शनिवार, 8 जून 2024

भागवत गीता: अध्याय 5 (कर्मसंन्यासयोग) निष्काम कर्म और ज्ञान का समन्वय (श्लोक 7-12)

 भागवत गीता: अध्याय 5 (कर्मसंन्यासयोग) निष्काम कर्म और ज्ञान का समन्वय (श्लोक 7-12) का अर्थ और व्याख्या दी गई है:


श्लोक 7

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते॥

अर्थ:
"जो योग में स्थित है, जिसकी आत्मा शुद्ध है, जिसने अपने मन और इंद्रियों को जीत लिया है, और जो सभी प्राणियों को आत्मा के रूप में देखता है, वह कर्म करता हुआ भी उनसे लिप्त नहीं होता।"

व्याख्या:
यह श्लोक आत्मज्ञान प्राप्त व्यक्ति की विशेषताओं को दर्शाता है। ऐसा व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए भी कर्म के बंधनों से मुक्त रहता है क्योंकि वह आत्मा की शुद्धता को पहचानता है।


श्लोक 8

नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्।
पश्यन्शृण्वन्स्पृशन्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन्श्वसन्॥

अर्थ:
"आत्मज्ञान से युक्त व्यक्ति यह मानता है कि वह कुछ भी नहीं करता है, चाहे वह देख रहा हो, सुन रहा हो, छू रहा हो, सूंघ रहा हो, खा रहा हो, चल रहा हो, सो रहा हो या साँस ले रहा हो।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि आत्मज्ञानी व्यक्ति अपने कर्मों को आत्मा से अलग मानता है। वह समझता है कि ये सभी कार्य शरीर और इंद्रियों के हैं, न कि आत्मा के।


श्लोक 9

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्॥

अर्थ:
"बोलते हुए, त्यागते हुए, ग्रहण करते हुए, आँखें खोलते और बंद करते हुए भी वह समझता है कि इंद्रियाँ ही इंद्रिय-विषयों में संलग्न हैं।"

व्याख्या:
आत्मज्ञानी व्यक्ति कर्मों को इंद्रियों के कार्य के रूप में देखता है और स्वयं को उनसे अलग मानता है। यह दृष्टिकोण उसे कर्मबंधन से मुक्त करता है।


श्लोक 10

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति अपने सभी कर्मों को ब्रह्म में समर्पित करके आसक्ति को त्यागकर कार्य करता है, वह पाप से वैसे ही अछूता रहता है जैसे जल से कमल का पत्ता।"

व्याख्या:
यह श्लोक निष्काम कर्मयोग का उदाहरण देता है। ईश्वर में समर्पण और आसक्ति का त्याग व्यक्ति को पाप और कर्मबंधन से बचाता है।


श्लोक 11

कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये॥

अर्थ:
"योगी लोग शरीर, मन, बुद्धि और केवल इंद्रियों के द्वारा आसक्ति को त्यागकर आत्मा की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक योगियों के दृष्टिकोण को दर्शाता है। वे अपने कर्मों को आत्मा की शुद्धि के लिए करते हैं, न कि भौतिक सुखों के लिए।


श्लोक 12

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते॥

अर्थ:
"जो योग में स्थित है, वह कर्मफल का त्याग करके निश्चल शांति प्राप्त करता है। लेकिन जो योग में स्थित नहीं है और फल के प्रति आसक्त है, वह बंधन में पड़ जाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक कर्मयोग और आसक्ति के बीच का अंतर बताता है। निष्काम कर्मयोगी शांति और मुक्ति प्राप्त करता है, जबकि आसक्त व्यक्ति बंधनों में उलझा रहता है।


सारांश:

  1. आत्मज्ञानी व्यक्ति स्वयं को इंद्रियों और उनके कार्यों से अलग मानता है।
  2. योग में स्थित व्यक्ति अपने सभी कर्मों को ब्रह्म को समर्पित करता है और पाप से मुक्त रहता है।
  3. आसक्ति रहित कर्म आत्मा की शुद्धि का मार्ग है और शांति प्रदान करता है।
  4. फल की आसक्ति कर्मबंधन का कारण बनती है।

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