यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 13 से 30 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म के कारणों, कर्ता, बुद्धि और संकल्प के तीन प्रकारों (सात्त्विक, राजसिक, तामसिक) का वर्णन किया है।
श्लोक 13
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्॥
अर्थ:
"हे महाबाहु (अर्जुन), सभी कर्मों की सिद्धि के लिए पाँच कारण बताए गए हैं। इनको समझो, जो सांख्य योग में विस्तार से बताए गए हैं।"
व्याख्या:
भगवान ने कर्म सिद्धि के लिए पाँच कारणों का उल्लेख किया है। ये कर्म के प्रभाव और उसके घटकों को समझने के लिए आवश्यक हैं।
श्लोक 14
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्॥
अर्थ:
"वे पाँच कारण हैं: (1) अधिष्ठान (शरीर), (2) कर्ता (आत्मा), (3) करण (इंद्रियाँ), (4) चेष्टा (कर्म), और (5) दैव (भगवान की कृपा)।"
व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि कर्म के सफल होने के लिए इन पाँच तत्वों का योगदान आवश्यक है। दैव (ईश्वर की कृपा) सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
श्लोक 15
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः॥
अर्थ:
"जो भी कर्म मनुष्य शरीर, वाणी और मन से करता है – चाहे वह न्यायपूर्ण हो या अन्यथा – इन पाँच कारणों से होता है।"
व्याख्या:
हर कर्म, चाहे वह सही हो या गलत, इन्हीं पाँच कारणों से संपन्न होता है। यह कर्म के पीछे के तत्वों को स्पष्ट करता है।
श्लोक 16
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः॥
अर्थ:
"जो मूर्ख व्यक्ति इन कारणों को न समझकर आत्मा को अकेला कर्ता मानता है, वह सही नहीं देखता।"
व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि जो व्यक्ति इन पाँच कारणों की भूमिका को अनदेखा करता है और आत्मा को अकेला कर्ता मानता है, वह अज्ञानी है।
श्लोक 17
यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥
अर्थ:
"जिस व्यक्ति में अहंकार नहीं है और जिसकी बुद्धि शुद्ध है, वह भले ही दूसरों को मार दे, फिर भी वह न तो हत्या करता है और न ही बंधन में बंधता है।"
व्याख्या:
अहंकार से मुक्त और शुद्ध बुद्धि वाला व्यक्ति कर्मों से बंधता नहीं है। वह समझता है कि सभी कर्म ईश्वर की इच्छा से होते हैं।
श्लोक 18
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः॥
अर्थ:
"ज्ञान, ज्ञेय (जिसे जानना है) और ज्ञाता (जानने वाला) – ये तीन प्रकार की प्रेरणाएँ हैं। और करण (इंद्रियाँ), कर्म और कर्ता – ये तीन प्रकार के कर्म के घटक हैं।"
व्याख्या:
भगवान कर्म की प्रक्रिया और उसे प्रेरित करने वाले तत्वों का विवरण देते हैं। यह त्रिविध दृष्टिकोण कर्म को समझने के लिए आवश्यक है।
श्लोक 19
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि॥
अर्थ:
"ज्ञान, कर्म और कर्ता – इन तीनों को भी गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) के आधार पर तीन प्रकार में विभाजित किया गया है। अब मैं तुम्हें इनके बारे में बताता हूँ।"
व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि कर्म, ज्ञान और कर्ता की प्रकृति गुणों (सत्त्व, रजस और तमस) से निर्धारित होती है।
श्लोक 20
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्॥
अर्थ:
"जो ज्ञान सभी प्राणियों में अविभाज्य, अविनाशी और एक ही आत्मा को देखता है, वह सात्त्विक ज्ञान है।"
व्याख्या:
सात्त्विक ज्ञान वह है जो सभी प्राणियों में एक ही परमात्मा की उपस्थिति को पहचानता है। यह ज्ञान एकता और दिव्यता को प्रकट करता है।
श्लोक 21
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्॥
अर्थ:
"जो ज्ञान सभी प्राणियों को अलग-अलग और विविध रूपों में देखता है, वह राजसिक ज्ञान है।"
व्याख्या:
राजसिक ज्ञान भेदभाव को प्रोत्साहित करता है और भौतिक दृष्टिकोण पर आधारित होता है। यह ज्ञान संसारिक इच्छाओं और भौतिकता से प्रेरित होता है।
श्लोक 22
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्॥
अर्थ:
"जो ज्ञान बिना किसी कारण के एक ही वस्तु को सबकुछ मानता है और सत्य को नहीं समझता, वह तामसिक ज्ञान है।"
व्याख्या:
तामसिक ज्ञान सीमित, भ्रमपूर्ण और असत्य पर आधारित होता है। यह व्यक्ति को अज्ञानता में डाल देता है।
श्लोक 23
नियतं संगरहितमरागद्वेषतः कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते॥
अर्थ:
"जो कर्म नियत (कर्तव्य) है, जिसमें आसक्ति, राग-द्वेष और फल की इच्छा नहीं होती, वह सात्त्विक कर्म है।"
व्याख्या:
सात्त्विक कर्म शुद्ध मन और निष्काम भावना से किया जाता है। इसमें आत्मा की शुद्धि और भगवान की कृपा प्राप्त करने का उद्देश्य होता है।
श्लोक 24
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्॥
अर्थ:
"जो कर्म फल की इच्छा से या अहंकार के साथ अत्यधिक प्रयास करके किया जाता है, वह राजसिक कर्म कहलाता है।"
व्याख्या:
राजसिक कर्म स्वार्थ और इच्छाओं से प्रेरित होता है। यह कर्म भौतिक सुखों और प्रसिद्धि के लिए किया जाता है।
श्लोक 25
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥
अर्थ:
"जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और क्षमता की परवाह किए बिना अज्ञानता से किया जाता है, वह तामसिक कर्म कहलाता है।"
व्याख्या:
तामसिक कर्म अज्ञानता, आलस्य और हठ के कारण किया जाता है। यह दूसरों के लिए हानिकारक होता है और आत्मा को अधोगति की ओर ले जाता है।
श्लोक 26
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते॥
अर्थ:
"जो कर्ता आसक्ति और अहंकार से मुक्त है, जो धैर्य और उत्साह से युक्त है, और जो सफलता-असफलता में समान रहता है, वह सात्त्विक कर्ता कहलाता है।"
व्याख्या:
सात्त्विक कर्ता अपने कर्तव्यों को शांत और स्थिर मन से करता है। वह कर्म के फल से प्रभावित नहीं होता।
श्लोक 27
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः॥
अर्थ:
"जो कर्ता आसक्त, फल की इच्छा रखने वाला, लालची, हिंसक, अशुद्ध और हर्ष-शोक से प्रभावित होता है, वह राजसिक कर्ता कहलाता है।"
व्याख्या:
राजसिक कर्ता भौतिक इच्छाओं और स्वार्थ से प्रेरित होता है। वह कर्म को अपनी सफलता और प्रसिद्धि के लिए करता है।
श्लोक 28
अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते॥
अर्थ:
"जो कर्ता अयोग्य, मूर्ख, हठी, धोखेबाज, अहंकारी, आलसी, उदास और देर करने वाला है, वह तामसिक कर्ता कहलाता है।"
व्याख्या:
तामसिक कर्ता अज्ञानता और आलस्य से प्रेरित होता है। वह अपने कर्तव्यों को ठीक से नहीं निभाता और दूसरों के प्रति नकारात्मक रहता है।
श्लोक 29-30
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय॥
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी॥
अर्थ:
"हे धनंजय, अब बुद्धि और धृति (धैर्य) के तीन प्रकारों को विस्तार से सुनो। जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति, क्या करना चाहिए और क्या नहीं, भय और अभय, बंधन और मोक्ष को सही से समझती है, वह सात्त्विक बुद्धि कहलाती है।"
व्याख्या:
सात्त्विक बुद्धि वह है जो धर्म-अधर्म, सही-गलत, और मोक्ष-बंधन के बीच सही अंतर समझ सके। यह व्यक्ति को सच्चे ज्ञान और मोक्ष की ओर ले जाती है।
सारांश (श्लोक 13-30):
- कर्म के पाँच कारण:
- अधिष्ठान (शरीर), कर्ता (आत्मा), करण (इंद्रियाँ), चेष्टा (प्रयास
), और दैव (भगवान की कृपा)।
-
ज्ञान के तीन प्रकार:
- सात्त्विक ज्ञान: सभी में एक ही आत्मा को देखना।
- राजसिक ज्ञान: भेदभाव और भौतिकता पर आधारित।
- तामसिक ज्ञान: संकीर्ण और अज्ञानता से युक्त।
-
कर्ताओं के तीन प्रकार:
- सात्त्विक कर्ता: निष्काम और संतुलित।
- राजसिक कर्ता: इच्छाओं और अहंकार से प्रेरित।
- तामसिक कर्ता: अज्ञानी और आलसी।
-
सात्त्विक बुद्धि:
- प्रवृत्ति (धर्म) और निवृत्ति (अधर्म) का सही ज्ञान।
मुख्य संदेश:
भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि कर्म, ज्ञान और कर्ता के प्रकार गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) पर निर्भर करते हैं। सच्चा त्याग और बुद्धि वही है जो निष्काम और धर्मपरायण हो। मोक्ष के लिए सात्त्विक गुणों को अपनाना चाहिए।
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