शनिवार, 30 अगस्त 2025

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के बाद की स्थिति, भक्ति योग की महिमा, और अर्जुन को दिए गए उनके अंतिम उपदेशों का वर्णन किया है। साथ ही, उन्होंने गीता के महत्त्व और इसके पाठ के लाभों का उल्लेख किया है।


श्लोक 54

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥

अर्थ:
"ब्रह्म की अवस्था को प्राप्त व्यक्ति प्रसन्नचित्त रहता है, न शोक करता है और न ही किसी चीज़ की कामना करता है। वह सभी प्राणियों के प्रति समभाव रखता है और मेरी (भगवान की) सर्वोच्च भक्ति प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
ब्रह्मभूत अवस्था में व्यक्ति अज्ञान, मोह और भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो जाता है। इस स्थिति में भगवान की भक्ति सर्वोच्च होती है, जो आत्मा को शांति और मोक्ष प्रदान करती है।


श्लोक 55

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥

अर्थ:
"केवल भक्ति के द्वारा ही कोई मेरी वास्तविक तत्त्व रूप में पहचान कर मुझे जान सकता है। इस प्रकार मुझे तत्त्व से जानने के बाद, वह मुझमें प्रवेश करता है।"

व्याख्या:
भगवान समझाते हैं कि भक्ति योग के माध्यम से ही उनकी वास्तविक प्रकृति को समझा जा सकता है। भक्ति से व्यक्ति भगवान के साथ एकात्मता प्राप्त करता है।


श्लोक 56

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति सभी कर्म करते हुए भी मुझमें आश्रय लेता है, वह मेरी कृपा से शाश्वत और अविनाशी धाम को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
भक्त अपने सभी कर्म भगवान को अर्पित करता है। भगवान की कृपा से उसे मोक्ष प्राप्त होता है और वह उनके दिव्य धाम में प्रवेश करता है।


श्लोक 57

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव॥

अर्थ:
"अपने मन से सभी कर्म मुझे अर्पित करके, मुझमें समर्पित होकर और बुद्धि योग का आश्रय लेकर, सदा मुझमें चित्त लगाए रखो।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को सलाह देते हैं कि वह अपने सभी कर्म भगवान को समर्पित करे और अपने मन को सदा उनके ध्यान में लगाए रखे। यह मार्ग आत्मा को शुद्ध करता है।


श्लोक 58

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥

अर्थ:
"यदि तुम मुझमें चित्त लगाओगे, तो मेरी कृपा से सभी बाधाओं को पार करोगे। लेकिन यदि अहंकारवश मेरी बात नहीं मानोगे, तो नष्ट हो जाओगे।"

व्याख्या:
भगवान चेतावनी देते हैं कि उनकी शरण में आने से सभी कठिनाइयों का समाधान हो जाता है। लेकिन अहंकार और ईश्वर से विमुखता विनाश का कारण बनती है।


श्लोक 59-60

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति॥
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्॥

अर्थ:
"यदि तुम अहंकारवश यह सोचते हो कि युद्ध नहीं करोगे, तो यह तुम्हारा भ्रम है। तुम्हारा स्वभाव तुम्हें कर्म करने के लिए बाध्य करेगा।
हे कौन्तेय, स्वभाव से बंधे हुए तुम, मोहवश जो करना नहीं चाहते हो, वह भी करने को विवश हो जाओगे।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को बताते हैं कि उनका स्वभाव (क्षत्रिय धर्म) उन्हें युद्ध के लिए बाध्य करेगा। कर्तव्य से बचना संभव नहीं है।


श्लोक 61

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, भगवान सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हैं और अपनी माया से उन्हें जैसे यंत्र पर चढ़े हुए घुमाते रहते हैं।"

व्याख्या:
भगवान सभी जीवों के अंतःकरण में स्थित हैं और उनकी माया से संसार की व्यवस्था चलाते हैं। यह उनकी सर्वव्यापकता का प्रमाण है।


श्लोक 62

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥

अर्थ:
"हे भारत, उस भगवान की शरण में जाओ। उनकी कृपा से तुम परम शांति और शाश्वत धाम को प्राप्त करोगे।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को निर्देश देते हैं कि वह उनकी शरण में आएं, क्योंकि केवल भगवान की कृपा से ही मोक्ष और शांति प्राप्त हो सकती है।


श्लोक 63

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥

अर्थ:
"मैंने तुम्हें यह गुप्त से गुप्ततर ज्ञान बताया है। अब इसे भली-भाँति विचार कर, जैसा उचित लगे वैसा करो।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को स्वतंत्रता देते हैं कि वह विचार करके अपने कर्म का चुनाव करें। यह उनके प्रति भगवान के प्रेम और विश्वास को दर्शाता है।


श्लोक 64-65

सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्॥
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥

अर्थ:
"अब मैं तुम्हें सबसे गुप्त और परम वचन सुनाता हूँ क्योंकि तुम मुझे अत्यंत प्रिय हो।
मेरा स्मरण करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे प्रणाम करो। ऐसा करने से तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। यह मेरा वचन है।"

व्याख्या:
भगवान अपने परम प्रेम को व्यक्त करते हैं और बताते हैं कि भक्ति और समर्पण के द्वारा भक्त भगवान के समीप पहुँच सकता है।


श्लोक 66

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥

अर्थ:
"सभी धर्मों को त्यागकर केवल मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा। शोक मत करो।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि पूर्ण समर्पण और उनकी शरण में आने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है। यह भक्ति और समर्पण का सर्वोच्च संदेश है।


श्लोक 67-68

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥

अर्थ:
"यह गूढ़ ज्ञान न तो तपस्व्य रहित, न अभक्त, न सुनने की इच्छा न रखने वाले और न ही मुझसे द्वेष करने वाले को बताना चाहिए।
जो इस गूढ़ ज्ञान को मेरे भक्तों को बताता है, वह मेरी परम भक्ति प्राप्त करता है और मेरे पास आता है। इसमें संदेह नहीं है।"

व्याख्या:
भगवान इस ज्ञान को केवल भक्तों और योग्य व्यक्तियों को बताने का निर्देश देते हैं। इस ज्ञान का प्रचार करना भी भगवान की सेवा है।


श्लोक 69

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि॥

अर्थ:
"इससे बढ़कर मेरे लिए प्रिय कोई और मनुष्य नहीं है, और न ही ऐसा कोई होगा जो मुझे इससे अधिक प्रिय हो।"

व्याख्या:
जो व्यक्ति गीता के इस ज्ञान का प्रचार करता है, वह भगवान का प्रिय भक्त होता है।


श्लोक 70-71

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः॥
श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति इस धर्ममय संवाद का अध्ययन करता है, वह ज्ञान यज्ञ द्वारा मुझे पूजता है।
जो श्रद्धा और बिना द्वेष के इसे सुनता है, वह भी पवित्र होकर पुण्यलोक को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
गीता का अध्ययन और श्रवण ज्ञान यज्ञ के समान है, जो व्यक्ति को पवित्रता और मोक्ष की ओर ले जाता है।


श्लोक 72-73

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनंजय॥
अर्जुन उवाच।
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव॥

अर्थ:
"हे पार्थ, क्या तुमने इसे एकाग्रचित्त होकर सुना? क्या तुम्हारा अज्ञान और मोह समाप्त हो गया?
अर्जुन ने कहा: हे अच्युत, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे स्मरण शक्ति प्राप्त हो गई है। मैं अब स्थिर हूँ और आपके वचन का पालन करूँगा।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन से उनके मोह की स्थिति के बारे में पूछते हैं। अर्जुन उत्तर देते हैं कि उनका भ्रम समाप्त हो गया है और अब वे अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए तैयार हैं।


श्लोक 74-78

संजय उवाच।
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्॥
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्॥
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः॥
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
विस्मयो मे महान्राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः॥
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥

अर्थ:
"संजय ने कहा: मैंने वासुदेव (कृष्ण) और महात्मा पार्थ (अर्जुन) के इस अद्भुत संवाद को सुना, जो मेरे रोंगटे खड़े कर देने वाला था।
मैंने व्यास की कृपा से भगवान कृष्ण द्वारा प्रत्यक्ष रूप से बताए गए इस परम गूढ़ योग को सुना।
हे राजन, मैं बार-बार इस अद्भुत संवाद और भगवान के दिव्य रूप को स्मरण करता हूँ और प्रसन्नता से भर जाता हूँ।
जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन हैं, वहाँ निश्चित रूप से श्री (संपत्ति), विजय, ऐश्वर्य और नीति विद्यमान है। यह मेरा मत है।"

व्याख्या:
संजय ने इस संवाद को दिव्य दृष्टि से सुना और उसकी महिमा का वर्णन किया। वह यह निष्कर्ष निकालते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन जहाँ हैं, वहाँ विजय और धर्म अवश्य होगा।


सारांश (श्लोक 54-78):

  1. ब्रह्म ज्ञान और भक्ति योग:
    • ब्रह्मभूत अवस्था में व्यक्ति भक्ति के माध्यम से भगवान को प्राप्त करता

है।

  1. भगवान की शरण:

    • भगवान की शरण में जाने से सभी पापों से मुक्ति और मोक्ष प्राप्त होता है।
  2. गीता का महत्त्व:

    • गीता का अध्ययन, श्रवण, और प्रचार पुण्यदायी और मोक्षदायक है।
  3. अर्जुन की दृढ़ता:

    • अर्जुन ने भगवान की शिक्षाओं को स्वीकार कर अपने कर्तव्य का पालन करने का निश्चय किया।
  4. संजय का निष्कर्ष:

    • जहाँ भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं, वहाँ विजय, ऐश्वर्य और धर्म निश्चित है।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में ज्ञान, भक्ति, और कर्म के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताया है। गीता के उपदेश न केवल अर्जुन के लिए, बल्कि समस्त मानवता के लिए प्रेरणा और मार्गदर्शन हैं।

शनिवार, 23 अगस्त 2025

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) सार्वभौम संन्यास (श्लोक 42-53)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 42 से श्लोक 53 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने चार वर्णों के स्वाभाविक गुणों और कर्तव्यों, कर्म योग की महिमा, और आत्म-उन्नति के मार्ग को समझाया है।


श्लोक 42

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥

अर्थ:
"शांति, इंद्रिय-संयम, तप, शुद्धता, सहनशीलता, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता – ये ब्राह्मण के स्वभाव से उत्पन्न कर्म हैं।"

व्याख्या:
ब्राह्मण के कर्तव्य आत्मिक और आध्यात्मिक गुणों को अपनाना है। वह ज्ञान, तप और संयम से समाज का मार्गदर्शन करता है।


श्लोक 43

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥

अर्थ:
"शूरवीरता, तेज, धैर्य, दक्षता, युद्ध में न भागना, दान और नेतृत्व क्षमता – ये क्षत्रिय के स्वभाव से उत्पन्न कर्म हैं।"

व्याख्या:
क्षत्रिय का धर्म है समाज की रक्षा करना, दूसरों की भलाई के लिए नेतृत्व करना और युद्ध में अपने कर्तव्य से पीछे न हटना।


श्लोक 44

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥

अर्थ:
"कृषि, गौ-पालन और व्यापार – ये वैश्य के स्वभाव से उत्पन्न कर्म हैं। सेवा करना – यह शूद्र का स्वभावज कर्म है।"

व्याख्या:
वैश्य का धर्म है आर्थिक गतिविधियों के माध्यम से समाज का पोषण करना, जबकि शूद्र का कर्तव्य सेवा और सहायता प्रदान करना है।


श्लोक 45

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिर्णिर्तं सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु॥

अर्थ:
"अपने-अपने कर्तव्यों में आसक्त होकर मनुष्य सिद्धि प्राप्त करता है। अब मैं बताता हूँ कि स्वभाव के अनुसार कर्म करते हुए कैसे सिद्धि प्राप्त की जाती है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करना ही मनुष्य का धर्म है। अपने कर्तव्य का पालन करने से आत्मा की उन्नति और सिद्धि प्राप्त होती है।


श्लोक 46

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥

अर्थ:
"जिससे सभी प्राणियों की उत्पत्ति होती है और जो पूरे जगत में व्याप्त है, उस परमात्मा की पूजा अपने कर्मों के माध्यम से करने से मनुष्य सिद्धि प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
कर्म के माध्यम से भगवान की आराधना करने से व्यक्ति आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करता है। अपने कार्य को भगवान का अर्पण मानकर करना सच्चा धर्म है।


श्लोक 47

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥

अर्थ:
"अपना धर्म (कर्तव्य), चाहे वह अपूर्ण हो, दूसरों के धर्म (कर्तव्य) को पूर्ण रूप से निभाने से श्रेष्ठ है। स्वभाव से निर्धारित कर्म को करते हुए व्यक्ति पाप से बचता है।"

व्याख्या:
भगवान सिखाते हैं कि अपने स्वभाव के अनुसार धर्म का पालन करना सर्वोत्तम है। दूसरों का धर्म अपनाने से दोष और पाप उत्पन्न हो सकते हैं।


श्लोक 48

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, स्वाभाविक कर्म को, चाहे उसमें दोष हो, त्यागना नहीं चाहिए। जैसे अग्नि धुएँ से ढकी होती है, वैसे ही सभी कर्म कुछ दोषों से घिरे होते हैं।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि कोई भी कर्म पूर्णतया निर्दोष नहीं होता। इसलिए अपने स्वाभाविक कर्तव्यों को अपनाकर करना ही उचित है।


श्लोक 49

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति सभी जगह आसक्ति से मुक्त, आत्मसंयमी और इच्छारहित है, वह संन्यास के माध्यम से परम नैष्कर्म्य सिद्धि (कर्म से मुक्त होने की सिद्धि) को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
सच्चा संन्यास वह है जिसमें व्यक्ति कर्म करता है लेकिन आसक्ति और इच्छाओं से मुक्त रहता है। यह स्थिति आत्मज्ञान और मोक्ष का मार्ग है।


श्लोक 50

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, जिस प्रकार से सिद्धि प्राप्त करने के बाद व्यक्ति ब्रह्म को प्राप्त करता है, उसे मैं संक्षेप में समझाता हूँ। यह ज्ञान की सर्वोच्च स्थिति है।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को समझाते हैं कि आत्मा की सिद्धि और ब्रह्म के साथ एकत्व को कैसे प्राप्त किया जा सकता है।


श्लोक 51-53

बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥

अर्थ:
"शुद्ध बुद्धि और धैर्य से युक्त होकर, आत्मा को नियंत्रित करते हुए, इंद्रिय विषयों (शब्द आदि) को त्यागकर, राग और द्वेष से मुक्त होकर,
एकांतप्रिय, कम खाने वाला, वाणी, शरीर और मन को नियंत्रित करने वाला, ध्यान में लीन, वैराग्य अपनाने वाला,
अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और संग्रह (मोह) का त्याग करने वाला व्यक्ति, 'निर्मम' और शांत होकर ब्रह्म को प्राप्त करने योग्य हो जाता है।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ ब्रह्म प्राप्ति के लिए योगी के लक्षण बताते हैं।

  • शुद्ध बुद्धि और संयम अपनाना।
  • इंद्रिय विषयों, राग-द्वेष, और भौतिक इच्छाओं से मुक्त होना।
  • ध्यान, वैराग्य, और आत्मसंयम को अपनाना।
  • अहंकार, क्रोध, और मोह का त्याग करना।
    इन गुणों से व्यक्ति ब्रह्म भाव को प्राप्त करता है।

सारांश (श्लोक 42-53):

  1. वर्ण और कर्तव्य:

    • प्रत्येक वर्ण के स्वाभाविक गुण और कर्तव्य उनके स्वभाव के आधार पर निर्धारित होते हैं।
    • ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र के कर्तव्य समाज की उन्नति के लिए आवश्यक हैं।
  2. स्वधर्म और कर्म का महत्व:

    • स्वधर्म (अपने कर्तव्य) का पालन करना ही सच्चा धर्म है।
    • अपने स्वाभाविक कर्म को करना, भले ही उसमें दोष हो, परम सिद्धि की ओर ले जाता है।
  3. सिद्धि और ब्रह्म प्राप्ति:

    • शुद्ध बुद्धि, आत्मसंयम, और वैराग्य से व्यक्ति ब्रह्म प्राप्त कर सकता है।
    • अहंकार, राग-द्वेष, और मोह का त्याग ब्रह्म ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करता है।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि समाज के प्रत्येक वर्ग का अपना विशेष कर्तव्य है। अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करना ही धर्म है। ध्यान, वैराग्य, और आत्मसंयम से व्यक्ति ब्रह्म की प्राप्ति कर सकता है। यह मोक्ष का मार्ग है।

शनिवार, 16 अगस्त 2025

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) कर्म के प्रकार और उनका महत्व (श्लोक 31-41)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 31 से श्लोक 41 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने बुद्धि और धैर्य (धृति) के तीन प्रकारों (सात्त्विक, राजसिक, तामसिक) और समाज में चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) के कर्तव्यों का वर्णन किया है।


श्लोक 31

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी॥

अर्थ:
"हे पार्थ, जो बुद्धि धर्म और अधर्म, क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, को सही ढंग से नहीं समझती, वह राजसिक बुद्धि कहलाती है।"

व्याख्या:
राजसिक बुद्धि भ्रमित होती है और धर्म-अधर्म या सही-गलत के बीच अंतर नहीं कर पाती। यह भौतिक इच्छाओं और स्वार्थ के कारण निर्णय लेने में असमर्थ होती है।


श्लोक 32

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी॥

अर्थ:
"हे पार्थ, जो बुद्धि अधर्म को धर्म मानती है और सभी चीजों को उल्टा समझती है, वह तामसिक बुद्धि कहलाती है।"

व्याख्या:
तामसिक बुद्धि अज्ञान और भ्रम में डूबी होती है। यह सत्य को असत्य मानती है और सही-गलत का बिल्कुल विपरीत अर्थ लगाती है।


श्लोक 33

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी॥

अर्थ:
"हे पार्थ, जो धैर्य (धृति) मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं को योग के माध्यम से नियंत्रित रखती है और विचलित नहीं होती, वह सात्त्विक धृति कहलाती है।"

व्याख्या:
सात्त्विक धृति स्थिरता और संयम का प्रतीक है। यह व्यक्ति को अपने मन, प्राण और इंद्रियों को संतुलित रखने में मदद करती है और आत्मज्ञान की ओर अग्रसर करती है।


श्लोक 34

यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, जो धैर्य धर्म, काम और अर्थ को केवल फल की आकांक्षा से और अत्यधिक आसक्ति के साथ धारण करता है, वह राजसिक धृति कहलाती है।"

व्याख्या:
राजसिक धृति भौतिक इच्छाओं और परिणामों पर आधारित होती है। यह व्यक्ति को कर्म करने के लिए प्रेरित करती है, लेकिन उसका उद्देश्य केवल स्वार्थ और भोग होता है।


श्लोक 35

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुंचति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी॥

अर्थ:
"हे पार्थ, जो धैर्य (धृति) स्वप्न, भय, शोक, विषाद और अहंकार को नहीं छोड़ता, वह तामसिक धृति कहलाता है।"

व्याख्या:
तामसिक धृति आलस्य, भय, और नकारात्मक भावनाओं से घिरी होती है। यह व्यक्ति को अज्ञान और मानसिक अस्थिरता की स्थिति में रखती है।


श्लोक 36-37

सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति॥
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्॥

अर्थ:
"हे भरतश्रेष्ठ, अब तीन प्रकार के सुखों के बारे में सुनो। जो अभ्यास से सुखद लगता है और दुःख का अंत करता है, जो आरंभ में विष के समान है लेकिन परिणाम में अमृत के समान है, वह सुख सात्त्विक है।"

व्याख्या:
सात्त्विक सुख आत्मबुद्धि और अनुशासन से प्राप्त होता है। यह शुरुआत में कठिन लग सकता है, लेकिन अंततः यह आत्मा को शुद्ध करता है और परम शांति देता है।


श्लोक 38

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥

अर्थ:
"जो सुख इंद्रियों और विषयों के संपर्क से उत्पन्न होता है, जो आरंभ में अमृत के समान प्रतीत होता है लेकिन अंत में विष के समान होता है, वह राजसिक सुख कहलाता है।"

व्याख्या:
राजसिक सुख भौतिक इच्छाओं और इंद्रिय भोग पर आधारित होता है। यह अस्थायी होता है और अंततः दुःख और असंतोष को जन्म देता है।


श्लोक 39

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्॥

अर्थ:
"जो सुख आरंभ में और परिणाम में आत्मा को भ्रमित करता है, और जो आलस्य, निद्रा और प्रमाद से उत्पन्न होता है, वह तामसिक सुख कहलाता है।"

व्याख्या:
तामसिक सुख अज्ञान और आलस्य से उत्पन्न होता है। यह आत्मा को मोह में डालता है और आध्यात्मिक प्रगति में बाधा उत्पन्न करता है।


श्लोक 40

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः॥

अर्थ:
"न तो पृथ्वी पर और न ही स्वर्ग में, कोई भी ऐसा प्राणी है जो इन तीन गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) से मुक्त हो।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि सृष्टि के सभी प्राणी प्रकृति के तीन गुणों से प्रभावित होते हैं। केवल आत्म-साक्षात्कार से इन गुणों से ऊपर उठा जा सकता है।


श्लोक 41

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥

अर्थ:
"हे परंतप (अर्जुन), ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – इन सभी के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार विभाजित किए गए हैं।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ समाज के चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) के कर्तव्यों का वर्णन करते हैं। ये कर्तव्य जन्म से नहीं, बल्कि व्यक्ति के स्वभाव और गुणों पर आधारित हैं।


सारांश (श्लोक 31-41):

  1. बुद्धि और धृति के प्रकार:

    • सात्त्विक बुद्धि और धृति: धर्म-अधर्म का सही ज्ञान और आत्म-नियंत्रण।
    • राजसिक बुद्धि और धृति: भौतिक इच्छाओं और स्वार्थ से प्रेरित।
    • तामसिक बुद्धि और धृति: अज्ञान, आलस्य और भ्रम से युक्त।
  2. सुख के प्रकार:

    • सात्त्विक सुख: आरंभ में कठिन लेकिन अंत में शुद्ध और शांति देने वाला।
    • राजसिक सुख: आरंभ में सुखद लेकिन अंत में कष्टदायक।
    • तामसिक सुख: आलस्य और अज्ञान से उत्पन्न सुख।
  3. प्रकृति के गुण:

    • सृष्टि का हर प्राणी सत्त्व, रजस और तमस गुणों से प्रभावित है।
  4. वर्ण और कर्तव्य:

    • समाज के चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) के कर्तव्य उनके स्वभाव और गुणों के अनुसार निर्धारित होते हैं।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि जीवन में बुद्धि, धैर्य और सुख के प्रकार को समझकर व्यक्ति को सत्त्वगुण को अपनाना चाहिए। सृष्टि के हर प्राणी पर प्रकृति के गुणों का प्रभाव होता है, लेकिन आत्मज्ञान से इन गुणों से ऊपर उठा जा सकता है।

शनिवार, 9 अगस्त 2025

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) कर्मों का विभाजन (श्लोक 13-30)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 13 से 30 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म के कारणों, कर्ता, बुद्धि और संकल्प के तीन प्रकारों (सात्त्विक, राजसिक, तामसिक) का वर्णन किया है।


श्लोक 13

पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्॥

अर्थ:
"हे महाबाहु (अर्जुन), सभी कर्मों की सिद्धि के लिए पाँच कारण बताए गए हैं। इनको समझो, जो सांख्य योग में विस्तार से बताए गए हैं।"

व्याख्या:
भगवान ने कर्म सिद्धि के लिए पाँच कारणों का उल्लेख किया है। ये कर्म के प्रभाव और उसके घटकों को समझने के लिए आवश्यक हैं।


श्लोक 14

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्॥

अर्थ:
"वे पाँच कारण हैं: (1) अधिष्ठान (शरीर), (2) कर्ता (आत्मा), (3) करण (इंद्रियाँ), (4) चेष्टा (कर्म), और (5) दैव (भगवान की कृपा)।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि कर्म के सफल होने के लिए इन पाँच तत्वों का योगदान आवश्यक है। दैव (ईश्वर की कृपा) सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।


श्लोक 15

शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः॥

अर्थ:
"जो भी कर्म मनुष्य शरीर, वाणी और मन से करता है – चाहे वह न्यायपूर्ण हो या अन्यथा – इन पाँच कारणों से होता है।"

व्याख्या:
हर कर्म, चाहे वह सही हो या गलत, इन्हीं पाँच कारणों से संपन्न होता है। यह कर्म के पीछे के तत्वों को स्पष्ट करता है।


श्लोक 16

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः॥

अर्थ:
"जो मूर्ख व्यक्ति इन कारणों को न समझकर आत्मा को अकेला कर्ता मानता है, वह सही नहीं देखता।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि जो व्यक्ति इन पाँच कारणों की भूमिका को अनदेखा करता है और आत्मा को अकेला कर्ता मानता है, वह अज्ञानी है।


श्लोक 17

यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥

अर्थ:
"जिस व्यक्ति में अहंकार नहीं है और जिसकी बुद्धि शुद्ध है, वह भले ही दूसरों को मार दे, फिर भी वह न तो हत्या करता है और न ही बंधन में बंधता है।"

व्याख्या:
अहंकार से मुक्त और शुद्ध बुद्धि वाला व्यक्ति कर्मों से बंधता नहीं है। वह समझता है कि सभी कर्म ईश्वर की इच्छा से होते हैं।


श्लोक 18

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः॥

अर्थ:
"ज्ञान, ज्ञेय (जिसे जानना है) और ज्ञाता (जानने वाला) – ये तीन प्रकार की प्रेरणाएँ हैं। और करण (इंद्रियाँ), कर्म और कर्ता – ये तीन प्रकार के कर्म के घटक हैं।"

व्याख्या:
भगवान कर्म की प्रक्रिया और उसे प्रेरित करने वाले तत्वों का विवरण देते हैं। यह त्रिविध दृष्टिकोण कर्म को समझने के लिए आवश्यक है।


श्लोक 19

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि॥

अर्थ:
"ज्ञान, कर्म और कर्ता – इन तीनों को भी गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) के आधार पर तीन प्रकार में विभाजित किया गया है। अब मैं तुम्हें इनके बारे में बताता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि कर्म, ज्ञान और कर्ता की प्रकृति गुणों (सत्त्व, रजस और तमस) से निर्धारित होती है।


श्लोक 20

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्॥

अर्थ:
"जो ज्ञान सभी प्राणियों में अविभाज्य, अविनाशी और एक ही आत्मा को देखता है, वह सात्त्विक ज्ञान है।"

व्याख्या:
सात्त्विक ज्ञान वह है जो सभी प्राणियों में एक ही परमात्मा की उपस्थिति को पहचानता है। यह ज्ञान एकता और दिव्यता को प्रकट करता है।


श्लोक 21

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्॥

अर्थ:
"जो ज्ञान सभी प्राणियों को अलग-अलग और विविध रूपों में देखता है, वह राजसिक ज्ञान है।"

व्याख्या:
राजसिक ज्ञान भेदभाव को प्रोत्साहित करता है और भौतिक दृष्टिकोण पर आधारित होता है। यह ज्ञान संसारिक इच्छाओं और भौतिकता से प्रेरित होता है।


श्लोक 22

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्॥

अर्थ:
"जो ज्ञान बिना किसी कारण के एक ही वस्तु को सबकुछ मानता है और सत्य को नहीं समझता, वह तामसिक ज्ञान है।"

व्याख्या:
तामसिक ज्ञान सीमित, भ्रमपूर्ण और असत्य पर आधारित होता है। यह व्यक्ति को अज्ञानता में डाल देता है।


श्लोक 23

नियतं संगरहितमरागद्वेषतः कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते॥

अर्थ:
"जो कर्म नियत (कर्तव्य) है, जिसमें आसक्ति, राग-द्वेष और फल की इच्छा नहीं होती, वह सात्त्विक कर्म है।"

व्याख्या:
सात्त्विक कर्म शुद्ध मन और निष्काम भावना से किया जाता है। इसमें आत्मा की शुद्धि और भगवान की कृपा प्राप्त करने का उद्देश्य होता है।


श्लोक 24

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्॥

अर्थ:
"जो कर्म फल की इच्छा से या अहंकार के साथ अत्यधिक प्रयास करके किया जाता है, वह राजसिक कर्म कहलाता है।"

व्याख्या:
राजसिक कर्म स्वार्थ और इच्छाओं से प्रेरित होता है। यह कर्म भौतिक सुखों और प्रसिद्धि के लिए किया जाता है।


श्लोक 25

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥

अर्थ:
"जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और क्षमता की परवाह किए बिना अज्ञानता से किया जाता है, वह तामसिक कर्म कहलाता है।"

व्याख्या:
तामसिक कर्म अज्ञानता, आलस्य और हठ के कारण किया जाता है। यह दूसरों के लिए हानिकारक होता है और आत्मा को अधोगति की ओर ले जाता है।


श्लोक 26

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते॥

अर्थ:
"जो कर्ता आसक्ति और अहंकार से मुक्त है, जो धैर्य और उत्साह से युक्त है, और जो सफलता-असफलता में समान रहता है, वह सात्त्विक कर्ता कहलाता है।"

व्याख्या:
सात्त्विक कर्ता अपने कर्तव्यों को शांत और स्थिर मन से करता है। वह कर्म के फल से प्रभावित नहीं होता।


श्लोक 27

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः॥

अर्थ:
"जो कर्ता आसक्त, फल की इच्छा रखने वाला, लालची, हिंसक, अशुद्ध और हर्ष-शोक से प्रभावित होता है, वह राजसिक कर्ता कहलाता है।"

व्याख्या:
राजसिक कर्ता भौतिक इच्छाओं और स्वार्थ से प्रेरित होता है। वह कर्म को अपनी सफलता और प्रसिद्धि के लिए करता है।


श्लोक 28

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते॥

अर्थ:
"जो कर्ता अयोग्य, मूर्ख, हठी, धोखेबाज, अहंकारी, आलसी, उदास और देर करने वाला है, वह तामसिक कर्ता कहलाता है।"

व्याख्या:
तामसिक कर्ता अज्ञानता और आलस्य से प्रेरित होता है। वह अपने कर्तव्यों को ठीक से नहीं निभाता और दूसरों के प्रति नकारात्मक रहता है।


श्लोक 29-30

बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय॥
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी॥

अर्थ:
"हे धनंजय, अब बुद्धि और धृति (धैर्य) के तीन प्रकारों को विस्तार से सुनो। जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति, क्या करना चाहिए और क्या नहीं, भय और अभय, बंधन और मोक्ष को सही से समझती है, वह सात्त्विक बुद्धि कहलाती है।"

व्याख्या:
सात्त्विक बुद्धि वह है जो धर्म-अधर्म, सही-गलत, और मोक्ष-बंधन के बीच सही अंतर समझ सके। यह व्यक्ति को सच्चे ज्ञान और मोक्ष की ओर ले जाती है।


सारांश (श्लोक 13-30):

  1. कर्म के पाँच कारण:
    • अधिष्ठान (शरीर), कर्ता (आत्मा), करण (इंद्रियाँ), चेष्टा (प्रयास

), और दैव (भगवान की कृपा)।

  1. ज्ञान के तीन प्रकार:

    • सात्त्विक ज्ञान: सभी में एक ही आत्मा को देखना।
    • राजसिक ज्ञान: भेदभाव और भौतिकता पर आधारित।
    • तामसिक ज्ञान: संकीर्ण और अज्ञानता से युक्त।
  2. कर्ताओं के तीन प्रकार:

    • सात्त्विक कर्ता: निष्काम और संतुलित।
    • राजसिक कर्ता: इच्छाओं और अहंकार से प्रेरित।
    • तामसिक कर्ता: अज्ञानी और आलसी।
  3. सात्त्विक बुद्धि:

    • प्रवृत्ति (धर्म) और निवृत्ति (अधर्म) का सही ज्ञान।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि कर्म, ज्ञान और कर्ता के प्रकार गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) पर निर्भर करते हैं। सच्चा त्याग और बुद्धि वही है जो निष्काम और धर्मपरायण हो। मोक्ष के लिए सात्त्विक गुणों को अपनाना चाहिए।

शनिवार, 2 अगस्त 2025

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) संन्यास और कर्मयोग (श्लोक 1-12)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 1 से श्लोक 12 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने त्याग (संन्यास) और कर्म के विभिन्न रूपों का वर्णन किया है। उन्होंने यह भी समझाया है कि सच्चा त्याग क्या है और त्याग का सही स्वरूप क्या होना चाहिए।


श्लोक 1

अर्जुन उवाच
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन॥

अर्थ:
"अर्जुन ने कहा: हे महाबाहु हृषीकेश, हे केशिनिषूदन, मैं संन्यास और त्याग का तत्व जानना चाहता हूँ। कृपया मुझे स्पष्ट रूप से बताइए।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान से संन्यास और त्याग के बीच के अंतर को समझाने का अनुरोध करते हैं। वह जानना चाहते हैं कि इन दोनों का वास्तविक अर्थ और उद्देश्य क्या है।


श्लोक 2

श्रीभगवानुवाच
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: कामनाओं से युक्त कर्मों का त्याग 'संन्यास' कहलाता है, और सभी कर्मों के फलों के त्याग को 'त्याग' कहते हैं।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि:

  • संन्यास: इच्छाओं से प्रेरित कर्मों का त्याग।
  • त्याग: सभी कर्मों के फलों को त्याग देना।
    यह दोनों शब्द त्याग के दो अलग-अलग पहलुओं को दर्शाते हैं।

श्लोक 3

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे॥

अर्थ:
"कुछ मनीषी (ज्ञानी) कर्मों को दोषपूर्ण मानकर त्यागने योग्य कहते हैं, जबकि कुछ कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप जैसे कर्म कभी त्यागने योग्य नहीं हैं।"

व्याख्या:
कर्मों के बारे में भिन्न दृष्टिकोण हैं। कुछ लोग सभी कर्मों को त्यागने योग्य मानते हैं, जबकि अन्य केवल इच्छाओं और भोग से जुड़े कर्मों को त्यागने की सलाह देते हैं।


श्लोक 4

निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः॥

अर्थ:
"हे भरतश्रेष्ठ, त्याग के विषय में मेरा निश्चित मत सुनो। हे पुरुषों में श्रेष्ठ, त्याग तीन प्रकार का होता है।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को स्पष्ट करते हैं कि त्याग तीन प्रकार का होता है और इसके सही स्वरूप को समझने के लिए उन्हें ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए।


श्लोक 5

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्॥

अर्थ:
"यज्ञ, दान और तप के कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए। इन्हें अवश्य करना चाहिए, क्योंकि ये ज्ञानी लोगों को पवित्र करते हैं।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि यज्ञ (भगवान की पूजा), दान (परोपकार) और तप (आत्म-संयम) जैसे कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं, क्योंकि ये आत्मा को शुद्ध करते हैं।


श्लोक 6

एतान्यपि तु कर्माणि संगं त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्॥

अर्थ:
"लेकिन इन कर्मों को आसक्ति और फल की इच्छा छोड़कर करना चाहिए। हे पार्थ, यह मेरा निश्चित और श्रेष्ठ मत है।"

व्याख्या:
भगवान यह स्पष्ट करते हैं कि यज्ञ, दान और तप को फल की आकांक्षा और आसक्ति के बिना करना चाहिए। यह शुद्ध कर्म का मार्ग है।


श्लोक 7

नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः॥

अर्थ:
"नियत (कर्तव्य) कर्म का त्याग उचित नहीं है। अज्ञान या मोह के कारण इसका त्याग तामसिक (अधम) माना जाता है।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि कर्तव्य कर्मों को छोड़ना अज्ञान का लक्षण है। ऐसा त्याग तामसिक कहलाता है और यह व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में बाधा डालता है।


श्लोक 8

दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति किसी कर्म को केवल दुःख या शारीरिक कष्ट के भय से त्यागता है, उसका त्याग राजसिक (आसक्ति युक्त) कहलाता है। ऐसा त्याग फलदायी नहीं होता।"

व्याख्या:
राजसिक त्याग वह है जिसमें व्यक्ति अपने कर्तव्यों से बचने के लिए त्याग करता है। यह त्याग स्वार्थपूर्ण और अस्थिर होता है।


श्लोक 9

कार्यं इत्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।
संगं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, जो कर्म केवल कर्तव्य समझकर, आसक्ति और फल की इच्छा छोड़कर किया जाता है, वह सात्त्विक त्याग कहलाता है।"

व्याख्या:
सात्त्विक त्याग वह है जिसमें व्यक्ति अपने कर्मों को कर्तव्य मानकर करता है, लेकिन किसी प्रकार की इच्छाओं और आसक्तियों से मुक्त रहता है।


श्लोक 10

न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः॥

अर्थ:
"जो त्यागी कुशल (शुभ) और अकुशल (अशुभ) कर्मों से न तो द्वेष करता है और न ही आसक्त होता है, वह सत्त्वगुण से युक्त, बुद्धिमान और संशयों से मुक्त होता है।"

व्याख्या:
सच्चा त्यागी हर प्रकार के कर्म को स्वीकार करता है और उनसे मुक्त रहता है। वह न तो किसी कर्म को नापसंद करता है और न ही किसी में आसक्ति रखता है।


श्लोक 11

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते॥

अर्थ:
"शरीरधारी के लिए सभी कर्मों का पूर्ण त्याग संभव नहीं है। लेकिन जो कर्मों के फलों का त्याग करता है, उसे ही सच्चा त्यागी कहा जाता है।"

व्याख्या:
भगवान समझाते हैं कि जीवन में सभी कर्मों का त्याग करना संभव नहीं है। सच्चा त्याग वह है जिसमें व्यक्ति कर्म करता है लेकिन उनके फलों की इच्छा नहीं रखता।


श्लोक 12

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्॥

अर्थ:
"कर्मों का फल तीन प्रकार का होता है – अनिष्ट (अप्रिय), इष्ट (प्रिय) और मिश्रित। लेकिन यह केवल त्याग न करने वालों को प्राप्त होता है, संन्यासी को नहीं।"

व्याख्या:
जो व्यक्ति कर्मों के फलों का त्याग नहीं करता, उसे अपने कर्मों के अनुसार सुखद, दुखद, या मिश्रित फल भोगने पड़ते हैं। लेकिन सच्चा संन्यासी इन फलों से मुक्त रहता है।


सारांश (श्लोक 1-12):

  1. त्याग और संन्यास का अर्थ:

    • संन्यास: इच्छाओं और कामनाओं से प्रेरित कर्मों का त्याग।
    • त्याग: सभी कर्मों के फलों का त्याग।
  2. त्याग के तीन प्रकार:

    • तामसिक त्याग: अज्ञान या मोह के कारण कर्तव्य का त्याग।
    • राजसिक त्याग: कष्ट या भय के कारण कर्म का त्याग।
    • सात्त्विक त्याग: कर्तव्य का पालन करना लेकिन फल की इच्छा से मुक्त रहना।
  3. सच्चा त्याग:

    • कर्मों का त्याग नहीं, बल्कि फल की आसक्ति का त्याग सच्चा त्याग है।
    • सात्त्विक त्याग व्यक्ति को संशयों से मुक्त करता है और मोक्ष की ओर ले जाता है।
  4. कर्म का फल:

    • कर्मों का फल अनिष्ट, इष्ट और मिश्रित होता है।
    • त्यागी व्यक्ति कर्मों के बंधन से मुक्त रहता है।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि सच्चा त्याग कर्मों के फलों को त्यागना है, न कि स्वयं कर्मों को। यज्ञ, दान, और तप जैसे शुद्ध कर्मों को करना ही चाहिए, लेकिन उन्हें फल की

इच्छा और आसक्ति से मुक्त होकर करना चाहिए।

शनिवार, 26 जुलाई 2025

भगवद्गीता: अध्याय 18 - मोक्ष संन्यास योग

भगवद गीता – अष्टादश अध्याय: मोक्ष संन्यास योग

(Moksha Sannyasa Yoga – The Yoga of Liberation and Renunciation)

📖 अध्याय 18 का परिचय

मोक्ष संन्यास योग गीता का अंतिम और सबसे विस्तृत अध्याय है। इसमें श्रीकृष्ण संन्यास (Sannyasa – त्याग) और मोक्ष (Moksha – मुक्ति) का रहस्य बताते हैं। वे अर्जुन को कर्मयोग, भक्ति और ज्ञान के माध्यम से सर्वोच्च मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं।

👉 मुख्य भाव:

  • संन्यास और त्याग का वास्तविक अर्थ।
  • कर्मों के तीन प्रकार – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।
  • ज्ञान, कर्ता और बुद्धि के तीन गुण।
  • भगवान की भक्ति द्वारा मोक्ष प्राप्ति।
  • गीता का अंतिम और सर्वोच्च उपदेश।

📖 श्लोक (18.66):

"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥"

📖 अर्थ: सभी धर्मों को त्यागकर मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम चिंता मत करो।

👉 यह श्लोक गीता का सार है और भक्ति को मोक्ष का सर्वोत्तम मार्ग बताता है।


🔹 1️⃣ अर्जुन का प्रश्न – संन्यास और त्याग क्या है?

📌 1. संन्यास और त्याग में क्या अंतर है? (Verses 1-6)

अर्जुन पूछते हैं –

  • संन्यास (Sannyasa) क्या है?
  • त्याग (Tyaga) क्या है?

📖 श्लोक (18.1):

"अर्जुन उवाच: संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन॥"

📖 अर्थ: हे महाबाहु! हे हृषीकेश! हे केशव! मैं संन्यास और त्याग का तत्व जानना चाहता हूँ।

👉 संन्यास और त्याग दोनों ही मोक्ष के लिए आवश्यक हैं, लेकिन इनका सही अर्थ समझना जरूरी है।


📌 2. श्रीकृष्ण का उत्तर – संन्यास और त्याग में अंतर

  • संन्यास – सभी कामनाओं से प्रेरित कर्मों का त्याग।
  • त्याग – सभी कर्मों के फल का त्याग।

📖 श्लोक (18.2):

"श्रीभगवानुवाच: काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः॥"

📖 अर्थ: ज्ञानी लोग सभी इच्छाओं से प्रेरित कर्मों का त्याग संन्यास कहते हैं, और सभी कर्मों के फल का त्याग त्याग कहा जाता है।

👉 सच्चा त्यागी वह है जो कर्म करता है लेकिन उसके फल की इच्छा नहीं करता।


🔹 2️⃣ कर्म के तीन प्रकार – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक

📌 3. कर्म तीन प्रकार के होते हैं (Verses 7-12)

कर्म का प्रकार कैसा होता है? परिणाम
सात्त्विक कर्म निष्काम भाव से किया जाता है। पवित्रता और मोक्ष की ओर ले जाता है।
राजसिक कर्म इच्छा और लाभ की आशा से किया जाता है। बंधन और पुनर्जन्म की ओर ले जाता है।
तामसिक कर्म अज्ञान और हठ से किया जाता है। विनाश और अंधकार की ओर ले जाता है।

📖 श्लोक (18.9):

"कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः॥"

📖 अर्थ: जो कर्म कर्तव्य मानकर बिना आसक्ति और फल की इच्छा के किया जाता है, वह सात्त्विक त्याग है।

👉 हमें सात्त्विक कर्म को अपनाना चाहिए और फल की चिंता छोड़ देनी चाहिए।


🔹 3️⃣ ज्ञान, कर्ता और बुद्धि के तीन प्रकार

📌 4. ज्ञान, कर्ता और बुद्धि भी तीन प्रकार की होती है (Verses 20-30)

विभाग सात्त्विक (शुद्ध) राजसिक (आसक्त) तामसिक (अज्ञान)
ज्ञान एकता को देखने वाला भेदभाव करने वाला अधर्म में विश्वास रखने वाला
कर्ता निष्काम, धैर्यवान, निडर लोभी, अहंकारी, अस्थिर आलसी, क्रूर, अज्ञानी
बुद्धि धर्म और अधर्म में भेद करने वाली धन, पद और भोग में आसक्त पाप और अधर्म को ही सत्य मानने वाली

📖 श्लोक (18.30):

"प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी॥"

📖 अर्थ: जो बुद्धि यह जानती है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं, क्या धर्म है और क्या अधर्म – वह सात्त्विक बुद्धि है।

👉 हमें सात्त्विक बुद्धि को अपनाना चाहिए और अधर्म से दूर रहना चाहिए।


🔹 4️⃣ भक्ति द्वारा मोक्ष प्राप्ति

📌 5. चार गुण जो मोक्ष की ओर ले जाते हैं (Verses 49-55)

  • आसक्ति का त्याग।
  • निष्काम कर्म।
  • शुद्ध बुद्धि।
  • ईश्वर की भक्ति।

📖 श्लोक (18.54):

"ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥"

📖 अर्थ: जो ब्रह्मज्ञानी हो जाता है, वह न शोक करता है, न कुछ चाहता है, और सभी प्राणियों में समभाव रखता है। तभी वह मेरी परम भक्ति प्राप्त करता है।

👉 भक्ति से ही मोक्ष संभव है।


🔹 5️⃣ गीता का अंतिम और सर्वोच्च उपदेश

📌 6. गीता का सार – भगवान की शरण में जाओ (Verses 63-66)

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि सभी धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आओ।

📖 श्लोक (18.66):

"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥"

📖 अर्थ: सभी धर्मों को त्यागकर मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम चिंता मत करो।

👉 यह गीता का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण उपदेश है – भगवान की भक्ति ही मोक्ष का सर्वोच्च मार्ग है।


🔹 निष्कर्ष

📖 इस अध्याय में श्रीकृष्ण के उपदेश से हमें कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं:

1. संन्यास का अर्थ कर्म का त्याग नहीं, बल्कि फल की आसक्ति का त्याग है।
2. कर्म, ज्ञान, कर्ता और बुद्धि के तीन भेद होते हैं – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।
3. भक्ति से ही व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
4. गीता का अंतिम और सर्वोच्च संदेश – "भगवान की शरण में जाओ"।


🔹 गीता का सारांश

"कर्म करो, फल की चिंता मत करो। भगवान की भक्ति करो, वे तुम्हें मोक्ष देंगे।"

शनिवार, 19 जुलाई 2025

भागवत गीता: अध्याय 17 (श्रद्धात्रय विभाग योग) तामसगुणयुक्त श्रद्धा (श्लोक 19-22), श्रद्धा के प्रभाव (श्लोक 23-28)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 17 (श्रद्धात्रय विभाग योग) के श्लोक 19 से श्लोक 28 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने तप और दान के तीन प्रकार (सात्त्विक, राजसिक, तामसिक) और "ॐ तत् सत्" के महत्व को समझाया है।


श्लोक 19

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्॥

अर्थ:
"जो तप मूर्खतापूर्ण रूप से, आत्मा को कष्ट देकर या दूसरों को हानि पहुँचाने के उद्देश्य से किया जाता है, वह तामसिक तप कहलाता है।"

व्याख्या:
तामसिक तप वह है जो न तो शास्त्रों के अनुरूप है और न ही आत्मा की शुद्धि के लिए किया जाता है। यह केवल दूसरों को हानि पहुँचाने या दिखावा करने के लिए किया जाता है। ऐसा तप आत्मा को अधोगति की ओर ले जाता है।


श्लोक 20

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥

अर्थ:
"जो दान कर्तव्य समझकर, योग्य समय, स्थान और पात्र को बिना किसी प्रतिफल की इच्छा के दिया जाता है, वह सात्त्विक दान कहलाता है।"

व्याख्या:
सात्त्विक दान निष्काम भावना से दिया जाता है। इसमें देने वाले का उद्देश्य दूसरों की मदद करना होता है, न कि यश या लाभ प्राप्त करना।


श्लोक 21

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥

अर्थ:
"जो दान किसी प्रतिफल की इच्छा से, अथवा बदले में उपकार की अपेक्षा से या कठिनाईपूर्वक दिया जाता है, वह राजसिक दान कहलाता है।"

व्याख्या:
राजसिक दान स्वार्थ से प्रेरित होता है। यह दान दिखावे या भौतिक लाभ के उद्देश्य से दिया जाता है। इसमें देने वाले के मन में कष्ट या अनिच्छा होती है।


श्लोक 22

अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥

अर्थ:
"जो दान अनुचित समय, स्थान और अयोग्य व्यक्ति को, बिना सम्मान या अवहेलना के साथ दिया जाता है, वह तामसिक दान कहलाता है।"

व्याख्या:
तामसिक दान असंवेदनशीलता और अज्ञान से प्रेरित होता है। यह दान न तो उपयुक्त पात्र को दिया जाता है और न ही इसमें कोई श्रद्धा या भावना होती है।


श्लोक 23

ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥

अर्थ:
"'ॐ तत् सत्' – यह त्रिविध नाम ब्रह्म का है। इस नाम से ब्राह्मण, वेद और यज्ञ प्राचीनकाल में बनाए गए।"

व्याख्या:
भगवान समझाते हैं कि "ॐ तत् सत्" ब्रह्म (परम सत्य) के प्रतीक हैं। यह नाम ब्राह्मणों, वेदों और यज्ञों को पवित्र और शुद्ध बनाते हैं।


श्लोक 24

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ता सततं ब्रह्मवादिनाम्॥

अर्थ:
"इसलिए, 'ॐ' कहकर यज्ञ, दान और तप जैसी विधिपूर्वक क्रियाएँ सदा ब्रह्मज्ञानी लोग करते हैं।"

व्याख्या:
"ॐ" उच्चारण से यज्ञ, दान और तप पवित्र हो जाते हैं। यह ब्रह्म का प्रतीक है और इसका स्मरण कर्मों को शुद्ध और श्रेष्ठ बनाता है।


श्लोक 25

तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥

अर्थ:
"'तत्' कहकर, बिना फल की इच्छा के, यज्ञ, तप और दान जैसी विविध क्रियाएँ मोक्ष की इच्छा रखने वाले लोग करते हैं।"

व्याख्या:
"तत्" शब्द का उपयोग निस्वार्थ भावना और मोक्ष की कामना के साथ किया जाता है। इसका उद्देश्य भगवान की कृपा प्राप्त करना होता है, न कि भौतिक लाभ।


श्लोक 26-27

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते।
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥

अर्थ:
"'सत्' का उपयोग अस्तित्व और शुद्धता के अर्थ में किया जाता है। हे पार्थ, प्रशंसनीय कर्मों में भी 'सत्' शब्द का उपयोग होता है। यज्ञ, तप और दान में स्थिरता को 'सत्' कहा जाता है, और जो कर्म भगवान के लिए किए जाते हैं, उन्हें भी 'सत्' कहा जाता है।"

व्याख्या:
"सत्" शब्द सत्य, शुद्धता और प्रशंसा का प्रतीक है। यह हर अच्छे कार्य (यज्ञ, तप, दान) को पवित्र करता है और इसे भगवान के प्रति समर्पित करता है।


श्लोक 28

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥

अर्थ:
"हे पार्थ, जो यज्ञ, दान, तप और अन्य कर्म बिना श्रद्धा के किए जाते हैं, वे 'असत्' कहलाते हैं। न तो वे इस जीवन में और न ही मरने के बाद फल देते हैं।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण समझाते हैं कि बिना श्रद्धा और भावना के किए गए कर्म व्यर्थ होते हैं। वे न तो इस संसार में फल देते हैं और न ही मृत्यु के बाद किसी अच्छे परिणाम की ओर ले जाते हैं।


सारांश (श्लोक 19-28):

  1. तप के प्रकार:

    • सात्त्विक तप: आत्मा की शुद्धि के लिए, श्रद्धा से किया गया।
    • राजसिक तप: मान-सम्मान और दिखावे के लिए किया गया।
    • तामसिक तप: दूसरों को हानि पहुँचाने या आत्मा को कष्ट देने के लिए किया गया।
  2. दान के प्रकार:

    • सात्त्विक दान: निष्काम भाव से, योग्य पात्र को दिया गया।
    • राजसिक दान: फल की इच्छा से या बदले में उपकार की आशा से दिया गया।
    • तामसिक दान: अपात्र को, बिना श्रद्धा के या अपमान के साथ दिया गया।
  3. "ॐ तत् सत्" का महत्व:

    • "ॐ तत् सत्" ब्रह्म (परम सत्य) का प्रतीक है।
    • यह यज्ञ, तप और दान को शुद्ध और पवित्र बनाता है।
    • श्रद्धा और समर्पण के साथ किया गया कर्म ही सार्थक होता है।
  4. अश्रद्धा के साथ कर्म:

    • बिना श्रद्धा के किया गया यज्ञ, तप, और दान व्यर्थ होते हैं।
    • ऐसे कर्म न तो इस जीवन में और न ही मृत्यु के बाद किसी लाभ को प्रदान करते हैं।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण इस खंड में समझाते हैं कि श्रद्धा और समर्पण हर कर्म की सफलता और शुद्धता का आधार हैं। "ॐ तत् सत्" के माध्यम से किए गए कार्य परमात्मा के प्रति समर्पित होते हैं और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

शनिवार, 12 जुलाई 2025

भागवत गीता: अध्याय 17 (श्रद्धात्रय विभाग योग) रजोगुणयुक्त श्रद्धा (श्लोक 11-18)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 17 (श्रद्धात्रय विभाग योग) के श्लोक 11 से 18 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने यज्ञ, तप और दान के तीन प्रकार (सात्त्विक, राजसिक, और तामसिक) का वर्णन किया है।


श्लोक 11

अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः॥

अर्थ:
"जो यज्ञ शास्त्रों के अनुसार विधिपूर्वक किया जाता है और जिसमें फल की आकांक्षा नहीं होती, वह सात्त्विक यज्ञ कहलाता है।"

व्याख्या:
सात्त्विक यज्ञ शुद्ध हृदय से, केवल कर्तव्य समझकर और बिना किसी भौतिक फल की इच्छा के किया जाता है। यह यज्ञ आत्मा की उन्नति और भगवान को प्रसन्न करने के लिए होता है।


श्लोक 12

अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्॥

अर्थ:
"हे भरतश्रेष्ठ, जो यज्ञ फल की इच्छा से या केवल दिखावे के लिए किया जाता है, उसे राजसिक यज्ञ कहा गया है।"

व्याख्या:
राजसिक यज्ञ उन लोगों द्वारा किया जाता है जो भौतिक इच्छाओं, धन, मान-सम्मान, या किसी विशेष लाभ के लिए यज्ञ करते हैं। इसमें वास्तविक भक्ति का अभाव होता है।


श्लोक 13

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते॥

अर्थ:
"जो यज्ञ शास्त्रविधि के विरुद्ध होता है, जिसमें भोजन, मंत्र, दक्षिणा और श्रद्धा का अभाव होता है, उसे तामसिक यज्ञ कहते हैं।"

व्याख्या:
तामसिक यज्ञ बिना श्रद्धा, नियम और पवित्रता के किया जाता है। इसमें ईश्वर के प्रति भक्ति या आस्था नहीं होती और यह केवल दिखावे या अज्ञान के कारण किया जाता है।


श्लोक 14

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥

अर्थ:
"देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानी जनों की पूजा, शुद्धता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा – ये सब शारीरिक तप कहलाते हैं।"

व्याख्या:
शारीरिक तप वह है जो शरीर से किया जाता है, जैसे ईश्वर, गुरु और विद्वानों की सेवा और पूजा। इसमें शुद्धता, संयम और अहिंसा का पालन होता है।


श्लोक 15

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियं हितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥

अर्थ:
"जो वाणी दूसरों को उद्वेग (परेशानी) न दे, सत्य हो, प्रिय और हितकारी हो, और जो स्वाध्याय (वेदों का अध्ययन) में लीन हो – वह वाणी का तप कहलाता है।"

व्याख्या:
वाणी का तप यह है कि व्यक्ति ऐसा बोलता है जो सत्य और मधुर हो, लेकिन किसी को कष्ट न पहुँचाए। स्वाध्याय और भक्ति से ऐसी वाणी का विकास होता है।


श्लोक 16

मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥

अर्थ:
"मन की प्रसन्नता, सौम्यता, मौन, आत्म-नियंत्रण, और भावों की शुद्धता – यह मन का तप कहलाता है।"

व्याख्या:
मानसिक तप का अर्थ है मन को शांत और प्रसन्न रखना। इसके लिए व्यक्ति को मौन रहना चाहिए, भावनाओं को नियंत्रित करना चाहिए और पवित्र विचारों को अपनाना चाहिए।


श्लोक 17

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते॥

अर्थ:
"जो तप श्रद्धा से और परम उद्देश्य (मोक्ष) को प्राप्त करने के लिए किया जाता है, और जिसमें किसी फल की इच्छा नहीं होती, वह सात्त्विक तप कहलाता है।"

व्याख्या:
सात्त्विक तप शुद्ध मन और श्रद्धा से किया जाता है। इसमें भौतिक लाभ की कोई इच्छा नहीं होती और यह आत्मा की शुद्धि और भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिए किया जाता है।


श्लोक 18

सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्॥

अर्थ:
"जो तप आदर, मान-सम्मान और पूजा प्राप्त करने के लिए तथा दिखावे के लिए किया जाता है, वह राजसिक तप कहलाता है। यह अस्थिर और नाशवान होता है।"

व्याख्या:
राजसिक तप उन लोगों द्वारा किया जाता है जो केवल प्रशंसा, मान-सम्मान और भौतिक लाभ के लिए तप करते हैं। यह तप स्थायी फल नहीं देता और व्यक्ति को आध्यात्मिक उन्नति की ओर नहीं ले जाता।


सारांश (श्लोक 11-18):

  1. यज्ञ के प्रकार:

    • सात्त्विक यज्ञ: बिना फल की आकांक्षा के, शास्त्रों के अनुसार किया गया यज्ञ।
    • राजसिक यज्ञ: दिखावे और भौतिक लाभ के लिए किया गया यज्ञ।
    • तामसिक यज्ञ: शास्त्रविरुद्ध और बिना श्रद्धा के किया गया यज्ञ।
  2. तप के प्रकार:

    • शारीरिक तप: गुरु, देवता, और विद्वानों की पूजा, शुद्धता और अहिंसा।
    • वाणी का तप: सत्य, प्रिय और हितकारी वाणी बोलना।
    • मानसिक तप: मन की शांति, आत्म-नियंत्रण, और पवित्रता।
  3. तप की श्रेणियाँ:

    • सात्त्विक तप: बिना किसी फल की इच्छा के, आत्मा की उन्नति के लिए किया गया तप।
    • राजसिक तप: मान-सम्मान और भौतिक लाभ के लिए किया गया तप।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि यज्ञ, तप, और दान जैसे कर्म तीन गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) से प्रेरित होते हैं। सात्त्विक कर्म व्यक्ति को शुद्धता और मोक्ष की ओर ले जाते हैं, जबकि राजसिक और तामसिक कर्म बंधन और अधोगति का कारण बनते हैं।

शनिवार, 5 जुलाई 2025

भागवत गीता: अध्याय 17 (श्रद्धात्रय विभाग योग) श्रद्धा का परिचय (श्लोक 1-2), सत्त्वगुणयुक्त श्रद्धा (श्लोक 3-10)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 17 (श्रद्धात्रय विभाग योग) के श्लोक 1 से 10 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने श्रद्धा के तीन प्रकार (सत्त्व, रजस और तमस) और भोजन की प्रकृति के बारे में विस्तार से बताया है।


श्लोक 1

अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः॥

अर्थ:
"अर्जुन ने कहा: हे कृष्ण, जो लोग शास्त्रों के नियमों को त्यागकर श्रद्धा के साथ पूजा करते हैं, उनकी श्रद्धा कैसी होती है? क्या वह सत्त्व (पवित्रता), रजस (क्रियाशीलता) या तमस (अज्ञान) से प्रेरित होती है?"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान से पूछते हैं कि यदि कोई व्यक्ति शास्त्रों के निर्देशों का पालन न करते हुए भी श्रद्धा से पूजा करता है, तो उसकी श्रद्धा किस प्रकार की मानी जाएगी। यह प्रश्न श्रद्धा और उसके प्रभाव को समझने की जिज्ञासा से प्रेरित है।


श्लोक 2

श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: देहधारी प्राणियों की श्रद्धा तीन प्रकार की होती है – सत्त्वगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी। अब मैं तुम्हें इनका वर्णन करता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि श्रद्धा मनुष्य के स्वभाव और गुणों पर निर्भर करती है। ये श्रद्धा सत्त्व (पवित्रता), रजस (भोग और क्रियाशीलता) और तमस (अज्ञान और आलस्य) से प्रेरित हो सकती है।


श्लोक 3

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥

अर्थ:
"हे भारत, प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा उसके स्वभाव के अनुरूप होती है। मनुष्य श्रद्धा के अनुसार ही होता है; वह जैसा विश्वास करता है, वैसा ही बन जाता है।"

व्याख्या:
भगवान यह समझाते हैं कि व्यक्ति की श्रद्धा उसके स्वभाव और गुणों को प्रकट करती है। श्रद्धा किसी व्यक्ति के चरित्र और कर्मों का आधार होती है।


श्लोक 4

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः॥

अर्थ:
"सात्त्विक लोग देवताओं की पूजा करते हैं, राजसिक लोग यक्षों और राक्षसों की, और तामसिक लोग प्रेतों और भूतों की पूजा करते हैं।"

व्याख्या:
भगवान ने श्रद्धा के तीन प्रकार के आधार पर पूजा की प्रकृति का वर्णन किया है।

  • सात्त्विक श्रद्धा से व्यक्ति देवताओं की पूजा करता है।
  • राजसिक श्रद्धा से व्यक्ति शक्ति और भोग की इच्छा से यक्षों और राक्षसों की पूजा करता है।
  • तामसिक श्रद्धा से व्यक्ति प्रेत, भूत और नकारात्मक शक्तियों की पूजा करता है।

श्लोक 5-6

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहंकारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः॥
कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतेग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्॥

अर्थ:
"जो लोग शास्त्रविहित न होकर घोर तप करते हैं, जो दंभ (ढोंग), अहंकार और इच्छाओं से युक्त हैं, और जो अपने शरीर और उसमें स्थित आत्मा को कष्ट देते हैं, ऐसे अज्ञानी लोगों को आसुरी स्वभाव वाला जानो।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि जो लोग दिखावे और अहंकार से प्रेरित होकर अनावश्यक कठोर तप करते हैं, वे केवल अपने शरीर और आत्मा को कष्ट देते हैं। ऐसे लोग आसुरी स्वभाव के होते हैं और उनके कर्म अधर्म की ओर ले जाते हैं।


श्लोक 7

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु॥

अर्थ:
"भोजन भी सभी के लिए तीन प्रकार का होता है। इसी प्रकार यज्ञ, तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं। अब मैं तुम्हें उनके भेद समझाऊँगा।"

व्याख्या:
भगवान यह बताते हैं कि केवल श्रद्धा ही नहीं, बल्कि भोजन, यज्ञ, तप और दान भी सत्त्व, रजस और तमस के आधार पर तीन प्रकार के होते हैं।


श्लोक 8

आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥

अर्थ:
"जो भोजन आयु, सत्त्व, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाता है, जो रसयुक्त, स्निग्ध (पौष्टिक), स्थिर (शरीर को स्थिर रखने वाला) और हृदय को प्रिय होता है, वह सात्त्विक भोजन है।"

व्याख्या:
सात्त्विक भोजन वह है जो शरीर और मन को शुद्ध करता है। यह पोषण देता है और व्यक्ति को स्वस्थ, सुखी और शांत बनाता है।


श्लोक 9

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरुख्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥

अर्थ:
"जो भोजन कड़वा, खट्टा, नमकीन, बहुत गरम, तीखा, रूखा और जलन पैदा करने वाला हो, वह राजसिक भोजन है। ऐसा भोजन दुःख, शोक और रोग उत्पन्न करता है।"

व्याख्या:
राजसिक भोजन तृष्णा और क्रियाशीलता को बढ़ाता है। यह भोजन शरीर को नुकसान पहुँचाता है और मानसिक अशांति पैदा करता है।


श्लोक 10

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥

अर्थ:
"जो भोजन बासी, बिना रस का, दुर्गंधयुक्त, बर्बाद किया हुआ, खराब हो चुका, या अपवित्र हो, वह तामसिक भोजन है।"

व्याख्या:
तामसिक भोजन शरीर और मन को दूषित करता है। यह आलस्य, अज्ञान और स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न करता है। ऐसे भोजन से व्यक्ति का आध्यात्मिक पतन होता है।


सारांश (श्लोक 1-10):

  1. श्रद्धा के तीन प्रकार:

    • सात्त्विक: पवित्र और शांतिपूर्ण।
    • राजसिक: भोग और शक्ति की इच्छा से प्रेरित।
    • तामसिक: अज्ञान और नकारात्मकता से भरा हुआ।
  2. भोजन के तीन प्रकार:

    • सात्त्विक भोजन: स्वास्थ्य और शांति को बढ़ावा देता है।
    • राजसिक भोजन: तृष्णा और अशांति उत्पन्न करता है।
    • तामसिक भोजन: आलस्य और अज्ञान को बढ़ाता है।
  3. तप और कर्म:

    • शास्त्रविहित कर्म और तप सच्चे धर्म का पालन करते हैं।
    • दिखावे और अहंकार से प्रेरित कर्म अधर्म की ओर ले जाते हैं।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि श्रद्धा, भोजन, यज्ञ, तप और दान सभी का प्रभाव व्यक्ति के स्वभाव और जीवन पर पड़ता है। सत्त्वगुण को अपनाने से जीवन पवित्र और शांतिपूर्ण बनता है, जबकि रजस और तमस गुण आत्मा को अधोगति की ओर ले जाते हैं।

शनिवार, 28 जून 2025

भगवद्गीता: अध्याय 17 - श्रद्धात्रयविभाग योग

भगवद गीता – सप्तदश अध्याय: श्रद्धात्रयविभाग योग

(Shraddhatraya Vibhaga Yoga – The Yoga of the Threefold Division of Faith)

📖 अध्याय 17 का परिचय

श्रद्धात्रयविभाग योग गीता का सत्रहवाँ अध्याय है, जिसमें श्रीकृष्ण बताते हैं कि मनुष्यों की श्रद्धा (Faith) तीन प्रकार की होती है – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक। यह श्रद्धा उनके स्वभाव के अनुसार उनके आहार, यज्ञ, दान और तप को प्रभावित करती है।

👉 मुख्य भाव:

  • श्रद्धा तीन प्रकार की होती है – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।
  • भोजन, यज्ञ, तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं।
  • "ॐ तत् सत्" का महत्व – जो शुद्ध कर्म का प्रतीक है।

📖 श्लोक (17.3):

"सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥"

📖 अर्थ: हे भारत! प्रत्येक मनुष्य की श्रद्धा उसके स्वभाव के अनुसार होती है। जिसकी जैसी श्रद्धा होती है, वह वैसा ही बन जाता है।

👉 इसका अर्थ है कि श्रद्धा हमारे व्यक्तित्व और कर्मों को प्रभावित करती है।


🔹 1️⃣ अर्जुन का प्रश्न – श्रद्धा का स्वरूप क्या है?

📌 1. अर्जुन का प्रश्न (Verse 1)

अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं:

  • जो लोग शास्त्रों के अनुसार नहीं, बल्कि अपनी श्रद्धा के अनुसार पूजा करते हैं, उनकी श्रद्धा कैसी होती है?
  • क्या यह श्रद्धा सात्त्विक (शुद्ध), राजसिक (आसक्त) या तामसिक (अज्ञानयुक्त) होती है?

📖 श्लोक (17.1):

"अर्जुन उवाच:
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः॥"

📖 अर्थ: अर्जुन बोले – हे कृष्ण! जो लोग शास्त्रों के नियमों को त्यागकर श्रद्धा से यज्ञ करते हैं, उनकी श्रद्धा कैसी होती है – सात्त्विक, राजसिक या तामसिक?

👉 इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रीकृष्ण श्रद्धा के तीन प्रकार बताते हैं।


🔹 2️⃣ श्रद्धा के तीन प्रकार – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक

📌 2. श्रद्धा कैसी होती है? (Verses 2-6)

📖 श्लोक (17.2):

"त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु॥"

📖 अर्थ: मनुष्यों की श्रद्धा उनके स्वभाव के अनुसार तीन प्रकार की होती है – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।

श्रद्धा का प्रकार कैसी होती है? उदाहरण
सात्त्विक श्रद्धा शुद्ध, निर्मल, ज्ञानयुक्त जो व्यक्ति ईश्वर की भक्ति करता है और शुभ कर्म करता है।
राजसिक श्रद्धा इच्छाओं और भोग से प्रेरित जो व्यक्ति धन, प्रतिष्ठा या शक्ति प्राप्त करने के लिए पूजा करता है।
तामसिक श्रद्धा अज्ञान और हठ से प्रेरित जो व्यक्ति अंधविश्वास, काले जादू, या हानिकारक कार्यों में श्रद्धा रखता है।

📖 श्लोक (17.4):

"यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः॥"

📖 अर्थ: सात्त्विक लोग देवताओं की पूजा करते हैं, राजसिक लोग यक्ष और राक्षसों की, और तामसिक लोग भूत-प्रेतों की पूजा करते हैं।

👉 इसका अर्थ है कि हमारी श्रद्धा हमें उच्च या निम्न स्तर तक ले जा सकती है।


🔹 3️⃣ भोजन के तीन प्रकार – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक

📌 3. भोजन भी तीन प्रकार का होता है (Verses 7-10)

📖 श्लोक (17.8-10):

"आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्याः आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥"

📖 अर्थ: सात्त्विक भोजन स्वास्थ्य, शक्ति, सुख और आयु को बढ़ाने वाला होता है।

भोजन का प्रकार कैसा होता है? प्रभाव
सात्त्विक भोजन ताजा, शुद्ध, पौष्टिक, हल्का मन को शांत और शरीर को स्वस्थ करता है।
राजसिक भोजन मसालेदार, अधिक नमकीन या खट्टा उत्तेजना, कामना और असंतोष बढ़ाता है।
तामसिक भोजन बासी, सड़ा-गला, अशुद्ध आलस्य, अज्ञान और नकारात्मकता को जन्म देता है।

👉 हमें सात्त्विक भोजन को अपनाना चाहिए, क्योंकि यह मन और शरीर दोनों के लिए लाभदायक है।


🔹 4️⃣ यज्ञ (हवन) के तीन प्रकार

📌 4. यज्ञ के तीन भेद (Verses 11-13)

यज्ञ का प्रकार कैसा होता है? प्रभाव
सात्त्विक यज्ञ ईश्वर के प्रति प्रेम और बिना किसी स्वार्थ के किया जाता है। मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।
राजसिक यज्ञ दिखावे और लाभ के लिए किया जाता है। अहंकार और इच्छाओं को बढ़ाता है।
तामसिक यज्ञ बिना नियमों के, अनुचित वस्तुओं से किया जाता है। पतन की ओर ले जाता है।

📖 श्लोक (17.11):

"अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः॥"

📖 अर्थ: जो यज्ञ शास्त्रों के अनुसार निष्काम भाव से किया जाता है, वह सात्त्विक होता है।


🔹 5️⃣ दान के तीन प्रकार

📌 5. दान भी तीन प्रकार का होता है (Verses 20-22)

📖 श्लोक (17.20):

"दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥"

📖 अर्थ: जो दान कर्तव्य मानकर योग्य व्यक्ति को सही समय और स्थान पर दिया जाता है, वह सात्त्विक दान कहलाता है।

दान का प्रकार कैसा होता है? प्रभाव
सात्त्विक दान निष्काम और सही पात्र को दिया जाता है। पुण्य और आत्मशुद्धि को बढ़ाता है।
राजसिक दान स्वार्थ, प्रतिष्ठा और दिखावे के लिए दिया जाता है। अहंकार और इच्छाओं को बढ़ाता है।
तामसिक दान अनुचित व्यक्ति या समय पर, अपमान के साथ दिया जाता है। बुरा प्रभाव डालता है।

👉 हमें बिना किसी स्वार्थ के, सही पात्र को दान देना चाहिए।


🔹 निष्कर्ष

📖 इस अध्याय में श्रीकृष्ण के उपदेश से हमें कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं:

1. श्रद्धा तीन प्रकार की होती है – सात्त्विक (शुद्ध), राजसिक (आसक्त), और तामसिक (अज्ञानपूर्ण)।
2. भोजन, यज्ञ, तप और दान भी इन तीन गुणों के अनुसार प्रभावित होते हैं।
3. सात्त्विक गुणों को अपनाने से व्यक्ति मोक्ष की ओर बढ़ता है।
4. जो व्यक्ति "ॐ तत् सत्" का ध्यान रखकर कर्म करता है, वह शुद्ध होता है।

शनिवार, 21 जून 2025

भागवत गीता: अध्याय 16 (दैवासुर सम्पद् विभाग योग) दैवी और आसुरी गुणों से उत्पन्न होने वाले फल (श्लोक 21-24)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 16 (दैवासुर सम्पद् विभाग योग) के श्लोक 21 से श्लोक 24 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने अधोगति के तीन द्वार (त्रिविध नरक) और शास्त्रों के आधार पर धर्म का पालन करने की आवश्यकता को समझाया है।


श्लोक 21

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥

अर्थ:
"यह तीन प्रकार का नरक (आत्मा का नाश करने वाला) है – काम (अत्यधिक इच्छाएँ), क्रोध और लोभ। इसलिए, इन तीनों को त्याग देना चाहिए।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि काम, क्रोध और लोभ आत्मा का विनाश करने वाले तीन प्रमुख दोष हैं। ये गुण व्यक्ति को पाप और अधर्म की ओर ले जाते हैं। इन्हें त्यागकर ही व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है।


श्लोक 22

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, जो व्यक्ति इन तीन अंधकारमय द्वारों (काम, क्रोध और लोभ) से मुक्त हो जाता है, वह आत्मा के कल्याण के लिए आचरण करता है और परम गति (मोक्ष) को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
जो व्यक्ति काम, क्रोध और लोभ से मुक्त हो जाता है, वह धर्ममय और शांतिपूर्ण जीवन जीता है। ऐसा व्यक्ति भगवान की भक्ति और आत्मज्ञान के मार्ग पर चलता है और मोक्ष को प्राप्त करता है।


श्लोक 23

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति शास्त्रों की विधियों को त्यागकर अपनी इच्छाओं के अनुसार कार्य करता है, वह न तो सिद्धि (सफलता), न सुख, और न ही परम गति (मोक्ष) को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ चेतावनी देते हैं कि जो लोग शास्त्रों के निर्देशों की अवहेलना करके अपनी मनमानी करते हैं, वे न तो भौतिक सुख प्राप्त कर पाते हैं और न ही आध्यात्मिक उन्नति। ऐसे लोगों का जीवन दिशाहीन हो जाता है।


श्लोक 24

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥

अर्थ:
"इसलिए, कार्य और अकार्य (क्या करना चाहिए और क्या नहीं) को समझने के लिए शास्त्र ही प्रमाण हैं। शास्त्रों के निर्देशों को समझकर तुम्हें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि शास्त्र ही यह निर्धारित करते हैं कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं। शास्त्रों का अध्ययन और पालन व्यक्ति को धर्म और मोक्ष के मार्ग पर चलने में सहायता करता है।


सारांश (श्लोक 21-24):

  1. त्रिविध नरक के द्वार:

    • काम: अत्यधिक इच्छाएँ व्यक्ति को पाप की ओर ले जाती हैं।
    • क्रोध: यह विवेक को नष्ट करता है और हिंसा को बढ़ावा देता है।
    • लोभ: यह व्यक्ति को स्वार्थी और अनैतिक बनाता है।
    • इन तीनों को त्यागकर व्यक्ति आत्मा का कल्याण कर सकता है।
  2. मोक्ष का मार्ग:

    • काम, क्रोध और लोभ से मुक्त होकर धर्म और आत्मज्ञान का पालन करने वाला व्यक्ति परम गति को प्राप्त करता है।
  3. शास्त्रों का महत्व:

    • शास्त्र व्यक्ति को सही और गलत का ज्ञान कराते हैं।
    • शास्त्रों के निर्देशों का पालन करने से व्यक्ति जीवन में सुख, शांति और मोक्ष प्राप्त करता है।
    • शास्त्रों के बिना व्यक्ति का जीवन दिशाहीन और विनाशकारी हो सकता है।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण यहाँ यह सिखाते हैं कि त्रिविध नरक (काम, क्रोध और लोभ) से बचकर और शास्त्रों के निर्देशों का पालन करके व्यक्ति अपने जीवन को धर्ममय बना सकता है और परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है।

शनिवार, 14 जून 2025

भागवत गीता: अध्याय 16 (दैवासुर सम्पद् विभाग योग) दैवी और आसुरी गुणों का वर्णन (श्लोक 1-20)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 16 (दैवासुर सम्पद् विभाग योग) के श्लोक 1 से 20 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने दैवी और आसुरी संपत्तियों (गुणों) का वर्णन किया है। उन्होंने बताया है कि कौन-से गुण मोक्ष की ओर ले जाते हैं और कौन-से गुण बंधन व अधोगति का कारण बनते हैं।


श्लोक 1-3

श्रीभगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: निडरता, मन की शुद्धता, ज्ञान-योग में स्थिरता, दान, इंद्रिय-निग्रह, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सरलता, अहिंसा, सत्य, क्रोध का अभाव, त्याग, शांति, अपैशुन्य (परनिंदा का अभाव), प्राणियों के प्रति दया, लोभ का अभाव, कोमलता, लज्जा, अचंचलता, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, द्वेष का अभाव और अहंकारहीनता – ये सभी दैवी संपत्ति हैं, जो मोक्ष की ओर ले जाती हैं।"

व्याख्या:
भगवान ने दैवी गुणों का वर्णन किया है, जो व्यक्ति को आत्मज्ञान, शांति और मोक्ष की ओर ले जाते हैं। इन गुणों को अपनाने वाला व्यक्ति आध्यात्मिक उन्नति करता है और समाज के लिए प्रेरणा बनता है।


श्लोक 4

दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदामासुरीम्॥

अर्थ:
"दंभ (ढोंग), घमंड, अहंकार, क्रोध, कठोरता और अज्ञान – ये सभी आसुरी संपत्ति के लक्षण हैं।"

व्याख्या:
आसुरी गुण व्यक्ति को अधोगति की ओर ले जाते हैं। ये गुण भौतिक इच्छाओं, अहंकार और अज्ञान का परिणाम होते हैं।


श्लोक 5

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥

अर्थ:
"दैवी संपत्ति मोक्ष का कारण है और आसुरी संपत्ति बंधन का। हे पाण्डव, तुम्हारा जन्म दैवी संपत्ति के लिए हुआ है, इसलिए चिंता मत करो।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को बताते हैं कि दैवी गुण मोक्ष प्रदान करते हैं, जबकि आसुरी गुण बंधन और पुनर्जन्म का कारण बनते हैं। अर्जुन को आश्वस्त किया गया है कि उनमें दैवी गुण हैं।


श्लोक 6

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु॥

अर्थ:
"इस संसार में दो प्रकार के प्राणी हैं – दैवी और आसुरी। दैवी गुणों का वर्णन मैंने पहले किया है, अब आसुरी गुणों के बारे में सुनो।"

व्याख्या:
भगवान स्पष्ट करते हैं कि सभी प्राणी दो श्रेणियों में आते हैं – दैवी (जो शुभ गुणों से युक्त हैं) और आसुरी (जो नकारात्मक गुणों से युक्त हैं)।


श्लोक 7

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥

अर्थ:
"आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, यह नहीं जानते। उनमें न तो शुद्धता है, न अच्छा आचरण, और न ही सत्यता।"

व्याख्या:
आसुरी लोग धर्म और अधर्म के भेद को नहीं समझते। वे शुद्धता और नैतिकता के सिद्धांतों का पालन नहीं करते और झूठ और पाखंड में लिप्त रहते हैं।


श्लोक 8

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्॥

अर्थ:
"आसुरी लोग कहते हैं कि यह संसार असत्य, आधारहीन और ईश्वर रहित है। वे मानते हैं कि यह केवल कामना और आपसी संबंधों से उत्पन्न हुआ है।"

व्याख्या:
आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग सृष्टि के दिव्य मूल को अस्वीकार करते हैं। वे ईश्वर और धर्म को नकारते हुए भौतिक इच्छाओं और स्वार्थ को ही प्राथमिकता देते हैं।


श्लोक 9

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥

अर्थ:
"ऐसी दृष्टि को अपनाकर, अज्ञानी और अल्पबुद्धि लोग आत्मा को नष्ट कर देते हैं। वे उग्र कर्म करते हैं और संसार के विनाश का कारण बनते हैं।"

व्याख्या:
आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग भौतिकता और स्वार्थ में इतने लिप्त हो जाते हैं कि उनकी आत्मा का पतन हो जाता है। उनके कर्म समाज और प्रकृति के लिए हानिकारक होते हैं।


श्लोक 10

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः॥

अर्थ:
"वे तृष्णा (भोग लालसा) का सहारा लेकर, दंभ, घमंड और अहंकार से युक्त होते हैं। मोह में फँसकर, असत्य को पकड़कर अशुद्ध व्रतों का पालन करते हैं।"

व्याख्या:
आसुरी लोग अपनी इच्छाओं और अहंकार के वश में होकर ऐसे कार्य करते हैं, जो अशुद्ध और अधर्म के मार्ग पर होते हैं।


श्लोक 11-12

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः॥
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्॥

अर्थ:
"वे अनंत चिंता से घिरे रहते हैं, जो उनके प्रलय (मृत्यु) तक रहती है। उनकी तृष्णा असीम होती है और वे मानते हैं कि भोग ही सबकुछ है। वे आशा (इच्छा) के बंधनों से जकड़े होते हैं, क्रोध और काम के दास बन जाते हैं, और अन्यायपूर्ण तरीकों से धन एकत्र करते हैं।"

व्याख्या:
आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग भोग को ही जीवन का अंतिम उद्देश्य मानते हैं। वे लालच और क्रोध के कारण अनैतिक कार्य करते हैं और अपनी इच्छाओं के कारण दुख और चिंता में घिरे रहते हैं।


श्लोक 13-15

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्॥
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥
आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः॥

अर्थ:
"वे सोचते हैं: 'आज मैंने यह प्राप्त किया, अब मैं अपनी इच्छाएँ पूरी करूँगा। यह मेरा है और यह भविष्य में भी मेरा होगा। मैंने इस शत्रु को मार दिया है और दूसरों को भी मार दूँगा। मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही भोग करने वाला हूँ, मैं सिद्ध, बलवान और सुखी हूँ। मैं धनवान और कुलीन हूँ। मेरे जैसा कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आनंद करूँगा।' इस प्रकार, वे अज्ञान से मोहित रहते हैं।"

व्याख्या:
आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग केवल भौतिक सुखों में लिप्त रहते हैं। वे अहंकार और अज्ञान में डूबे रहते हैं और अपने भोग तथा शक्ति को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं।


श्लोक 16-20

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥
आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्॥
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥
तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥

अर्थ:
"वे अनेक प्रकार की चिंताओं से भ्रमित होते हैं, मोह में फँसे रहते हैं और भोग में लिप्त होकर अशुद्ध नरकों में गिरते हैं। वे स्वयं को बड़ा मानते हैं, अहंकारी, धनवान और दंभी होते हैं। वे धर्म का ढोंग करते हैं, लेकिन विधिपूर्वक नहीं। अहंकार, घमंड, लालच और क्रोध से युक्त होकर, वे मुझसे और दूसरों से द्वेष करते हैं। ऐसे दुष्ट, क्रूर और अधम प्राणियों को मैं बार-बार आसुरी योनियों में फेंकता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान स्पष्ट करते हैं कि आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग, जो अहंकारी, क्रोधी और दूसरों से द्वेष करते हैं, उन्हें अधम योनियों में जन्म लेना पड़ता है। यह उनके अधार्मिक कर्मों और स्वार्थी प्रवृत्तियों का परिणाम है।


सारांश (श्लोक 1-20):

  1. दैवी संपत्ति:

    • अहिंसा, दया, शांति, सच्चाई, त्याग, इंद्रिय-निग्रह और नम्रता जैसे गुण।
    • ये गुण मोक्ष और आत्मज्ञान की ओर ले जाते हैं।
  2. आसुरी संपत्ति:

    • दंभ, अहंकार, क्रोध, अज्ञान, लालच और भोग की प्रवृत्ति।
    • ये गुण बंधन, अधोगति और नरक का कारण बनते हैं।
  3. आसुरी प्रवृत्ति का परिणाम:

    • आसुरी गुणों से युक्त व्यक्ति मोह, अज्ञान और तृष्णा में फँसकर अधम योनियों में जन्म लेता है।
    • उनका जीवन अधर्म और स्वार्थ से भरा होता है, जो समाज और स्वयं के लिए हानिकारक है।

शनिवार, 7 जून 2025

भगवद्गीता: अध्याय 16 - दैवासुरसम्पद्विभाग योग

भगवद गीता – षोडश अध्याय: दैवासुरसम्पद्विभाग योग

(Daivasura Sampad Vibhaga Yoga – The Yoga of the Division Between the Divine and the Demonic Qualities)

📖 अध्याय 16 का परिचय

दैवासुरसम्पद्विभाग योग गीता का सोलहवाँ अध्याय है, जिसमें श्रीकृष्ण दैवी (सात्विक) और आसुरी (राजसी-तामसी) गुणों का भेद बताते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि जो व्यक्ति दैवी गुणों को अपनाता है, वह मोक्ष (मुक्ति) की ओर बढ़ता है, जबकि आसुरी प्रवृत्ति वाला व्यक्ति अधोगति (पतन) को प्राप्त करता है।

👉 मुख्य भाव:

  • दैवी सम्पद (सात्विक गुण) – आत्मोन्नति और मोक्ष का मार्ग।
  • आसुरी सम्पद (राजसिक और तामसिक गुण) – पतन और बंधन का कारण।
  • धर्मशास्त्र के अनुसार जीवन जीने का महत्व।

📖 श्लोक (16.6):

"द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु॥"

📖 अर्थ: हे अर्जुन! इस संसार में दो प्रकार के जीव होते हैं – दैवी और आसुरी। मैंने पहले दैवी स्वभाव को विस्तार से बताया, अब आसुरी स्वभाव को सुनो।

👉 यह अध्याय हमें सिखाता है कि हमें दैवी गुणों को अपनाना चाहिए और आसुरी प्रवृत्तियों से बचना चाहिए।


🔹 1️⃣ दैवी गुण – जो व्यक्ति मोक्ष की ओर ले जाते हैं

📌 1. दैवी सम्पद के गुण (Verses 1-3)

  • श्रीकृष्ण बताते हैं कि दैवी स्वभाव वाले लोग सत्य, अहिंसा, करुणा और आत्मसंयम से युक्त होते हैं।
  • ये गुण व्यक्ति को परमात्मा से जोड़ते हैं और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

📖 श्लोक (16.2-3):

"अहिंसा सत्यं अक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥"

"तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥"

📖 अर्थ: अहिंसा, सत्य, क्रोध का अभाव, त्याग, शांति, सरलता, करुणा, लोभ-रहितता, कोमलता, लज्जा, धैर्य, क्षमा, स्वच्छता, द्वेषरहितता और अभिमान का अभाव – ये सभी दैवी गुण हैं।

👉 ऐसे व्यक्ति ईश्वर के प्रिय होते हैं और मोक्ष के अधिकारी बनते हैं।


🔹 2️⃣ आसुरी गुण – जो व्यक्ति को पतन की ओर ले जाते हैं

📌 2. आसुरी सम्पद के लक्षण (Verses 4-5)

  • आसुरी स्वभाव के लोग अहंकारी, क्रूर, दंभी, असत्य भाषी, और धर्मविहीन होते हैं।
  • ये गुण व्यक्ति को अधोगति (नरक) की ओर ले जाते हैं।

📖 श्लोक (16.4):

"दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदामासुरीम्॥"

📖 अर्थ: दिखावा, अहंकार, घमंड, क्रोध, कठोर वाणी, और अज्ञान – ये सभी आसुरी गुण हैं।

👉 ऐसे लोग अधर्म में लिप्त रहते हैं और पुनर्जन्म के चक्र में फंसे रहते हैं।


🔹 3️⃣ आसुरी प्रवृत्तियों वाले व्यक्तियों का व्यवहार

📌 3. आसुरी व्यक्ति किस प्रकार सोचते और कार्य करते हैं? (Verses 7-20)

  • ये लोग धर्म को नहीं मानते और अपने मन की इच्छाओं के अनुसार कार्य करते हैं।
  • इन्हें न ही अच्छे कर्मों में रुचि होती है, न ही पवित्रता में।

📖 श्लोक (16.8):

"असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्॥"

📖 अर्थ: आसुरी स्वभाव वाले लोग कहते हैं कि यह संसार झूठा, आधारहीन और ईश्वर-विहीन है। वे मानते हैं कि यह केवल वासना और संयोग का परिणाम है।

📖 श्लोक (16.13-15):

"इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्॥"

📖 अर्थ: वे सोचते हैं – "आज मैंने यह पा लिया, कल और पाऊँगा। मेरे पास इतना धन है, और भी होगा।"

👉 ऐसे व्यक्ति लोभ और अहंकार में अंधे हो जाते हैं और धर्म से दूर हो जाते हैं।


🔹 4️⃣ आसुरी प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों की गति (पतन)

📌 4. आसुरी स्वभाव वाले लोगों का भविष्य क्या होता है? (Verses 16-20)

  • ये लोग जन्म-जन्मांतर तक अधोगति को प्राप्त होते हैं।
  • भगवान कहते हैं कि ऐसे लोग बार-बार जन्म लेते हैं और निम्न योनियों में गिरते जाते हैं।

📖 श्लोक (16.20):

"आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्॥"

📖 अर्थ: जो लोग आसुरी स्वभाव के होते हैं, वे जन्म-जन्मांतर तक अधोगति (नरक) में जाते रहते हैं और मुझे (भगवान) प्राप्त नहीं कर पाते।

👉 इसलिए, आसुरी गुणों से बचना आवश्यक है।


🔹 5️⃣ शास्त्रानुसार आचरण करना आवश्यक है

📌 5. धर्मशास्त्र का पालन क्यों आवश्यक है? (Verses 21-24)

  • काम (वासना), क्रोध और लोभ – ये तीन नरक के द्वार हैं, इनसे बचना चाहिए।
  • जो व्यक्ति धर्मशास्त्रों को छोड़कर मनमाने तरीके से कार्य करता है, वह विनाश को प्राप्त होता है।

📖 श्लोक (16.23):

"यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥"

📖 अर्थ: जो व्यक्ति शास्त्रों को छोड़कर अपनी इच्छानुसार कार्य करता है, वह न सिद्धि प्राप्त करता है, न सुख, और न ही परम गति।

👉 इसलिए, हमें शास्त्रों के अनुसार जीवन जीना चाहिए।


🔹 6️⃣ अध्याय से मिलने वाली शिक्षाएँ

📖 इस अध्याय में श्रीकृष्ण के उपदेश से हमें कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं:

1. दैवी गुणों को अपनाने से मोक्ष प्राप्त होता है।
2. आसुरी प्रवृत्तियाँ व्यक्ति को अधोगति की ओर ले जाती हैं।
3. लोभ, अहंकार, क्रोध, और अधर्म से बचना चाहिए।
4. धर्मशास्त्रों के अनुसार आचरण करने से ही जीवन सफल होता है।
5. भगवान केवल उन्हीं की सहायता करते हैं, जो सच्चे मन से भक्ति करते हैं और धर्म के मार्ग पर चलते हैं।


🔹 निष्कर्ष

1️⃣ दैवी और आसुरी स्वभाव वाले व्यक्तियों में मूल अंतर उनके गुण और आचरण से होता है।
2️⃣ जो व्यक्ति अहंकार, क्रोध और लोभ को छोड़कर सत्य, करुणा और भक्ति का पालन करता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है।
3️⃣ जो धर्मशास्त्रों को छोड़कर अधर्म के मार्ग पर चलता है, वह पतन को प्राप्त करता है।
4️⃣ हमें अपने जीवन में दैवी गुणों को अपनाकर, भगवान की भक्ति और सच्चाई के मार्ग पर चलना चाहिए।

शनिवार, 31 मई 2025

भागवत गीता: अध्याय 15 (पुरुषोत्तम योग) पुरुषोत्तम का दर्शन (श्लोक 13-20)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 15 (पुरुषोत्तम योग) के श्लोक 13 से श्लोक 20 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी सर्वव्यापकता, संसार को पोषण देने वाली शक्ति, और आत्मा के साथ अपने संबंध को स्पष्ट किया है। उन्होंने अंत में अपने परम पुरुषोत्तम स्वरूप का वर्णन किया है।


श्लोक 13

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः॥

अर्थ:
"मैं पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी ऊर्जा से सभी प्राणियों को धारण करता हूँ और चंद्रमा के रूप में सभी औषधियों का पोषण करता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि वे पृथ्वी और चंद्रमा में स्थित होकर सृष्टि को स्थिरता और पोषण प्रदान करते हैं। औषधियों और खाद्य पदार्थों की वृद्धि चंद्रमा की ऊर्जा से होती है, और यह ऊर्जा भगवान का स्वरूप है।


श्लोक 14

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥

अर्थ:
"मैं ही प्राणियों के शरीर में स्थित वैश्वानर (पाचन अग्नि) हूँ। प्राण और अपान के साथ मिलकर मैं चार प्रकार के भोजन को पचाता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान शरीर में स्थित पाचन शक्ति (वैश्वानर) के रूप में भोजन को पचाने और ऊर्जा प्रदान करने का कार्य करते हैं। चार प्रकार के भोजन का मतलब चबाने, पीने, चूसने और निगलने योग्य भोजन है।


श्लोक 15

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो।
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो।
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥

अर्थ:
"मैं ही सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और विस्मृति उत्पन्न होती है। मैं ही वेदों द्वारा जानने योग्य हूँ, और मैं ही वेदों का रचयिता और वेदों का जानने वाला हूँ।"

व्याख्या:
भगवान हृदय में स्थित आत्मा के रूप में स्मृति और ज्ञान प्रदान करते हैं। वे ही वेदों का सार हैं और वेदों के अंतिम उद्देश्य भी। इस श्लोक में भगवान की सर्वव्यापकता और वेदों के साथ उनके गहरे संबंध का वर्णन किया गया है।


श्लोक 16

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥

अर्थ:
"इस संसार में दो प्रकार के पुरुष हैं: क्षर (नाशवान) और अक्षर (अविनाशी)। सभी भौतिक प्राणी क्षर हैं, और आत्मा अक्षर कहलाती है।"

व्याख्या:
भगवान संसार के दो स्वरूप बताते हैं:

  1. क्षर (नाशवान): सभी भौतिक प्राणी जो जन्म लेते हैं और नाशवान होते हैं।
  2. अक्षर (अविनाशी): आत्मा, जो अमर और अचल है।

श्लोक 17

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युधाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥

अर्थ:
"तीसरा पुरुष (उत्तम पुरुष) परमात्मा है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके उन्हें धारण करता है। वह अविनाशी और ईश्वर है।"

व्याख्या:
तीसरा और सर्वोच्च पुरुष परमात्मा (भगवान) हैं, जो सृष्टि के भीतर और बाहर दोनों में स्थित हैं। वे सभी जीवों और लोकों का पालन करते हैं।


श्लोक 18

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥

अर्थ:
"क्योंकि मैं क्षर (नाशवान) से परे और अक्षर (अविनाशी) से भी श्रेष्ठ हूँ, इसलिए संसार और वेदों में मुझे पुरुषोत्तम (सर्वोच्च पुरुष) के रूप में जाना गया है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे न केवल भौतिक संसार (क्षर) और आत्मा (अक्षर) से श्रेष्ठ हैं, बल्कि वे परम तत्व (पुरुषोत्तम) हैं। वेदों में उनकी महिमा इसी रूप में वर्णित है।


श्लोक 19

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति मुझे पुरुषोत्तम (सर्वोच्च पुरुष) के रूप में जानता है, वह भ्रम से मुक्त होकर मुझे सभी भावों से भजता है।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि जो उन्हें पुरुषोत्तम के रूप में पहचानता है, वह सच्चा ज्ञानी है। ऐसा व्यक्ति सभी भौतिक भ्रमों से मुक्त होकर भगवान की अनन्य भक्ति करता है।


श्लोक 20

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत॥

अर्थ:
"हे निष्पाप अर्जुन, यह सबसे गोपनीय शास्त्र मैंने तुम्हें बताया है। इसे जानने के बाद व्यक्ति ज्ञानी और कृतकृत्य (संपूर्ण) हो जाता है।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि यह ज्ञान अत्यंत गोपनीय और महत्वपूर्ण है। इसे समझकर व्यक्ति सच्चा ज्ञानी बनता है और अपना जीवन पूर्ण कर लेता है, क्योंकि वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है।


सारांश (श्लोक 13-20):

  1. भगवान की सर्वव्यापकता:

    • भगवान पृथ्वी और चंद्रमा के माध्यम से सभी प्राणियों को पोषण देते हैं।
    • वे शरीर में पाचन शक्ति के रूप में कार्य करते हैं।
  2. भगवान का ज्ञान और वेदों से संबंध:

    • वे सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हैं और स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति प्रदान करते हैं।
    • वेदों का उद्देश्य भगवान को जानना है, और वेदों के रचयिता भी वही हैं।
  3. तीन पुरुष:

    • क्षर (नाशवान): सभी भौतिक प्राणी।
    • अक्षर (अविनाशी): आत्मा।
    • उत्तम पुरुष (पुरुषोत्तम): परमात्मा, जो क्षर और अक्षर से परे हैं।
  4. पुरुषोत्तम का ज्ञान:

    • जो भगवान को पुरुषोत्तम के रूप में जानता है, वह सभी भ्रमों से मुक्त होकर भगवान की भक्ति करता है।
    • यह ज्ञान व्यक्ति को मोक्ष की ओर ले जाता है।
  5. गोपनीय शास्त्र:

    • यह ज्ञान सबसे गोपनीय और महत्वपूर्ण है। इसे जानने वाला व्यक्ति जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्त कर लेता है।

शनिवार, 24 मई 2025

भागवत गीता: अध्याय 15 (पुरुषोत्तम योग) सत्य और आत्मा का ज्ञान (श्लोक 8-12)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 15 (पुरुषोत्तम योग) के श्लोक 8 से श्लोक 12 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा के शरीर से शरीर में स्थानांतरण, उसकी चेतना, और उसकी प्रकृति को समझाया है।


श्लोक 8

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर gandhānिवाशयात्॥

अर्थ:
"जब आत्मा (ईश्वर का अंश) एक शरीर को त्यागकर दूसरा शरीर प्राप्त करता है, तो वह अपने साथ मन, इंद्रियों और चेतना को ले जाता है, जैसे हवा फूलों की सुगंध को अपने साथ ले जाती है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि जब आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में जाती है, तो वह अपने साथ मन और इंद्रियों के संस्कारों को ले जाती है। यह पुनर्जन्म और कर्मों का परिणाम है। आत्मा का यह प्रवास भौतिक शरीर तक सीमित नहीं होता, बल्कि मन और इंद्रिय रूपी सूक्ष्म शरीर के साथ होता है।


श्लोक 9

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते॥

अर्थ:
"आत्मा कान, आँख, त्वचा, जीभ और नाक (पाँच ज्ञानेंद्रियों) का आधार लेकर, मन के साथ भौतिक विषयों का अनुभव करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक आत्मा की चेतना और भौतिक शरीर के माध्यम से अनुभव करने की क्षमता का वर्णन करता है। आत्मा, मन और इंद्रियों के द्वारा संसार के विषयों का अनुभव करता है। यह दिखाता है कि कैसे आत्मा शरीर के माध्यम से अपने कर्मों का फल भोगती है।


श्लोक 10

उत्क्रामन्तं स्थितं वाऽपि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः॥

अर्थ:
"जो अज्ञानी हैं, वे आत्मा को शरीर से निकलते हुए, उसमें स्थित रहते हुए, और गुणों (संसारिक विषयों) का अनुभव करते हुए नहीं देख पाते। लेकिन जो ज्ञानचक्षु (ज्ञान की दृष्टि) वाले हैं, वे इसे देख पाते हैं।"

व्याख्या:
अज्ञानी व्यक्ति आत्मा की उपस्थिति और उसके शरीर में स्थानांतरण को नहीं समझ पाता। केवल वे लोग, जिनके पास आत्मज्ञान है और जिन्होंने भक्ति व वैराग्य से अपने दृष्टिकोण को शुद्ध किया है, वे आत्मा के इस स्वरूप को समझ सकते हैं।


श्लोक 11

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥

अर्थ:
"जो योगी आत्मा के स्वरूप को समझने का प्रयास करते हैं, वे इसे अपने भीतर स्थित देख पाते हैं। लेकिन जिनका मन शुद्ध नहीं है, वे इसे देख नहीं पाते।"

व्याख्या:
योगी, जो ध्यान और आत्मसंयम के माध्यम से अपने मन और इंद्रियों को नियंत्रित करते हैं, आत्मा की वास्तविकता को देख पाते हैं। लेकिन जो लोग भौतिक आसक्तियों और अज्ञान से भरे हुए हैं, वे आत्मा के इस दिव्य स्वरूप को नहीं समझ सकते।


श्लोक 12

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्॥

अर्थ:
"सूर्य में स्थित जो तेज पूरे जगत को प्रकाशित करता है, चंद्रमा और अग्नि का जो प्रकाश है, उसे मेरा तेज समझो।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि सृष्टि के सभी प्रकाश (सूर्य, चंद्रमा और अग्नि) का स्रोत वही हैं। यह उनके दिव्य स्वरूप का संकेत है। भगवान सृष्टि को जीवन देने वाली ऊर्जा और प्रकाश के मूल कारण हैं।


सारांश (श्लोक 8-12):

  1. आत्मा का स्थानांतरण (पुनर्जन्म):

    • आत्मा शरीर को छोड़ते और प्राप्त करते समय मन और इंद्रियों के संस्कार अपने साथ ले जाती है।
    • यह प्रवास वायुरूपी सुगंध के साथ जाने जैसा है।
  2. आत्मा का भौतिक अनुभव:

    • आत्मा मन और इंद्रियों के माध्यम से संसारिक विषयों का अनुभव करती है।
    • अज्ञानी आत्मा की इस प्रक्रिया को नहीं समझ पाते।
  3. योग और आत्मज्ञान:

    • आत्मा को केवल योगी और ज्ञानचक्षु वाले व्यक्ति देख और समझ सकते हैं।
    • अज्ञानी और आसक्ति में लिप्त व्यक्ति आत्मा को नहीं समझ पाते।
  4. भगवान का प्रकाश:

    • सूर्य, चंद्रमा और अग्नि का प्रकाश भगवान का तेज है।
    • यह भगवान की सर्वव्यापकता और दिव्यता को दर्शाता है।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण इस खंड में आत्मा और प्रकृति के संबंध को स्पष्ट करते हैं। आत्मा का संसार में अनुभव मन और इंद्रियों के माध्यम से होता है, लेकिन इसे केवल योग और आत्मज्ञान के माध्यम से समझा जा सकता है। भगवान अपने दिव्य स्वरूप और जगत को प्रकाशित करने वाले तेज के माध्यम से अपने भक्तों को अपनी उपस्थिति का एहसास कराते हैं।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...