शनिवार, 15 मार्च 2025

भागवत गीता: अध्याय 13 (क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभाग योग) क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का वर्णन (श्लोक 1-7)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 13 (क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभाग योग) के श्लोक 1 से श्लोक 7 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने शरीर (क्षेत्र) और आत्मा (क्षेत्रज्ञ) का वर्णन किया है।


श्लोक 1

अर्जुन उवाच
प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च।
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव॥

अर्थ:
"अर्जुन ने कहा: हे केशव, मैं प्रकृति और पुरुष के साथ क्षेत्र (शरीर), क्षेत्रज्ञ (आत्मा), ज्ञान और ज्ञेय (जिसे जानना चाहिए) को समझना चाहता हूँ।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान से सृष्टि के मूलभूत सिद्धांतों के बारे में जानना चाहते हैं। उनका प्रश्न क्षेत्र (शरीर), क्षेत्रज्ञ (आत्मा), और ज्ञान के तत्वों को समझने की जिज्ञासा को दर्शाता है।


श्लोक 2

श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥

अर्थ:
"श्रीभगवान ने कहा: हे कौन्तेय, यह शरीर क्षेत्र कहलाता है। जो इसे जानता है, उसे क्षेत्रज्ञ (इसका ज्ञाता) कहा जाता है। इसे जानने वाले विद्वान ऐसा कहते हैं।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि शरीर "क्षेत्र" है, जिसमें जीवन के कर्म होते हैं। आत्मा, जो इस शरीर का ज्ञाता है, "क्षेत्रज्ञ" कहलाती है। यह श्लोक शरीर और आत्मा के बीच भेद को स्पष्ट करता है।


श्लोक 3

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥

अर्थ:
"हे भारत (अर्जुन), सभी शरीरों में जो क्षेत्रज्ञ (आत्मा) है, वह मैं ही हूँ। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरा वास्तविक ज्ञान है।"

व्याख्या:
भगवान स्वयं को सभी शरीरों में स्थित क्षेत्रज्ञ (सर्वव्यापी आत्मा) के रूप में प्रस्तुत करते हैं। क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के ज्ञान को ही भगवान सच्चा ज्ञान मानते हैं।


श्लोक 4

तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु॥

अर्थ:
"यह क्षेत्र (शरीर) क्या है, कैसा है, किन-किन विकारों (परिवर्तनों) से युक्त है, किस कारण से उत्पन्न हुआ है और इसमें क्या-क्या प्रभाव हैं – यह सब मैं तुम्हें संक्षेप में बताता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को शरीर (क्षेत्र) के तत्व, उसकी प्रकृति, और उसमें होने वाले परिवर्तनों के बारे में समझाने के लिए कहते हैं। यह ज्ञान शरीर और आत्मा के भेद को गहराई से समझने का मार्गदर्शन है।


श्लोक 5

ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः॥

अर्थ:
"इस विषय को कई ऋषियों ने अनेक प्रकार से बताया है। इसे विभिन्न छंदों में और ब्रह्मसूत्र के युक्तियुक्त पदों के द्वारा भी विस्तार से समझाया गया है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का यह ज्ञान प्राचीन ऋषियों, वेदों और ब्रह्मसूत्र में विस्तृत रूप से वर्णित है। यह शाश्वत सत्य है और इसे तर्क और अनुभव से सिद्ध किया गया है।


श्लोक 6-7

महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः॥
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्॥

अर्थ:
"महाभूत (पांच महान तत्व – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश), अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त (प्रकृति), दस इंद्रियाँ और उनका एक मन, और पाँच इंद्रिय विषय – ये सभी क्षेत्र के घटक हैं। इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, शरीर का संघ, चेतना और धृति (धैर्य) – ये सभी क्षेत्र के विकार (परिवर्तन) हैं।"

व्याख्या:
भगवान क्षेत्र (शरीर) के तत्वों और उसमें होने वाले परिवर्तनों का वर्णन करते हैं। क्षेत्र पाँच भौतिक तत्वों, इंद्रियों, मन, और मानसिक अवस्थाओं (इच्छा, द्वेष, सुख-दुःख) से बना होता है। यह ज्ञान क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को गहराई से समझने में मदद करता है।


सारांश (श्लोक 1-7):

  1. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का परिचय:
    • क्षेत्र (शरीर) वह है जिसमें कर्म और अनुभव होते हैं।
    • क्षेत्रज्ञ (आत्मा) शरीर का ज्ञाता है।
  2. भगवान ने सभी शरीरों में स्थित आत्मा को स्वयं से जोड़ा।
  3. क्षेत्र के घटक:
    • पाँच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश)।
    • अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त प्रकृति।
    • दस इंद्रियाँ और मन।
    • सुख-दुःख, इच्छा-द्वेष और चेतना।
  4. यह ज्ञान वेदों और ऋषियों के उपदेशों पर आधारित है।

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