शनिवार, 5 जुलाई 2025

भागवत गीता: अध्याय 17 (श्रद्धात्रय विभाग योग) श्रद्धा का परिचय (श्लोक 1-2), सत्त्वगुणयुक्त श्रद्धा (श्लोक 3-10)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 17 (श्रद्धात्रय विभाग योग) के श्लोक 1 से 10 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने श्रद्धा के तीन प्रकार (सत्त्व, रजस और तमस) और भोजन की प्रकृति के बारे में विस्तार से बताया है।


श्लोक 1

अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः॥

अर्थ:
"अर्जुन ने कहा: हे कृष्ण, जो लोग शास्त्रों के नियमों को त्यागकर श्रद्धा के साथ पूजा करते हैं, उनकी श्रद्धा कैसी होती है? क्या वह सत्त्व (पवित्रता), रजस (क्रियाशीलता) या तमस (अज्ञान) से प्रेरित होती है?"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान से पूछते हैं कि यदि कोई व्यक्ति शास्त्रों के निर्देशों का पालन न करते हुए भी श्रद्धा से पूजा करता है, तो उसकी श्रद्धा किस प्रकार की मानी जाएगी। यह प्रश्न श्रद्धा और उसके प्रभाव को समझने की जिज्ञासा से प्रेरित है।


श्लोक 2

श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: देहधारी प्राणियों की श्रद्धा तीन प्रकार की होती है – सत्त्वगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी। अब मैं तुम्हें इनका वर्णन करता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि श्रद्धा मनुष्य के स्वभाव और गुणों पर निर्भर करती है। ये श्रद्धा सत्त्व (पवित्रता), रजस (भोग और क्रियाशीलता) और तमस (अज्ञान और आलस्य) से प्रेरित हो सकती है।


श्लोक 3

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥

अर्थ:
"हे भारत, प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा उसके स्वभाव के अनुरूप होती है। मनुष्य श्रद्धा के अनुसार ही होता है; वह जैसा विश्वास करता है, वैसा ही बन जाता है।"

व्याख्या:
भगवान यह समझाते हैं कि व्यक्ति की श्रद्धा उसके स्वभाव और गुणों को प्रकट करती है। श्रद्धा किसी व्यक्ति के चरित्र और कर्मों का आधार होती है।


श्लोक 4

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः॥

अर्थ:
"सात्त्विक लोग देवताओं की पूजा करते हैं, राजसिक लोग यक्षों और राक्षसों की, और तामसिक लोग प्रेतों और भूतों की पूजा करते हैं।"

व्याख्या:
भगवान ने श्रद्धा के तीन प्रकार के आधार पर पूजा की प्रकृति का वर्णन किया है।

  • सात्त्विक श्रद्धा से व्यक्ति देवताओं की पूजा करता है।
  • राजसिक श्रद्धा से व्यक्ति शक्ति और भोग की इच्छा से यक्षों और राक्षसों की पूजा करता है।
  • तामसिक श्रद्धा से व्यक्ति प्रेत, भूत और नकारात्मक शक्तियों की पूजा करता है।

श्लोक 5-6

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहंकारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः॥
कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतेग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्॥

अर्थ:
"जो लोग शास्त्रविहित न होकर घोर तप करते हैं, जो दंभ (ढोंग), अहंकार और इच्छाओं से युक्त हैं, और जो अपने शरीर और उसमें स्थित आत्मा को कष्ट देते हैं, ऐसे अज्ञानी लोगों को आसुरी स्वभाव वाला जानो।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि जो लोग दिखावे और अहंकार से प्रेरित होकर अनावश्यक कठोर तप करते हैं, वे केवल अपने शरीर और आत्मा को कष्ट देते हैं। ऐसे लोग आसुरी स्वभाव के होते हैं और उनके कर्म अधर्म की ओर ले जाते हैं।


श्लोक 7

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु॥

अर्थ:
"भोजन भी सभी के लिए तीन प्रकार का होता है। इसी प्रकार यज्ञ, तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं। अब मैं तुम्हें उनके भेद समझाऊँगा।"

व्याख्या:
भगवान यह बताते हैं कि केवल श्रद्धा ही नहीं, बल्कि भोजन, यज्ञ, तप और दान भी सत्त्व, रजस और तमस के आधार पर तीन प्रकार के होते हैं।


श्लोक 8

आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥

अर्थ:
"जो भोजन आयु, सत्त्व, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाता है, जो रसयुक्त, स्निग्ध (पौष्टिक), स्थिर (शरीर को स्थिर रखने वाला) और हृदय को प्रिय होता है, वह सात्त्विक भोजन है।"

व्याख्या:
सात्त्विक भोजन वह है जो शरीर और मन को शुद्ध करता है। यह पोषण देता है और व्यक्ति को स्वस्थ, सुखी और शांत बनाता है।


श्लोक 9

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरुख्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥

अर्थ:
"जो भोजन कड़वा, खट्टा, नमकीन, बहुत गरम, तीखा, रूखा और जलन पैदा करने वाला हो, वह राजसिक भोजन है। ऐसा भोजन दुःख, शोक और रोग उत्पन्न करता है।"

व्याख्या:
राजसिक भोजन तृष्णा और क्रियाशीलता को बढ़ाता है। यह भोजन शरीर को नुकसान पहुँचाता है और मानसिक अशांति पैदा करता है।


श्लोक 10

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥

अर्थ:
"जो भोजन बासी, बिना रस का, दुर्गंधयुक्त, बर्बाद किया हुआ, खराब हो चुका, या अपवित्र हो, वह तामसिक भोजन है।"

व्याख्या:
तामसिक भोजन शरीर और मन को दूषित करता है। यह आलस्य, अज्ञान और स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न करता है। ऐसे भोजन से व्यक्ति का आध्यात्मिक पतन होता है।


सारांश (श्लोक 1-10):

  1. श्रद्धा के तीन प्रकार:

    • सात्त्विक: पवित्र और शांतिपूर्ण।
    • राजसिक: भोग और शक्ति की इच्छा से प्रेरित।
    • तामसिक: अज्ञान और नकारात्मकता से भरा हुआ।
  2. भोजन के तीन प्रकार:

    • सात्त्विक भोजन: स्वास्थ्य और शांति को बढ़ावा देता है।
    • राजसिक भोजन: तृष्णा और अशांति उत्पन्न करता है।
    • तामसिक भोजन: आलस्य और अज्ञान को बढ़ाता है।
  3. तप और कर्म:

    • शास्त्रविहित कर्म और तप सच्चे धर्म का पालन करते हैं।
    • दिखावे और अहंकार से प्रेरित कर्म अधर्म की ओर ले जाते हैं।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि श्रद्धा, भोजन, यज्ञ, तप और दान सभी का प्रभाव व्यक्ति के स्वभाव और जीवन पर पड़ता है। सत्त्वगुण को अपनाने से जीवन पवित्र और शांतिपूर्ण बनता है, जबकि रजस और तमस गुण आत्मा को अधोगति की ओर ले जाते हैं।

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