शनिवार, 16 अगस्त 2025

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) कर्म के प्रकार और उनका महत्व (श्लोक 31-41)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 31 से श्लोक 41 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने बुद्धि और धैर्य (धृति) के तीन प्रकारों (सात्त्विक, राजसिक, तामसिक) और समाज में चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) के कर्तव्यों का वर्णन किया है।


श्लोक 31

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी॥

अर्थ:
"हे पार्थ, जो बुद्धि धर्म और अधर्म, क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, को सही ढंग से नहीं समझती, वह राजसिक बुद्धि कहलाती है।"

व्याख्या:
राजसिक बुद्धि भ्रमित होती है और धर्म-अधर्म या सही-गलत के बीच अंतर नहीं कर पाती। यह भौतिक इच्छाओं और स्वार्थ के कारण निर्णय लेने में असमर्थ होती है।


श्लोक 32

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी॥

अर्थ:
"हे पार्थ, जो बुद्धि अधर्म को धर्म मानती है और सभी चीजों को उल्टा समझती है, वह तामसिक बुद्धि कहलाती है।"

व्याख्या:
तामसिक बुद्धि अज्ञान और भ्रम में डूबी होती है। यह सत्य को असत्य मानती है और सही-गलत का बिल्कुल विपरीत अर्थ लगाती है।


श्लोक 33

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी॥

अर्थ:
"हे पार्थ, जो धैर्य (धृति) मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं को योग के माध्यम से नियंत्रित रखती है और विचलित नहीं होती, वह सात्त्विक धृति कहलाती है।"

व्याख्या:
सात्त्विक धृति स्थिरता और संयम का प्रतीक है। यह व्यक्ति को अपने मन, प्राण और इंद्रियों को संतुलित रखने में मदद करती है और आत्मज्ञान की ओर अग्रसर करती है।


श्लोक 34

यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, जो धैर्य धर्म, काम और अर्थ को केवल फल की आकांक्षा से और अत्यधिक आसक्ति के साथ धारण करता है, वह राजसिक धृति कहलाती है।"

व्याख्या:
राजसिक धृति भौतिक इच्छाओं और परिणामों पर आधारित होती है। यह व्यक्ति को कर्म करने के लिए प्रेरित करती है, लेकिन उसका उद्देश्य केवल स्वार्थ और भोग होता है।


श्लोक 35

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुंचति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी॥

अर्थ:
"हे पार्थ, जो धैर्य (धृति) स्वप्न, भय, शोक, विषाद और अहंकार को नहीं छोड़ता, वह तामसिक धृति कहलाता है।"

व्याख्या:
तामसिक धृति आलस्य, भय, और नकारात्मक भावनाओं से घिरी होती है। यह व्यक्ति को अज्ञान और मानसिक अस्थिरता की स्थिति में रखती है।


श्लोक 36-37

सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति॥
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्॥

अर्थ:
"हे भरतश्रेष्ठ, अब तीन प्रकार के सुखों के बारे में सुनो। जो अभ्यास से सुखद लगता है और दुःख का अंत करता है, जो आरंभ में विष के समान है लेकिन परिणाम में अमृत के समान है, वह सुख सात्त्विक है।"

व्याख्या:
सात्त्विक सुख आत्मबुद्धि और अनुशासन से प्राप्त होता है। यह शुरुआत में कठिन लग सकता है, लेकिन अंततः यह आत्मा को शुद्ध करता है और परम शांति देता है।


श्लोक 38

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥

अर्थ:
"जो सुख इंद्रियों और विषयों के संपर्क से उत्पन्न होता है, जो आरंभ में अमृत के समान प्रतीत होता है लेकिन अंत में विष के समान होता है, वह राजसिक सुख कहलाता है।"

व्याख्या:
राजसिक सुख भौतिक इच्छाओं और इंद्रिय भोग पर आधारित होता है। यह अस्थायी होता है और अंततः दुःख और असंतोष को जन्म देता है।


श्लोक 39

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्॥

अर्थ:
"जो सुख आरंभ में और परिणाम में आत्मा को भ्रमित करता है, और जो आलस्य, निद्रा और प्रमाद से उत्पन्न होता है, वह तामसिक सुख कहलाता है।"

व्याख्या:
तामसिक सुख अज्ञान और आलस्य से उत्पन्न होता है। यह आत्मा को मोह में डालता है और आध्यात्मिक प्रगति में बाधा उत्पन्न करता है।


श्लोक 40

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः॥

अर्थ:
"न तो पृथ्वी पर और न ही स्वर्ग में, कोई भी ऐसा प्राणी है जो इन तीन गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) से मुक्त हो।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि सृष्टि के सभी प्राणी प्रकृति के तीन गुणों से प्रभावित होते हैं। केवल आत्म-साक्षात्कार से इन गुणों से ऊपर उठा जा सकता है।


श्लोक 41

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥

अर्थ:
"हे परंतप (अर्जुन), ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – इन सभी के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार विभाजित किए गए हैं।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ समाज के चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) के कर्तव्यों का वर्णन करते हैं। ये कर्तव्य जन्म से नहीं, बल्कि व्यक्ति के स्वभाव और गुणों पर आधारित हैं।


सारांश (श्लोक 31-41):

  1. बुद्धि और धृति के प्रकार:

    • सात्त्विक बुद्धि और धृति: धर्म-अधर्म का सही ज्ञान और आत्म-नियंत्रण।
    • राजसिक बुद्धि और धृति: भौतिक इच्छाओं और स्वार्थ से प्रेरित।
    • तामसिक बुद्धि और धृति: अज्ञान, आलस्य और भ्रम से युक्त।
  2. सुख के प्रकार:

    • सात्त्विक सुख: आरंभ में कठिन लेकिन अंत में शुद्ध और शांति देने वाला।
    • राजसिक सुख: आरंभ में सुखद लेकिन अंत में कष्टदायक।
    • तामसिक सुख: आलस्य और अज्ञान से उत्पन्न सुख।
  3. प्रकृति के गुण:

    • सृष्टि का हर प्राणी सत्त्व, रजस और तमस गुणों से प्रभावित है।
  4. वर्ण और कर्तव्य:

    • समाज के चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) के कर्तव्य उनके स्वभाव और गुणों के अनुसार निर्धारित होते हैं।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि जीवन में बुद्धि, धैर्य और सुख के प्रकार को समझकर व्यक्ति को सत्त्वगुण को अपनाना चाहिए। सृष्टि के हर प्राणी पर प्रकृति के गुणों का प्रभाव होता है, लेकिन आत्मज्ञान से इन गुणों से ऊपर उठा जा सकता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...