शनिवार, 26 दिसंबर 2020

समत्व का संदेश

 समत्व का संदेश भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में दिया है, जो जीवन के हर क्षेत्र में संतुलन, धैर्य, और शांति बनाए रखने की प्रेरणा देता है। समत्व का अर्थ है हर स्थिति में समान दृष्टिकोण और मानसिक संतुलन बनाए रखना, चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों। श्रीकृष्ण का यह उपदेश जीवन में निरंतर शांति, संतुलन, और आंतरिक शक्ति प्राप्त करने का मार्ग है।

1. समत्व का वास्तविक अर्थ

  • समत्व का अर्थ होता है "समान दृष्टिकोण", यानी किसी भी परिस्थिति या स्थिति में समान रूप से प्रतिक्रिया देना। यह आत्म-संयम और आध्यात्मिक संतुलन को बनाए रखने का एक तरीका है।
  • समत्व का मतलब यह नहीं है कि व्यक्ति हर स्थिति में उदासीन रहे, बल्कि यह है कि उसे दुख और सुख दोनों को एक समान दृष्टिकोण से देखना चाहिए, और न तो अत्यधिक खुशी में उलझना चाहिए, न ही दुख में पूरी तरह से डूबना चाहिए।

2. भगवद्गीता में समत्व का संदेश

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता के संवाद में समत्व का महत्व बताया:

  • "समं पश्यन्नि हं भगवान्" (भगवद्गीता 2.14)
    • श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि जो व्यक्ति किसी भी स्थिति में शांति बनाए रखता है, वह वास्तविक रूप से बुद्धिमान होता है। वह जीवन की हर घटना को भगवान के आदेश के रूप में स्वीकार करता है।
  • "योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय।" (भगवद्गीता 2.47)
    • श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह उपदेश दिया कि वह अपने कर्मों को योग (ध्यान और समर्पण) के साथ करे, बिना किसी व्यक्तिगत लाभ की इच्छा के। यही है समत्व का सिद्धांत, कि परिणाम के बारे में चिंतित हुए बिना अपने कार्यों को धर्म के अनुसार निष्पक्ष रूप से करें।

3. समत्व का अभ्यास

श्रीकृष्ण का समत्व का संदेश हमें यह सिखाता है कि जीवन में:

  • सुख और दुख दोनों को समान रूप से देखना चाहिए।
  • हमें न तो सुख के समय में घमंड करना चाहिए, न ही दुख के समय में निराश होना चाहिए।
  • व्यक्ति को कर्म में लगे रहना चाहिए, लेकिन परिणाम से अलग रहकर।
  • हर परिस्थिति में धैर्य बनाए रखना चाहिए और अपने मन को शांति से भरपूर रखना चाहिए।

4. समत्व का अभ्यास कैसे करें

  • आध्यात्मिक ध्यान: ध्यान और साधना के माध्यम से व्यक्ति अपने मन को शांत और नियंत्रित कर सकता है, जिससे वह किसी भी स्थिति में समत्व बनाए रख सकता है।
  • सकारात्मक सोच: हर घटना को सकारात्मक दृष्टिकोण से देखना चाहिए, ताकि हम उसे मानसिक शांति के साथ स्वीकार कर सकें।
  • वास्तविकता को समझना: यह समझना जरूरी है कि सुख और दुख, दोनों ही अस्थिर हैं, और जीवन के हर क्षण में बदलाव होता है।
  • स्वीकार्यता: जो कुछ भी हो रहा है, उसे पूरी तरह से स्वीकार करना चाहिए, यह जानते हुए कि यह भी एक अस्थायी स्थिति है।

5. समत्व और योग

श्रीकृष्ण के अनुसार योग और समत्व एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। योग का अर्थ केवल शारीरिक आसन नहीं, बल्कि मानसिक और आत्मिक संतुलन भी है। समत्व वही स्थिति है जब हम योग के माध्यम से मानसिक और शारीरिक शांति प्राप्त करते हैं।

  • कर्मयोग: अपनी जिम्मेदारियों को बिना किसी स्वार्थ के पूरा करना।
  • भक्तियोग: ईश्वर के प्रति निरंतर भक्ति और समर्पण में रहना।
  • ज्ञानयोग: आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान की ओर अग्रसर होना।

6. समत्व और सफलता

जो व्यक्ति समत्व का अभ्यास करता है, वह कभी भी अत्यधिक खुशी या अत्यधिक दुख में नहीं डूबता। इस प्रकार, वह हर स्थिति में अपनी मानसिक शांति और संतुलन बनाए रखता है, जो उसे अधिक स्थिर और दृढ़ बनाता है। ऐसे व्यक्ति की मानसिक स्थिति अधिक सशक्त होती है और वह जीवन में किसी भी चुनौती का सामना दृढ़ता से कर सकता है।


निष्कर्ष

समत्व का संदेश भगवान श्रीकृष्ण का वह अद्भुत उपदेश है, जो हमें जीवन में संतुलन, शांति और मानसिक दृढ़ता बनाए रखने की प्रेरणा देता है। समत्व का अभ्यास करते हुए हम अपने कार्यों को निष्ठा और ईश्वर के प्रति समर्पण से कर सकते हैं, और जीवन में आने वाली किसी भी स्थिति को बिना विक्षोभ के स्वीकार कर सकते हैं। यह जीवन को शांति और आनंद से भर देता है, जिससे व्यक्ति आंतरिक संतुलन और सच्ची सुख-शांति प्राप्त करता है।

शनिवार, 19 दिसंबर 2020

आत्मा का अमरत्व

 आत्मा का अमरत्व भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों में एक महत्वपूर्ण विषय है, जिसे उन्होंने भगवद्गीता में विस्तार से समझाया। श्रीकृष्ण ने यह बताया कि आत्मा न तो उत्पन्न होती है, न नष्ट होती है; यह शाश्वत, अजर-अमर और अक्रियात्मक है। आत्मा का अमरत्व जीवन और मृत्यु से परे है, और इसका अस्तित्व सदैव रहेगा।

आत्मा के अमरत्व के बारे में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता में जो उपदेश दिया, वह न केवल शारीरिक जीवन और मृत्यु के बारे में है, बल्कि यह आत्मा के वास्तविक स्वरूप और उसकी शाश्वतता की समझ को भी प्रस्तुत करता है।


1. आत्मा का शाश्वत स्वरूप

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के 2.20 श्लोक में कहा:

"न जायते म्रियते वा कदाचि नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।"

अर्थात:

  • आत्मा न कभी जन्म लेती है, न कभी मरती है।
  • आत्मा शाश्वत और अजन्मा है, यह न किसी शरीर के मरने से मरती है, न किसी नए शरीर के जन्म से जन्मती है।
  • आत्मा का कोई अंत नहीं है, यह अनादि और अनन्त है।

यह श्लोक यह स्पष्ट करता है कि आत्मा निरंतर रहती है, चाहे शरीर का जीवन समाप्त हो जाए। आत्मा का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता।


2. आत्मा का रूप और परिवर्तन

श्रीकृष्ण ने यह भी बताया कि आत्मा का रूप कभी बदलता नहीं है, बल्कि यह केवल शरीर में निवास करती है और जब शरीर नष्ट होता है, तो आत्मा नए शरीर में प्रवेश करती है। यह शरीर के जैसे पदार्थों में परिवर्तन की प्रक्रिया की तरह है।

"वसांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथाशरीराणि विहाय जीर्णा न्यानि संयाति नवानि देही।" (भगवद्गीता 2.22)

अर्थात:

  • जैसे मनुष्य पुराने कपड़े छोड़कर नए कपड़े पहनता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर नए शरीर में प्रवेश करती है।
  • यह प्रक्रिया जीवन के प्रत्येक पुनः जन्म के दौरान होती है, और आत्मा का वास्तविक स्वरूप शाश्वत और अपरिवर्तनीय रहता है।

3. आत्मा के अमरत्व का दर्शन

आत्मा का अमरत्व जीवन और मृत्यु के पार है। शरीर मरता है, लेकिन आत्मा शाश्वत रहती है, और यह प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान रहती है। श्रीकृष्ण के अनुसार, आत्मा का उद्देश्य केवल शरीर में रहने का नहीं है, बल्कि यह अपनी वास्तविकता को पहचानने के लिए समय-समय पर विभिन्न शरीरों में प्रवेश करती है।


4. आत्मा और परमात्मा

आत्मा का अमरत्व सिर्फ जीवन और मृत्यु से जुड़ा नहीं है, बल्कि यह परमात्मा से भी जुड़ा है। श्रीकृष्ण ने यह भी बताया कि आत्मा परमात्मा का अंश होती है। जब आत्मा परमात्मा के साथ जुड़ती है, तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।

श्रीकृष्ण कहते हैं:
"ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। मन:षष्ठानि संस्थायानि शरीरेषु नद्यन्ति।" (भगवद्गीता 15.7)

अर्थात:

  • आत्मा परमात्मा का अंश है, और इसे अनंत समय से शरीरों में रहकर कर्मों के अनुसार अनुभव प्राप्त होते हैं।
  • जब आत्मा परमात्मा के साथ एकाकार होती है, तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है, यानी संसार के बंधनों से मुक्ति मिलती है।

5. आत्मा का उद्देश्य और मोक्ष

आत्मा का मुख्य उद्देश्य अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानना और परमात्मा के साथ मिलन करना है। जब व्यक्ति अपने कर्मों को धर्म, सत्य और आत्मिक उन्नति के मार्ग पर करता है, तो वह आत्मा के अमरत्व को अनुभव करता है और मोक्ष की प्राप्ति के लिए तैयार होता है।

"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति। तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।" (भगवद्गीता 11.54)

अर्थात:

  • जो व्यक्ति हर स्थान पर ईश्वर को देखता है और ईश्वर को हर जगह देखता है, वह आत्मा के अमरत्व को समझ लेता है।
  • ऐसे व्यक्ति का नाश नहीं होता, क्योंकि वह आत्मा की शाश्वतता को पहचान लेता है और ईश्वर के साथ एकाकार होता है।

निष्कर्ष

आत्मा का अमरत्व यह सिद्धांत जीवन के वास्तविक अर्थ को समझने का मार्ग है। श्रीकृष्ण ने यह बताया कि आत्मा शाश्वत है, शरीर नश्वर है, और हमारा मुख्य उद्देश्य आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचानना है। आत्मा का अमरत्व यह सिखाता है कि हम केवल शरीर नहीं हैं, बल्कि एक शाश्वत और दिव्य अंश हैं, जो ईश्वर के साथ एकात्मता की ओर बढ़ता है। इस ज्ञान के साथ हम जीवन के उद्देश्य को समझ सकते हैं और आत्मा की शुद्धि की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं।

शनिवार, 12 दिसंबर 2020

धर्म और अधर्म का ज्ञान

 धर्म और अधर्म का ज्ञान भगवान श्रीकृष्ण ने अपने उपदेशों में अत्यंत महत्वपूर्ण रूप से दिया है, विशेष रूप से भगवद्गीता में। यह सिद्धांत जीवन के प्रत्येक पहलू को नियंत्रित करता है और व्यक्ति को सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। धर्म और अधर्म केवल धार्मिक या आध्यात्मिक शब्द नहीं हैं, बल्कि ये जीवन के सामाजिक, नैतिक और सांस्कृतिक पहलुओं से जुड़े हुए हैं।

1. धर्म का अर्थ

धर्म का सामान्य अर्थ "सत्य का पालन", "कर्तव्य", या "नैतिकता" है। यह वह रास्ता है जो जीवन को उच्चतम उद्देश्य की ओर ले जाता है। धर्म वह मार्ग है, जो व्यक्ति को आत्मा के सत्य, ईश्वर के साथ संबंध, और समाज के प्रति कर्तव्यों का पालन करने की प्रेरणा देता है।

धर्म का पालन करने से:

  • समाज में शांति और सद्भाव रहता है।
  • व्यक्ति का जीवन संतुलित और खुशहाल होता है।
  • आत्मा की उन्नति होती है और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

धर्म के कुछ प्रमुख पहलू:

  1. सत्य और ईमानदारी: जीवन में सत्य का पालन और ईमानदारी से कार्य करना।
  2. समाज के प्रति कर्तव्य: परिवार, समाज और देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करना।
  3. प्रेम और करुणा: दूसरों के प्रति प्रेम और सहानुभूति रखना।
  4. न्याय और समानता: हर व्यक्ति के साथ समानता का व्यवहार करना और न्याय का पालन करना।

2. अधर्म का अर्थ

अधर्म वह मार्ग है जो सत्य, नैतिकता, और सामाजिक कर्तव्यों से दूर ले जाता है। यह वह मार्ग है, जहां व्यक्ति स्वार्थ, हिंसा, अन्याय, असत्य, और पाप में लिप्त होता है। अधर्म के रास्ते पर चलने से समाज में अशांति और बुराई फैलती है और व्यक्ति का जीवन दुखमय और असंतुलित हो जाता है।

अधर्म के कुछ प्रमुख पहलू:

  1. झूठ बोलना: अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए झूठ बोलना।
  2. हिंसा और अत्याचार: किसी भी रूप में हिंसा या अत्याचार करना।
  3. स्वार्थ और लोभ: केवल अपने स्वार्थ के लिए दूसरों का शोषण करना।
  4. न्याय का उल्लंघन: बिना कारण किसी को नुकसान पहुँचाना और न्याय की अवहेलना करना।
  5. आत्मनिर्भरता की कमी: दूसरों पर निर्भर रहकर अपने कार्यों का निष्पादन करना।

3. धर्म और अधर्म का अंतर

श्रीकृष्ण ने गीता में यह स्पष्ट किया कि धर्म और अधर्म के बीच अंतर केवल बाहरी कार्यों से नहीं, बल्कि आंतरिक भावनाओं और इरादों से होता है।

  • धर्म वही है जो सत्य, नैतिकता और समाज के हित के लिए किया जाता है।
  • अधर्म वही है जो व्यक्ति अपने स्वार्थ और झूठ के लिए करता है, जिससे समाज और आत्मा दोनों को हानि पहुँचती है।

4. धर्म और अधर्म का मार्गदर्शन

भगवान श्रीकृष्ण ने धर्म और अधर्म के बारे में अर्जुन को स्पष्ट रूप से समझाया:

  • धर्म वह है जो हमें आत्मा की शुद्धि, सत्य के मार्ग पर चलने, और समाज के साथ सह-अस्तित्व में रहने की प्रेरणा देता है।
  • अधर्म वह है जो हमें आत्मा के अस्तित्व, समाज की शांति, और ईश्वर के आदेशों से विमुख करता है।

5. महाभारत में धर्म और अधर्म

महाभारत का युद्ध धर्म और अधर्म का संघर्ष था। इस युद्ध में कौरवों का आचरण अधर्म था, जबकि पांडवों का आचरण धर्म के अनुरूप था। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह समझाया कि उसे अपने धर्म का पालन करना चाहिए, चाहे परिणाम जो भी हो।

  • कौरवों का अधर्म: कौरवों ने अन्याय, झूठ और हिंसा का सहारा लिया। द्रौपदी का अपमान और पांडवों को वनवास में भेजने के बाद उनका उद्देश्य केवल स्वार्थ था, जिससे धर्म का उल्लंघन हुआ।
  • पांडवों का धर्म: पांडवों ने हमेशा धर्म के रास्ते पर चलने की कोशिश की, और श्रीकृष्ण ने उन्हें धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करने का आदेश दिया।

6. श्रीकृष्ण का संदेश

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा:

  • धर्म की रक्षा के लिए भगवान स्वंय भी अवतार लेते हैं और अधर्म का नाश करते हैं।
  • "धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।"
  • श्रीकृष्ण ने बताया कि जीवन में किसी भी व्यक्ति को अपने कर्तव्यों (धर्म) का पालन करना चाहिए और अधर्म से दूर रहना चाहिए।

7. धर्म और अधर्म का आज के जीवन में महत्व

  • आध्यात्मिकता: धर्म का पालन करते हुए व्यक्ति आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचानता है और आत्मा की शुद्धि होती है।
  • सामाजिक ताना-बाना: धर्म के पालन से समाज में शांति, समृद्धि और न्याय का स्थापना होती है।
  • व्यक्तिगत विकास: धर्म व्यक्ति को सच्चे जीवन के उद्देश्य की ओर मार्गदर्शन करता है, जबकि अधर्म से व्यक्ति का मानसिक और आत्मिक पतन होता है।

निष्कर्ष

धर्म और अधर्म का ज्ञान व्यक्ति को अपने जीवन में सही और गलत के बीच अंतर करने की क्षमता देता है। श्रीकृष्ण के अनुसार, धर्म का पालन करना ही जीवन का सर्वोत्तम मार्ग है, और अधर्म से दूर रहना चाहिए, क्योंकि अधर्म व्यक्ति और समाज दोनों के लिए विनाशकारी होता है। धर्म, सत्य, और न्याय के मार्ग पर चलकर ही हम जीवन के उच्चतम उद्देश्य, मोक्ष, को प्राप्त कर सकते हैं।

शनिवार, 5 दिसंबर 2020

कर्म का सिद्धांत

 कर्म का सिद्धांत भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों का महत्वपूर्ण हिस्सा है और यह उनके जीवन का केंद्रीय विषय भी है। श्रीकृष्ण ने कर्म के बारे में गीता में विस्तार से बताया और यह सिद्धांत जीवन के सभी पहलुओं में उपयोगी है। कर्म का सिद्धांत न केवल धर्म के पालन की दिशा दिखाता है, बल्कि यह व्यक्ति को मानसिक शांति, संतुलन और आत्मनिर्भरता की ओर भी मार्गदर्शन करता है।

कर्म का सिद्धांत: मुख्य बातें


1. कर्म का अर्थ

  • कर्म (Action) का मतलब किसी कार्य या क्रिया से है, जिसे हम अपने दैनिक जीवन में करते हैं। यह शरीर, मन, और वचन के माध्यम से हो सकता है।
  • हर व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य कर्म कहलाता है, चाहे वह अच्छा हो या बुरा, दुनिया में या आंतरिक रूप से।

2. कर्म और फल का संबंध

"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।" (भगवद्गीता 2.47)

  • श्रीकृष्ण ने गीता में यह स्पष्ट किया कि मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फल पर नहीं।
  • व्यक्ति को अपने कर्म करने चाहिए, लेकिन उसका फल ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए।
  • इसका मतलब यह है कि हम अपने प्रयासों को पूरी निष्ठा और समर्पण से करें, लेकिन सफलता या असफलता पर अधिक ध्यान न दें। फल का वितरण ईश्वर के हाथ में होता है।

3. निष्काम कर्म

"निष्काम कर्म" का अर्थ है बिना किसी व्यक्तिगत लाभ की इच्छा के कार्य करना।

  • श्रीकृष्ण ने बताया कि जो कर्म हम बिना किसी स्वार्थ के, केवल अपने धर्म के पालन के लिए करते हैं, वही सच्चा कर्म है।
  • निष्काम कर्म से मनुष्य आत्मा को शुद्ध करता है और यह उसे मोक्ष (आध्यात्मिक मुक्ति) की दिशा में अग्रसर करता है।
  • उदाहरण: जैसे अर्जुन को युद्ध में अपने कर्तव्यों का पालन करना था, बिना यह सोचे कि वह क्या प्राप्त करेगा।

4. कर्म और योग

  • श्रीकृष्ण ने कर्मयोग की बात की, जिसमें व्यक्ति अपने कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पित कर करता है।
  • यह कर्मों का ऐसा मार्ग है, जिसमें कार्य करते हुए भी व्यक्ति का मन संतुलित रहता है और वह किसी भी भौतिक सुख या दुख से प्रभावित नहीं होता।
  • कर्मयोग का अभ्यास करते हुए व्यक्ति अपनी मानसिक स्थिति को स्थिर बनाए रखता है और उसे सांसारिक बंधनों से मुक्ति मिलती है।

5. कर्म का कर्ता

  • कर्म के कर्ता के रूप में व्यक्ति का अहम योगदान होता है, लेकिन उसे यह समझना चाहिए कि वह ईश्वर के हाथों का एक उपकरण है।
  • श्रीकृष्ण ने गीता में यह बताया कि कर्म का वास्तविक कर्ता ईश्वर है, और मनुष्य केवल एक माध्यम है।
  • "ईश्वर की इच्छा" के अनुसार ही कार्य होते हैं, और मनुष्य को इस उच्च उद्देश्य का अनुसरण करना चाहिए।

6. धर्म के अनुसार कर्म

  • श्रीकृष्ण ने सिखाया कि हमें अपने स्वधर्म (अपने कर्तव्य) का पालन करना चाहिए।
  • प्रत्येक व्यक्ति का धर्म उसके स्वभाव, शिक्षा, और समाज में उसकी स्थिति के आधार पर निर्धारित होता है।
  • उदाहरण के रूप में अर्जुन को युद्ध करना था, जबकि भिक्षु का धर्म भिक्षाटन होता है।
  • व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करते हुए अपने कर्मों में निष्ठा और ईमानदारी रखनी चाहिए।

7. कर्म का फल और समय

  • श्रीकृष्ण ने यह भी बताया कि कर्म का फल समय के साथ मिलता है और कभी तुरंत नहीं।
  • किसी व्यक्ति को तुरंत पुरस्कार या दंड नहीं मिलता, लेकिन उसे अपने कर्मों के फल की प्रतीक्षा करनी चाहिए।
  • यह सिद्धांत कर्मफल (कर्म का परिणाम) के माध्यम से सिखाता है कि जीवन में अच्छे या बुरे कर्मों का प्रभाव समय के साथ सामने आता है।

8. कर्म से मोक्ष की प्राप्ति

  • श्रीकृष्ण ने कहा कि निष्काम कर्म ही मोक्ष की ओर ले जाता है।
  • अगर कोई व्यक्ति अपने कर्मों को ईश्वर को समर्पित करके करता है, तो वह सांसारिक बंधनों से मुक्त हो सकता है।
  • मोक्ष पाने के लिए मनुष्य को अपने कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए, बल्कि उन कर्मों को सही तरीके से करना चाहिए।

निष्कर्ष

कर्म का सिद्धांत भगवान श्रीकृष्ण के जीवन और उपदेशों का केंद्रीय हिस्सा है। यह हमें यह सिखाता है कि कर्मों का परिणाम हमारे विचारों और इरादों पर निर्भर करता है। श्रीकृष्ण का संदेश है कि हमें अपने कर्मों को धर्म, निष्काम भाव और समर्पण से करना चाहिए, जिससे न केवल हमें मानसिक शांति मिलती है, बल्कि हम जीवन के उच्चतम उद्देश्य, मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं।

शनिवार, 28 नवंबर 2020

श्री कृष्ण और सुदामा की कहानी

 श्री कृष्ण और सुदामा की कहानी 

भगवान श्री कृष्ण की एक बहुत ही प्रसिद्ध और प्रेरणादायक कथा है, जो उनके अनंत प्रेम, त्याग और मित्रता के गुणों को दर्शाती है। यह कहानी हमें यह सिखाती है कि सच्चे मित्र की दोस्ती बिना किसी अपेक्षा के होती है, और भगवान अपने भक्तों की भक्ति और सच्चे प्रेम के बदले उन्हें कभी निराश नहीं करते।


श्री कृष्ण और सुदामा की कहानी का सारांश:

1. सुदामा का प्रारंभिक जीवन:

  • सुदामा का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था, और वे बहुत ही गरीब थे। उनकी पत्नी भी गरीब थी, लेकिन फिर भी दोनों ने हमेशा संतुष्ट और संतुष्ट रहने की कोशिश की।
  • सुदामा का जीवन अत्यंत साधारण था, लेकिन वे अपने ईश्वर, श्री कृष्ण के प्रति असीम श्रद्धा रखते थे। वे भगवान श्री कृष्ण के परम भक्त थे।
  • सुदामा की एक बहुत पुरानी मित्रता श्री कृष्ण के साथ थी, जो उनकी बाल्यकाल की यादों से जुड़ी हुई थी। जब वे दोनों गोकुल में छोटे थे, तो साथ में खेलते थे, और श्री कृष्ण ने सुदामा से वचन लिया था कि वे जब भी उन्हें बुलाएँगे, तो वे उनकी सहायता के लिए आएंगे।

2. श्री कृष्ण का उद्धारक रूप:

  • एक दिन, सुदामा की पत्नी ने उन्हें भगवान श्री कृष्ण के पास जाने और उनसे मदद लेने के लिए कहा। क्योंकि वे गरीबी के कारण भिक्षाटन करने में भी असमर्थ थे।
  • सुदामा की पत्नी ने उनसे कहा कि भगवान श्री कृष्ण का दर्शन प्राप्त करने से उनका जीवन सफल हो जाएगा और वे श्री कृष्ण से कुछ भोजन या धन प्राप्त करके वापस आएंगे।
  • सुदामा पहले तो संकोच करते हैं, लेकिन अंत में पत्नी के आग्रह पर वे श्री कृष्ण के पास जाने का निर्णय लेते हैं।
  • सुदामा के पास यात्रा के लिए केवल कुछ मुट्ठी चिउड़े थे, जिन्हें वह श्री कृष्ण को भेंट देने के लिए ले जाते हैं।

3. द्वारका पहुंचना:

  • सुदामा अपने कठिन रास्ते पर चलते हुए द्वारका पहुंचे, जहाँ भगवान श्री कृष्ण रहते थे।
  • द्वारका में प्रवेश करते समय, सुदामा बहुत गरीब और साधारण कपड़े पहने हुए थे, जिससे वह भव्य महलों में अपने आप को असामान्य महसूस करते थे।
  • जब वे श्री कृष्ण के महल पहुंचे, तो द्वारपालों ने उनका तिरस्कार किया और उन्हें अंदर नहीं जाने दिया, लेकिन सुदामा के नाम का उल्लेख होते ही भगवान श्री कृष्ण स्वयं महल से बाहर आए।
  • श्री कृष्ण ने सुदामा का स्वागत किया और उन्हें गले से लगा लिया। उन्होंने सुदामा के पैरों को धोकर उन्हें धोकर अपने महल में आमंत्रित किया।

4. सुदामा की भिक्षाटन की दीन-हीन अवस्था:

  • भगवान श्री कृष्ण ने सुदामा से पूछा कि वे कहाँ से आए हैं और क्यों आए हैं।
  • सुदामा ने उन्हें बताया कि वे बहुत गरीब हैं और भगवान श्री कृष्ण के पास आने के लिए वे अपने जीवन की कठिनाइयों को पार करते हुए आए हैं।
  • श्री कृष्ण ने देखा कि सुदामा के पास भगवान को भेंट देने के लिए केवल कुछ मुट्ठी चिउड़े थे। उन्होंने वह चिउड़े ले लिए और वे उन्हें भगवान श्री कृष्ण के भोजन में मिला दिया।

5. श्री कृष्ण का वरदान:

  • भगवान श्री कृष्ण ने सुदामा की सच्ची भक्ति और प्रेम को समझा। उन्होंने तुरंत अपनी कृपा से सुदामा को धन्य बना दिया।
  • श्री कृष्ण ने सुदामा से कहा कि वे उनके पुराने मित्र हैं और इसलिए उनकी सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। उन्होंने सुदामा को ऐश्वर्य, धन और सुख-समृद्धि से परिपूर्ण किया।
  • सुदामा को बहुत सारे रत्न, आभूषण, धन और सुख-समृद्धि से भरपूर घर मिला।

6. सुदामा का वापस लौटना:

  • सुदामा जब द्वारका से लौटे, तो उन्होंने देखा कि उनका घर और जीवन पूरी तरह बदल चुका था। उनका घर अब रत्नों और सोने से भरा हुआ था।
  • वह बहुत प्रसन्न और आभारी हो गए, और भगवान श्री कृष्ण की स्तुति करते हुए धन्यवाद अर्पित किया।

कहानी से शिक्षा:

  1. सच्ची मित्रता:
    श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता बिना किसी स्वार्थ के थी। यह दर्शाता है कि सच्चे मित्र कभी एक-दूसरे से कुछ नहीं चाहते, बल्कि एक-दूसरे के सुख-दुःख में सहभागी होते हैं।

  2. भगवान की कृपा:
    श्री कृष्ण ने सुदामा की भक्ति, श्रद्धा और प्रेम को स्वीकार किया और उन्हें अपनी अनंत कृपा से धन्य बना दिया। इससे यह संदेश मिलता है कि भगवान अपने सच्चे भक्तों का कभी तिरस्कार नहीं करते और उनकी भक्ति के बदले उन्हें आशीर्वाद देते हैं।

  3. धन और भक्ति का संबंध:
    यह कहानी यह भी सिखाती है कि भक्ति और विश्वास के सामने धन का कोई मूल्य नहीं होता। सुदामा गरीब थे, लेकिन भगवान श्री कृष्ण ने उनके भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें अपार धन और सुख दिया।


श्री कृष्ण और सुदामा की यह कहानी यह दर्शाती है कि भगवान अपने भक्तों के प्रति न केवल अपने प्रेम और समर्थन का प्रदर्शन करते हैं, बल्कि उनकी भक्ति का प्रतिफल भी उन्हें देते हैं।

शनिवार, 21 नवंबर 2020

यदुवंश का अंत भगवान श्रीकृष्ण के जीवन का एक महत्वपूर्ण और गंभीर प्रसंग

 यदुवंश का अंत भगवान श्रीकृष्ण के जीवन का एक महत्वपूर्ण और गंभीर प्रसंग है। यह घटना हमें यह समझाने का प्रयास करती है कि संसार में कोई भी शक्तिशाली वंश या व्यक्ति, चाहे वह कितना ही महान क्यों न हो, जब अहंकार और अधर्म के मार्ग पर चलता है, तो उसका पतन निश्चित है। यदुवंश का विनाश ईश्वर की लीला और प्रकृति के चक्र का हिस्सा था।


1. गांधारी का शाप

  • महाभारत के युद्ध के बाद जब दुर्योधन की मृत्यु हुई, तो उसकी माता गांधारी ने श्रीकृष्ण को श्राप दिया।
  • गांधारी ने कहा कि यदि श्रीकृष्ण चाहते, तो युद्ध को रोका जा सकता था।
  • उन्होंने शाप दिया कि जैसे कौरव वंश नष्ट हुआ, वैसे ही यदुवंश भी आपसी संघर्ष से नष्ट हो जाएगा।
  • श्रीकृष्ण ने गांधारी के शाप को सहर्ष स्वीकार किया और इसे धर्मचक्र का हिस्सा बताया।

2. यदुवंशियों का अहंकार और पतन

  • महाभारत के युद्ध के बाद यदुवंशियों में शक्ति और संपत्ति के कारण घमंड बढ़ गया।
  • उनके अंदर विनम्रता और धर्म का अभाव हो गया।
  • यदुवंशियों के बीच आपसी झगड़े और असहमति बढ़ने लगी।

3. ऋषियों का शाप

  • एक बार यदुवंश के कुछ युवकों ने महर्षि दुर्वासा, वशिष्ठ, और नारद जैसे ऋषियों के साथ मजाक किया।
  • उन्होंने एक युवक को महिला के रूप में सजाकर ऋषियों से पूछा कि उनके गर्भ से कौन जन्म लेगा।
  • ऋषियों ने क्रोधित होकर शाप दिया कि यह गर्भ (जो वास्तव में एक मूसल में बदल गया) यदुवंश का विनाश करेगा।
  • यदुवंशी इस शाप को हल्के में ले गए और मूसल को पीसकर समुद्र में फेंक दिया।

4. प्रभास क्षेत्र में वंश का नाश

  • समुद्र में फेंका गया मूसल पीसकर तिनकों में बदल गया, और उन तिनकों ने एक दिन यदुवंश के विनाश में प्रमुख भूमिका निभाई।
  • एक दिन यदुवंशी प्रभास क्षेत्र में उत्सव मना रहे थे।
  • शराब के नशे में उनके बीच विवाद शुरू हो गया।
  • आपसी झगड़ा इतना बढ़ गया कि उन्होंने एक-दूसरे को पीट-पीटकर मार डाला।
  • मूसल के तिनके हथियार बन गए, और उन्होंने उसी से एक-दूसरे को नष्ट कर दिया।

5. बलराम का समाधि ग्रहण

  • यदुवंश के विनाश के बाद भगवान बलराम ने अपना शरीर त्याग दिया।
  • वे समुद्र के किनारे ध्यानमग्न होकर अपनी आत्मा को त्यागकर सर्प (शेषनाग) के रूप में अपने दिव्य लोक चले गए।

6. श्रीकृष्ण का देह त्याग

  • यदुवंश का विनाश होने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने प्रभास क्षेत्र में एक वृक्ष के नीचे योगमुद्रा में ध्यानमग्न होकर अपने जीवन का समापन किया।
  • जरा नामक शिकारी ने उनकी एड़ी में तीर मारा, और श्रीकृष्ण ने देह त्याग कर वैकुंठ लौट गए।

7. यदुवंश के पतन का आध्यात्मिक संदेश

  • अहंकार का विनाश: यदुवंशियों के अंत का मुख्य कारण उनका अहंकार और धर्म से विचलन था।
  • प्रकृति का चक्र: हर वंश और शक्ति का उत्थान और पतन निश्चित है।
  • संयम और विनम्रता: शक्ति और समृद्धि के साथ विनम्रता और धर्म का पालन आवश्यक है।
  • ईश्वर की योजना: यह घटना यह दर्शाती है कि हर कार्य ईश्वर की योजना का हिस्सा है।

8. नए युग की शुरुआत

  • यदुवंश के अंत के साथ द्वापर युग का समापन हुआ।
  • इसके बाद कलियुग का आरंभ हुआ, जो धर्म और अधर्म के बीच संतुलन बनाए रखने का युग है।

निष्कर्ष

यदुवंश का अंत एक शिक्षाप्रद घटना है, जो बताती है कि शक्ति, संपत्ति, और अहंकार से विनाश निश्चित है। यह घटना श्रीकृष्ण की लीला का हिस्सा थी, जो मानव जीवन को धर्म, संयम, और विनम्रता का महत्व सिखाती है। यदुवंश का विनाश यह भी दर्शाता है कि सृष्टि में हर घटना ईश्वर के नियोजन का हिस्सा है।

शनिवार, 14 नवंबर 2020

श्रीकृष्ण का मोक्ष और देह त्याग

 श्रीकृष्ण का मोक्ष और देह त्याग एक महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक प्रसंग है। उनके जीवन की अंतिम घटना भी उनके जीवन का सार प्रस्तुत करती है, जिसमें धर्म, सत्य, और कर्म के प्रति उनकी निष्ठा परिलक्षित होती है।


1. यदुवंश का अंत

  • महाभारत युद्ध के बाद श्रीकृष्ण ने यदुवंश को उजड़ते हुए देखा।
  • गांधारी के शाप और यदुवंश के बढ़ते अहंकार के कारण आपसी कलह ने वंश का विनाश कर दिया।
  • श्रीकृष्ण ने इसे प्रकृति का नियम मानते हुए स्वीकार किया और इसे धर्मचक्र का हिस्सा बताया।

2. प्रभास क्षेत्र में निवास

  • यदुवंश के विनाश के बाद श्रीकृष्ण ने अपने अंतिम दिन प्रभास क्षेत्र (वर्तमान गुजरात) में बिताने का निर्णय लिया।
  • उन्होंने सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर योगनिद्रा में प्रवेश किया।

3. जरा नामक शिकारी का प्रसंग

  • जब श्रीकृष्ण एक वृक्ष के नीचे योगमुद्रा में ध्यानमग्न थे, तब जरा नामक शिकारी ने उनकी बाईं एड़ी पर तीर चलाया।
  • जरा ने उन्हें हिरण समझकर तीर मारा था।
  • तीर उनके शरीर के उसी स्थान पर लगा जहां उन्हें महाभारत के युद्ध के समय गांधारी के शाप के कारण एक कमजोर बिंदु के रूप में चिह्नित किया गया था।

4. जरा का पश्चाताप और क्षमा

  • जरा ने अपने अपराध का एहसास होते ही भगवान श्रीकृष्ण से क्षमा मांगी।
  • श्रीकृष्ण ने उसे तुरंत क्षमा कर दिया और कहा कि यह घटना उनके पृथ्वी पर अवतार समाप्त करने का साधन थी।
  • उन्होंने उसे बताया कि यह ईश्वर की योजना का हिस्सा था।

5. देह त्याग

  • श्रीकृष्ण ने योगमुद्रा में ध्यान करते हुए अपनी लीला समाप्त की।
  • उन्होंने अपनी आत्मा को अपने वास्तविक स्वरूप, अर्थात् विष्णु के रूप में लौटा लिया।
  • उनके शरीर को देह मानने वाले लोग इसे अंत समझ सकते हैं, लेकिन यह उनके दिव्य स्वरूप की लीला का समापन था।

6. मोक्ष का संदेश

श्रीकृष्ण का देह त्याग इस बात का प्रतीक है कि:

  1. आत्मा अमर है: देह नश्वर है, लेकिन आत्मा शाश्वत है।
  2. कर्म और धर्म का पालन: अपने जीवन में कर्म और धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है।
  3. संसार के बंधनों से मुक्ति: सांसारिक कर्तव्यों को पूर्ण कर मनुष्य ईश्वर में विलीन हो सकता है।
  4. निष्काम जीवन: श्रीकृष्ण ने स्वयं को कभी भी सांसारिक मोह या अहंकार से नहीं जोड़ा।

7. पृथ्वी से विष्णु रूप में वापसी

  • श्रीकृष्ण ने पृथ्वी पर विष्णु के आठवें अवतार के रूप में अपने कर्तव्यों को पूर्ण किया।
  • उन्होंने अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना की, और फिर अपने लोक (वैकुंठ) में लौट गए।

8. श्रीकृष्ण की शिक्षाएँ उनके मोक्ष में भी परिलक्षित होती हैं

  • क्षमा और करुणा: उन्होंने शिकारी जरा को तुरंत क्षमा कर दिया।
  • संतुलन: उन्होंने अपने जीवन का हर कार्य संतुलन और धर्म के अनुरूप किया।
  • अहंकार का त्याग: उन्होंने अपने जीवन और मृत्यु को भी ईश्वर की योजना के अनुसार स्वीकार किया।

निष्कर्ष

श्रीकृष्ण का मोक्ष और देह त्याग यह सिखाता है कि जीवन का उद्देश्य धर्म का पालन, सत्य की रक्षा, और सांसारिक मोह से मुक्त होकर आत्मा की पूर्णता प्राप्त करना है। उनका जीवन और मृत्यु दोनों ही मानव जाति के लिए प्रेरणा और मार्गदर्शन हैं।

शनिवार, 7 नवंबर 2020

भगवान श्रीकृष्ण की शिक्षाएँ

 भगवान श्रीकृष्ण की शिक्षाएँ मानव जीवन को दिशा देने वाली और जीवन के सभी पहलुओं को स्पर्श करने वाली हैं। उनके उपदेशों का सार भगवद्गीता, महाभारत, और उनकी विभिन्न लीलाओं में मिलता है। ये शिक्षाएँ न केवल आध्यात्मिक, बल्कि सांसारिक जीवन के लिए भी प्रासंगिक हैं।


1. कर्म का सिद्धांत

"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"

  • श्रीकृष्ण ने सिखाया कि मनुष्य को केवल अपने कर्म करने का अधिकार है, लेकिन कर्म के फल की चिंता नहीं करनी चाहिए।
  • जीवन में लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करें और फल के बारे में चिंता छोड़ दें।

2. धर्म और अधर्म का ज्ञान

  • धर्म का पालन करना जीवन का मूल कर्तव्य है।
  • अधर्म के रास्ते पर चलने वाले का अंत निश्चित है, चाहे वह कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो।
  • धर्म की रक्षा के लिए कर्म करना आवश्यक है, जैसा कि उन्होंने अर्जुन को युद्ध में प्रेरित किया।

3. आत्मा का अमरत्व

"न जायते म्रियते वा कदाचित्।"

  • आत्मा न जन्म लेती है और न मरती है। यह अमर और अविनाशी है।
  • मृत्यु केवल शरीर का अंत है, आत्मा का नहीं।
  • यह शिक्षा भय, शोक और मोह से मुक्ति का मार्ग दिखाती है।

4. समत्व का संदेश

"योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय।"

  • जीवन में सफलता और असफलता, सुख और दुःख में समान भाव रखना चाहिए।
  • समत्व योग का अभ्यास करना ही सच्चा धर्म है।

5. भक्ति और शरणागति

"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।"

  • भगवान की शरण में जाने से सभी पापों का नाश होता है।
  • भक्ति योग से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।
  • भक्ति में प्रेम, समर्पण और विश्वास का होना आवश्यक है।

6. स्वधर्म का पालन

"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।"

  • प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वधर्म (स्वयं के कर्तव्यों) का पालन करना चाहिए, चाहे वह कठिन ही क्यों न हो।
  • दूसरों के धर्म का अनुकरण करना हानिकारक हो सकता है।

7. अहंकार का त्याग

  • अहंकार विनाश का कारण है।
  • श्रीकृष्ण ने सिखाया कि विनम्रता, क्षमा और दूसरों के प्रति करुणा का भाव ही सच्चा गुण है।
  • अपने अहंकार को त्यागकर ईश्वर की महिमा को स्वीकार करना चाहिए।

8. संगति का महत्व

  • संगति का प्रभाव व्यक्ति के जीवन पर पड़ता है।
  • सज्जनों की संगति (सत्संग) से जीवन में सकारात्मकता और उन्नति आती है।

9. योग का महत्व

"योगः कर्मसु कौशलम्।"

  • श्रीकृष्ण ने कर्मयोग, ज्ञानयोग, और भक्तियोग का संदेश दिया।
  • उन्होंने बताया कि योग का अर्थ केवल ध्यान नहीं, बल्कि जीवन में कर्म करते हुए ध्यानस्थ रहना है।

10. मोह और आसक्ति से मुक्ति

  • मोह और आसक्ति मनुष्य के ज्ञान को ढक देती है।
  • जीवन में निर्लिप्त भाव से कर्म करने की शिक्षा दी।
  • जैसे कमल का फूल जल में रहकर भी उससे अलग रहता है, वैसे ही मनुष्य को सांसारिक कार्यों में निर्लिप्त रहना चाहिए।

11. परिवार और समाज के प्रति जिम्मेदारी

  • श्रीकृष्ण ने सिखाया कि अपने परिवार और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना महत्वपूर्ण है।
  • व्यक्ति को अपने हित से पहले समाज और धर्म का हित देखना चाहिए।

12. सत्य और न्याय की स्थापना

  • सत्य और न्याय की विजय अनिवार्य है।
  • अधर्म, अन्याय, और अहंकार का अंत निश्चित है।
  • धर्मयुद्ध (धर्म के लिए युद्ध) में भाग लेना कर्तव्य है।

13. सर्व धर्म समभाव

  • सभी धर्म समान हैं, और सबमें एक ही ईश्वर का निवास है।
  • किसी भी व्यक्ति के प्रति भेदभाव नहीं करना चाहिए।

14. प्रकृति और सृष्टि का सम्मान

  • श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पूजा के माध्यम से यह सिखाया कि प्रकृति का सम्मान करना चाहिए।
  • मनुष्य और प्रकृति का संतुलन जीवन के लिए आवश्यक है।

15. आध्यात्मिक स्वतंत्रता

  • व्यक्ति अपने कर्म, भक्ति और ज्ञान के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।
  • किसी भी धर्म या परंपरा से बंधे बिना आत्मा की मुक्ति संभव है।

निष्कर्ष

श्रीकृष्ण की शिक्षाएँ आज भी मानव जीवन को सही दिशा दिखाने वाली हैं। उन्होंने धर्म, भक्ति, और कर्म का ऐसा मार्ग प्रस्तुत किया, जो न केवल मोक्ष प्राप्ति का साधन है, बल्कि जीवन की सभी समस्याओं का समाधान भी। उनकी शिक्षाएँ हर व्यक्ति के जीवन में प्रेरणा का स्रोत हैं।

शनिवार, 31 अक्टूबर 2020

श्रीकृष्ण के विवाह

 श्रीकृष्ण के विवाह उनकी लीलाओं का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। उनका पहला और प्रमुख विवाह रुक्मिणी से हुआ, लेकिन इसके अलावा उनके कई अन्य विवाह भी हुए। ये विवाह न केवल प्रेम और भक्ति का प्रतीक हैं, बल्कि धर्म की स्थापना और धर्मरक्षा के लिए उठाए गए कदम भी हैं।


1. रुक्मिणी विवाह

रुक्मिणी विदर्भ देश के राजा भीष्मक की पुत्री थीं। रुक्मिणी बचपन से ही श्रीकृष्ण को अपने पति के रूप में स्वीकार कर चुकी थीं।

  • दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति: रुक्मिणी का भाई रुक्मी उनका विवाह चेदि राजा शिशुपाल से करवाना चाहता था, जो श्रीकृष्ण का शत्रु था।
  • प्रेमपत्र: रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण को एक पत्र भेजकर उनसे अनुरोध किया कि वे आकर उन्हें शिशुपाल से बचाएं।
  • स्वयंवर से अपहरण: श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी को स्वयंवर के दिन चेदि राजकुमारों और अन्य राजाओं के बीच से उठाकर विवाह किया।
  • रुक्मी का पराजय: रुक्मी ने श्रीकृष्ण का विरोध किया, लेकिन श्रीकृष्ण ने उसे पराजित कर दिया और उसकी जान बख्श दी।

रुक्मिणी श्रीकृष्ण की प्रमुख पत्नी बनीं और उन्हें लक्ष्मी का अवतार माना जाता है।


2. जाम्बवती विवाह

जाम्बवती, ऋक्षराज जाम्बवन्त की पुत्री थीं।

  • स्यमंतक मणि का प्रसंग: जब सत्राजित नामक राजा की स्यमंतक मणि खो गई, तो कृष्ण ने उसे खोजने का बीड़ा उठाया।
  • मणि जाम्बवन्त के पास थी, और उसे प्राप्त करने के लिए कृष्ण ने जाम्बवन्त के साथ 28 दिनों तक युद्ध किया।
  • अंततः जाम्बवन्त ने अपनी हार स्वीकार की और अपनी पुत्री जाम्बवती का विवाह श्रीकृष्ण से कर दिया।

3. सत्यभामा विवाह

सत्यभामा सत्राजित की पुत्री थीं।

  • स्यमंतक मणि: जब स्यमंतक मणि को लेकर विवाद हुआ, तो श्रीकृष्ण ने मणि लौटाकर सत्राजित का विश्वास जीता।
  • विवाह प्रस्ताव: सत्राजित ने अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण से कर दिया।
  • सत्यभामा को भूदेवी का अवतार माना जाता है।

4. कालिंदी विवाह

कालिंदी सूर्यदेव की पुत्री थीं।

  • कालिंदी यमुना के तट पर तपस्या कर रही थीं और उन्होंने श्रीकृष्ण को पति के रूप में पाने की प्रार्थना की।
  • श्रीकृष्ण ने उनकी तपस्या स्वीकार की और उनसे विवाह किया।

5. मित्रवृंदा विवाह

मित्रवृंदा अवंती के राजा की पुत्री थीं।

  • उनका स्वयंवर आयोजित किया गया था, जिसमें श्रीकृष्ण ने भाग लेकर उनका हरण किया और उनसे विवाह किया।

6. नागनजिति विवाह

नागनजिति, जिन्हें सत्य भी कहा जाता है, कोसल देश के राजा नागंजित की पुत्री थीं।

  • शर्त: नागनजित ने शर्त रखी थी कि जो राजकुमार सात उग्र बैलों को वश में करेगा, वही उनकी पुत्री से विवाह कर सकता है।
  • श्रीकृष्ण ने अपनी शक्ति से यह शर्त पूरी की और नागनजिति से विवाह किया।

7. भद्रा विवाह

भद्रा, कौरव वंश की एक राजकुमारी थीं।

  • उनका विवाह उनके परिवार की इच्छा से श्रीकृष्ण के साथ संपन्न हुआ।

8. लक्ष्मणा (मद्रा) विवाह

लक्ष्मणा, मद्र देश की राजकुमारी थीं।

  • उनके स्वयंवर में श्रीकृष्ण ने विजयी होकर उनसे विवाह किया।

9. 16,100 कन्याओं से विवाह

  • नरकासुर वध का प्रसंग: नरकासुर ने 16,100 राजकुमारियों का अपहरण कर उन्हें बंदी बना लिया था।
  • श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध कर सभी कन्याओं को मुक्त कराया।
  • सामाजिक सम्मान के लिए श्रीकृष्ण ने इन कन्याओं से विवाह किया, ताकि वे समाज में स्वीकार्य हो सकें।

विवाहों का महत्व

  1. धर्म की स्थापना: श्रीकृष्ण के सभी विवाह धार्मिक और सामाजिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए थे।
  2. भक्ति का प्रतीक: प्रत्येक पत्नी उनके प्रति भक्ति और प्रेम का प्रतीक है।
  3. संस्कृति और परंपरा: इन विवाहों के माध्यम से श्रीकृष्ण ने विभिन्न राज्यों और संस्कृतियों को जोड़ने का कार्य किया।
  4. अवतारी उद्देश्य: उनके विवाह मानव समाज में धर्म, करुणा और न्याय की स्थापना के लिए किए गए दिव्य कृत्य हैं।

श्रीकृष्ण का विवाह केवल सांसारिक घटना नहीं, बल्कि धर्म, भक्ति और प्रेम की स्थापना का माध्यम था।

शनिवार, 24 अक्टूबर 2020

श्रीकृष्ण की महाभारत में भूमिका

 श्रीकृष्ण की महाभारत में भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण और बहुआयामी है। वे न केवल इस महाकाव्य के केंद्र बिंदु हैं, बल्कि धर्म, सत्य और न्याय की स्थापना के प्रेरणास्रोत भी हैं। महाभारत में उनकी भूमिका एक मार्गदर्शक, कूटनीतिज्ञ, मित्र, और भगवान के रूप में दिखाई देती है।


1. कुरुक्षेत्र युद्ध के पीछे का कारण

महाभारत के युद्ध का मुख्य कारण कौरवों और पांडवों के बीच का सत्ता संघर्ष था।

  • दुर्योधन का अधर्म: दुर्योधन ने छल और धोखे से पांडवों को हस्तिनापुर से निर्वासित कर दिया।
  • द्रौपदी का अपमान: कौरवों ने द्रौपदी का चीरहरण करने का प्रयास किया, जिसे श्रीकृष्ण ने अपनी माया से रोका। यह घटना युद्ध की नींव बनी।

2. कूटनीतिक भूमिका

कृष्ण ने पांडवों और कौरवों के बीच युद्ध रोकने के लिए कई प्रयास किए।

  • शांति दूत: श्रीकृष्ण ने हस्तिनापुर जाकर दुर्योधन और कौरवों को समझाने का प्रयास किया। उन्होंने पांडवों के लिए सिर्फ पांच गांव मांगे, लेकिन दुर्योधन ने इनकार कर दिया और युद्ध को अनिवार्य बना दिया।
  • दुर्योधन का अहंकार: दुर्योधन ने न केवल शांति प्रस्ताव ठुकराया, बल्कि श्रीकृष्ण को बंदी बनाने का प्रयास भी किया।

3. पांडवों के मित्र और मार्गदर्शक

कृष्ण पांडवों के परम मित्र और मार्गदर्शक थे।

  • अर्जुन के सखा: अर्जुन और श्रीकृष्ण का मित्रता संबंध विशेष था। अर्जुन हर कठिन परिस्थिति में कृष्ण से मार्गदर्शन लेते थे।
  • द्रौपदी की रक्षा: द्रौपदी के चीरहरण के समय कृष्ण ने उसे अनंत वस्त्र प्रदान करके उसकी लज्जा की रक्षा की।
  • युद्ध रणनीति: श्रीकृष्ण ने युद्ध के दौरान पांडवों को कई महत्वपूर्ण रणनीतियाँ सुझाईं, जैसे भीष्म और द्रोण का पराभव।

4. गीता का उपदेश

महाभारत में श्रीकृष्ण की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका भगवद्गीता का उपदेश देना है।

  • अर्जुन का मोह भंग: युद्ध शुरू होने से पहले अर्जुन अपने संबंधियों को मारने के विचार से दुखी और असमंजस में था।
  • कृष्ण का उपदेश: श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म, भक्ति, ज्ञान और धर्म के मार्ग पर चलने की शिक्षा दी।
  • गीता का मुख्य संदेश:
    1. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन - "कर्म करो, फल की चिंता मत करो।"
    2. सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज - "सभी धर्मों को त्यागकर मेरी शरण में आओ।"
    3. आत्मा अमर है: श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि आत्मा अजर-अमर है और शरीर मात्र नश्वर है।

5. कूटनीति और रणनीतियाँ

श्रीकृष्ण ने पांडवों को युद्ध में विजय दिलाने के लिए कई कूटनीतिक निर्णय लिए।

  • शिखंडी का उपयोग: भीष्म पितामह को हराने के लिए शिखंडी को आगे रखा, क्योंकि भीष्म ने शिखंडी पर शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा ली थी।
  • द्रोण का वध: द्रोणाचार्य को हराने के लिए श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से असत्य कहलवाया ("अश्वत्थामा हतोऽगजः")।
  • कर्ण का वध: कर्ण को कमजोर करने के लिए उसकी कवच-कुंडल को इंद्र द्वारा छीनने की योजना बनाई।
  • दुर्योधन का अंत: भीम को गदा युद्ध में दुर्योधन की जंघा पर प्रहार करने की प्रेरणा दी।

6. धर्म और अधर्म के बीच विभाजन

कृष्ण ने स्पष्ट किया कि धर्म के मार्ग पर चलना ही सत्य और न्याय की स्थापना का आधार है।

  • कौरव अधर्म के मार्ग पर थे, जबकि पांडव धर्म के रक्षक थे।
  • श्रीकृष्ण ने पांडवों को युद्ध के लिए प्रेरित किया, यह बताते हुए कि अधर्म का नाश अनिवार्य है।

7. युद्ध में निष्पक्षता

जब युद्ध की तैयारी हो रही थी, तो श्रीकृष्ण ने निष्पक्षता बनाए रखी।

  • उन्होंने कहा कि एक ओर उनकी नारायणी सेना होगी और दूसरी ओर वे स्वयं बिना शस्त्र उठाए रहेंगे।
  • अर्जुन ने श्रीकृष्ण को चुना, जबकि दुर्योधन ने उनकी नारायणी सेना को।

8. युद्ध के बाद की भूमिका

  • धर्म की स्थापना: युद्ध के बाद, श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को धर्म के मार्ग पर चलने और न्यायपूर्वक राज्य करने की शिक्षा दी।
  • गांधारी का शाप: गांधारी ने अपने सौ पुत्रों की मृत्यु से दुखी होकर कृष्ण को शाप दिया कि उनके यदुवंश का भी अंत होगा। कृष्ण ने इसे स्वीकार किया और कहा कि यह धर्म का चक्र है।

महाभारत में श्रीकृष्ण का संदेश

  1. धर्म और सत्य की विजय निश्चित है।
  2. जीवन में कर्म करना ही सबसे महत्वपूर्ण है।
  3. अहंकार और अधर्म का अंत तय है।
  4. भगवान अपने भक्तों के साथ हर परिस्थिति में खड़े रहते हैं।

श्रीकृष्ण की भूमिका महाभारत में केवल एक मार्गदर्शक या भगवान के रूप में नहीं, बल्कि धर्म के सार को स्पष्ट करने वाले के रूप में महत्वपूर्ण है। उनका जीवन और शिक्षाएँ आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं।

शनिवार, 17 अक्टूबर 2020

द्वारका नगरी की स्थापना

 द्वारका नगरी की स्थापना श्रीकृष्ण की जीवनगाथा का एक महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक प्रसंग है। यह घटना उनके कूटनीतिक कौशल, नेतृत्व और धर्म की स्थापना के लिए उनकी दूरदर्शिता का परिचय देती है। द्वारका नगरी को आज भी "स्वर्ण नगरी" और "कृष्ण की राजधानी" के रूप में जाना जाता है।


मथुरा पर आक्रमण और समस्या

कंस वध के बाद, श्रीकृष्ण ने अपने नाना उग्रसेन को मथुरा का राजा बनाया। लेकिन कंस का ससुर और मगध का शक्तिशाली राजा जरासंध श्रीकृष्ण और बलराम से प्रतिशोध लेने के लिए मथुरा पर बार-बार आक्रमण करने लगा।

  • जरासंध के आक्रमण: जरासंध ने मथुरा पर 17 बार हमला किया। हर बार कृष्ण और बलराम ने उसकी सेना को हराया, लेकिन जरासंध को नहीं मारा।
  • कालयवन का हमला: जरासंध के साथ-साथ कालयवन नामक मलेच्छ राजा ने भी मथुरा पर आक्रमण कर दिया।
    इस स्थिति में मथुरा की रक्षा करना और वहां के नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना कठिन हो गया।

द्वारका नगरी की स्थापना का निर्णय

श्रीकृष्ण ने यह समझा कि जरासंध और अन्य शत्रुओं से बार-बार युद्ध करना मथुरा और वहां के नागरिकों के लिए नुकसानदेह होगा। उन्होंने शांति और सुरक्षा के लिए एक नई नगरी बसाने का निर्णय लिया।

  • श्रीकृष्ण ने समुद्र देवता से प्रार्थना की और उनसे भूमि प्रदान करने का अनुरोध किया।
  • समुद्र ने अपने जल से पीछे हटकर भूमि का एक भाग प्रदान किया।

स्वर्ण नगरी द्वारका का निर्माण

  1. मय दानव का सहयोग: द्वारका नगरी के निर्माण में असुरों के महान शिल्पकार मय दानव ने श्रीकृष्ण की सहायता की। उन्होंने द्वारका को सुंदर महलों, मंदिरों, और जल निकासी व्यवस्था से सुसज्जित किया।
  2. विशेषताएँ:
    • द्वारका चारों ओर से समुद्र से घिरी हुई थी, जिससे यह शत्रुओं के आक्रमण से सुरक्षित थी।
    • नगरी में स्वर्ण और रत्नों से सुसज्जित भव्य महल थे।
    • द्वारका के द्वार इतने विशाल और सुंदर थे कि इसे "द्वारावती" भी कहा जाता है।

द्वारका में यदुवंश का पुनर्वास

श्रीकृष्ण ने मथुरा के सभी यदुवंशियों को द्वारका में बसने के लिए बुलाया। उन्होंने यदुवंश के लिए एक सुरक्षित और शांतिपूर्ण जीवन की व्यवस्था की।

  • यदुवंशी द्वारका में खुशी-खुशी रहने लगे और वहां श्रीकृष्ण को अपना राजा मान लिया।
  • द्वारका न केवल राजनीति और व्यापार का केंद्र बनी, बल्कि यह धर्म, संस्कृति और अध्यात्म का भी प्रमुख केंद्र बन गई।

कालयवन और जरासंध का अंत

द्वारका स्थापित करने के बाद श्रीकृष्ण ने कालयवन का वध किया। उन्होंने जरासंध का अंत सीधे युद्ध में नहीं किया, बल्कि पांडवों की सहायता से उसकी मृत्यु का मार्ग प्रशस्त किया।


द्वारका का महत्व

  1. शांति और सुरक्षा का प्रतीक: द्वारका नगरी ने यह संदेश दिया कि युद्ध से बचने के लिए कूटनीति और शांतिपूर्ण समाधान अधिक महत्वपूर्ण हैं।
  2. धर्म और संस्कृति का केंद्र: द्वारका श्रीकृष्ण की शिक्षाओं और उनकी लीलाओं का केंद्र रही।
  3. अखंड समृद्धि: द्वारका का निर्माण यह दिखाता है कि भगवान अपने भक्तों की सुख-शांति के लिए हर संभव प्रयास करते हैं।

द्वारका का अंत

महाभारत युद्ध के बाद, यदुवंशियों में आपसी कलह और विनाश हुआ। इस घटना के बाद, श्रीकृष्ण ने अपनी लीलाएं समाप्त कीं और द्वारका नगरी समुद्र में विलीन हो गई।
आज भी गुजरात के तटीय क्षेत्र में समुद्र के नीचे प्राचीन द्वारका के अवशेष पाए जाते हैं, जो इसकी ऐतिहासिकता और दिव्यता को प्रमाणित करते हैं।

द्वारका नगरी श्रीकृष्ण के नेतृत्व, कूटनीति और धर्म की विजय का अद्भुत उदाहरण है।

शनिवार, 10 अक्टूबर 2020

कंस वध

 कंस वध श्रीकृष्ण की जीवन गाथा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और धर्म विजय का प्रतीक प्रसंग है। यह घटना अधर्म और अत्याचार के अंत तथा धर्म और न्याय की स्थापना का संदेश देती है।

कंस का आतंक

कंस मथुरा का क्रूर राजा था। उसने अपने पिता उग्रसेन को बंदी बनाकर मथुरा का शासन छीन लिया था। कंस ने अपनी बहन देवकी और बहनोई वसुदेव को जेल में बंद कर दिया, क्योंकि आकाशवाणी हुई थी कि देवकी का आठवां पुत्र उसका वध करेगा। कंस ने देवकी के छह पुत्रों को मार डाला, लेकिन सातवां पुत्र (बलराम) और आठवां पुत्र (कृष्ण) चमत्कारिक ढंग से बच गए।

श्रीकृष्ण का गोकुल और वृंदावन में पालन-पोषण

कृष्ण को वसुदेव ने गोकुल में नंद बाबा और यशोदा माता के पास छोड़ दिया था। गोकुल और वृंदावन में अपनी बाललीलाओं के दौरान कृष्ण ने कई राक्षसों का वध किया, जिन्हें कंस ने भेजा था। इनमें पूतना, तृणावर्त, बकासुर और कालिया नाग जैसे राक्षस शामिल थे।

कंस द्वारा अक्रूर का भेजना

जब कंस को यह पता चला कि गोकुल में नंद बाबा के यहां रहने वाला बालक ही देवकी का आठवां पुत्र है, तो उसने कृष्ण और बलराम को मथुरा बुलाने की योजना बनाई। उसने अपने मंत्री अक्रूर को भेजा और कृष्ण-बलराम को मथुरा आने का निमंत्रण दिया।

अक्रूर ने कृष्ण और बलराम को मथुरा बुलाने का अनुरोध किया। भगवान श्रीकृष्ण और बलराम ने इसे स्वीकार किया और मथुरा जाने के लिए तैयार हुए।

मथुरा में प्रवेश

जब कृष्ण और बलराम मथुरा पहुंचे, तो उन्होंने वहां कंस के अत्याचारों को देखा। उन्होंने मल्लयुद्ध (कुश्ती) का आयोजन किया था, जिसमें चाणूर और मुष्टिक जैसे बलवान पहलवानों को भेजा गया।

  1. कुश्ती का आयोजन: कंस ने योजना बनाई कि चाणूर और मुष्टिक, जो उसके मुख्य पहलवान थे, कृष्ण और बलराम को कुश्ती में मार डालेंगे। लेकिन कृष्ण ने चाणूर का वध किया और बलराम ने मुष्टिक का वध कर दिया।

  2. हाथी कुबलयापीड़ का वध: कुश्ती से पहले कंस ने कृष्ण को रोकने के लिए विशाल हाथी कुबलयापीड़ को भेजा, लेकिन कृष्ण ने उसे भी मार गिराया।

कंस का वध

कुश्ती के बाद कृष्ण ने कंस को खुला चुनौती दी। कंस ने अपने सैनिकों को बुलाया, लेकिन कृष्ण ने उन्हें हराकर सीधे कंस के सिंहासन पर चढ़ाई की।

  • कृष्ण ने कंस को उसके बाल पकड़कर नीचे गिरा दिया और अपने गदा से उसका वध कर दिया।
  • बलराम ने कंस के आठ भाइयों का वध किया, जो उसकी सहायता के लिए आए थे।

कंस वध के बाद

  1. माता-पिता की मुक्ति: कंस का वध करने के बाद श्रीकृष्ण और बलराम ने अपने माता-पिता देवकी और वसुदेव को कारागार से मुक्त किया।
  2. उग्रसेन को राजगद्दी पर बैठाना: कृष्ण ने अपने नाना उग्रसेन को मथुरा का राजा बनाया और मथुरा के शासन को पुनः धर्म के पथ पर स्थापित किया।
  3. जरा और अधर्म का अंत: कंस वध ने यह प्रमाणित किया कि अधर्म और अहंकार का अंत निश्चित है।

महत्व

कंस वध केवल एक राक्षस या अत्याचारी का अंत नहीं था, बल्कि यह धर्म की स्थापना और सत्य की विजय का प्रतीक है। यह घटना यह सिखाती है कि भगवान अपने भक्तों और धर्म की रक्षा के लिए अवतार लेते हैं और अधर्म को नष्ट करते हैं।

शनिवार, 3 अक्टूबर 2020

श्रीकृष्ण बाललीलाएँ

 श्रीकृष्ण की बाललीलाएँ उनके दिव्य व्यक्तित्व का परिचय कराती हैं और उनकी अलौकिक शक्तियों को प्रकट करती हैं। गोकुल और वृंदावन में उनके बचपन के समय की लीलाएँ अत्यंत मनोरम और शिक्षाप्रद हैं।

1. माखन चुराना और माखन चोर कहलाना

श्रीकृष्ण को बचपन से ही माखन बहुत प्रिय था। वे गोकुल की गोपियों के घर जाकर माखन चुराते थे। कई बार गोपियाँ उन्हें पकड़ने की कोशिश करतीं, लेकिन वे अपनी चतुराई और बाल सुलभ मासूमियत से बच निकलते।
महत्व: यह लीला सिखाती है कि भगवान अपने भक्तों के प्रेम के लिए हर तरह की लीला कर सकते हैं।


2. तृणावर्त का वध

कंस ने गोकुल में श्रीकृष्ण को मारने के लिए एक असुर तृणावर्त को भेजा, जो प्रचंड आंधी का रूप लेकर आया। तृणावर्त ने कृष्ण को उठाकर आकाश में ले जाने का प्रयास किया, लेकिन कृष्ण ने उसका गला इतनी शक्ति से पकड़ा कि वह वहीं मरकर गिर पड़ा।
महत्व: यह लीला दर्शाती है कि भगवान अपने भक्तों की हर विपत्ति से रक्षा करते हैं।


3. कालिया नाग का दमन

यमुना नदी में कालिया नामक विषैला नाग रहता था, जिससे नदी का पानी जहरीला हो गया था। जब गोकुलवासी इस समस्या से परेशान हुए, तो कृष्ण ने यमुना में जाकर कालिया नाग के फनों पर नृत्य किया और उसे नदी छोड़कर जाने को विवश कर दिया।
महत्व: यह लीला हमें सिखाती है कि अहंकारी और दुष्ट प्रवृत्तियों का नाश करने के लिए भगवान स्वयं अवतार लेते हैं।


4. गोपियों के वस्त्र हरण

श्रीकृष्ण ने एक बार गोपियों के वस्त्र चुराकर उन्हें पेड़ पर रख दिया। जब गोपियाँ उन्हें लेने आईं, तो कृष्ण ने कहा कि वे भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण का प्रतीक हैं और अपने अहंकार को त्यागकर ही उन्हें वस्त्र मिलेंगे।
महत्व: इस लीला का आध्यात्मिक अर्थ है कि आत्मा को परमात्मा के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होना चाहिए।


5. गोवर्धन पर्वत उठाना

गोकुलवासी हर वर्ष इंद्र देव की पूजा करते थे। कृष्ण ने उन्हें समझाया कि गोवर्धन पर्वत और प्रकृति की पूजा करनी चाहिए क्योंकि वे प्रत्यक्ष रूप से जीवन देते हैं। इंद्र ने क्रोधित होकर मूसलधार बारिश शुरू कर दी। कृष्ण ने अपनी छोटी उंगली पर गोवर्धन पर्वत उठाकर गोकुलवासियों को आश्रय दिया।
महत्व: यह लीला सिखाती है कि अहंकार का त्याग और प्रकृति का सम्मान आवश्यक है।


6. पूतना वध

कंस ने कृष्ण को मारने के लिए पूतना नामक राक्षसी को भेजा। वह सुंदर स्त्री का रूप धारण करके गोकुल आई और कृष्ण को विषपान कराने का प्रयास किया। लेकिन कृष्ण ने उसकी छाती से प्राण निकाल लिए।
महत्व: भगवान भक्त और अभक्त दोनों को उनके कर्मों का फल देते हैं।


7. उखल बंधन (दामोदर लीला)

यशोदा मैया ने एक दिन कृष्ण को माखन चुराने के कारण ऊखल (जोड़ने की लकड़ी) से बांध दिया। बंधन में रहते हुए भी कृष्ण ने दो विशाल वृक्षों को गिरा दिया। ये वृक्ष वास्तव में नलकूबर और मणिग्रीव नामक देवता थे, जिन्हें शाप मिला था।
महत्व: यह लीला दर्शाती है कि भगवान अपने भक्तों को उनके बंधनों से मुक्त कर देते हैं।


8. धेनुकासुर और बकासुर का वध

धेनुकासुर और बकासुर जैसे राक्षसों को कंस ने कृष्ण को मारने के लिए भेजा। लेकिन कृष्ण और बलराम ने अपनी अलौकिक शक्तियों से उनका वध कर गोकुलवासियों को सुरक्षित किया।
महत्व: भगवान धर्म की स्थापना के लिए अधर्म का नाश करते हैं।


9. राधा-कृष्ण का प्रेम

कृष्ण और राधा का प्रेम दिव्यता और भक्ति का प्रतीक है। उनका प्रेम सांसारिक नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा के मिलन का प्रतीक है। वृंदावन में रासलीला के माध्यम से उन्होंने भक्ति योग का संदेश दिया।
महत्व: राधा-कृष्ण का प्रेम भक्त और भगवान के शुद्ध, निश्छल और अनन्य प्रेम का आदर्श है।


श्रीकृष्ण की बाललीलाएँ न केवल उनकी अलौकिकता का परिचय कराती हैं, बल्कि यह सिखाती हैं कि जीवन में भक्ति, प्रेम, समर्पण और धर्म का पालन ही सबसे महत्वपूर्ण है।

शनिवार, 26 सितंबर 2020

श्रीकृष्ण जन्म कथा

श्रीकृष्ण भगवान की जन्म कथा बहुत ही रोचक, रहस्यमयी और चमत्कारिक है। यह कथा श्रीमद्भागवत पुराण, महाभारत और हरिवंश पुराण में विस्तार से वर्णित है।

कंस का आतंक और आकाशवाणी

मथुरा के राजा उग्रसेन का पुत्र कंस, अत्याचारी और क्रूर शासक था। उसने अपने पिता को बंदी बनाकर मथुरा का राजपद छीन लिया था। कंस की बहन देवकी का विवाह यदुवंशी वीर वसुदेव से हुआ। विवाह के समय कंस स्वयं देवकी को स्नेहपूर्वक विदा कर रहा था। तभी आकाशवाणी हुई:

"हे कंस! तेरी बहन देवकी का आठवां पुत्र तेरा वध करेगा।"

यह सुनकर कंस भयभीत और क्रोधित हो गया। उसने तुरंत देवकी को मारने का निर्णय लिया, लेकिन वसुदेव ने उसे यह आश्वासन देकर रोक दिया कि वे अपने सभी संतानों को कंस के हवाले कर देंगे।

देवकी और वसुदेव का कारावास

कंस ने देवकी और वसुदेव को कारावास में डाल दिया। देवकी की हर संतान को कंस जन्म लेते ही मार डालता था। उसने छह संतानों को निर्ममता से मार दिया। देवकी और वसुदेव अपने पुत्रों की मृत्यु से अत्यंत दुःखी थे, लेकिन उन्होंने भगवान विष्णु पर अपनी आस्था बनाए रखी।

सातवां और आठवां संतान

  1. सातवां संतान (बलराम): देवकी की सातवीं संतान को भगवान विष्णु की माया से योगमाया ने वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित कर दिया। यह बालक आगे चलकर बलराम कहलाया।

  2. आठवां संतान (कृष्ण): जब देवकी के गर्भ में आठवां बालक आया, तो भगवान विष्णु ने वसुदेव और देवकी को दर्शन दिए। उन्होंने कहा,
    "मैं तुम्हारे पुत्र रूप में अवतार लूंगा और संसार से अधर्म का नाश करूंगा।"

कृष्ण का चमत्कारिक जन्म

आषाढ़ मास की अष्टमी तिथि को, रोहिणी नक्षत्र में, आधी रात के समय भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण रूप में जन्म लिया। उनका जन्म मथुरा के कारागार में हुआ। जैसे ही श्रीकृष्ण का जन्म हुआ,

  1. जेल के दरवाजे स्वतः खुल गए।
  2. पहरेदार गहरी निद्रा में सो गए।
  3. वसुदेव की बेड़ियां टूट गईं।

वसुदेव ने कृष्ण को एक टोकरी में रखा और यमुना नदी पार करके गोकुल में नंद बाबा और यशोदा के घर पहुंचाया। उस रात नंद और यशोदा के घर एक कन्या का जन्म हुआ था।

योगमाया का चमत्कार

वसुदेव ने श्रीकृष्ण को यशोदा के पास छोड़कर उनकी कन्या को लेकर वापस कारावास लौट आए। जब कंस ने उस कन्या को मारने का प्रयास किया, तो वह कन्या आकाश में उड़ गई और देवी के रूप में प्रकट होकर बोली:
"हे कंस! तुझे मारने वाला तो गोकुल में जन्म ले चुका है।"

यह सुनकर कंस और अधिक भयभीत हो गया और श्रीकृष्ण को मारने के लिए कई प्रयास किए, लेकिन हर बार असफल रहा।

यहीं से कृष्ण की लीलाओं का आरंभ हुआ, जो आगे चलकर धर्म और सत्य की विजय का प्रतीक बनीं।

शनिवार, 19 सितंबर 2020

कृष्ण भगवान की सम्पूर्ण जीवन गाथा

 श्रीकृष्ण भगवान की सम्पूर्ण जीवन गाथा अत्यंत प्रेरणादायक, रहस्यमयी और दिव्य है। उनका जीवन भारतीय संस्कृति, धर्म और अध्यात्म का अद्वितीय उदाहरण है। श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार माना जाता है, और उनका जीवन न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से, बल्कि मानवता के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करता है।

जन्म कथा

कृष्ण का जन्म द्वापर युग में मथुरा नगरी में कंस के कारावास में हुआ। कंस ने अपनी बहन देवकी और उनके पति वसुदेव को बंदी बना लिया था क्योंकि उसे आकाशवाणी से पता चला था कि देवकी का आठवां पुत्र उसका वध करेगा। जब कृष्ण का जन्म हुआ, तो विष्णु की कृपा से वसुदेव जेल से बाहर निकल सके और उन्होंने कृष्ण को गोकुल में नंद बाबा और यशोदा के पास छोड़ दिया।

बाललीलाएँ

गोकुल में श्रीकृष्ण ने अपनी बाललीलाओं से सबका मन मोह लिया।

  1. माखन चोरी: कृष्ण का माखन चुराने का प्रेमपूर्ण स्वभाव उनकी बाल सुलभ लीलाओं का अद्भुत उदाहरण है।
  2. कालिया नाग का वध: यमुना नदी में विषैले कालिया नाग का दमन कर कृष्ण ने गोकुलवासियों को भय से मुक्त किया।
  3. गोवर्धन पूजा: इंद्र के क्रोध से बचाने के लिए कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी उंगली पर उठा लिया और गोकुलवासियों को आश्रय दिया।

कंस वध

जब कृष्ण किशोर अवस्था में पहुंचे, तो कंस ने उन्हें मारने के लिए कई राक्षस भेजे, लेकिन कृष्ण ने सभी का वध कर दिया। अंततः मथुरा जाकर उन्होंने कंस का वध किया और अपने माता-पिता को कारावास से मुक्त कराया।

द्वारका नगरी की स्थापना

कृष्ण ने मथुरा को कंस के आतंक से मुक्त किया, लेकिन जरासंध के बार-बार आक्रमण से बचाने के लिए उन्होंने द्वारका नगरी की स्थापना की और इसे समुद्र के बीच में बसाया।

महाभारत में भूमिका

श्रीकृष्ण का जीवन महाभारत से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। उन्होंने पांडवों का साथ दिया और धर्म की स्थापना के लिए मार्गदर्शन किया। महाभारत के युद्ध में कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया, जिसमें कर्म, धर्म, भक्ति और ज्ञान का सार प्रस्तुत किया गया।

रुक्मिणी और अन्य विवाह

कृष्ण का विवाह रुक्मिणी से हुआ, जो उनकी परम भक्त थीं। इसके अलावा, उन्होंने सत्यभामा, जाम्बवती और अन्य राजकुमारियों से भी विवाह किया।

भगवान कृष्ण की शिक्षाएँ

श्रीकृष्ण ने अपने जीवन के माध्यम से और गीता के उपदेशों में कई महत्वपूर्ण संदेश दिए:

  1. कर्म का महत्व: फल की चिंता किए बिना कर्म करते रहना चाहिए।
  2. भक्ति योग: भगवान में अटूट भक्ति ही मोक्ष का मार्ग है।
  3. सांख्य योग: आत्मा अजर-अमर है, मृत्यु केवल शरीर का परिवर्तन है।

मोक्ष और देह त्याग

अपनी लीलाओं के अंत में, श्रीकृष्ण ने अपनी देह का त्याग किया। कहा जाता है कि एक बहेलिये के तीर से उनके पैर में चोट लगी और उन्होंने पृथ्वी से अपनी लीला समाप्त की।

श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण जीवन धर्म, भक्ति, कर्म और प्रेम का अद्वितीय उदाहरण है। उनकी शिक्षाएँ और लीलाएँ आज भी मानवता को प्रेरित करती हैं।

शनिवार, 12 सितंबर 2020

25. साधु का अंतिम बलिदान

 

साधु का अंतिम बलिदान

बहुत समय पहले, एक छोटे से गाँव में एक साधु महात्मा रहते थे जिनका नाम तारणी बाबा था। वे एक अत्यंत धार्मिक और तपस्वी व्यक्ति थे। उनका जीवन पूरी तरह से तप, ध्यान और साधना में व्यतीत होता था। तारणी बाबा के बारे में कहा जाता था कि उनका हर शब्द सत्य था, और उनकी शरण में आने वाला कोई भी व्यक्ति कभी खाली हाथ नहीं लौटता था। उनकी शरण में आने वाले लोग न केवल आध्यात्मिक शांति पाते, बल्कि उनकी समस्याओं का भी समाधान होता था।

तारणी बाबा का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि लोग उन्हें अपना मार्गदर्शक मानते थे। उनका सादगीपूर्ण जीवन, त्याग और संयम लोगों को आकर्षित करते थे। वे हमेशा अपनी साधना में लीन रहते थे, और उनके आश्रम में किसी भी प्रकार का ऐश्वर्य या विलासिता नहीं थी। साधना के प्रति उनका समर्पण इतना गहरा था कि वे किसी भी प्रकार की भौतिक सुख-सुविधाओं से दूर रहते थे।


गाँव में कठिनाई और बाबा का बलिदान

एक दिन गाँव में एक भयंकर संकट आ गया। आस-पास के क्षेत्रों में बाढ़ आ गई थी और बहुत से गाँवों में पानी घुस गया था। तारणी बाबा के आश्रम से कुछ ही दूरी पर एक बड़ी नदी थी, और वहाँ बाढ़ का खतरा था। गाँव के लोग डर के मारे घबराए हुए थे, क्योंकि उन्हें डर था कि अगर बाढ़ का पानी और बढ़ा, तो उनका गाँव पूरी तरह से बह सकता है।

गाँव के लोग तारणी बाबा के पास गए और उनसे मदद की प्रार्थना की। वे जानते थे कि बाबा का आशीर्वाद और दिव्य शक्ति उनके जीवन को बचा सकती है। बाबा ने उन्हें शांतिपूर्वक सुना और कहा,
"मनुष्य का धर्म है अपने कर्तव्यों को निभाना। यह संकट समय की परीक्षा है। हमें इस समय में धैर्य बनाए रखना चाहिए और संयम से काम लेना चाहिए। मैं कुछ समय के लिए ध्यान में लीन रहूँगा, और जब मेरी आवश्यकता होगी, तो मैं अवश्य सहायता करूंगा।"

गाँववालों ने उनकी बात मानी और अपना काम जारी रखा। लेकिन बाढ़ की स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती चली गई, और अब गाँव के लोग पूरी तरह से डूबने की कगार पर थे। कुछ लोग नदी के किनारे से पानी निकालने की कोशिश कर रहे थे, कुछ तटबंधों को मजबूत करने में लगे थे, लेकिन सभी प्रयास विफल हो रहे थे।


साधु का अंतिम बलिदान

वह रात बाबा के लिए जीवन का सबसे कठिन क्षण था। जब गाँववालों की मदद करना असंभव हो गया और बाढ़ का पानी तेजी से बढ़ने लगा, तारणी बाबा ने फैसला किया कि वह अपनी साधना का अंतिम बलिदान देंगे। बाबा ने गाँववालों को बुलाया और कहा,
"आज से पहले मैंने हमेशा आशीर्वाद देने और मार्गदर्शन करने का कार्य किया है, लेकिन अब मैं अपनी साधना और तपस्या से इस संकट को समाप्त करने के लिए अपना बलिदान दूँगा।"

बाबा ने गाँव के पास एक पर्वत की चोटी पर जाकर बैठने का निर्णय लिया। वहाँ उन्होंने गहरी समाधि में बैठने की तैयारी की और अपनी आत्मा को प्रकृति के साथ जोड़ने का संकल्प लिया। समाधि के दौरान, उन्होंने अपनी आखिरी प्रार्थना की और अपनी पूरी शक्ति और आत्मा को गाँव की सुरक्षा में अर्पित कर दिया। वे मन ही मन भगवान से प्रार्थना करने लगे,
"हे परमात्मा! इस गाँव के लोग दीन-हीन हैं, और वे इस संकट से बचने के योग्य नहीं हैं। मैं अपना बलिदान अर्पित करता हूँ, ताकि इस गाँव को बचाया जा सके।"

तारणी बाबा की तपस्या और बलिदान ने उस रात एक चमत्कारी प्रभाव डाला। जैसे ही बाबा की समाधि गहरी हुई, गाँव के पास की नदी का बहाव रुक गया। बाढ़ का पानी धीरे-धीरे कम होने लगा, और नदी के तटबंधों में कोई भी बड़ी दरार नहीं पड़ी। गाँववाले यह देखकर हैरान रह गए और उन्होंने बाबा की महानता को पहचाना।

अगले दिन जब गाँववाले बाबा के पास पहुँचे, तो वे उन्हें समाधि में बैठे हुए पाए। उनका शरीर निष्कलंक था, और उनका चेहरा शांति से भरा हुआ था। वे जान गए कि तारणी बाबा ने अपना अंतिम बलिदान दे दिया था और अब वे इस दुनिया से चले गए थे।


बेताल का प्रश्न

बेताल ने राजा विक्रम से पूछा:
"क्या तारणी बाबा का बलिदान सही था? क्या किसी ने खुद को इस प्रकार बलिदान करना चाहिए, जब उनके द्वारा दी गई मदद से दूसरों को जीवनदान मिल सके?"


राजा विक्रम का उत्तर

राजा विक्रम ने उत्तर दिया:
"तारणी बाबा का बलिदान एक सर्वोच्च आत्मा की निशानी थी। उन्होंने अपनी आत्मा को भगवान और मानवता के लिए अर्पित किया। उनका बलिदान हमें यह सिखाता है कि जब किसी की मदद से लाखों लोगों की जान बचाई जा सकती है, तो उस व्यक्ति का जीवन सर्वोत्तम होता है। बाबा ने अपने आप को त्याग कर दूसरों की भलाई के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया। उन्होंने यह साबित किया कि सच्चा बलिदान तब होता है जब कोई अपने स्वार्थ को त्याग कर समाज की भलाई के लिए अपना सब कुछ अर्पित कर देता है।"


कहानी की शिक्षा

  1. सच्चा बलिदान तब होता है जब हम अपनी इच्छाओं और स्वार्थ को पूरी तरह से त्यागकर दूसरों की भलाई के लिए कार्य करते हैं।
  2. जिंदगी में कभी-कभी हमें ऐसे फैसले लेने पड़ते हैं जो हमें अपनी आत्मा और समर्पण से करना पड़ते हैं, ताकि दूसरों की सहायता हो सके।
  3. धर्म, तपस्या और बलिदान के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति हमेशा आदर्श बनता है और उसकी जीवनशक्ति समाज के लिए एक प्रेरणा बनती है।

यह कहानी हमें यह सिखाती है कि सच्चा बलिदान न केवल अपने स्वार्थ को त्यागने का नाम है, बल्कि दूसरों की मदद करने के लिए अपनी सारी शक्तियों और समर्पण को अर्पित करना है। तारणी बाबा का बलिदान हमेशा के लिए हमारे दिलों में एक अमिट छाप छोड़ता है। 

शनिवार, 5 सितंबर 2020

24. राजा का धर्म संकट

 

राजा का धर्म संकट

बहुत समय पहले की बात है, एक छोटे से राज्य का एक न्यायप्रिय राजा था, जिसका नाम राजा सुमित्र था। राजा सुमित्र का दिल बहुत ही साफ और धर्मपरायण था। वह हमेशा अपने राज्य और प्रजा की भलाई के लिए फैसले करता था, और उसकी नीतियाँ हमेशा सच्चाई और न्याय पर आधारित होती थीं। उसकी प्रजा उसे एक आदर्श शासक मानती थी। राजा सुमित्र का एक ही उद्देश्य था—अपने राज्य को सुखी और समृद्ध बनाना, और इसके लिए वह किसी भी बलिदान को तैयार था।


धर्म संकट

एक दिन राजा सुमित्र के राज्य में एक बहुत गंभीर संकट उत्पन्न हो गया। राज्य के पास बहुत ही सीमित संसाधन थे, और अचानक राज्य के पास एक बड़ी आपदा आ गई। राज्य में भयंकर सूखा पड़ा, जिससे जलस्रोतों का पानी सूख गया और फसलें खराब हो गईं। राज्य की प्रजा भूख और प्यास से परेशान हो गई, और कई लोग बुरी हालत में पहुँच गए।

राजा सुमित्र ने एक दिन अपने दरबार में सभी प्रमुखों और मंत्रियों को बुलाया और राज्य की कठिन परिस्थिति के बारे में चर्चा की। वे सभी एक ही निर्णय पर पहुंचे कि राज्य के प्रमुख जलस्रोत को अन्य राज्यों से जोड़ने के लिए एक बड़ी योजना बनाई जाए, जिससे पानी की समस्या हल हो सके। लेकिन इस योजना को लागू करने के लिए बड़ी राशि की आवश्यकता थी, और राज्य के खजाने में उतना पैसा नहीं था।

राजा सुमित्र ने अपने खजाने की पूरी स्थिति देखी और पाया कि खजाने में बहुत कम पैसा बचा था। इसके अलावा, राज्य में पहले ही बहुत सारे खर्चे थे, और अगर उन्होंने इस योजना को लागू किया, तो यह खजाने को पूरी तरह से खाली कर सकता था।

राजा के सामने एक बड़ा धर्म संकट खड़ा हो गया। एक ओर तो राज्य की जनता थी, जो पानी और खाद्य पदार्थों के लिए तरस रही थी, और दूसरी ओर राजा को यह चिंता थी कि यदि उसने खजाने का सारा पैसा खर्च कर दिया, तो राज्य की वित्तीय स्थिति और भी बिगड़ सकती है।


राजा का निर्णय

राजा सुमित्र एक रात देर तक सोचता रहा। वह जानता था कि उसे एक सच्चे शासक की तरह अपने कर्तव्यों का पालन करना है। उसने अपने मंत्रियों से कहा:
"अगर हमारे पास धन नहीं है, तो हम इसे उधार लेने के लिए दूसरों से मांग सकते हैं, लेकिन हमें किसी भी हालत में अपनी प्रजा को दुखी नहीं होने देना चाहिए। मेरा धर्म यह है कि मैं अपनी प्रजा की भलाई के लिए हर संभव प्रयास करूँ।"

राजा ने इस संकट से उबरने के लिए राज्य के विभिन्न क्षेत्रों से दान माँगने का निर्णय लिया। उसने राज्य के सभी बड़े व्यापारियों, धनवानों और अच्छे नागरिकों से अपील की कि वे कुछ धन दान करें, ताकि जलस्रोत को जोड़ने की योजना पूरी की जा सके। राजा ने यह भी वादा किया कि जो भी दान करेगा, उसे राज्य की तरफ से सम्मानित किया जाएगा।

राजा सुमित्र की इस अपील का प्रभाव बहुत जल्दी पड़ा। राज्य के लोग और व्यापारी एकजुट हो गए और पर्याप्त धन इकट्ठा कर लिया, जिससे जलस्रोत को जोड़ने की योजना को पूरा किया जा सका। जलस्रोतों की स्थिति बेहतर हो गई, और राज्य में पानी की आपूर्ति शुरू हो गई। समय के साथ, राज्य की स्थिति में सुधार हुआ और लोग फिर से खुशहाल जीवन जीने लगे।


बेताल का प्रश्न

बेताल ने राजा विक्रम से पूछा:
"क्या राजा सुमित्र का निर्णय सही था? क्या उसे धर्म के नाम पर अपनी संपत्ति और राज्य की वित्तीय स्थिति को जोखिम में डालना चाहिए था?"


राजा विक्रम का उत्तर

राजा विक्रम ने उत्तर दिया:
"राजा सुमित्र का निर्णय बहुत ही साहसिक और धर्मपूर्ण था। एक शासक का पहला कर्तव्य अपनी प्रजा की भलाई करना है, और यही धर्म है। अगर शासक अपनी प्रजा के दुखों को देखकर कोई कदम नहीं उठाता, तो वह अपने कर्तव्य से विमुख हो जाता है। राजा सुमित्र ने अपने राज्य की भलाई के लिए न केवल अपनी संपत्ति को बल्कि अपने राजकाज को भी जोखिम में डाला, और यही एक सच्चे धर्मनिष्ठ शासक की पहचान होती है।"


कहानी की शिक्षा

  1. धर्म का पालन हमेशा प्रजा की भलाई और उनके हितों के लिए करना चाहिए।
  2. सच्चे शासक को कभी भी अपने कर्तव्यों से पीछे नहीं हटना चाहिए, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों।
  3. धन और संपत्ति से बढ़कर किसी शासक का कर्तव्य अपनी प्रजा के प्रति जिम्मेदारी निभाना होता है।

यह कहानी हमें यह सिखाती है कि धर्म का पालन न केवल शब्दों से, बल्कि अपने कर्तव्यों को सही तरीके से निभाने से होता है। सच्चे धर्म का पालन करने वाला शासक कभी भी अपने लोगों को दुखी नहीं होने देता, और उसकी नीतियाँ सच्चाई, न्याय और समृद्धि की ओर ले जाती हैं। 

शनिवार, 29 अगस्त 2020

23. प्रेम और विश्वास की कहानी

 

प्रेम और विश्वास की कहानी

प्राचीन समय की बात है, एक छोटे से गाँव में दो अच्छे मित्र रहते थे, जिनका नाम रामु और श्यामु था। वे बचपन से एक-दूसरे के अच्छे दोस्त थे और दोनों का जीवन बहुत ही सरल और खुशहाल था। दोनों का एक-दूसरे पर गहरा विश्वास था, और वे एक-दूसरे की मदद करते थे, चाहे जो भी परिस्थिति हो।

रामु और श्यामु एक साथ हर कठिनाई का सामना करते और सुख-दुःख में साथ रहते थे। दोनों के बीच एक गहरा प्रेम और विश्वास था, जो उनकी दोस्ती को और भी मजबूत करता था। उनका विश्वास एक-दूसरे में इतना अडिग था कि उन्हें कभी किसी से डर या संकोच नहीं होता था।


प्रेम और विश्वास का परीक्षण

एक दिन गाँव में एक बड़ी समस्या उत्पन्न हुई। गाँव के मुख्य जलस्रोत में पानी की कमी हो गई, और लोग संकट में थे। कई गाँववाले प्यासे थे, और हालात तेजी से बिगड़ रहे थे। गाँव के प्रमुख ने घोषणा की कि जो भी व्यक्ति इस समस्या का समाधान निकालेगा, उसे एक बड़ा इनाम मिलेगा।

रामु और श्यामु ने यह समस्या सुलझाने का फैसला किया और दोनों ने मिलकर जलस्रोत के पास जाने का निर्णय लिया। दोनों ने तय किया कि वे जलस्रोत तक पहुँचने के लिए एक कठिन पहाड़ी रास्ता तय करेंगे, जहाँ किसी ने पहले कभी नहीं जाने की हिम्मत की थी।

रास्ते में, दोनों को बहुत कठिनाइयाँ और परेशानियाँ आईं। रास्ता अत्यधिक खतरनाक था, और कई बार तो ऐसा लगा जैसे उनका पूरा प्रयास विफल हो जाएगा। लेकिन रामु और श्यामु का विश्वास एक-दूसरे में अडिग था। वे एक-दूसरे को संबल देते और विश्वास के साथ आगे बढ़ते रहे।


कठिन परिस्थिति और बलिदान

एक दिन वे पहाड़ी रास्ते पर काफी ऊपर पहुँच गए, लेकिन अचानक मौसम खराब हो गया। तेज हवाएँ चलने लगीं, और बारिश भी शुरू हो गई। श्यामु का पैर फिसल गया और वह एक खाई में गिरते-गिरते बचा। श्यामु की जान खतरे में थी, और वह काफी डर गया था। रामु ने बिना सोचे-समझे श्यामु का हाथ पकड़ लिया और उसे खाई से बाहर खींच लिया।

रामु का हाथ थमने से पहले श्यामु ने देखा कि रामु खुद बहुत कमजोर था, और अब वह भी गिरने के कगार पर था। लेकिन रामु ने अपने मित्र को नहीं छोड़ा। उसने श्यामु से कहा:
"मैं जानता हूँ कि तुम मुझसे कुछ नहीं कहोगे, लेकिन हमें यह रास्ता पार करना ही होगा। हम एक-दूसरे के साथ हैं, और हमारी दोस्ती और विश्वास हमें इस कठिनाई से बाहर निकालेंगे।"

रामु ने श्यामु को सहारा देते हुए अपना हर बलिदान किया और दोनों फिर से रास्ते पर चल पड़े। श्यामु ने भी रामु से कहा:
"तुम्हारा प्रेम और विश्वास मेरे लिए सबसे बड़ा उपहार है। मैं भी तुम्हारे साथ खड़ा रहूँगा, चाहे कुछ भी हो।"


जलस्रोत तक पहुँचने का प्रयास और सफलता

कई कठिनाइयों के बावजूद, रामु और श्यामु अंततः जलस्रोत तक पहुँचने में सफल हो गए। वहाँ उन्होंने पाया कि जलस्रोत के पास एक बड़ी चट्टान गिरने से रास्ता अवरुद्ध हो गया था। लेकिन दोनों ने मिलकर उस चट्टान को हटाने का प्रयास किया, और आखिरकार उन्होंने उसे हटा दिया। जलस्रोत फिर से खुला और गाँववालों को पानी मिल गया।

गाँव में खुशियाँ फैल गईं, और गाँव के प्रमुख ने रामु और श्यामु को उनके साहस, प्रेम और विश्वास के लिए पुरस्कृत किया। लेकिन रामु और श्यामु ने कहा,
"हमने यह सब एक-दूसरे के विश्वास और प्रेम के कारण किया है। किसी भी मुश्किल को पार करने के लिए सबसे जरूरी चीज़ है – विश्वास और प्रेम।"


बेताल का प्रश्न

बेताल ने राजा विक्रम से पूछा:
"क्या रामु और श्यामु का प्रेम और विश्वास उन्हें सफलता की ओर ले गया? क्या यह सही था कि उन्होंने एक-दूसरे का साथ दिया, चाहे जो भी हो?"


राजा विक्रम का उत्तर

राजा विक्रम ने उत्तर दिया:
"रामु और श्यामु का प्रेम और विश्वास सबसे बड़ी शक्ति थी जो उन्हें मुश्किलों से बाहर निकाल सकी। जब दो लोग एक-दूसरे में सच्चा विश्वास और प्रेम रखते हैं, तो वे किसी भी मुश्किल को पार कर सकते हैं। यह कहानी हमें यह सिखाती है कि जीवन की कठिनाइयों में एक-दूसरे का साथ और विश्वास ही हमें असंभव को संभव बनाने की शक्ति देता है।"


कहानी की शिक्षा

  1. सच्चा प्रेम और विश्वास दो व्यक्तियों को हर कठिनाई से उबार सकते हैं।
  2. सच्चे मित्रता और साझेदारी में विश्वास और समर्थन की सबसे बड़ी भूमिका होती है।
  3. सच्चे प्रेम का मतलब केवल साथ रहना नहीं, बल्कि एक-दूसरे की मदद और बलिदान देना भी होता है।

यह कहानी हमें यह सिखाती है कि प्रेम और विश्वास दो सबसे महत्वपूर्ण गुण हैं जो किसी भी रिश्ते को मजबूती देते हैं। यदि हम एक-दूसरे पर विश्वास रखते हुए प्रेम की भावना से जीवन में आगे बढ़ते हैं, तो कोई भी संकट हमारे रास्ते को नहीं रोक सकता। 

शनिवार, 22 अगस्त 2020

22. माता का प्रेम

 

माता का प्रेम

बहुत समय पहले की बात है, एक छोटे से गाँव में एक गरीब किसान अपने परिवार के साथ रहता था। उसका नाम रघु था, और उसकी पत्नी, सुमित्रा, और उनका एक छोटा बच्चा, मोहन, थे। रघु और सुमित्रा दोनों ही दिन-रात मेहनत करते थे, लेकिन फिर भी उनकी आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर थी। उनका घर साधारण था, लेकिन उनका जीवन सच्चे प्रेम और समर्पण से भरा हुआ था।

सुमित्रा का प्यार अपने बेटे मोहन के लिए अपार था। वह उसे हमेशा प्यार से पालती और उसे हर छोटे-बड़े काम में सहायता देती। सुमित्रा को अपने बेटे का भविष्य हमेशा उज्जवल देखना था, और वह किसी भी कीमत पर उसे खुश रखने की कोशिश करती। उसका दिल अपने बेटे की भलाई के लिए हमेशा चिंतित रहता था।


सुमित्रा का बलिदान

एक दिन गाँव में एक बड़ा आयोजन हुआ। गाँव के प्रमुख ने यह घोषणा की कि जो भी व्यक्ति सबसे अच्छा और मेहनती काम करेगा, उसे बहुत बड़ा इनाम मिलेगा। रघु ने यह अवसर देखा और सोचा कि अगर वह इस प्रतियोगिता में जीत जाता है, तो उसे बड़ा इनाम मिलेगा, जिससे उनका जीवन बेहतर हो सकता है। उसने अपनी पत्नी से इस बारे में बात की, और सुमित्रा ने बिना किसी हिचकिचाहट के उसकी मदद करने का वादा किया।

रघु और सुमित्रा ने अपनी पूरी मेहनत और लगन से प्रतियोगिता के लिए तैयारियाँ की। प्रतियोगिता का दिन आया, और रघु ने अपनी पूरी ताकत लगाकर काम किया। वह थका हुआ था, लेकिन उसका लक्ष्य था अपने परिवार को खुशहाल बनाना।

वहीं दूसरी ओर, सुमित्रा ने देखा कि उनका बेटा मोहन बीमार हो गया था। वह बहुत देर तक बुखार में तप रहा था और उसकी हालत गंभीर होती जा रही थी। सुमित्रा के पास उसे इलाज करवाने के लिए पैसे नहीं थे, और रघु प्रतियोगिता में व्यस्त था।

सुमित्रा का दिल बहुत दुखी था, लेकिन उसने अपनी भावनाओं को अपने अंदर दबा लिया। वह जानती थी कि अगर उसने रघु को इसकी जानकारी दी, तो वह प्रतियोगिता छोड़कर मोहन की देखभाल करेगा, और उनकी मुश्किलें और बढ़ जाएंगी। इसलिए, सुमित्रा ने अपने बेटे की देखभाल की और उसे समय पर दवाइयाँ दी, लेकिन रघु को किसी भी प्रकार की परेशानी का आभास नहीं होने दिया।


माँ का असीमित प्रेम और बलिदान

सुमित्रा की माँ की तरह पूरी निस्वार्थ भावना से देखभाल करने की क्षमता थी। वह दिन-रात मोहन की देखभाल करती रही, जबकि रघु प्रतियोगिता में व्यस्त था। सुमित्रा की माँ का दिल अपने बेटे के भविष्य के लिए फटा जा रहा था, लेकिन वह अपने बेटे के लिए कुछ भी करने को तैयार थी।

दूसरे दिन जब रघु घर लौटा, तो उसने देखा कि मोहन की तबियत बेहतर हो रही थी। सुमित्रा ने उसे कुछ नहीं बताया कि वह रात भर मोहन के साथ बैठी थी और अपने बेटे को बचाने के लिए संघर्ष कर रही थी।

रघु ने प्रतियोगिता जीत ली थी और उसे बहुत बड़ा पुरस्कार मिला। लेकिन उसकी खुशी तब आधी रह गई, जब उसने देखा कि उसकी पत्नी सुमित्रा बहुत थकी हुई और परेशान सी दिखाई दे रही थी। उसने पूछा,
"तुम इतनी थकी हुई क्यों हो?"

सुमित्रा ने मुस्कुराते हुए कहा,
"कुछ नहीं, रघु। मैं सिर्फ तुम्हारे और मोहन के लिए हमेशा खुश रहना चाहती थी। मुझे इस समय बहुत संतोष है, क्योंकि मोहन अब ठीक है।"

रघु को एहसास हुआ कि उसकी पत्नी ने अपना पूरा बलिदान दिया था, ताकि उनका बेटा ठीक रहे और वह खुश रहे। उसने सुमित्रा को गले लगाते हुए कहा,
"तुम्हारा प्रेम और बलिदान मेरे लिए अनमोल हैं। मैं तुम्हारा धन्यवाद नहीं कर सकता। तुमने हमारे परिवार के लिए जो किया है, वह किसी भी पुरस्कार से बढ़कर है।"


बेताल का प्रश्न

बेताल ने राजा विक्रम से पूछा:
"क्या सुमित्रा का बलिदान सही था? क्या एक माँ का प्रेम कभी भी किसी पुरस्कार या पुरस्कार से अधिक नहीं होता?"


राजा विक्रम का उत्तर

राजा विक्रम ने उत्तर दिया:
"सुमित्रा का प्रेम वह सर्वोत्तम प्रेम था, जो एक माँ अपने बच्चों के लिए कर सकती है। उसका बलिदान, उसकी निस्वार्थ भावना और उसकी ममता ने यह साबित कर दिया कि माँ का प्रेम हर चीज से बढ़कर होता है। सुमित्रा ने अपने बेटे के लिए अपना सब कुछ अर्पित किया, और यही एक माँ का सबसे बड़ा बलिदान है।"


कहानी की शिक्षा

  1. माँ का प्रेम और बलिदान अतुलनीय होते हैं।
  2. सच्चे प्रेम में कोई स्वार्थ नहीं होता, बल्कि वह अपने प्रियजन की भलाई के लिए खुद को त्यागने के लिए तैयार रहता है।
  3. माँ की ममता और उसके बलिदान से बड़ा कोई पुरस्कार नहीं हो सकता।

यह कहानी हमें यह सिखाती है कि माता का प्रेम निस्वार्थ और असीमित होता है, और कभी-कभी हम जो बलिदान करते हैं, वह सबसे बड़ा उपहार होता है जो हम किसी के लिए दे सकते हैं। 

शनिवार, 15 अगस्त 2020

21. योद्धा का बलिदान

 

योद्धा का बलिदान

प्राचीन काल में एक वीर योद्धा था, जिसका नाम अर्जुन था। वह अपनी बहादुरी और साहस के लिए पूरे राज्य में प्रसिद्ध था। अर्जुन का दिल साफ था, और वह हमेशा धर्म और न्याय की राह पर चलता था। उसकी युद्ध कला में महारत थी, और वह अपने राजा के लिए न केवल युद्धों में जीत हासिल करता था, बल्कि अपने राज्य की सुरक्षा के लिए हर बलिदान देने के लिए तैयार रहता था।

राज्य की सीमा पर एक दिन दुश्मनों की बड़ी सेना ने हमला कर दिया। दुश्मन बहुत शक्तिशाली था और उसकी सेना बड़ी थी। राजा ने अर्जुन से मदद की अपील की। अर्जुन ने तुरंत राजा से कहा:
"महाराज, मैं अपना जीवन और अपना सब कुछ आपके राज्य के लिए बलिदान कर दूंगा।"

राजा ने अर्जुन से कहा:
"तुम हमारे राज्य के सबसे महान योद्धा हो। तुम्हारी वीरता और साहस पर हमें गर्व है, लेकिन हम नहीं चाहते कि तुम्हें कोई कष्ट हो। हम चाहते हैं कि तुम सुरक्षित रहो और राज्य की रक्षा करो।"

लेकिन अर्जुन ने ठान लिया था कि वह अपने राज्य की रक्षा के लिए जान की परवाह किए बिना युद्ध लड़ेगा। उसने राजा से एक अंतिम आशीर्वाद लिया और अपनी सेना के साथ युद्ध के मैदान में कूद पड़ा।


युद्ध और बलिदान

युद्ध में अर्जुन ने अपनी पूरी शक्ति से दुश्मन के खिलाफ लड़ा। उसकी वीरता के कारण, दुश्मन की सेना पीछे हटने लगी, लेकिन तभी दुश्मन के मुख्य सेनापति ने एक धोखा दिया। उसने एक गहरी खाई में छुपकर हमला किया और अर्जुन पर बाणों की बौछार कर दी। अर्जुन घायल हुआ, लेकिन फिर भी उसने अपनी सेना को मार्गदर्शन दिया और दुश्मन को पीछे हटने पर मजबूर किया।

युद्ध समाप्त होने के बाद, अर्जुन बहुत गंभीर रूप से घायल था। उसके शरीर में कई घाव थे, लेकिन उसकी आँखों में अपने राज्य की सुरक्षा और कर्तव्य के प्रति दृढ़ संकल्प था। राजा ने अर्जुन को महल में बुलवाया और कहा:
"तुमने राज्य की रक्षा के लिए महान बलिदान दिया है, अर्जुन। हम हमेशा तुम्हारे इस साहस और बलिदान को याद रखेंगे।"

अर्जुन ने उत्तर दिया:
"महाराज, मैंने जो किया वह किसी सम्मान के लिए नहीं था। राज्य और प्रजा की सुरक्षा मेरा कर्तव्य था। मैंने केवल वही किया जो मुझे सही लगा।"

राजा ने अर्जुन को सम्मानित किया, लेकिन अर्जुन ने तुरंत कहा:
"महाराज, यदि राज्य को बचाने के लिए बलिदान देना पड़ा, तो मुझे कोई पछतावा नहीं है। राज्य की सुरक्षा और प्रजा की भलाई से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता।"

अर्जुन के इस बलिदान ने राज्य को स्थिरता और शांति दी, और उसकी वीरता हमेशा के लिए लोगों के दिलों में जिंदा रही।


बेताल का प्रश्न

बेताल ने राजा विक्रम से पूछा:
"क्या अर्जुन का बलिदान सही था? क्या एक व्यक्ति को अपनी जान की कीमत पर भी अपने कर्तव्य को निभाना चाहिए?"


राजा विक्रम का उत्तर

राजा विक्रम ने उत्तर दिया:
"अर्जुन का बलिदान सत्य और न्याय के रास्ते पर था। एक योद्धा का कर्तव्य अपने राज्य और प्रजा की रक्षा करना है, चाहे उसे इसके लिए अपनी जान ही क्यों न गवानी पड़े। अर्जुन ने यह साबित किया कि कोई भी महान कार्य बिना बलिदान के संभव नहीं होता। युद्ध और बलिदान केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक भी होते हैं। अर्जुन ने दिखाया कि कर्तव्य की ओर सच्चे निष्ठा और साहस के साथ बढ़ना, यही सच्चा बलिदान है।"


कहानी की शिक्षा

  1. कभी-कभी कर्तव्य की पूर्ति के लिए हमें अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को त्यागना पड़ता है।
  2. सच्चा बलिदान वह है, जो बिना किसी अपेक्षा के समाज और राज्य के भले के लिए दिया जाए।
  3. धर्म, साहस और कर्तव्य की राह पर चलने वाले व्यक्ति का बलिदान हमेशा याद रखा जाता है।

यह कहानी हमें यह सिखाती है कि हर कठिन परिस्थिति में अपने कर्तव्यों को निभाना और सच्चे दिल से बलिदान देना, यही सबसे बड़ा पुरस्कार है। 

शनिवार, 8 अगस्त 2020

20. सत्य और बलिदान की कहानी

 

सत्य और बलिदान की कहानी

प्राचीन समय की बात है, एक छोटे से राज्य में राजा धर्मनाथ राज करते थे। वह अपने राज्य में सत्य, न्याय और धर्म के पालन के लिए प्रसिद्ध थे। उनके राज्य में कोई भी व्यक्ति अपने कर्तव्यों से नहीं भागता था, और सभी लोग एक-दूसरे के साथ सहानुभूति और सद्भावना के साथ रहते थे।

राजा धर्मनाथ के एक वफादार मंत्री थे, जिनका नाम विशाल था। विशाल अपने राजा के प्रति निष्ठावान थे और उन्होंने हमेशा सत्य के मार्ग पर चलने का प्रयास किया। राजा धर्मनाथ और मंत्री विशाल के बीच बहुत गहरी मित्रता थी। वे हमेशा एक-दूसरे के फैसलों को सम्मान देते थे और राज्य के मामलों में साथ काम करते थे।


कठिन परिस्थिति

एक दिन राज्य में एक बड़ी समस्या उत्पन्न हो गई। राज्य के पास एक बहुत ही कीमती रत्न था, जो राजमहल की विशेष धरोहर था। यह रत्न राज्य के भविष्य और समृद्धि का प्रतीक था। लेकिन एक दिन वह रत्न गायब हो गया, और यह खबर राज्य में आग की तरह फैल गई।

राजा धर्मनाथ ने तुरंत दरबार बुलाया और आदेश दिया कि रत्न को किसी भी हालत में ढूंढकर लाया जाए। राज्य भर में खोजबीन शुरू हो गई, लेकिन रत्न का कोई सुराग नहीं मिला।

कुछ दिनों बाद, मंत्री विशाल ने राजा को बताया कि उसे यह संदेह हो रहा है कि रत्न किसी खास व्यक्ति ने चुराया है, और वह व्यक्ति कोई और नहीं, बल्कि राजा का ही एक प्रिय दरबारी था। विशाल ने राजा से आग्रह किया कि वह इस मामले की पूरी जांच करें और सच्चाई का पता लगाएं।

राजा धर्मनाथ ने मंत्री विशाल की बातों पर विश्वास किया, लेकिन राजा के लिए यह एक कठिन स्थिति थी। यह दरबारी उसका बहुत करीबी मित्र था, और उसे इस पर विश्वास करना कठिन हो रहा था।


सत्य का सामना और बलिदान

राजा धर्मनाथ ने विवेक से काम लिया और दरबारी से सच्चाई जानने के लिए उसे दरबार में बुलाया। दरबारी ने राजा के सामने यह स्वीकार किया कि उसने रत्न चुराया था। दरबारी ने कहा:
"महाराज, मुझे अपनी क़ीमत पर वह रत्न चाहिए था, क्योंकि मेरे पास अपने परिवार के लिए कुछ नहीं था।"

राजा धर्मनाथ ने दरबारी से पूछा:
"तुमने राज्य की सबसे मूल्यवान वस्तु चुराई, और यह सब सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए किया। तुमने अपने निष्ठा और सत्य को तोड़ा है, क्या तुम जानते हो कि यह राज्य और उसकी जनता के लिए कितना बड़ा अपराध है?"

राजा के शब्दों ने दरबारी को झकझोर दिया। वह समझ चुका था कि उसने कितनी बड़ी गलती की है। उसने राजा से कहा:
"मुझे बहुत खेद है महाराज, मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है। अगर आपको सजा देनी हो, तो मैं तैयार हूं।"

राजा धर्मनाथ ने दरबारी को दंड देने का फैसला किया, लेकिन उसकी गलती के बावजूद राजा का दिल उससे अलग नहीं हुआ था। उसने दरबारी को सजा देने से पहले एक अंतिम मौका दिया। राजा ने कहा:
"तुमने सच बोला, और तुम्हारी सच्चाई के सामने आ जाने के बाद, मैं तुम्हारी सजा में कुछ राहत देता हूं। तुम राज्य से बाहर जाकर तपस्या करो और अपने पापों का प्रायश्चित करो। अगर तुम सच्चे मन से पछताओ, तो शायद तुम्हारी आत्मा को शांति मिले।"

दरबारी ने राजा का आदेश माना और राज्य छोड़ दिया, ताकि वह अपनी गलती का प्रायश्चित कर सके।


राजा का बलिदान

राजा धर्मनाथ ने इस घटना से एक गहरी शिक्षा ली। राजा ने यह समझा कि सत्य को सामने लाने के लिए कभी-कभी बहुत बड़ा बलिदान करना पड़ता है। उसे अपने प्रिय दरबारी को सजा देने का फैसला करना पड़ा, हालांकि यह उसके लिए बहुत कठिन था। लेकिन उसने राज्य के भले के लिए सच्चाई का पालन किया। राजा ने स्वयं भी एक बलिदान किया—अपने सबसे करीबी मित्र के लिए सख्त निर्णय लेकर उसने अपनी ईमानदारी और कर्तव्य को प्राथमिकता दी।


बेताल का प्रश्न

बेताल ने राजा विक्रम से पूछा:
"क्या राजा धर्मनाथ का निर्णय सही था? क्या कभी अपने प्रिय मित्र को दंड देना कठिन नहीं होता?"


राजा विक्रम का उत्तर

राजा विक्रम ने उत्तर दिया:
"राजा धर्मनाथ ने एक शासक की सबसे बड़ी जिम्मेदारी निभाई। उसे राज्य के भले के लिए अपने व्यक्तिगत भावनाओं को अलग रखना पड़ा। उसने दिखाया कि सच्चाई और न्याय की रक्षा के लिए किसी को भी बलिदान देना पड़ सकता है। कभी-कभी, अपने प्रिय व्यक्ति को सजा देना शासक का सबसे कठिन काम होता है, लेकिन यह राज्य और समाज के भले के लिए आवश्यक होता है।"


कहानी की शिक्षा

  1. सच्चाई और न्याय का पालन करना कभी भी आसान नहीं होता, और कभी-कभी इसके लिए बलिदान करना पड़ता है।
  2. राजा का कर्तव्य अपने व्यक्तिगत संबंधों से ऊपर उठकर राज्य और समाज के भले के लिए निर्णय लेना होता है।
  3. सच्चाई सामने लाना, भले ही वह कठिन हो, अंततः समाज में शांति और न्याय की स्थापना करता है।

शनिवार, 1 अगस्त 2020

19. पुत्र और न्याय का निर्णय

 

पुत्र और न्याय का निर्णय

बहुत समय पहले की बात है, एक छोटे से राज्य में एक न्यायप्रिय राजा राज करता था, जिसका नाम था राजा वीरेंद्र। राजा वीरेंद्र के शासनकाल में राज्य में हर व्यक्ति को समान अधिकार मिलता था और वह हमेशा सत्य और न्याय का पालन करता था। राजा की पत्नी ने एक सुंदर और समझदार पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम था अर्जुन।

अर्जुन बचपन से ही अपने पिता के न्यायप्रिय शासन को देखता और सीखता था। वह अपने पिता से हमेशा यह जानने की कोशिश करता था कि एक राजा कैसे न्याय का पालन करता है और किस तरह से फैसले करता है।


पुत्र का पहला न्यायिक निर्णय

एक दिन अर्जुन को राज्य के एक छोटे से गाँव में न्याय का निर्णय लेने का मौका मिला। गाँव में एक बड़ा विवाद उत्पन्न हो गया था। एक कुम्हार ने आरोप लगाया कि उसके पड़ोसी ने उसकी बर्तन चोरी कर ली है, जबकि पड़ोसी का कहना था कि उसने कोई चोरी नहीं की। दोनों ने अपनी बातों के पक्ष में कई गवाह पेश किए, लेकिन मामला और जटिल होता जा रहा था।

राजा वीरेंद्र को जब यह बात पता चली, तो उसने अर्जुन से कहा:
"यह तुम्हारा पहला अवसर है, बेटा। अब तुम्हें अपने निर्णय से यह दिखाना होगा कि तुमने किस प्रकार अपने पिता से न्याय का पालन सीखा है।"

अर्जुन को यह सुनकर बहुत गर्व महसूस हुआ, लेकिन उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह इस मामले का सही हल कैसे निकाले।


अर्जुन का न्यायिक निर्णय

अर्जुन ने दोनों पक्षों को शांतिपूर्वक सुना और फिर उन्होंने कुम्हार और पड़ोसी से एक सवाल किया:
"क्या तुम दोनों को यह नहीं लगता कि एक छोटा सा कदम भी बहुत बड़ा बदलाव ला सकता है? यदि तुम दोनों अपने विवाद को सुलझाने के बजाय इस विवाद को और बढ़ाते हो, तो राज्य में अशांति फैल सकती है। तो, क्यों न हम इस विवाद को सुलझाने के लिए एक न्यायपूर्ण और समझदारी से समाधान निकाले?"

कुम्हार और पड़ोसी थोड़ी देर के लिए चुप रहे, फिर अर्जुन ने कहा:
"मैं दोनों को एक अवसर देता हूँ कि वे एक-दूसरे को अपनी वस्तु का सही मूल्य और सम्मान दें। जो वस्तु चोरी हुई है, वह सच्चाई से पहले मूल्यवान नहीं हो सकती। हमें समझना होगा कि समाज में शांति और न्याय से बढ़कर कोई मूल्य नहीं है।"

अर्जुन ने दोनों को समझाया और उन्हें यह सलाह दी कि वे आपसी समझ से इस विवाद को सुलझाएँ और भविष्य में किसी भी प्रकार के झगड़े से बचें।


राजा का आशीर्वाद

राजा वीरेंद्र ने अर्जुन के निर्णय को सुना और उसे बहुत सराहा। राजा ने कहा:
"तुमने साबित कर दिया कि केवल कड़े फैसले ही न्याय का प्रमाण नहीं होते। कभी-कभी, सबसे अच्छा निर्णय वह होता है जो समझदारी, सहानुभूति और शांति से लिया जाए। तुमने दिखाया कि तुम्हारे भीतर मेरे शासन का वास्तविक सार है। तुम भविष्य में एक महान शासक बनोगे।"

राजा वीरेंद्र ने अपने पुत्र को आशीर्वाद दिया और कहा कि तुम्हारा यह निर्णय हर किसी को यह सिखाएगा कि सही न्याय वही है, जो समाज के हित में हो और किसी के साथ अन्याय न हो।


बेताल का प्रश्न

बेताल ने राजा विक्रम से पूछा:
"क्या अर्जुन ने सही निर्णय लिया? क्या कभी किसी विवाद को सुलझाने के लिए कड़े फैसले की बजाय समझदारी और शांति का रास्ता अपनाना उचित है?"


राजा विक्रम का उत्तर

राजा विक्रम ने उत्तर दिया:
"अर्जुन ने बिल्कुल सही निर्णय लिया। कभी-कभी कड़े फैसले केवल समस्याओं को और बढ़ाते हैं, जबकि समझदारी से किया गया निर्णय अधिक प्रभावी होता है। एक शासक का कर्तव्य केवल दंड देना नहीं, बल्कि समाज में शांति और समझदारी का प्रसार करना भी होता है। अर्जुन ने यह दिखाया कि न्याय का पालन करते हुए भी हम एक रास्ता निकाल सकते हैं, जो सभी के लिए अच्छा हो।"


कहानी की शिक्षा

  1. सच्चा न्याय वह है, जो समाज के भले के लिए किया जाए, न कि केवल किसी पक्ष को खुश करने के लिए।
  2. समझदारी और सहानुभूति से निर्णय लेना अधिक प्रभावी होता है, कभी-कभी कड़े फैसले के मुकाबले।
  3. राजा या शासक का कर्तव्य केवल दंड देना नहीं, बल्कि समाज में शांति और संतुलन बनाए रखना भी है।

शनिवार, 25 जुलाई 2020

18. सच्चाई की परीक्षा

 

सच्चाई की परीक्षा

बहुत समय पहले की बात है, एक छोटे से राज्य में एक न्यायप्रिय राजा राज करता था, जिसका नाम था राजा हेमदत्त। राजा हेमदत्त अपने राज्य में सच्चाई, न्याय और धर्म का पालन करने के लिए प्रसिद्ध था। वह हमेशा अपने राज्य के नागरिकों के मामलों में निष्पक्ष और ईमानदार रहता था।

राजा हेमदत्त का विश्वास था कि सच्चाई से बढ़कर कोई और बल नहीं है। वह अपने प्रजा से यह उम्मीद करता था कि वे हमेशा सच बोलें और किसी भी परिस्थिती में झूठ का सहारा न लें। इसी कारण से, उसने अपने राज्य में एक नियम लागू किया था कि जो भी व्यक्ति झूठ बोलकर किसी का भला करना चाहता है, उसे दंडित किया जाएगा।


सच्चाई की परीक्षा

एक दिन राज्य में एक बड़ा विवाद उत्पन्न हुआ। एक बहुत ही अमीर व्यापारी ने आरोप लगाया कि एक छोटे से किसान ने उसकी संपत्ति चुरा ली है। व्यापारी ने राजा से शिकायत की कि किसान ने रातों-रात उसकी भूमि पर कब्जा कर लिया और उसकी बेशकीमती वस्तुएं चुरा ली हैं।

राजा हेमदत्त ने इस मामले की गंभीरता को समझते हुए आदेश दिया कि दोनों पक्षों को अदालत में पेश किया जाए। जब व्यापारी और किसान अदालत में आए, तो राजा ने दोनों से अपना पक्ष सुनने की शुरुआत की।

व्यापारी ने कहा:
"महाराज, यह किसान एक झूठा आदमी है। उसने रात के अंधेरे में मेरी संपत्ति चुराई और मुझे अपमानित किया।"

किसान ने शांति से जवाब दिया:
"महाराज, मैं एक ईमानदार व्यक्ति हूं। मैंने किसी की संपत्ति नहीं चुराई। मुझे नहीं पता कि व्यापारी ऐसा क्यों कह रहा है।"

राजा हेमदत्त ने दोनों पक्षों से सबूत मांगे, लेकिन कोई ठोस सबूत किसी के पास नहीं था। मामले की गहराई में जाने के बाद, राजा हेमदत्त ने फैसला किया कि वह इस विवाद का समाधान एक अलग तरीके से करेंगे।

राजा ने कहा:
"मैं इस मामले में एक अद्भुत परीक्षा लूंगा, जो केवल सच्चाई को सामने लाएगी।"

राजा ने आदेश दिया कि व्यापारी और किसान दोनों को एक कक्ष में बंद किया जाए, और उन्हें एक कागज़ पर लिखने के लिए कहा गया। कागज़ पर लिखा गया था:
"जो व्यक्ति सच्चा है, वह अपने मन की बात बिना डर के सामने रखेगा, लेकिन जो झूठा है, वह डर के कारण अपनी बात छिपाएगा।"

राजा ने फिर से दोनों से पूछा:
"अब, तुम दोनों में से कौन सच्चा है और कौन झूठा, यह कागज़ पर लिखकर मुझे दे दो।"


सच्चाई की परीक्षा का परिणाम

जब व्यापारी कागज़ पर लिखने लगा, तो उसकी हाथें कांपने लगीं और उसकी लिखाई असामान्य हो गई। लेकिन किसान ने अपने कागज़ पर बिना किसी डर के साफ-साफ लिखा:
"मैं सच्चा हूं, मैंने किसी की संपत्ति नहीं चुराई।"

राजा हेमदत्त ने दोनों के कागज़ों को देखा। व्यापारी का कागज़ गड़बड़ाया हुआ और अस्पष्ट था, जबकि किसान का कागज़ साफ-सुथरा और सीधा था। राजा ने तुरंत समझ लिया कि व्यापारी झूठ बोल रहा था।

राजा हेमदत्त ने कहा:
"किसान ने सच्चाई को बिना डर के लिखा और व्यापारी ने झूठ बोला। व्यापारी का झूठ साफ-साफ सामने आ चुका है।"

राजा ने व्यापारी को कठोर दंड दिया और उसकी संपत्ति को जब्त कर लिया। वहीं किसान को सम्मानित किया और उसे मुआवजा दिया।


बेताल का प्रश्न

बेताल ने राजा विक्रम से पूछा:
"राजा हेमदत्त ने सच्चाई की परीक्षा ली, लेकिन क्या यह तरीका उचित था? क्या एक शासक को इस तरह से किसी के खिलाफ निर्णय लेना चाहिए?"


राजा विक्रम का उत्तर

राजा विक्रम ने उत्तर दिया:
"राजा हेमदत्त ने एक बुद्धिमानी से फैसला लिया। कभी-कभी, सच्चाई को पहचानने के लिए हमें अप्रत्यक्ष तरीकों का सहारा लेना पड़ता है। जब दो पक्षों के पास कोई ठोस सबूत नहीं होते, तो हमें उनके आचरण, शब्दों और उनके व्यवहार को देखकर सही निर्णय लेना होता है। राजा का कर्तव्य है कि वह सत्य को सामने लाए, और राजा हेमदत्त ने वही किया।"


कहानी की शिक्षा

  1. सच्चाई हमेशा सामने आती है, चाहे वह किसी भी तरीके से सामने आए।
  2. सच्चा व्यक्ति कभी भी डर के बिना अपनी बात सामने रखता है।
  3. शासक का कर्तव्य है कि वह सत्य का पालन करे और न्यायपूर्ण निर्णय ले।

शनिवार, 18 जुलाई 2020

17. झूठा वचन और सच्चा न्याय

 

झूठा वचन और सच्चा न्याय

प्राचीन समय की बात है, एक छोटे से राज्य में एक न्यायप्रिय राजा राज करता था, जिसका नाम था राजा विक्रम। राजा विक्रम को अपने राज्य में न्याय, सत्य और धर्म के पालन के लिए जाना जाता था। वह हमेशा किसी भी स्थिति में सच को सामने लाने और न्याय की स्थापना करने के लिए कड़े फैसले लेते थे।

राजा विक्रम का मानना था कि शासक का कर्तव्य है अपने राज्य में हर व्यक्ति को समान अधिकार देना और किसी के साथ भी अन्याय नहीं होने देना। लेकिन एक दिन राजा विक्रम के सामने एक कठिन स्थिति उत्पन्न हुई, जिसमें उसे अपनी सत्यनिष्ठा और न्यायप्रियता का परीक्षण करना पड़ा।


कठिन निर्णय की घड़ी

एक दिन राज्य में एक बहुत बड़ा मामला सामने आया। राज्य के एक बड़े व्यापारी ने राजा विक्रम से एक बड़ी राशि उधार ली थी। व्यापारी ने वचन दिया था कि वह इस कर्ज को समय पर चुका देगा। लेकिन समय बीतने के बाद, व्यापारी ने कर्ज चुकाने में विफलता का सामना किया। राजा विक्रम ने व्यापारी से कर्ज के बारे में पूछा, तो उसने यह कहकर कुछ समय और मांग लिया कि वह जल्द ही पैसे चुका देगा।

समय गुजरता गया और व्यापारी ने फिर से अपनी वचनबद्धता पूरी नहीं की। राज्य के कई लोग राजा से शिकायत करने लगे कि व्यापारी ने झूठा वादा किया और उसकी वजह से गरीबों की मदद करने के लिए रखी गई राशि का दुरुपयोग किया।

राजा विक्रम को यह निर्णय लेना था कि क्या वह व्यापारी को उसके झूठे वचन के लिए सजा दे या फिर उसे और समय देकर एक और मौका दे।


राजा का निर्णय

राजा विक्रम को यह स्थिति बहुत कठिनाई में डाल दी थी। वह जानते थे कि एक शासक का पहला धर्म सत्य का पालन करना है, लेकिन व्यापारी एक बड़ा व्यक्ति था और उसके कर्ज का भुगतान न करने से राज्य की वित्तीय स्थिति प्रभावित हो सकती थी।

राजा ने अंततः व्यापारी को बुलाया और कहा:
"तुमने बार-बार झूठा वचन दिया और राज्य के भले के लिए उधार लिया। क्या तुम्हारे लिए यह उचित है कि तुम्हारे झूठे वचन के कारण राज्य के गरीबों को नुकसान हो?"

व्यापारी ने कहा:
"मुझे अफसोस है, महाराज। मैं सच में कर्ज चुकाना चाहता हूँ, लेकिन व्यापार में मंदी आ गई है और मैं कर्ज चुका नहीं पा रहा हूँ।"

राजा विक्रम ने कहा:
"तुमने जो झूठा वचन दिया है, उसका परिणाम तुम्हें भुगतना होगा। कोई भी व्यक्ति, चाहे वह व्यापारी हो या साधारण नागरिक, जब किसी से वादा करता है, तो उसे उसे निभाना चाहिए। झूठे वचन से किसी को भी लाभ नहीं मिल सकता।"

राजा ने व्यापारी की संपत्ति को जब्त किया और उसे उसकी गलतियों का एहसास दिलाया। हालांकि, उसने व्यापारी को कड़ी सजा देने के बजाय उसे सुधारने का प्रयास किया और कहा:
"तुमने राज्य को धोखा दिया है, लेकिन मैं चाहूँगा कि तुम अपना जीवन फिर से सुधारो और कभी झूठा वचन न दो।"

राजा विक्रम ने व्यापारी को एक अवसर दिया, लेकिन उसने यह सिद्ध कर दिया कि झूठ और धोखे के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।


बेताल का प्रश्न

बेताल ने राजा विक्रम से पूछा:
"क्या राजा विक्रम का निर्णय सही था? क्या झूठे वचन को स्वीकार करके किसी को दूसरा मौका देना उचित था?"


राजा विक्रम का उत्तर

राजा विक्रम ने उत्तर दिया:
"राजा का कार्य सत्य और न्याय का पालन करना होता है। व्यापारी ने झूठा वचन दिया था, लेकिन फिर भी उसे सुधारने का एक अवसर दिया गया। ऐसा इसलिए क्योंकि एक शासक का कार्य केवल दंड देना नहीं, बल्कि समाज को सुधारना भी है। लेकिन किसी को सुधारने के लिए उसे सजा देना जरूरी था, ताकि वह अपने कर्मों का सही परिणाम समझ सके और भविष्य में कभी भी झूठा वचन न दे।"


कहानी की शिक्षा

  1. झूठे वचन से किसी को भी फायदा नहीं होता, और ऐसे वचन का पालन करना अनुचित होता है।
  2. सच्चा न्याय केवल दंड देने में नहीं, बल्कि सुधारने में भी होता है।
  3. एक शासक का कार्य सत्य का पालन करना और सभी को समान रूप से न्याय देना है।

शनिवार, 11 जुलाई 2020

16. न्यायप्रिय राजा और उसकी संतान की कहानी

 

न्यायप्रिय राजा और उसकी संतान की कहानी

बहुत समय पहले की बात है, एक छोटे से राज्य में एक न्यायप्रिय और सत्यनिष्ठ राजा राज करता था, जिसका नाम राजा शशांक था। वह हमेशा राज्य के नागरिकों के साथ न्याय करता, चाहे वह गरीब हो या अमीर। उसकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई थी, और लोग उसे न्याय का प्रतीक मानते थे।

राजा शशांक के राज्य में हर किसी को समान अधिकार मिलता था और सभी लोग उसे दिल से आदर करते थे। वह खुद दिन-रात अपने राज्य के मामलों में लगे रहते और हर निर्णय में निष्पक्ष रहते थे।

राजा की एक संतान थी, एक सुन्दर और समझदार राजकुमार, जिसका नाम पृथ्वीराज था। पृथ्वीराज को बचपन से ही अपने पिता से न्याय और सत्य के महत्व की शिक्षा मिलती रही थी। राजा शशांक ने उसे बताया था कि एक शासक का सबसे बड़ा धर्म है – अपने प्रजा के प्रति न्यायपूर्ण व्यवहार करना।


राजकुमार का पहला परीक्षण

एक दिन, जब पृथ्वीराज युवा हुआ, राजा शशांक ने उसे राज्य का कार्यभार सौंपने का विचार किया। राजा ने पृथ्वीराज को अपने न्याय का पालन करते हुए एक छोटे से गाँव का न्यायाधीश नियुक्त किया। यह एक परीक्षा थी, ताकि वह देख सके कि उसका बेटा न्याय और सत्य का पालन किस हद तक करता है।

राजकुमार पृथ्वीराज गाँव में पहुँचने के बाद अपने कार्य में जुट गया। वह हर मामले में निष्पक्ष रहता और किसी भी प्रकार के पक्षपाती निर्णय से बचता था।

एक दिन, एक व्यापारी गाँव में आया और उसने गांव के कुछ लोगों के खिलाफ आरोप लगाए कि उन्होंने उसकी व्यापारिक वस्तुएं चुराई हैं। उसने गाँव के लोगों से बड़े पैमाने पर मुआवजा की मांग की। यह मामला बहुत बड़ा हो गया, और सारे गाँव के लोग न्याय की ओर देख रहे थे।

राजकुमार पृथ्वीराज को यह निर्णय करना था कि वह इस व्यापारिक विवाद का समाधान किस तरह करेगा।


न्याय का निर्णय

राजकुमार ने पूरे मामले की जांच की और दोनों पक्षों से गवाही ली। व्यापारी का आरोप था कि गाँव के कुछ लोग उसके साथ धोखा कर रहे हैं, लेकिन गांव के लोग यह कह रहे थे कि व्यापारी ने झूठा आरोप लगाया था।

राजकुमार ने दोनों पक्षों के गवाहों को ध्यान से सुना और जांच की। अंत में, वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि व्यापारी ने केवल लाभ के लिए झूठा आरोप लगाया था, क्योंकि गाँव के लोग निर्दोष थे और व्यापारी का दावा बेबुनियाद था।

राजकुमार ने व्यापारी को सजा दी और गाँव के लोगों के पक्ष में न्याय दिया। उसने व्यापारी से मुआवजा वसूला और यह सुनिश्चित किया कि गाँव के लोग बिना किसी डर के शांति से रह सकें।


राजा का आशीर्वाद

राजकुमार पृथ्वीराज ने इस निर्णय से अपने पिता राजा शशांक को बहुत गर्व महसूस कराया। राजा शशांक ने अपने बेटे की ईमानदारी और न्यायप्रियता की सराहना की और उसे आशीर्वाद दिया। राजा ने कहा:
"तुमने जिस तरह से न्याय किया, वह मुझे अपने न्यायपूर्ण शासन की याद दिलाता है। तुमने यह साबित किया कि न्याय केवल शब्दों में नहीं, बल्कि कार्यों में भी होना चाहिए। तुम मेरे उत्तराधिकारी हो और राज्य को और प्रजा को न्याय दिलाने में तुम्हारा योगदान अद्वितीय रहेगा।"

राजा शशांक ने पृथ्वीराज को अपने सिंहासन पर बैठने का संकेत दिया और राज्य की जिम्मेदारियाँ सौंप दीं।


बेताल का प्रश्न

बेताल ने राजा विक्रम से पूछा:
"क्या राजकुमार पृथ्वीराज ने सही किया, जब उसने व्यापारी के खिलाफ फैसला सुनाया? क्या कभी किसी को संतान की शिक्षा से भी अधिक नहीं सोचना चाहिए?"


राजा विक्रम का उत्तर

राजा विक्रम ने उत्तर दिया:
"राजकुमार पृथ्वीराज ने बिल्कुल सही किया। न्याय का पालन करना और सत्य की राह पर चलना ही एक शासक का पहला कर्तव्य है। वह अपने पिता से मिली शिक्षा के अनुरूप था। अगर किसी शासक की संतान ने न्याय का पालन किया, तो वह अपने माता-पिता की सबसे बड़ी शिक्षा को साकार कर रहा होता है।"


कहानी की शिक्षा

  1. न्यायप्रियता और सत्य का पालन, शासक की सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है।
  2. सत्य और न्याय का पालन किसी भी परिस्थिति में समझौते का विषय नहीं होना चाहिए।
  3. किसी भी निर्णय में निष्पक्ष और ईमानदारी से काम करना चाहिए, चाहे वह राजकुमार हो या राजा।

शनिवार, 4 जुलाई 2020

15. तपस्वी का बलिदान की कहानी

 

तपस्वी का बलिदान की कहानी

बहुत समय पहले की बात है, एक छोटे से गाँव में एक महान तपस्वी रहते थे। उनका नाम था तपस्वी श्रीधर। वह पूरे गाँव में अपने तप और साधना के लिए प्रसिद्ध थे। उन्होंने वर्षों तक जंगल में तपस्या की थी और भगवान के दर्शन के लिए कठिन साधना की थी। उनका जीवन केवल सत्य, अहिंसा, और धर्म के सिद्धांतों पर आधारित था। वह निरंतर अपने आप को ब्रह्मज्ञान में तल्लीन करते और दूसरों को भी धर्म और सत्य की राह पर चलने की शिक्षा देते।

श्रीधर का मन हमेशा मानवता की भलाई में ही रमता था। वह किसी भी प्रकार का लालच या मोह नहीं रखते थे, बल्कि दूसरों की मदद करने में सच्ची खुशी महसूस करते थे।


धर्म के संकट की घड़ी

एक दिन, गाँव में एक बड़ा संकट आया। राजा विक्रम, जो कि अपने राज्य में न्याय और धर्म के पालन के लिए प्रसिद्ध थे, अचानक बीमार हो गए। उनके शरीर में एक असाध्य रोग फैल गया था, जिसे ठीक करने के लिए केवल एक विशेष औषधि की आवश्यकता थी। यह औषधि केवल एक दूरस्थ पहाड़ी क्षेत्र में उगने वाली दुर्लभ जड़ी-बूटी से बनती थी, और इसे प्राप्त करना अत्यंत कठिन था।

राजा विक्रम के मंत्री ने सोचा कि इस जड़ी-बूटी को प्राप्त करने के लिए किसी तपस्वी या साधू से मदद ली जाए। इसलिए, उन्होंने तपस्वी श्रीधर से अनुरोध किया कि वह अपनी तपस्या छोड़कर इस कठिन कार्य के लिए भगवान से आशीर्वाद प्राप्त करें और जड़ी-बूटी लाने का प्रयास करें। तपस्वी श्रीधर ने तुरंत इस कार्य को स्वीकार कर लिया, क्योंकि उनका मानना था कि अगर किसी की सहायता से जीवन बच सकता है, तो वह उनका कर्तव्य है।


तपस्वी का कठिन परिश्रम

श्रीधर तपस्वी ने अपनी साधना और तपस्या का त्याग किया और उस कठिन क्षेत्र में जाने के लिए निकल पड़े, जहाँ जड़ी-बूटी उगती थी। यात्रा बहुत कठिन थी। रास्ते में अनेक बाधाएँ और दुश्वारियाँ आईं, लेकिन उन्होंने अपने मनोबल को बनाए रखा। तपस्वी का दृढ़ विश्वास था कि यह कार्य उनका धर्म है और वह इसे सफलतापूर्वक पूरा करेंगे।

कई दिनों तक कठिन यात्रा करने के बाद, तपस्वी श्रीधर ने आखिरकार वह दुर्लभ जड़ी-बूटी प्राप्त की। लेकिन जब वह वापस लौट रहे थे, तो रास्ते में एक शक्तिशाली भूचाल आया, जिससे रास्ता अवरुद्ध हो गया और कई पहाड़ियाँ खिसक गईं। तपस्वी श्रीधर के पास एक ही विकल्प था—या तो वह जड़ी-बूटी को छोड़कर वापस लौटें या स्वयं को बलिदान करके उसे सुरक्षित स्थान पर पहुँचाएँ।


तपस्वी का बलिदान

श्रीधर ने बिना किसी हिचकिचाहट के जड़ी-बूटी को बचाने के लिए अपनी जान को जोखिम में डाला। उन्होंने अपनी पूरी ताकत झोंक दी और जैसे ही उन्होंने जड़ी-बूटी को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया, उनका शरीर पहाड़ी के मलबे में दब गया। श्रीधर का बलिदान पूरी दुनिया के लिए एक अमर उदाहरण बन गया।

वह न केवल एक तपस्वी थे, बल्कि उन्होंने अपनी जीवन की उच्चतम क़ीमत पर दूसरों की सेवा की और अपने कर्तव्य को निभाया। उनका बलिदान सच्चे प्रेम, श्रद्धा और समर्पण का प्रतीक बन गया।


राजा विक्रम का जागरण

राजा विक्रम ने जैसे ही सुना कि तपस्वी श्रीधर ने अपनी जान दे दी और जड़ी-बूटी राजा के लिए लाकर दी, उन्होंने बहुत अफसोस और शोक व्यक्त किया। उन्होंने कहा:
"तपस्वी श्रीधर का बलिदान न केवल हमारे राज्य के लिए, बल्कि पूरी मानवता के लिए एक अमूल्य उपहार है। वह केवल एक तपस्वी नहीं थे, बल्कि एक सच्चे धर्मयोद्धा थे।"

राजा विक्रम ने तपस्वी के बलिदान को सम्मानित किया और राज्य में एक बड़ा आयोजन किया, ताकि हर कोई उनके महान कार्य और बलिदान को याद रखे।


बेताल का प्रश्न

बेताल ने राजा विक्रम से पूछा:
"क्या तपस्वी श्रीधर का बलिदान सही था? क्या किसी के जीवन को बचाने के लिए अपना जीवन देना सही होता है?"


राजा विक्रम का उत्तर

राजा विक्रम ने उत्तर दिया:
"तपस्वी श्रीधर ने अपने जीवन का बलिदान किया, लेकिन उसका बलिदान केवल एक जीवन बचाने के लिए नहीं था, बल्कि यह समर्पण और मानवता के लिए था। वह जानते थे कि उनका बलिदान अनगिनत लोगों के लिए प्रेरणा बनेगा। एक सच्चे तपस्वी का जीवन अपने कर्तव्य के प्रति इतनी गहरी निष्ठा से भरा होता है, कि वह कभी भी अपने जीवन को दूसरों की भलाई के लिए न्योछावर करने में संकोच नहीं करता।"


कहानी की शिक्षा

  1. सच्चा बलिदान वह है, जो दूसरों की भलाई के लिए किया जाए, बिना किसी स्वार्थ के।
  2. धर्म और कर्तव्य के प्रति समर्पण में ही जीवन का असली उद्देश्य है।
  3. वह व्यक्ति महान होता है, जो अपने जीवन से अधिक दूसरों की मदद करने के लिए तत्पर रहता है।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...