शनिवार, 22 मार्च 2025

भागवत गीता: अध्याय 13 (क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभाग योग) आत्मा और शरीर के बीच का भेद (श्लोक 8-12)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 13 (क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभाग योग) के श्लोक 8 से श्लोक 12 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने "ज्ञान" के लक्षणों का वर्णन किया है, जो आत्मा और परमात्मा को समझने में सहायक हैं।


श्लोक 8

अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः॥

अर्थ:
"अहंकार का अभाव, दंभ (दिखावे) का अभाव, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरु की सेवा, शुद्धता, स्थिरता और आत्म-नियंत्रण – ये ज्ञान के लक्षण हैं।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि ज्ञान पाने के लिए व्यक्ति में विनम्रता, अहिंसा, और धैर्य जैसे गुण होने चाहिए। साथ ही, उसे अपने गुरु का आदर करना, मन और शरीर को शुद्ध रखना, और इंद्रियों पर नियंत्रण रखना चाहिए। यह श्लोक बताता है कि ज्ञान केवल बौद्धिक नहीं, बल्कि व्यवहारिक और नैतिक गुणों से जुड़ा हुआ है।


श्लोक 9

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्॥

अर्थ:
"इंद्रियों के विषयों में वैराग्य, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा और रोग में दुःख और दोष को देखना – ये भी ज्ञान के लक्षण हैं।"

व्याख्या:
भगवान यह समझाते हैं कि सच्चा ज्ञानी वही है जो भौतिक सुखों से मुक्त होकर इंद्रियों के विषयों में वैराग्य रखता है। वह जीवन के अनिवार्य कष्टों (जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, और रोग) को समझता है और उनके पीछे के दोषों को पहचानता है।


श्लोक 10

असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥

अर्थ:
"पुत्र, पत्नी, घर आदि में आसक्ति का अभाव और प्रिय-अप्रिय वस्तुओं की प्राप्ति में समानता का भाव – ये भी ज्ञान के लक्षण हैं।"

व्याख्या:
भगवान यह स्पष्ट करते हैं कि सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए सांसारिक संबंधों और वस्तुओं से अत्यधिक जुड़ाव से बचना आवश्यक है। ज्ञानी व्यक्ति परिस्थितियों में समभाव बनाए रखता है, चाहे वे सुखद हों या दुखद।


श्लोक 11

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥

अर्थ:
"मुझमें अनन्य और अविचल भक्ति, एकांत स्थान में निवास करना, और लोगों के साथ अनावश्यक संपर्क से बचना – ये भी ज्ञान के लक्षण हैं।"

व्याख्या:
भगवान यह बताते हैं कि सच्चे ज्ञान के लिए व्यक्ति को भगवान के प्रति अनन्य भक्ति रखनी चाहिए। उसे एकांत में आत्म-चिंतन करना चाहिए और सामाजिक अतिरेक से बचना चाहिए।


श्लोक 12

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा॥

अर्थ:
"आत्मा के ज्ञान में नित्य स्थिर रहना और सत्य के तत्व को जानने का प्रयत्न करना – ये ज्ञान है। इसके विपरीत जो कुछ है, वह अज्ञान है।"

व्याख्या:
भगवान ने यह निष्कर्ष दिया कि आत्मा के ज्ञान में स्थिर रहना और सत्य को जानने की इच्छा ही सच्चा ज्ञान है। इसके विपरीत भौतिक विषयों में लिप्त रहना अज्ञान है।


सारांश (श्लोक 8-12):

  1. ज्ञान के गुण:
    • अमानित्व: अहंकार का अभाव।
    • अदम्भित्व: दिखावा न करना।
    • अहिंसा और क्षमा: दूसरों को क्षमा करना और किसी को हानि न पहुँचाना।
    • इंद्रिय संयम: इंद्रियों पर नियंत्रण और सांसारिक सुखों से वैराग्य।
    • समभाव: सुख-दुःख में समानता।
    • आत्मज्ञान: आत्मा के सत्य को जानने की इच्छा।
  2. भक्ति और एकांत: भगवान के प्रति अनन्य भक्ति और एकांत में आत्मचिंतन ज्ञान का अभिन्न हिस्सा है।
  3. अज्ञान का त्याग: भौतिक और अस्थायी चीजों से जुड़ाव अज्ञान है।

यहां भगवान ने ज्ञान के साधनों और लक्षणों का मार्गदर्शन दिया है। यह व्यक्ति को आत्मा और परमात्मा के सत्य को समझने में सहायता करता है।

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