शनिवार, 23 मार्च 2024

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) यज्ञ और कर्म का संबंध (श्लोक 10-16)

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) यज्ञ और कर्म का संबंध (श्लोक 10-16) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 10

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥

अर्थ:
"सृष्टि के प्रारंभ में प्रजापति ने यज्ञ के साथ प्रजा को उत्पन्न करके कहा, ‘इस यज्ञ के द्वारा तुम繁 (वृद्धि) को प्राप्त करोगे और यह यज्ञ तुम्हारी इच्छाओं को पूर्ण करेगा।'"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि यज्ञ (समर्पण और सेवा) सृष्टि का आधार है। यज्ञ के माध्यम से मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है और सृष्टि का संतुलन बनाए रख सकता है।


श्लोक 11

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥

अर्थ:
"इस यज्ञ के द्वारा तुम देवताओं को संतुष्ट करो और देवता तुम्हारी आवश्यकताओं को पूर्ण करेंगे। इस प्रकार परस्पर सहयोग से तुम परम कल्याण को प्राप्त करोगे।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहां यज्ञ के सिद्धांत को समझाते हैं। यज्ञ के माध्यम से मनुष्य और देवताओं का परस्पर सहयोग सृष्टि को सुचारु रूप से चलाता है। यह संतुलन और समृद्धि का प्रतीक है।


श्लोक 12

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः॥

अर्थ:
"देवता यज्ञ द्वारा संतुष्ट होकर तुम्हें इच्छित भोग प्रदान करेंगे। लेकिन जो उनके द्वारा दी गई वस्तुओं का उपयोग उन्हें अर्पण किए बिना करता है, वह चोर कहलाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक कर्म और उपभोग की नैतिकता को समझाता है। भोग को पहले यज्ञ (ईश्वर और समाज की सेवा) में अर्पित करना चाहिए। इसे न करना चौर्य कर्म के समान है।


श्लोक 13

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥

अर्थ:
"जो लोग यज्ञ के बाद बचा हुआ भोजन ग्रहण करते हैं, वे सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं। लेकिन जो केवल अपने लिए भोजन बनाते हैं, वे पाप का भोग करते हैं।"

व्याख्या:
यज्ञ (समर्पण) से प्राप्त आहार शुद्ध और पवित्र होता है। केवल स्वार्थ के लिए भोग करना अधर्म है और यह पाप का कारण बनता है।


श्लोक 14

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥

अर्थ:
"सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है, वर्षा यज्ञ से होती है, और यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक सृष्टि के चक्र को दर्शाता है। कर्म और यज्ञ सृष्टि के संचालन के लिए आवश्यक हैं।


श्लोक 15

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥

अर्थ:
"कर्म वेद से उत्पन्न होते हैं, और वेद अक्षर (परमात्मा) से उत्पन्न हुए हैं। इसलिए, सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञ में सदा स्थित है।"

व्याख्या:
यह श्लोक कर्म, यज्ञ, और ब्रह्म के बीच संबंध को दर्शाता है। सभी कर्म और यज्ञ ईश्वर की कृपा से संभव होते हैं।


श्लोक 16

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥

अर्थ:
"जो इस सृष्टि के चक्र का पालन नहीं करता और केवल इंद्रियों के सुख में लिप्त रहता है, वह पापमय जीवन जीता है और उसका जीवन व्यर्थ हो जाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि सृष्टि के नियमों और कर्तव्यों का पालन करना अनिवार्य है। केवल भौतिक सुखों में लिप्त रहना जीवन को व्यर्थ बना देता है।


सारांश:

  • यज्ञ (समर्पण और सेवा) सृष्टि के संतुलन और समृद्धि का आधार है।
  • यज्ञ के बिना भोग करना चोर की तरह है और पाप का कारण बनता है।
  • कर्म, यज्ञ, और ब्रह्म का परस्पर संबंध सृष्टि के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • सृष्टि के चक्र का पालन करना और इंद्रिय-आसक्ति से बचना आवश्यक है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...