यहां भागवत गीता: अध्याय 13 (क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभाग योग) के श्लोक 20 से श्लोक 34 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने प्रकृति और पुरुष (आत्मा) के संबंध, संसार के कार्य, आत्मा का स्वरूप और मुक्ति के उपायों को समझाया है।
श्लोक 20
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्॥
अर्थ:
"प्रकृति (भौतिक संसार) और पुरुष (आत्मा) को अनादि मानो। विकार (परिवर्तन) और गुण (सत्व, रज, तम) प्रकृति से उत्पन्न होते हैं।"
व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि प्रकृति और आत्मा दोनों ही अनादि (जिसका कोई आरंभ नहीं है) हैं। विकार (शरीर के परिवर्तन) और तीन गुण (सत्व, रजस, तमस) प्रकृति के ही परिणाम हैं।
श्लोक 21
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥
अर्थ:
"सृष्टि के कार्य और करण (इंद्रियाँ) को उत्पन्न करने में प्रकृति कारण है, और सुख-दुःख को भोगने वाला आत्मा (पुरुष) है।"
व्याख्या:
प्रकृति कर्म का आधार है और आत्मा इन कर्मों के फलों का अनुभव करती है। यह आत्मा और प्रकृति के बीच का संबंध है।
श्लोक 22
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥
अर्थ:
"आत्मा प्रकृति में स्थित होकर प्रकृति के गुणों को भोगता है। गुणों के प्रति आसक्ति ही अच्छे और बुरे जन्मों का कारण है।"
व्याख्या:
आत्मा प्रकृति के संपर्क में आने से सुख-दुःख का अनुभव करता है। यह संपर्क ही पुनर्जन्म और कर्मचक्र का आधार बनता है।
श्लोक 23
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः॥
अर्थ:
"शरीर में स्थित आत्मा (पुरुष) साक्षी, अनुमोदक, धारक, भोक्ता और महेश्वर (परमात्मा) है। इसे परमात्मा भी कहा जाता है।"
व्याख्या:
परमात्मा शरीर में रहते हुए साक्षी के रूप में कर्मों का निरीक्षण करता है, लेकिन वह स्वयं कर्मों में लिप्त नहीं होता। यह परमात्मा ही आत्मा का मार्गदर्शक है।
श्लोक 24
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते॥
अर्थ:
"जो पुरुष और प्रकृति को गुणों के साथ जान लेता है, वह चाहे जैसे भी कर्म करता हो, फिर जन्म नहीं लेता।"
व्याख्या:
जो व्यक्ति आत्मा और प्रकृति के भेद को समझ लेता है, वह कर्म के बंधन से मुक्त हो जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है।
श्लोक 25
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥
अर्थ:
"कुछ लोग ध्यान द्वारा आत्मा को आत्मा में ही देखते हैं, कुछ सांख्य योग से और कुछ कर्म योग के द्वारा।"
व्याख्या:
मोक्ष के मार्ग भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। कोई ध्यान (मेडिटेशन) के द्वारा आत्मा को जानता है, तो कोई सांख्य योग (तत्व ज्ञान) और कर्म योग के माध्यम से।
श्लोक 26
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः॥
अर्थ:
"जो लोग इस ज्ञान को नहीं समझते, वे दूसरों से सुनकर भगवान की भक्ति करते हैं। ऐसे श्रवण करने वाले भी मृत्यु के पार चले जाते हैं।"
व्याख्या:
भक्ति और ज्ञान का अभ्यास न कर पाने वाले लोग भी भगवान के नाम का श्रवण और भजन करके मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।
श्लोक 27
यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ॥
अर्थ:
"हे भरतश्रेष्ठ, जो भी स्थावर (अचल) और जंगम (चलायमान) सत्त्व उत्पन्न होता है, उसे क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के संयोग से जानो।"
व्याख्या:
भगवान समझाते हैं कि सभी प्राणी शरीर और आत्मा के संयोग से उत्पन्न होते हैं। शरीर प्रकृति का और आत्मा परमात्मा का अंश है।
श्लोक 28
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति॥
अर्थ:
"जो व्यक्ति सभी प्राणियों में स्थित परमेश्वर को समान रूप से देखता है और नाशवान शरीर में अविनाशी आत्मा को देखता है, वही सच्चा दृष्टा है।"
व्याख्या:
सच्चा ज्ञानी वही है जो हर प्राणी में परमात्मा की समान उपस्थिति को देखता है और समझता है कि शरीर नाशवान है, पर आत्मा अविनाशी है।
श्लोक 29
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततः याति परां गतिम्॥
अर्थ:
"जो हर जगह परमात्मा को समान रूप से देखता है, वह स्वयं को (आत्मा को) नष्ट नहीं करता और इस प्रकार परम गति को प्राप्त करता है।"
व्याख्या:
समान दृष्टि रखने वाला व्यक्ति अहंकार और भ्रम से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है।
श्लोक 30
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथाऽऽत्मानमकर्तारं स पश्यति॥
अर्थ:
"जो यह देखता है कि सभी कर्म केवल प्रकृति के गुणों द्वारा किए जा रहे हैं और आत्मा अकर्ता (कर्म न करने वाला) है, वही सच्चा दृष्टा है।"
व्याख्या:
आत्मा केवल साक्षी है, वह कर्मों में लिप्त नहीं होती। कर्म प्रकृति के गुणों के कारण होते हैं। इसे समझना मुक्ति का मार्ग है।
श्लोक 31
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तरं ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥
अर्थ:
"जब व्यक्ति विभिन्न प्राणियों के अलग-अलग भावों को एक ही स्थान (परमात्मा) में देखता है और समझता है कि सबकुछ वहीं से विस्तारित हो रहा है, तब वह ब्रह्म को प्राप्त करता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि सभी प्राणी एक ही परमात्मा के अंश हैं। इसे समझने वाला व्यक्ति ब्रह्मज्ञान प्राप्त करता है।
श्लोक 32
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते॥
अर्थ:
"हे कौन्तेय, परमात्मा अनादि और निर्गुण होने के कारण अविनाशी है। वह शरीर में स्थित होने पर भी न कुछ करता है और न कर्मों से लिप्त होता है।"
व्याख्या:
परमात्मा शरीर में स्थित होकर भी कर्मों से अछूता रहता है, क्योंकि वह निर्गुण और अनादि है।
श्लोक 33
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते॥
अर्थ:
"जैसे आकाश सर्वत्र विद्यमान होने पर भी किसी से लिप्त नहीं होता,
वैसे ही आत्मा शरीर में स्थित होने पर भी उससे लिप्त नहीं होती।"
व्याख्या:
आत्मा का स्वरूप आकाश की तरह है – सर्वव्यापी और निर्लिप्त।
श्लोक 34
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत॥
अर्थ:
"जैसे सूर्य पूरे संसार को प्रकाश देता है, वैसे ही क्षेत्रज्ञ (आत्मा) पूरे शरीर को प्रकाश देता है।"
व्याख्या:
आत्मा शरीर का चेतन तत्व है, जो शरीर को ज्ञान और अनुभव प्रदान करता है, जैसे सूर्य प्रकाश देता है।
सारांश (श्लोक 20-34):
- प्रकृति और पुरुष:
- प्रकृति कर्म और विकारों का कारण है।
- आत्मा सुख-दुःख का भोक्ता है।
- परमात्मा का स्वरूप:
- वह साक्षी, अनुमोदक और निर्लिप्त है।
- सभी में समान रूप से विद्यमान है।
- ज्ञान का मार्ग:
- आत्मा और प्रकृति के भेद को समझना।
- समान दृष्टि रखना और निर्लिप्तता को अपनाना।
- मुक्ति का साधन:
- परमात्मा की सर्वव्यापकता को समझकर, प्रकृति के कर्मों में उलझे बिना जीवन जीना।
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