यहां भागवत गीता: अध्याय 13 (क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभाग योग) के श्लोक 13 से श्लोक 19 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने "ज्ञेय" (जिसे जानना चाहिए) और परमात्मा के स्वरूप का वर्णन किया है।
श्लोक 13
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते॥
अर्थ:
"अब मैं उस 'ज्ञेय' (जिसे जानना चाहिए) के बारे में बताऊँगा, जिसे जानकर अमृत (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। वह परम ब्रह्म अनादि है और न ही इसे सत (दृश्य) कहा जा सकता है, न असत (अदृश्य)।"
व्याख्या:
भगवान उस "ज्ञेय" का वर्णन करते हैं जो परमात्मा है। यह अनादि (जिसका कोई आरंभ नहीं है) और अचिन्त्य (जिसे समझा नहीं जा सकता) है। इसे सत (भौतिक) या असत (अभौतिक) किसी भी श्रेणी में बाँधा नहीं जा सकता।
श्लोक 14
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥
अर्थ:
"उसका हाथ-पैर हर जगह है, उसकी आँखें, सिर और मुख सभी दिशाओं में हैं। उसकी श्रवण शक्ति (सुनने की क्षमता) हर जगह है, और वह सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित है।"
व्याख्या:
यह श्लोक परमात्मा की सर्वव्यापकता का वर्णन करता है। परमात्मा हर जगह उपस्थित हैं और हर दिशा में कार्य करते हैं। वह सभी प्राणियों की चेतना और उनके कार्यों में विद्यमान हैं।
श्लोक 15
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च॥
अर्थ:
"वह (परमात्मा) सभी इंद्रियों के कार्यों को प्रकट करता है, परंतु वह स्वयं इंद्रियों से रहित है। वह असक्त (आसक्ति रहित) होते हुए भी सबकुछ धारण करता है और निर्गुण होते हुए भी गुणों का भोक्ता है।"
व्याख्या:
परमात्मा की सर्वव्यापकता के साथ उनकी निरपेक्षता का वर्णन किया गया है। वह निर्गुण (गुणों से परे) होते हुए भी सृष्टि के हर गुण और कर्म में विद्यमान हैं।
श्लोक 16
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्॥
अर्थ:
"वह (परमात्मा) सभी प्राणियों के भीतर और बाहर है। वह स्थिर भी है और चलायमान भी। अपनी सूक्ष्मता के कारण उसे जाना नहीं जा सकता। वह दूर भी है और निकट भी।"
व्याख्या:
परमात्मा के अचिन्त्य स्वरूप को समझाया गया है। वह प्राणियों के भीतर (आत्मा के रूप में) और बाहर (सृष्टि के रूप में) विद्यमान है। उसकी सूक्ष्मता के कारण उसे साधारण इंद्रियों से नहीं समझा जा सकता।
श्लोक 17
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च॥
अर्थ:
"वह सभी प्राणियों में अविभाज्य (एकरूप) है, फिर भी विभक्त (अलग-अलग) प्रतीत होता है। वह सभी प्राणियों का धारणकर्ता है, उन्हें उत्पन्न करने वाला और अंत में नष्ट करने वाला भी है।"
व्याख्या:
परमात्मा एक ही होते हुए भी हर प्राणी और वस्तु में विद्यमान हैं। वे सृष्टि के निर्माण, पालन और संहार के मूल कारण हैं।
श्लोक 18
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्॥
अर्थ:
"वह (परमात्मा) सभी प्रकाशों का प्रकाश है और अज्ञान (अंधकार) से परे है। वह ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञान से प्राप्त होने वाला है। वह सभी के हृदय में स्थित है।"
व्याख्या:
परमात्मा को "सर्वोच्च प्रकाश" के रूप में वर्णित किया गया है। वह अज्ञान को दूर करता है और आत्मज्ञान के माध्यम से पाया जा सकता है। वह हर प्राणी के भीतर उपस्थित है।
श्लोक 19
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते॥
अर्थ:
"इस प्रकार, क्षेत्र (शरीर), ज्ञान और ज्ञेय (परमात्मा) को संक्षेप में बताया गया। मेरा भक्त इसे जानकर मेरी दिव्य स्थिति को प्राप्त करता है।"
व्याख्या:
भगवान ने क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, ज्ञान और ज्ञेय का सार बताया। जो भक्त इसे समझता है, वह भगवान की दिव्यता (मोक्ष) को प्राप्त करता है।
सारांश (श्लोक 13-19):
- ज्ञेय का स्वरूप:
- परमात्मा अनादि और अनिर्देश्य है।
- वह सर्वव्यापक, अचिन्त्य और सृष्टि का आधार है।
- परमात्मा के गुण:
- वह इंद्रियों से परे है लेकिन सभी इंद्रिय कार्यों का मूल है।
- वह भीतर और बाहर दोनों जगह विद्यमान है।
- वह सृष्टि का निर्माण, पालन और संहार करता है।
- परमात्मा की उपलब्धता:
- वह सभी के हृदय में स्थित है।
- उसे केवल ज्ञान और भक्ति के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।
- ज्ञान का परिणाम:
- जो इन तत्वों को समझता है, वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
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