शनिवार, 15 जून 2024

भागवत गीता: अध्याय 5 (कर्मसंन्यासयोग) सांसारिक मोह से मुक्त योगी का दृष्टिकोण (श्लोक 13-21)

 भागवत गीता: अध्याय 5 (कर्मसंन्यासयोग) सांसारिक मोह से मुक्त योगी का दृष्टिकोण (श्लोक 13-21) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 13

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति अपने सभी कर्मों को मन से त्याग देता है और आत्मा में स्थित होकर रहता है, वह इस नौ-द्वार वाले शरीर (शरीर-रूपी नगर) में सुखपूर्वक निवास करता है, न तो स्वयं कुछ करता है और न किसी से कराता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक आत्मज्ञानी व्यक्ति के आचरण को दर्शाता है। वह अपने कर्मों को ईश्वर को समर्पित करके निर्लिप्त रहता है। नौ-द्वारों (दो आंखें, दो कान, दो नासिका छिद्र, एक मुख, और दो मल-मूत्र मार्ग) वाला शरीर केवल एक माध्यम बन जाता है।


श्लोक 14

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते॥

अर्थ:
"परमात्मा न तो किसी को कर्ता बनाते हैं, न कर्म करवाते हैं, और न ही कर्म के फल का संयोग कराते हैं। यह सब स्वभाव (प्रकृति) के अनुसार होता है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि परमात्मा कर्म का आरंभ या फल नहीं करते। ये सभी प्रकृति के स्वभाव से होते हैं। आत्मा अकर्ता है और परमात्मा केवल साक्षी हैं।


श्लोक 15

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥

अर्थ:
"परमात्मा न किसी के पाप को ग्रहण करते हैं और न ही पुण्य को। लेकिन अज्ञान से ज्ञान ढक जाता है और इस कारण प्राणी भ्रमित हो जाते हैं।"

व्याख्या:
ईश्वर निष्पक्ष हैं। पाप और पुण्य का फल व्यक्ति के कर्मों पर निर्भर करता है। अज्ञान व्यक्ति को सत्य से दूर कर देता है।


श्लोक 16

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥

अर्थ:
"जिनकी आत्मा का अज्ञान ज्ञान से नष्ट हो चुका है, उनके लिए वह ज्ञान सूर्य के समान परमात्मा का प्रकाश प्रकट करता है।"

व्याख्या:
ज्ञान व्यक्ति को अज्ञान के अंधकार से मुक्त करता है। यह ज्ञान आत्मा के दिव्य स्वरूप और परमात्मा की अनुभूति कराता है।


श्लोक 17

तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः॥

अर्थ:
"जिनकी बुद्धि, आत्मा, निष्ठा और ध्येय सब कुछ परमात्मा में स्थित है, वे ज्ञान के द्वारा पापों से मुक्त होकर पुनर्जन्म से परे जाते हैं।"

व्याख्या:
जो व्यक्ति पूरी तरह से ईश्वर में समर्पित होते हैं, वे ज्ञान के माध्यम से आत्मा को शुद्ध कर मोक्ष प्राप्त करते हैं।


श्लोक 18

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥

अर्थ:
"जो ज्ञानी हैं, वे विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और चांडाल (श्वपाक) में समान दृष्टि रखते हैं।"

व्याख्या:
आत्मज्ञानी व्यक्ति हर प्राणी में एक ही आत्मा को देखता है। उसकी दृष्टि समान होती है और वह भेदभाव नहीं करता।


श्लोक 19

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः॥

अर्थ:
"जिनका मन समभाव में स्थित है, उन्होंने इस संसार को यहीं जीत लिया है। ब्रह्म दोष रहित और सम है, इसलिए वे ब्रह्म में स्थित हैं।"

व्याख्या:
समदर्शी व्यक्ति संसार के द्वंद्वों से मुक्त होकर ब्रह्म में स्थित हो जाता है। यह मोक्ष की स्थिति है।


श्लोक 20

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः॥

अर्थ:
"जो प्रिय वस्तु मिलने पर हर्षित नहीं होता और अप्रिय मिलने पर उद्विग्न नहीं होता, वह स्थिरबुद्धि और भ्रम रहित ब्रह्मज्ञानी ब्रह्म में स्थित होता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि आत्मज्ञानी व्यक्ति समभाव में रहता है। वह सुख-दुख और प्रिय-अप्रिय परिस्थितियों में स्थिर रहता है।


श्लोक 21

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥

अर्थ:
"जो बाहरी विषयों में आसक्त नहीं है और आत्मा में स्थित होकर सुख प्राप्त करता है, वह ब्रह्मयोग में स्थित होकर अक्षय सुख को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि वास्तविक सुख आत्मा के भीतर है, बाहरी विषयों में नहीं। ब्रह्मयोग से व्यक्ति शाश्वत आनंद को प्राप्त करता है।


सारांश:

  1. आत्मज्ञानी व्यक्ति सभी प्राणियों में आत्मा का अनुभव करता है और समान दृष्टि रखता है।
  2. ब्रह्म में स्थित व्यक्ति सुख-दुख और प्रिय-अप्रिय से प्रभावित नहीं होता।
  3. बाहरी विषयों से आसक्ति को त्यागकर आत्मा में स्थित होना शाश्वत सुख का मार्ग है।
  4. ज्ञान अज्ञान को नष्ट कर व्यक्ति को मोक्ष की ओर ले जाता है।

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