शनिवार, 17 अक्टूबर 2020

द्वारका नगरी की स्थापना

 द्वारका नगरी की स्थापना श्रीकृष्ण की जीवनगाथा का एक महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक प्रसंग है। यह घटना उनके कूटनीतिक कौशल, नेतृत्व और धर्म की स्थापना के लिए उनकी दूरदर्शिता का परिचय देती है। द्वारका नगरी को आज भी "स्वर्ण नगरी" और "कृष्ण की राजधानी" के रूप में जाना जाता है।


मथुरा पर आक्रमण और समस्या

कंस वध के बाद, श्रीकृष्ण ने अपने नाना उग्रसेन को मथुरा का राजा बनाया। लेकिन कंस का ससुर और मगध का शक्तिशाली राजा जरासंध श्रीकृष्ण और बलराम से प्रतिशोध लेने के लिए मथुरा पर बार-बार आक्रमण करने लगा।

  • जरासंध के आक्रमण: जरासंध ने मथुरा पर 17 बार हमला किया। हर बार कृष्ण और बलराम ने उसकी सेना को हराया, लेकिन जरासंध को नहीं मारा।
  • कालयवन का हमला: जरासंध के साथ-साथ कालयवन नामक मलेच्छ राजा ने भी मथुरा पर आक्रमण कर दिया।
    इस स्थिति में मथुरा की रक्षा करना और वहां के नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना कठिन हो गया।

द्वारका नगरी की स्थापना का निर्णय

श्रीकृष्ण ने यह समझा कि जरासंध और अन्य शत्रुओं से बार-बार युद्ध करना मथुरा और वहां के नागरिकों के लिए नुकसानदेह होगा। उन्होंने शांति और सुरक्षा के लिए एक नई नगरी बसाने का निर्णय लिया।

  • श्रीकृष्ण ने समुद्र देवता से प्रार्थना की और उनसे भूमि प्रदान करने का अनुरोध किया।
  • समुद्र ने अपने जल से पीछे हटकर भूमि का एक भाग प्रदान किया।

स्वर्ण नगरी द्वारका का निर्माण

  1. मय दानव का सहयोग: द्वारका नगरी के निर्माण में असुरों के महान शिल्पकार मय दानव ने श्रीकृष्ण की सहायता की। उन्होंने द्वारका को सुंदर महलों, मंदिरों, और जल निकासी व्यवस्था से सुसज्जित किया।
  2. विशेषताएँ:
    • द्वारका चारों ओर से समुद्र से घिरी हुई थी, जिससे यह शत्रुओं के आक्रमण से सुरक्षित थी।
    • नगरी में स्वर्ण और रत्नों से सुसज्जित भव्य महल थे।
    • द्वारका के द्वार इतने विशाल और सुंदर थे कि इसे "द्वारावती" भी कहा जाता है।

द्वारका में यदुवंश का पुनर्वास

श्रीकृष्ण ने मथुरा के सभी यदुवंशियों को द्वारका में बसने के लिए बुलाया। उन्होंने यदुवंश के लिए एक सुरक्षित और शांतिपूर्ण जीवन की व्यवस्था की।

  • यदुवंशी द्वारका में खुशी-खुशी रहने लगे और वहां श्रीकृष्ण को अपना राजा मान लिया।
  • द्वारका न केवल राजनीति और व्यापार का केंद्र बनी, बल्कि यह धर्म, संस्कृति और अध्यात्म का भी प्रमुख केंद्र बन गई।

कालयवन और जरासंध का अंत

द्वारका स्थापित करने के बाद श्रीकृष्ण ने कालयवन का वध किया। उन्होंने जरासंध का अंत सीधे युद्ध में नहीं किया, बल्कि पांडवों की सहायता से उसकी मृत्यु का मार्ग प्रशस्त किया।


द्वारका का महत्व

  1. शांति और सुरक्षा का प्रतीक: द्वारका नगरी ने यह संदेश दिया कि युद्ध से बचने के लिए कूटनीति और शांतिपूर्ण समाधान अधिक महत्वपूर्ण हैं।
  2. धर्म और संस्कृति का केंद्र: द्वारका श्रीकृष्ण की शिक्षाओं और उनकी लीलाओं का केंद्र रही।
  3. अखंड समृद्धि: द्वारका का निर्माण यह दिखाता है कि भगवान अपने भक्तों की सुख-शांति के लिए हर संभव प्रयास करते हैं।

द्वारका का अंत

महाभारत युद्ध के बाद, यदुवंशियों में आपसी कलह और विनाश हुआ। इस घटना के बाद, श्रीकृष्ण ने अपनी लीलाएं समाप्त कीं और द्वारका नगरी समुद्र में विलीन हो गई।
आज भी गुजरात के तटीय क्षेत्र में समुद्र के नीचे प्राचीन द्वारका के अवशेष पाए जाते हैं, जो इसकी ऐतिहासिकता और दिव्यता को प्रमाणित करते हैं।

द्वारका नगरी श्रीकृष्ण के नेतृत्व, कूटनीति और धर्म की विजय का अद्भुत उदाहरण है।

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