यहां भागवत गीता: अध्याय 5 (कर्मसंन्यासयोग) निर्वाण और परम शांति का मार्ग (श्लोक 22-29) का अर्थ और व्याख्या दी गई है:
श्लोक 22
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥
अर्थ:
"जो भोग इंद्रियों और उनके विषयों के संपर्क से उत्पन्न होते हैं, वे दुःख का कारण हैं। हे कौन्तेय, वे प्रारंभ और अंत वाले होते हैं, इसलिए ज्ञानी व्यक्ति उनमें आनंद नहीं लेता।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण समझाते हैं कि इंद्रिय-सुख अस्थायी और क्षणिक हैं। वे प्रारंभ में सुखद लगते हैं, लेकिन अंततः दुःख का कारण बनते हैं। आत्मज्ञानी व्यक्ति ऐसे भोगों से दूर रहता है।
श्लोक 23
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥
अर्थ:
"जो व्यक्ति शरीर छोड़ने से पहले ही काम (इच्छा) और क्रोध से उत्पन्न वेग को सहन कर लेता है, वह योगी और सुखी व्यक्ति है।"
व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि इच्छाओं और क्रोध पर नियंत्रण प्राप्त करना आत्म-संयम की निशानी है। ऐसा व्यक्ति सच्चे सुख का अनुभव करता है।
श्लोक 24
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥
अर्थ:
"जो व्यक्ति आंतरिक सुख में स्थित है, आंतरिक आनंद में रमण करता है, और जिसकी आंतरिक ज्योति प्रकाशित है, वह योगी ब्रह्मनिर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त करता है।"
व्याख्या:
आत्मज्ञान प्राप्त व्यक्ति बाहरी भोगों में नहीं, बल्कि आंतरिक आत्मा में सुख पाता है। ऐसा योगी ब्रह्म की शांति में स्थित हो जाता है।
श्लोक 25
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः॥
अर्थ:
"जो ऋषि (ज्ञानी) अपने पापों से मुक्त हो गए हैं, जिनके संशय समाप्त हो गए हैं, जिन्होंने आत्मा पर विजय पा ली है, और जो सभी प्राणियों के हित में लगे रहते हैं, वे ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त करते हैं।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ ब्रह्मनिर्वाण (मोक्ष) की योग्यता बताते हैं। आत्मसंयम, संशय का नाश, और परोपकार की भावना इसके लिए आवश्यक हैं।
श्लोक 26
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्॥
अर्थ:
"जो तपस्वी कामना और क्रोध से मुक्त हैं, जिन्होंने अपने चित्त को वश में कर लिया है, और जिन्होंने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया है, उनके लिए ब्रह्मनिर्वाण चारों ओर विद्यमान है।"
व्याख्या:
कामना और क्रोध से मुक्त होकर आत्मा का साक्षात्कार करने वाला व्यक्ति हर स्थिति में ब्रह्म को अनुभव करता है।
श्लोक 27-28
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः॥
अर्थ:
"जो बाहरी विषयों को त्यागकर, अपनी दृष्टि को दोनों भौहों के बीच केंद्रित करता है और प्राण और अपान को सम कर लेता है; जिसकी इंद्रियाँ, मन, और बुद्धि नियंत्रित हैं; जो मोक्ष को अपना परम लक्ष्य मानता है और इच्छा, भय, और क्रोध से मुक्त है, वह सदा मुक्त होता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक ध्यान की प्रक्रिया और योग की अवस्था का वर्णन करता है। इंद्रिय-नियंत्रण, प्राणायाम, और ध्यान द्वारा व्यक्ति अपने चित्त को स्थिर कर मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
श्लोक 29
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥
अर्थ:
"जो मुझे यज्ञ और तप के भोक्ता, सभी लोकों का महेश्वर (स्वामी), और सभी प्राणियों का सच्चा मित्र जानता है, वह शांति प्राप्त करता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि भगवान को यज्ञों और तपों का भोक्ता, सभी का स्वामी, और सबसे बड़ा हितैषी मानकर भक्ति करने से व्यक्ति शांति और मोक्ष प्राप्त करता है।
सारांश:
- इंद्रिय-सुख क्षणिक और दुःख का कारण हैं; ज्ञानी इनसे बचते हैं।
- कामना और क्रोध पर विजय प्राप्त करना सच्चे योगी की पहचान है।
- आंतरिक सुख और आत्म-साक्षात्कार ब्रह्मनिर्वाण (मोक्ष) की ओर ले जाते हैं।
- ध्यान, प्राणायाम, और इंद्रिय-नियंत्रण मोक्ष प्राप्ति के महत्वपूर्ण साधन हैं।
- ईश्वर को सर्वस्व मानकर उनकी भक्ति करने से शांति प्राप्त होती है।
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