शनिवार, 6 अप्रैल 2024

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) इन्द्रियों का संयम और स्वार्थरहित कर्म (श्लोक 25-35)

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) इन्द्रियों का संयम और स्वार्थरहित कर्म (श्लोक 25-35) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 25

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥

अर्थ:
"हे भारत, जैसे अज्ञानी लोग आसक्ति के साथ कर्म करते हैं, वैसे ही ज्ञानी लोग भी, परंतु बिना आसक्ति के, लोकसंग्रह (सामाजिक संतुलन) के लिए कर्म करते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि ज्ञानी व्यक्ति भी कर्म करते हैं, लेकिन उनका उद्देश्य समाज का कल्याण और प्रेरणा देना होता है, न कि व्यक्तिगत लाभ।


श्लोक 26

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्॥

अर्थ:
"ज्ञानी व्यक्ति को अज्ञानियों की बुद्धि का भ्रम नहीं करना चाहिए जो कर्म में आसक्त हैं। उसे स्वयं कर्म करते हुए उन्हें प्रेरित करना चाहिए।"

व्याख्या:
ज्ञानी को अज्ञानियों के कर्मों का तिरस्कार करने के बजाय, अपने आचरण से उन्हें सही मार्ग पर लाना चाहिए।


श्लोक 27

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥

अर्थ:
"प्रकृति के गुणों द्वारा सभी कर्म किए जाते हैं, लेकिन अहंकार से भ्रमित व्यक्ति सोचता है कि वह कर्ता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि सभी कर्म प्रकृति के गुणों (सत्व, रजस, तमस) से होते हैं। अहंकार से व्यक्ति यह मान लेता है कि वह स्वयं कर्ता है, जबकि वास्तविक कर्ता प्रकृति है।


श्लोक 28

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥

अर्थ:
"हे महाबाहु, तत्वज्ञानी व्यक्ति गुण और कर्म के भेद को समझते हैं और जानते हैं कि गुण (प्रकृति) गुणों में ही कार्य कर रहे हैं। इसलिए वह आसक्त नहीं होते।"

व्याख्या:
ज्ञानी व्यक्ति यह समझता है कि जो कुछ भी हो रहा है, वह प्रकृति के गुणों के आपसी संपर्क का परिणाम है। वह स्वयं को इनसे अलग मानता है।


श्लोक 29

प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥

अर्थ:
"जो लोग प्रकृति के गुणों से मोहित होते हैं, वे गुणों और कर्मों में आसक्त रहते हैं। ज्ञानी व्यक्ति को ऐसे अज्ञानी लोगों को विचलित नहीं करना चाहिए।"

व्याख्या:
ज्ञानी को अज्ञानी लोगों की आलोचना नहीं करनी चाहिए। उन्हें धीरे-धीरे सही मार्ग दिखाना चाहिए ताकि वे सत्य को समझ सकें।


श्लोक 30

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥

अर्थ:
"अपने सभी कर्म मुझमें अर्पित कर, अध्यात्मचेतना में स्थित होकर, निराश्रय और ममत्व रहित होकर, बिना किसी चिंता के युद्ध करो।"

व्याख्या:
यह श्लोक निष्काम कर्मयोग का मर्म समझाता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मों को ईश्वर को अर्पित कर बिना चिंता और आसक्ति के कार्य करने की शिक्षा देते हैं।


श्लोक 31

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः॥

अर्थ:
"जो मनुष्य मेरे इस मत का पालन श्रद्धा और बिना किसी ईर्ष्या के करते हैं, वे कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।"

व्याख्या:
जो लोग भगवान के उपदेशों को श्रद्धा से स्वीकारते हैं और उनका पालन करते हैं, वे सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।


श्लोक 32

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥

अर्थ:
"जो मेरे इस मत का पालन नहीं करते और इसका तिरस्कार करते हैं, उन्हें अज्ञान से अंधे और विनाश को प्राप्त समझो।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि जो लोग उनके उपदेशों की अवहेलना करते हैं, वे आत्मज्ञान से वंचित रहते हैं और जीवन के उद्देश्य को समझने में असमर्थ होते हैं।


श्लोक 33

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥

अर्थ:
"ज्ञानी व्यक्ति भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करता है। सभी प्राणी अपनी प्रकृति का अनुसरण करते हैं। इसे दबाने से क्या लाभ होगा?"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि व्यक्ति अपनी प्रकृति (स्वभाव) के अनुसार कार्य करता है। इसे नियंत्रित करने के बजाय, इसे सही दिशा में लगाना चाहिए।


श्लोक 34

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥

अर्थ:
"प्रत्येक इंद्रिय के विषय में राग (आसक्ति) और द्वेष (घृणा) होते हैं। मनुष्य को उनके वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे दोनों उसके मार्ग में बाधा डालते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक इंद्रिय-नियंत्रण की महत्ता को बताता है। राग और द्वेष को संतुलित करना आवश्यक है, क्योंकि ये आत्मिक उन्नति में बाधक होते हैं।


श्लोक 35

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥

अर्थ:
"अपना धर्म (कर्तव्य), चाहे वह दोषपूर्ण क्यों न हो, परधर्म (दूसरों का कर्तव्य) के पालन से श्रेष्ठ है। अपने धर्म में मरना भी श्रेष्ठ है, जबकि परधर्म भयावह होता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक स्वधर्म के पालन की महत्ता को बताता है। हर व्यक्ति को अपनी प्रकृति और स्वभाव के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। दूसरों के कार्यों की नकल करना विनाशकारी हो सकता है।


सारांश:

  • ज्ञानी व्यक्ति को लोकसंग्रह के लिए कर्म करना चाहिए और दूसरों को प्रेरित करना चाहिए।
  • राग-द्वेष और आसक्ति को त्यागकर कर्म करना आत्मज्ञान की ओर ले जाता है।
  • हर व्यक्ति को अपनी प्रकृति और कर्तव्य का पालन करना चाहिए, क्योंकि स्वधर्म का पालन ही कल्याणकारी है।

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