शनिवार, 7 दिसंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान का दिव्य रूप (श्लोक 1-7)

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान का दिव्य रूप (श्लोक 1-7) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया॥

अर्थ:
"श्रीभगवान ने कहा: हे महाबाहु (अर्जुन), फिर से मेरा परम वचन सुनो, जिसे मैं तुम्हारे लिए कह रहा हूँ, क्योंकि तुम मेरे प्रिय हो और मैं तुम्हारा कल्याण चाहता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बताते हैं कि वह उसे एक बार फिर अपने दिव्य ज्ञान और महिमा का वर्णन करेंगे। यह प्रेम और मित्रता का एक उदाहरण है, जहाँ भगवान अर्जुन के हित के लिए ज्ञान दे रहे हैं।


श्लोक 2

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः॥

अर्थ:
"मेरा मूलस्वरूप न तो देवता जानते हैं और न ही महर्षि। क्योंकि मैं ही देवताओं और महर्षियों का आदि कारण हूँ।"

व्याख्या:
भगवान अपनी सर्वज्ञता और सर्वोच्चता को स्पष्ट करते हैं। वे देवताओं और महर्षियों के भी सृष्टिकर्ता हैं, इसलिए वे भगवान के पूर्ण स्वरूप को नहीं जान सकते।


श्लोक 3

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥

अर्थ:
"जो मुझे अजन्मा, अनादि और समस्त लोकों का स्वामी जानता है, वह अज्ञानी नहीं है और वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के दिव्य स्वरूप को पहचानने के महत्व को दर्शाता है। जो व्यक्ति भगवान को अजन्मा और अनादि मानकर उनकी शरण में आता है, वह संसार के भ्रम और पापों से मुक्त हो जाता है।


श्लोक 4-5

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः॥

अर्थ:
"बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह (भ्रम का न होना), क्षमा, सत्य, आत्मसंयम, मन की शांति, सुख, दुःख, सृजन, विनाश, भय, अभय, अहिंसा, समभाव, संतोष, तप, दान, यश और अपयश – ये सभी भूतों (प्राणियों) में अलग-अलग प्रकार से मुझसे ही उत्पन्न होते हैं।"

व्याख्या:
भगवान स्पष्ट करते हैं कि सभी गुण, चाहे वे सकारात्मक हों या नकारात्मक, उनकी शक्ति और माया से उत्पन्न होते हैं। वे सृष्टि के हर पहलू का मूल कारण हैं।


श्लोक 6

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः॥

अर्थ:
"सप्त ऋषि, चार कुमार और चौदह मनु मेरे मन से उत्पन्न हुए हैं। इन्हीं के द्वारा यह समस्त सृष्टि उत्पन्न हुई है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि सृष्टि के आरंभ में उन्होंने अपने मन से सप्त ऋषियों, चार कुमारों, और मनुओं को उत्पन्न किया। ये प्राचीन ऋषि और मनु सृष्टि के मूलभूत रचयिता हैं।


श्लोक 7

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्वतः।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः॥

अर्थ:
"जो मेरी इन विभूतियों (महिमाओं) और योगशक्ति को तत्व से जानता है, वह अविचल योग के साथ मुझसे जुड़ जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान की महिमा और उनकी योगशक्ति को पहचानने के महत्व को बताता है। जो व्यक्ति भगवान के स्वरूप को समझता है, वह उनकी भक्ति में स्थिर हो जाता है और आत्मिक शांति को प्राप्त करता है।


सारांश (श्लोक 1-7):

  1. भगवान अर्जुन को अपनी महिमा और दिव्यता का ज्ञान देने के लिए तत्पर हैं।
  2. भगवान अजन्मा और अनादि हैं, और सभी देवता और महर्षि उनके द्वारा उत्पन्न हुए हैं।
  3. भगवान के दिव्य स्वरूप को पहचानने से व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो सकता है।
  4. सभी गुण (सकारात्मक और नकारात्मक) भगवान के द्वारा उत्पन्न होते हैं।
  5. सप्त ऋषि, मनु और प्राचीन ऋषि भगवान की इच्छा से सृष्टि का आधार बने।
  6. जो व्यक्ति भगवान की विभूतियों को समझता है, वह उनकी भक्ति में स्थिर हो जाता है।

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