान की भक्ति के द्वारा परमगति प्राप्त कर सकता है।
- यह संसार अस्थायी और दुखमय है, और भगवान की भक्ति ही इसे पार करने का मार्ग है।
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