शनिवार, 1 जून 2024

भागवत गीता: अध्याय 5 (कर्मसंन्यासयोग) कर्मसंन्यास और कर्मयोग की तुलना (श्लोक 1-6)

 भागवत गीता: अध्याय 5 (कर्मसंन्यासयोग) कर्मसंन्यास और कर्मयोग की तुलना (श्लोक 1-6) का अर्थ और व्याख्या दी गई है:


श्लोक 1

अर्जुन उवाच
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्॥

अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: "हे कृष्ण, आप कर्मों के संन्यास और योग (कर्म करने) दोनों की प्रशंसा करते हैं। इनमें से जो अधिक श्रेयस्कर है, कृपया उसे निश्चित रूप से बताइए।"

व्याख्या:
अर्जुन संन्यास (कर्मों का त्याग) और कर्मयोग (कर्तव्य पालन) के बीच के भेद को लेकर भ्रमित हैं। वे श्रीकृष्ण से इस विषय पर स्पष्ट उत्तर चाहते हैं।


श्लोक 2

श्रीभगवानुवाच
संन्यासः कर्मयोगश्च निष्श्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥

अर्थ:
भगवान ने कहा: "संन्यास और कर्मयोग दोनों ही मुक्ति के लिए श्रेष्ठ हैं। लेकिन इनमें से कर्मयोग (कर्तव्य पालन) संन्यास से श्रेष्ठ है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि कर्मयोग, जिसमें व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करता है, संन्यास (कर्मों का पूर्ण त्याग) से अधिक श्रेष्ठ और व्यावहारिक है।


श्लोक 3

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति न द्वेष करता है और न किसी वस्तु की कामना करता है, उसे सच्चा संन्यासी समझो। हे महाबाहु, ऐसा निर्द्वंद्व व्यक्ति आसानी से बंधन से मुक्त हो जाता है।"

व्याख्या:
सच्चा संन्यास बाहरी त्याग नहीं, बल्कि आंतरिक निर्लिप्तता है। द्वेष और कामना से मुक्त होकर व्यक्ति वास्तविक स्वतंत्रता प्राप्त करता है।


श्लोक 4

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्॥

अर्थ:
"बच्चे (अज्ञानी) ही सांख्य (ज्ञानयोग) और योग (कर्मयोग) को भिन्न कहते हैं। लेकिन जो व्यक्ति इनमें से किसी एक का सही पालन करता है, वह दोनों का फल प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि ज्ञानयोग और कर्मयोग वास्तव में एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं। सही दृष्टिकोण से दोनों मार्ग मुक्ति प्रदान करते हैं।


श्लोक 5

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति॥

अर्थ:
"जो स्थिति सांख्य (ज्ञानयोग) से प्राप्त होती है, वही योग (कर्मयोग) से भी प्राप्त होती है। जो इन दोनों को एक रूप में देखता है, वही सच्चा देखता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक ज्ञानयोग और कर्मयोग की समानता को स्पष्ट करता है। दोनों मार्ग एक ही सत्य की ओर ले जाते हैं।


श्लोक 6

संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति॥

अर्थ:
"हे महाबाहु, योग के बिना संन्यास कठिन है। लेकिन जो योगयुक्त है, वह शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक कर्मयोग के महत्व को बताता है। बिना योग (कर्तव्य पालन) के, केवल संन्यास के माध्यम से मुक्ति प्राप्त करना कठिन है।


सारांश:

  1. श्रीकृष्ण ने कर्मयोग को संन्यास से श्रेष्ठ बताया।
  2. सच्चा संन्यास बाहरी कर्मों का त्याग नहीं, बल्कि आंतरिक द्वेष और कामना का त्याग है।
  3. ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों ही समान हैं और एक ही लक्ष्य तक पहुँचाते हैं।
  4. कर्मयोग के माध्यम से व्यक्ति ब्रह्म को शीघ्र प्राप्त कर सकता है।

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