शनिवार, 19 जुलाई 2025

भागवत गीता: अध्याय 17 (श्रद्धात्रय विभाग योग) तामसगुणयुक्त श्रद्धा (श्लोक 19-22), श्रद्धा के प्रभाव (श्लोक 23-28)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 17 (श्रद्धात्रय विभाग योग) के श्लोक 19 से श्लोक 28 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने तप और दान के तीन प्रकार (सात्त्विक, राजसिक, तामसिक) और "ॐ तत् सत्" के महत्व को समझाया है।


श्लोक 19

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्॥

अर्थ:
"जो तप मूर्खतापूर्ण रूप से, आत्मा को कष्ट देकर या दूसरों को हानि पहुँचाने के उद्देश्य से किया जाता है, वह तामसिक तप कहलाता है।"

व्याख्या:
तामसिक तप वह है जो न तो शास्त्रों के अनुरूप है और न ही आत्मा की शुद्धि के लिए किया जाता है। यह केवल दूसरों को हानि पहुँचाने या दिखावा करने के लिए किया जाता है। ऐसा तप आत्मा को अधोगति की ओर ले जाता है।


श्लोक 20

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥

अर्थ:
"जो दान कर्तव्य समझकर, योग्य समय, स्थान और पात्र को बिना किसी प्रतिफल की इच्छा के दिया जाता है, वह सात्त्विक दान कहलाता है।"

व्याख्या:
सात्त्विक दान निष्काम भावना से दिया जाता है। इसमें देने वाले का उद्देश्य दूसरों की मदद करना होता है, न कि यश या लाभ प्राप्त करना।


श्लोक 21

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥

अर्थ:
"जो दान किसी प्रतिफल की इच्छा से, अथवा बदले में उपकार की अपेक्षा से या कठिनाईपूर्वक दिया जाता है, वह राजसिक दान कहलाता है।"

व्याख्या:
राजसिक दान स्वार्थ से प्रेरित होता है। यह दान दिखावे या भौतिक लाभ के उद्देश्य से दिया जाता है। इसमें देने वाले के मन में कष्ट या अनिच्छा होती है।


श्लोक 22

अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥

अर्थ:
"जो दान अनुचित समय, स्थान और अयोग्य व्यक्ति को, बिना सम्मान या अवहेलना के साथ दिया जाता है, वह तामसिक दान कहलाता है।"

व्याख्या:
तामसिक दान असंवेदनशीलता और अज्ञान से प्रेरित होता है। यह दान न तो उपयुक्त पात्र को दिया जाता है और न ही इसमें कोई श्रद्धा या भावना होती है।


श्लोक 23

ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥

अर्थ:
"'ॐ तत् सत्' – यह त्रिविध नाम ब्रह्म का है। इस नाम से ब्राह्मण, वेद और यज्ञ प्राचीनकाल में बनाए गए।"

व्याख्या:
भगवान समझाते हैं कि "ॐ तत् सत्" ब्रह्म (परम सत्य) के प्रतीक हैं। यह नाम ब्राह्मणों, वेदों और यज्ञों को पवित्र और शुद्ध बनाते हैं।


श्लोक 24

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ता सततं ब्रह्मवादिनाम्॥

अर्थ:
"इसलिए, 'ॐ' कहकर यज्ञ, दान और तप जैसी विधिपूर्वक क्रियाएँ सदा ब्रह्मज्ञानी लोग करते हैं।"

व्याख्या:
"ॐ" उच्चारण से यज्ञ, दान और तप पवित्र हो जाते हैं। यह ब्रह्म का प्रतीक है और इसका स्मरण कर्मों को शुद्ध और श्रेष्ठ बनाता है।


श्लोक 25

तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥

अर्थ:
"'तत्' कहकर, बिना फल की इच्छा के, यज्ञ, तप और दान जैसी विविध क्रियाएँ मोक्ष की इच्छा रखने वाले लोग करते हैं।"

व्याख्या:
"तत्" शब्द का उपयोग निस्वार्थ भावना और मोक्ष की कामना के साथ किया जाता है। इसका उद्देश्य भगवान की कृपा प्राप्त करना होता है, न कि भौतिक लाभ।


श्लोक 26-27

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते।
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥

अर्थ:
"'सत्' का उपयोग अस्तित्व और शुद्धता के अर्थ में किया जाता है। हे पार्थ, प्रशंसनीय कर्मों में भी 'सत्' शब्द का उपयोग होता है। यज्ञ, तप और दान में स्थिरता को 'सत्' कहा जाता है, और जो कर्म भगवान के लिए किए जाते हैं, उन्हें भी 'सत्' कहा जाता है।"

व्याख्या:
"सत्" शब्द सत्य, शुद्धता और प्रशंसा का प्रतीक है। यह हर अच्छे कार्य (यज्ञ, तप, दान) को पवित्र करता है और इसे भगवान के प्रति समर्पित करता है।


श्लोक 28

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥

अर्थ:
"हे पार्थ, जो यज्ञ, दान, तप और अन्य कर्म बिना श्रद्धा के किए जाते हैं, वे 'असत्' कहलाते हैं। न तो वे इस जीवन में और न ही मरने के बाद फल देते हैं।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण समझाते हैं कि बिना श्रद्धा और भावना के किए गए कर्म व्यर्थ होते हैं। वे न तो इस संसार में फल देते हैं और न ही मृत्यु के बाद किसी अच्छे परिणाम की ओर ले जाते हैं।


सारांश (श्लोक 19-28):

  1. तप के प्रकार:

    • सात्त्विक तप: आत्मा की शुद्धि के लिए, श्रद्धा से किया गया।
    • राजसिक तप: मान-सम्मान और दिखावे के लिए किया गया।
    • तामसिक तप: दूसरों को हानि पहुँचाने या आत्मा को कष्ट देने के लिए किया गया।
  2. दान के प्रकार:

    • सात्त्विक दान: निष्काम भाव से, योग्य पात्र को दिया गया।
    • राजसिक दान: फल की इच्छा से या बदले में उपकार की आशा से दिया गया।
    • तामसिक दान: अपात्र को, बिना श्रद्धा के या अपमान के साथ दिया गया।
  3. "ॐ तत् सत्" का महत्व:

    • "ॐ तत् सत्" ब्रह्म (परम सत्य) का प्रतीक है।
    • यह यज्ञ, तप और दान को शुद्ध और पवित्र बनाता है।
    • श्रद्धा और समर्पण के साथ किया गया कर्म ही सार्थक होता है।
  4. अश्रद्धा के साथ कर्म:

    • बिना श्रद्धा के किया गया यज्ञ, तप, और दान व्यर्थ होते हैं।
    • ऐसे कर्म न तो इस जीवन में और न ही मृत्यु के बाद किसी लाभ को प्रदान करते हैं।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण इस खंड में समझाते हैं कि श्रद्धा और समर्पण हर कर्म की सफलता और शुद्धता का आधार हैं। "ॐ तत् सत्" के माध्यम से किए गए कार्य परमात्मा के प्रति समर्पित होते हैं और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

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