शनिवार, 12 जुलाई 2025

भागवत गीता: अध्याय 17 (श्रद्धात्रय विभाग योग) रजोगुणयुक्त श्रद्धा (श्लोक 11-18)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 17 (श्रद्धात्रय विभाग योग) के श्लोक 11 से 18 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने यज्ञ, तप और दान के तीन प्रकार (सात्त्विक, राजसिक, और तामसिक) का वर्णन किया है।


श्लोक 11

अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः॥

अर्थ:
"जो यज्ञ शास्त्रों के अनुसार विधिपूर्वक किया जाता है और जिसमें फल की आकांक्षा नहीं होती, वह सात्त्विक यज्ञ कहलाता है।"

व्याख्या:
सात्त्विक यज्ञ शुद्ध हृदय से, केवल कर्तव्य समझकर और बिना किसी भौतिक फल की इच्छा के किया जाता है। यह यज्ञ आत्मा की उन्नति और भगवान को प्रसन्न करने के लिए होता है।


श्लोक 12

अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्॥

अर्थ:
"हे भरतश्रेष्ठ, जो यज्ञ फल की इच्छा से या केवल दिखावे के लिए किया जाता है, उसे राजसिक यज्ञ कहा गया है।"

व्याख्या:
राजसिक यज्ञ उन लोगों द्वारा किया जाता है जो भौतिक इच्छाओं, धन, मान-सम्मान, या किसी विशेष लाभ के लिए यज्ञ करते हैं। इसमें वास्तविक भक्ति का अभाव होता है।


श्लोक 13

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते॥

अर्थ:
"जो यज्ञ शास्त्रविधि के विरुद्ध होता है, जिसमें भोजन, मंत्र, दक्षिणा और श्रद्धा का अभाव होता है, उसे तामसिक यज्ञ कहते हैं।"

व्याख्या:
तामसिक यज्ञ बिना श्रद्धा, नियम और पवित्रता के किया जाता है। इसमें ईश्वर के प्रति भक्ति या आस्था नहीं होती और यह केवल दिखावे या अज्ञान के कारण किया जाता है।


श्लोक 14

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥

अर्थ:
"देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानी जनों की पूजा, शुद्धता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा – ये सब शारीरिक तप कहलाते हैं।"

व्याख्या:
शारीरिक तप वह है जो शरीर से किया जाता है, जैसे ईश्वर, गुरु और विद्वानों की सेवा और पूजा। इसमें शुद्धता, संयम और अहिंसा का पालन होता है।


श्लोक 15

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियं हितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥

अर्थ:
"जो वाणी दूसरों को उद्वेग (परेशानी) न दे, सत्य हो, प्रिय और हितकारी हो, और जो स्वाध्याय (वेदों का अध्ययन) में लीन हो – वह वाणी का तप कहलाता है।"

व्याख्या:
वाणी का तप यह है कि व्यक्ति ऐसा बोलता है जो सत्य और मधुर हो, लेकिन किसी को कष्ट न पहुँचाए। स्वाध्याय और भक्ति से ऐसी वाणी का विकास होता है।


श्लोक 16

मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥

अर्थ:
"मन की प्रसन्नता, सौम्यता, मौन, आत्म-नियंत्रण, और भावों की शुद्धता – यह मन का तप कहलाता है।"

व्याख्या:
मानसिक तप का अर्थ है मन को शांत और प्रसन्न रखना। इसके लिए व्यक्ति को मौन रहना चाहिए, भावनाओं को नियंत्रित करना चाहिए और पवित्र विचारों को अपनाना चाहिए।


श्लोक 17

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते॥

अर्थ:
"जो तप श्रद्धा से और परम उद्देश्य (मोक्ष) को प्राप्त करने के लिए किया जाता है, और जिसमें किसी फल की इच्छा नहीं होती, वह सात्त्विक तप कहलाता है।"

व्याख्या:
सात्त्विक तप शुद्ध मन और श्रद्धा से किया जाता है। इसमें भौतिक लाभ की कोई इच्छा नहीं होती और यह आत्मा की शुद्धि और भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिए किया जाता है।


श्लोक 18

सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्॥

अर्थ:
"जो तप आदर, मान-सम्मान और पूजा प्राप्त करने के लिए तथा दिखावे के लिए किया जाता है, वह राजसिक तप कहलाता है। यह अस्थिर और नाशवान होता है।"

व्याख्या:
राजसिक तप उन लोगों द्वारा किया जाता है जो केवल प्रशंसा, मान-सम्मान और भौतिक लाभ के लिए तप करते हैं। यह तप स्थायी फल नहीं देता और व्यक्ति को आध्यात्मिक उन्नति की ओर नहीं ले जाता।


सारांश (श्लोक 11-18):

  1. यज्ञ के प्रकार:

    • सात्त्विक यज्ञ: बिना फल की आकांक्षा के, शास्त्रों के अनुसार किया गया यज्ञ।
    • राजसिक यज्ञ: दिखावे और भौतिक लाभ के लिए किया गया यज्ञ।
    • तामसिक यज्ञ: शास्त्रविरुद्ध और बिना श्रद्धा के किया गया यज्ञ।
  2. तप के प्रकार:

    • शारीरिक तप: गुरु, देवता, और विद्वानों की पूजा, शुद्धता और अहिंसा।
    • वाणी का तप: सत्य, प्रिय और हितकारी वाणी बोलना।
    • मानसिक तप: मन की शांति, आत्म-नियंत्रण, और पवित्रता।
  3. तप की श्रेणियाँ:

    • सात्त्विक तप: बिना किसी फल की इच्छा के, आत्मा की उन्नति के लिए किया गया तप।
    • राजसिक तप: मान-सम्मान और भौतिक लाभ के लिए किया गया तप।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि यज्ञ, तप, और दान जैसे कर्म तीन गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) से प्रेरित होते हैं। सात्त्विक कर्म व्यक्ति को शुद्धता और मोक्ष की ओर ले जाते हैं, जबकि राजसिक और तामसिक कर्म बंधन और अधोगति का कारण बनते हैं।

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