शनिवार, 13 अप्रैल 2024

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) काम और क्रोध को नियंत्रित करने का उपाय (श्लोक 36-43)

 भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) काम और क्रोध को नियंत्रित करने का उपाय (श्लोक 36-43) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 36

अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥

अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: "हे वार्ष्णेय (कृष्ण), मनुष्य किसके द्वारा प्रेरित होकर अनिच्छा के बावजूद पाप करता है, जैसे कि उसे बलपूर्वक विवश किया गया हो?"

व्याख्या:
अर्जुन यह जानना चाहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति गलत कार्य करना नहीं चाहता, तो वह किस कारण से ऐसा करता है। यह श्लोक मानव स्वभाव और पाप की प्रकृति पर प्रश्न उठाता है।


श्लोक 37

श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥

अर्थ:
भगवान ने कहा: "यह काम (इच्छा) और क्रोध है, जो रजोगुण से उत्पन्न होता है। यह महाभोगी और महापापी है। इसे इस संसार में अपना शत्रु समझो।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण ने पाप का मूल कारण काम (इच्छा) और क्रोध को बताया। यह दोनों रजोगुण से उत्पन्न होते हैं और आत्मा को बंधन में डालते हैं।


श्लोक 38

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥

अर्थ:
"जैसे अग्नि धुएँ से, दर्पण मैल से, और भ्रूण गर्भाशय से ढका रहता है, वैसे ही कामना आत्मा को ढक लेती है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि कामना आत्मा के प्रकाश को ढक लेती है और व्यक्ति को उसके सच्चे स्वरूप का अनुभव करने से रोकती है।


श्लोक 39

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पुरेणानलेन च॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, यह काम रूपी शत्रु, जो कभी संतुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान है, ज्ञान को ढक लेता है।"

व्याख्या:
कामना को संतुष्ट करना कठिन है, और यह आत्मज्ञान को बाधित करती है। यह आत्मा के विकास के मार्ग में सबसे बड़ा शत्रु है।


श्लोक 40

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥

अर्थ:
"इंद्रियाँ, मन और बुद्धि इस कामना के निवास स्थान कहे जाते हैं। यह इनके माध्यम से आत्मा को भ्रमित करके ज्ञान को ढक देती है।"

व्याख्या:
कामना इंद्रियों, मन और बुद्धि के माध्यम से कार्य करती है और व्यक्ति को भौतिक वस्तुओं में आसक्त कर देती है।


श्लोक 41

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥

अर्थ:
"इसलिए, हे भरतश्रेष्ठ, पहले इंद्रियों को नियंत्रित करके इस पापमय कामना का नाश करो, जो ज्ञान और विज्ञान दोनों को नष्ट कर देती है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण इंद्रियों को नियंत्रित करने पर बल देते हैं। इंद्रिय-नियंत्रण से काम और क्रोध पर विजय पाई जा सकती है।


श्लोक 42

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥

अर्थ:
"इंद्रियों को श्रेष्ठ कहा गया है, लेकिन मन इंद्रियों से श्रेष्ठ है। बुद्धि मन से भी श्रेष्ठ है, और आत्मा बुद्धि से परे है।"

व्याख्या:
यह श्लोक आत्मा के पदानुक्रम को समझाता है। आत्मा सर्वोच्च है, और इसे पहचानने के लिए मन और बुद्धि को नियंत्रित करना आवश्यक है।


श्लोक 43

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥

अर्थ:
"इस प्रकार बुद्धि से परे आत्मा को जानकर, अपनी आत्मा के द्वारा अपने मन को स्थिर करो और इस कामना रूपी दुष्प्राप्य शत्रु को जीत लो, हे महाबाहु।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा की महत्ता समझाते हैं। कामना पर विजय पाने के लिए आत्मज्ञान और आत्म-नियंत्रण आवश्यक है।


सारांश:

  • अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में श्रीकृष्ण बताते हैं कि पाप का मूल कारण काम (इच्छा) और क्रोध है।
  • यह कामना इंद्रियों, मन और बुद्धि में निवास करती है और आत्मा के ज्ञान को ढक लेती है।
  • इंद्रिय-नियंत्रण, आत्मज्ञान, और आत्म-नियंत्रण से इस शत्रु पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
  • व्यक्ति को आत्मा को समझकर, उसके श्रेष्ठ स्थान को पहचानकर, कामना पर विजय पानी चाहिए।


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