शनिवार, 17 अगस्त 2024

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) ज्ञान और विज्ञान का स्वरूप (श्लोक 1-7)

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) ज्ञान और विज्ञान का स्वरूप (श्लोक 1-7) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमना: पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रय:।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: हे पार्थ, मुझमें आसक्त मन लगाकर, मेरे आश्रय में रहते हुए, योग का अभ्यास करो। इस प्रकार तुम मुझे पूरी तरह से, बिना किसी संदेह के जान सकोगे।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को मुझमें मन लगाकर और भक्ति के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। वे कहते हैं कि मेरे प्रति ध्यान और समर्पण से पूर्ण ज्ञान प्राप्त होगा।


श्लोक 2

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते॥

अर्थ:
"मैं तुम्हें ज्ञान और विज्ञान सहित इस रहस्य को पूरी तरह से समझाऊंगा। इसे जान लेने के बाद इस संसार में और कुछ जानने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण ज्ञान (सिद्धांत) और विज्ञान (अनुभवजन्य सत्य) को समझाने की बात करते हैं। यह आत्मा और परमात्मा के संबंध में सम्पूर्ण सत्य का ज्ञान है।


श्लोक 3

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः॥

अर्थ:
"हजारों मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयास करता है, और सिद्धि प्राप्त करने वालों में से शायद ही कोई मुझे तत्व से जान पाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि भगवान को जानना अत्यंत दुर्लभ है। केवल विशेष प्रयास और भक्ति से ही व्यक्ति भगवान के वास्तविक स्वरूप को समझ सकता है।


श्लोक 4

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥

अर्थ:
"पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार – ये आठ प्रकार की मेरी विभाजित भौतिक प्रकृति हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान की भौतिक प्रकृति का वर्णन करता है। ये आठ तत्व भौतिक जगत की संरचना करते हैं, और वे भगवान की अधीनता में कार्य करते हैं।


श्लोक 5

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥

अर्थ:
"हे महाबाहु, यह भौतिक प्रकृति तो मेरी निम्नतर प्रकृति है। इसे पार कर एक उच्चतर प्रकृति है – जीवात्मा, जो इस संसार को धारण करती है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ भौतिक प्रकृति (जड़ प्रकृति) और आत्मा (चेतन प्रकृति) के बीच अंतर बताते हैं। आत्मा, जो भगवान का अंश है, ही इस भौतिक जगत को धारण करती है।


श्लोक 6

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा॥

अर्थ:
"सभी प्राणी इन दोनों प्रकृतियों से उत्पन्न होते हैं। जान लो कि मैं सम्पूर्ण सृष्टि का उद्गम (सृजन) और लय (विनाश) हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि भगवान ही सृष्टि का कारण और अंत हैं। भौतिक और आध्यात्मिक प्रकृति दोनों उनके अधीन हैं।


श्लोक 7

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥

अर्थ:
"हे धनंजय, मुझसे परे और कुछ भी नहीं है। यह सम्पूर्ण संसार मुझमें उसी प्रकार पिरोया हुआ है, जैसे माला में मोती धागे में पिरोए हुए रहते हैं।"

व्याख्या:
भगवान स्वयं को सर्वोच्च सत्य बताते हैं। यह संसार उनके द्वारा संचालित है और उनके भीतर स्थित है। वे मूल स्रोत हैं, जिनसे सब कुछ उत्पन्न होता है।


सारांश:

  1. श्रीकृष्ण अर्जुन को ज्ञान (सिद्धांत) और विज्ञान (अनुभव) का अद्वितीय ज्ञान प्रदान करने का वादा करते हैं।
  2. भगवान को जानना दुर्लभ है, लेकिन भक्ति और समर्पण से इसे संभव बनाया जा सकता है।
  3. संसार दो प्रकृतियों से बना है – भौतिक और आध्यात्मिक। भौतिक प्रकृति जड़ है, जबकि आत्मा चेतन है।
  4. भगवान सृष्टि का स्रोत और उसका आधार हैं। समस्त सृष्टि उन्हीं में स्थित है।
  5. भगवान को सर्वोच्च सत्य के रूप में स्वीकार करना, समग्र ज्ञान का मूल है।

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