भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) कर्मयोग का परिचय और महत्व (श्लोक 1-9) का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 1
अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥
अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: "हे जनार्दन, यदि आपकी दृष्टि में बुद्धि (ज्ञान) कर्म से श्रेष्ठ है, तो फिर मुझे इस घोर कर्म (युद्ध) में क्यों लगाते हैं, हे केशव?"
व्याख्या:
अर्जुन को कर्म और ज्ञान के बीच भ्रम हो रहा है। वह श्रीकृष्ण से स्पष्ट करना चाहते हैं कि यदि ज्ञान श्रेष्ठ है, तो उन्हें कर्म क्यों करना चाहिए।
श्लोक 2
व्यमिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥
अर्थ:
"आपके मिश्रित वचनों ने मेरी बुद्धि को भ्रमित कर दिया है। कृपया एक निश्चित बात बताइए, जिससे मैं कल्याण प्राप्त कर सकूं।"
व्याख्या:
अर्जुन चाहते हैं कि श्रीकृष्ण उन्हें सीधा और स्पष्ट मार्गदर्शन दें, ताकि वे यह समझ सकें कि उनके लिए सबसे अच्छा क्या है।
श्लोक 3
श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥
अर्थ:
भगवान ने कहा: "हे निष्पाप, मैंने पहले भी बताया है कि इस संसार में दो प्रकार की निष्ठाएँ हैं। सांख्ययोगियों (ज्ञानी जनों) के लिए ज्ञानयोग और कर्मयोगियों के लिए कर्मयोग।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि दोनों मार्ग — ज्ञानयोग (आध्यात्मिक ज्ञान) और कर्मयोग (कर्तव्य पालन) — उचित हैं, और व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार उन्हें अपनाया जाता है।
श्लोक 4
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥
अर्थ:
"केवल कर्म का त्याग करने से कोई निष्कर्मता (कर्मबंधन से मुक्ति) प्राप्त नहीं करता। और न ही केवल संन्यास से सिद्धि प्राप्त होती है।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि कर्म का त्याग किए बिना सिद्धि प्राप्त करना संभव नहीं है। केवल संन्यास धारण करना पर्याप्त नहीं है, कर्म करना भी आवश्यक है।
श्लोक 5
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥
अर्थ:
"कोई भी व्यक्ति एक क्षण के लिए भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता। क्योंकि प्रकृति के गुणों द्वारा उसे कर्म करने के लिए विवश किया जाता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि कर्म स्वाभाविक है। यहाँ तक कि जो व्यक्ति निष्क्रिय रहने की कोशिश करता है, वह भी प्रकृति के गुणों से प्रेरित होकर किसी न किसी प्रकार का कर्म करता है।
श्लोक 6
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥
अर्थ:
"जो व्यक्ति अपने कर्मेंद्रियों को रोककर बैठा रहता है, लेकिन मन से विषयों का चिंतन करता है, वह मूर्ख और कपटी कहलाता है।"
व्याख्या:
केवल बाह्य रूप से कर्म का त्याग करना पर्याप्त नहीं है। यदि मन विषयों में रमता है, तो वह त्याग झूठा और कपटपूर्ण है।
श्लोक 7
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥
अर्थ:
"हे अर्जुन, जो व्यक्ति मन से इंद्रियों को नियंत्रित करके कर्मयोग के मार्ग पर कार्य करता है और आसक्त नहीं रहता, वही श्रेष्ठ है।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि सच्चा योगी वही है जो कर्म करता है, लेकिन उसके प्रति आसक्त नहीं होता। यह निष्काम कर्मयोग का सिद्धांत है।
श्लोक 8
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥
अर्थ:
"तुम अपने नियत कर्म का पालन करो, क्योंकि कर्म अकर्म से श्रेष्ठ है। यहां तक कि तुम्हारी शरीर यात्रा भी कर्म के बिना संभव नहीं है।"
व्याख्या:
यह श्लोक कर्म करने की अनिवार्यता पर बल देता है। कर्म न केवल व्यक्तिगत जीवन के लिए आवश्यक है, बल्कि यह समाज और धर्म का भी आधार है।
श्लोक 9
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर॥
अर्थ:
"यज्ञ (ईश्वर के प्रति समर्पण) के लिए किए गए कर्म के अतिरिक्त अन्य सभी कर्म इस संसार में बंधन का कारण बनते हैं। इसलिए, हे कौन्तेय, आसक्ति से मुक्त होकर कर्तव्य का पालन करो।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण समझाते हैं कि कर्म तभी बंधनमुक्त होता है जब वह परमात्मा को समर्पित होकर किया जाए। निष्काम और निस्वार्थ कर्म ही मुक्ति का मार्ग है।
सारांश:
- अर्जुन ने कर्म और ज्ञान के बीच स्पष्टता मांगी।
- श्रीकृष्ण ने बताया कि ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों ही श्रेष्ठ हैं, लेकिन कर्म के बिना कोई भी सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता।
- निष्काम कर्मयोग का पालन करते हुए, ईश्वर को समर्पित होकर कर्म करना ही सच्चा मार्ग है।
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