शनिवार, 24 फ़रवरी 2024

भागवत गीता: अध्याय 2 (सांख्ययोग) कर्मयोग का सिद्धांत (श्लोक 39-53)

भागवत गीता: अध्याय 2 (सांख्ययोग) कर्मयोग का सिद्धांत (श्लोक 39-53) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 39

एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥

अर्थ:
"अब तक मैंने तुम्हें सांख्य (ज्ञान) के दृष्टिकोण से समझाया है। अब योग (कर्म के मार्ग) की बुद्धि सुनो, जिससे तुम कर्मबंधन से मुक्त हो जाओगे।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को ज्ञान (सांख्य) और कर्म (योग) दोनों के महत्व को बताते हैं। योग का पालन करने से कर्मों के बंधन से मुक्ति मिलती है।


श्लोक 40

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥

अर्थ:
"इस योग में न तो कोई प्रयास व्यर्थ जाता है और न कोई हानि होती है। इसका थोड़ा-सा भी अभ्यास महान भय (जन्म-मृत्यु के चक्र) से रक्षा करता है।"

व्याख्या:
योग का अभ्यास व्यक्ति को आध्यात्मिक लाभ देता है। यहां तक कि इसका अल्प अभ्यास भी आत्मा के विकास के लिए उपयोगी होता है।


श्लोक 41

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥

अर्थ:
"हे कुरुनंदन, इस मार्ग में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है, जबकि अस्थिर बुद्धि वाले लोगों की बुद्धि बहुत शाखाओं में बंटी होती है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को एकाग्रता और निश्चयात्मकता का महत्व समझाते हैं। अस्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकता।


श्लोक 42-43

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥

अर्थ:
"जो लोग अविवेकी हैं, वे वेदों के पुष्पित वचनों में आसक्त रहते हैं और कहते हैं कि स्वर्ग की प्राप्ति ही सर्वोच्च है। वे भोग और ऐश्वर्य के इच्छुक होते हैं और अनेक प्रकार के कर्मकांडों में लिप्त रहते हैं।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि वेदों के भोगवादी दृष्टिकोण में फँसे हुए लोग आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर सकते। उनका लक्ष्य केवल भौतिक सुख और स्वर्ग प्राप्ति तक सीमित रहता है।


श्लोक 44

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥

अर्थ:
"भोग और ऐश्वर्य में आसक्त लोगों की बुद्धि स्थिर नहीं हो सकती और वे समाधि में स्थित नहीं हो सकते।"

व्याख्या:
अध्यात्मिक उन्नति के लिए भौतिक सुखों की लालसा का त्याग आवश्यक है। भोग-आसक्त व्यक्ति ध्यान और योग में सफल नहीं हो सकता।


श्लोक 45

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥

अर्थ:
"वेद तीन गुणों (सत्व, रजस, तमस) के विषय में हैं। हे अर्जुन, तुम इन गुणों से परे हो जाओ, द्वंद्वों से मुक्त होकर नित्य सत्त्व में स्थित हो जाओ और योगक्षेम (सुख-संपत्ति) की चिंता छोड़ दो।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को सिखाते हैं कि आत्मा को भौतिक संसार के गुणों और द्वंद्वों से ऊपर उठना चाहिए।


श्लोक 46

यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥

अर्थ:
"जिस प्रकार बड़े जलाशय में सभी कुओं की आवश्यकता समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार ज्ञानी व्यक्ति के लिए वेदों के कर्मकांड का महत्व समाप्त हो जाता है।"

व्याख्या:
ज्ञान की प्राप्ति से व्यक्ति वेदों के कर्मकांड और भौतिक सुखों से ऊपर उठ जाता है।


श्लोक 47

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥

अर्थ:
"तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में नहीं। कर्म के फल की आसक्ति मत करो और न ही अकर्मण्यता में लिप्त हो।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण निष्काम कर्मयोग का उपदेश देते हैं। कर्म करना व्यक्ति का कर्तव्य है, लेकिन फल की चिंता करना नहीं।


श्लोक 48

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥

अर्थ:
"हे धनंजय, योग में स्थित होकर कर्म करो। सफलता और असफलता में समान रहो, यही समत्व को योग कहा जाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक समभाव और संतुलित दृष्टिकोण की महिमा को उजागर करता है। सफलता और असफलता दोनों में समान रहना योग है।


श्लोक 49

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥

अर्थ:
"हे धनंजय, बुद्धियोग से कर्म बहुत श्रेष्ठ है। फल की आशा करने वाले कृपण (दरिद्र) हैं।"

व्याख्या:
कृष्ण बताते हैं कि बुद्धियोग (निष्काम कर्म) से प्रेरित कर्म करना श्रेष्ठ है। फल की इच्छा रखने वाले आत्मिक उन्नति नहीं कर सकते।


श्लोक 50

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥

अर्थ:
"बुद्धि में स्थित व्यक्ति इस संसार में पुण्य और पाप दोनों को त्याग देता है। इसलिए, योग में स्थित होकर कर्म करो, क्योंकि योग कर्म करने की कुशलता है।"

व्याख्या:
योग से प्रेरित कर्म व्यक्ति को सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त कर देता है। यह जीवन का कौशल है।


श्लोक 51

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्॥

अर्थ:
"बुद्धि में स्थित ज्ञानी व्यक्ति कर्म के फल का त्याग करते हैं और जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर शाश्वत शांति प्राप्त करते हैं।"

व्याख्या:
निष्काम कर्म व्यक्ति को जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त करता है। यह मोक्ष का मार्ग है।


श्लोक 52

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥

अर्थ:
"जब तुम्हारी बुद्धि मोह के घने जंगल को पार कर लेगी, तब तुम सुनने और सुनाई गई बातों के प्रति उदासीन हो जाओगे।"

व्याख्या:
मोह और अज्ञान को पार करना आत्मज्ञान का प्रतीक है।


श्लोक 53

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥

अर्थ:
"जब तुम्हारी बुद्धि श्रुतियों के विरोधाभास से अडिग और स्थिर हो जाएगी, तब तुम योग को प्राप्त करोगे।"

व्याख्या:
ज्ञान और स्थिरता के साथ, व्यक्ति आध्यात्मिक समाधि प्राप्त कर सकता है।


सारांश:

इन श्लोकों में श्रीकृष्ण निष्काम कर्मयोग का उपदेश देते हैं। वे अर्जुन को बताते हैं कि कर्तव्य पालन के साथ समता, स्थिरता और फल की आसक्ति का त्याग ही श्रेष्ठ योग है।

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