भागवत गीता: अध्याय 2 (सांख्ययोग) श्रीकृष्ण द्वारा आत्मा का ज्ञान और अमरता का उपदेश (श्लोक 11-30) का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 11
श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥
अर्थ:
भगवान ने कहा: "तुम उन चीजों का शोक कर रहे हो जिनके लिए शोक करना योग्य नहीं है। फिर भी तुम प्रज्ञा के वचनों की बात करते हो। जो ज्ञानी व्यक्ति हैं, वे न तो मृत के लिए शोक करते हैं और न ही जीवित के लिए।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि आत्मा अमर है और ज्ञानी लोग नश्वर शरीर के नष्ट होने पर शोक नहीं करते। यह श्लोक गीता के दर्शन की शुरुआत करता है।
श्लोक 12
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्॥
अर्थ:
"कभी ऐसा समय नहीं था जब मैं, तुम, या ये सभी राजा अस्तित्व में न हों। और भविष्य में भी हम सभी का अस्तित्व समाप्त नहीं होगा।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि आत्मा शाश्वत है। यह न तो उत्पन्न होती है और न ही नष्ट होती है।
श्लोक 13
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥
अर्थ:
"जिस प्रकार शरीर में बाल्यकाल, यौवन और वृद्धावस्था आती है, उसी प्रकार आत्मा नया शरीर धारण करती है। धीर (ज्ञानी) व्यक्ति इस पर शोक नहीं करते।"
व्याख्या:
यह श्लोक जीवन के परिवर्तनशील स्वभाव और आत्मा की अमरता को समझाता है।
श्लोक 14
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥
अर्थ:
"हे कुन्तीपुत्र, इंद्रियों और विषयों का संपर्क ही सर्दी-गर्मी, सुख-दुख देता है। ये अस्थायी और परिवर्तनशील हैं। हे भारत, इन्हें सहन करो।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को स्थिरता और सहनशीलता की शिक्षा देते हैं, यह बताते हुए कि सभी संवेदनाएँ क्षणिक हैं।
श्लोक 15
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥
अर्थ:
"हे श्रेष्ठ पुरुष, जिसे सुख-दुख विचलित नहीं करते और जो स्थिर रहता है, वही अमरत्व के योग्य होता है।"
व्याख्या:
स्थिरता और धैर्य आत्मा के ज्ञान की दिशा में महत्वपूर्ण हैं। जो व्यक्ति इन द्वंद्वों से अडिग रहता है, वह मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर होता है।
श्लोक 16
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः॥
अर्थ:
"असत (जो वास्तविक नहीं है) का कोई अस्तित्व नहीं है, और सत (जो वास्तविक है) का कभी अभाव नहीं हो सकता। तत्वदर्शियों ने इन दोनों की प्रकृति का अनुभव किया है।"
व्याख्या:
यह श्लोक सत्य और असत्य के बीच अंतर को समझाता है। केवल आत्मा सत्य है, जबकि शरीर असत्य और नश्वर है।
श्लोक 17
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति॥
अर्थ:
"वह (आत्मा) जो सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है, अविनाशी है। इस अविनाशी आत्मा का विनाश कोई नहीं कर सकता।"
व्याख्या:
यह श्लोक आत्मा की अजेयता और सार्वभौमिकता पर बल देता है।
श्लोक 18
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥
अर्थ:
"ये शरीर नश्वर हैं, लेकिन इनमें स्थित आत्मा शाश्वत, अविनाशी और असीम है। इसलिए, हे भारत, उठो और युद्ध करो।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को यह सिखाते हैं कि आत्मा के शाश्वत सत्य को जानकर, उसे कर्तव्य निभाने में संकोच नहीं करना चाहिए।
श्लोक 19
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥
अर्थ:
"जो यह सोचता है कि आत्मा मारता है या मारा जाता है, वह अज्ञानी है। आत्मा न मारती है, न मारी जाती है।"
व्याख्या:
आत्मा का स्वभाव अजर-अमर है। मारना या मरना केवल भौतिक शरीर से संबंधित है।
श्लोक 20
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नेयं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
अर्थ:
"आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है। यह नित्य, शाश्वत और पुरातन है। यह शरीर के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होती।"
व्याख्या:
यह श्लोक आत्मा की शाश्वतता और जन्म-मृत्यु के चक्र से उसकी स्वतंत्रता की पुष्टि करता है।
श्लोक 21-22
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
अर्थ:
"जो आत्मा को नित्य, अजन्मा और अविनाशी जानता है, वह यह नहीं सोच सकता कि कोई इसे मार सकता है। जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करती है।"
व्याख्या:
यह श्लोक पुनर्जन्म के सिद्धांत को स्पष्ट करता है। आत्मा शरीर बदलती है, जैसे पुराने वस्त्र बदलते हैं।
श्लोक 23-25
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥
अर्थ:
"आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न पानी गीला कर सकता है और न वायु सुखा सकती है। यह अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य है। यह स्थायी, सर्वव्यापी, अचल और शाश्वत है। आत्मा अदृश्य, अकल्पनीय और अपरिवर्तनीय है। इसे जानकर शोक नहीं करना चाहिए।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण आत्मा की अविनाशी और शाश्वत प्रकृति का विस्तार से वर्णन करते हैं। यह श्लोक गीता के अद्वैत दर्शन का सार है।
श्लोक 26-30
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि॥
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाऽप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥
देही नित्यं अवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि॥
अर्थ:
"यदि तुम आत्मा को नित्य जन्म और मृत्यु वाला मानो, तब भी शोक करना व्यर्थ है। जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है, और मृत व्यक्ति का पुनर्जन्म निश्चित है। सभी प्राणी पहले अदृश्य थे, फिर प्रकट हुए, और अंत में पुनः अदृश्य हो जाते हैं। आत्मा को समझना अद्भुत है, और इसे समझने वाले भी विरले हैं। आत्मा नित्य और अवध्य है, इसलिए शोक करना व्यर्थ है।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ जीवन और मृत्यु के चक्र की अपरिहार्यता को बताते हैं। यह श्लोक अर्जुन को उनकी शोकग्रस्त अवस्था से उबारने के लिए प्रेरित करता है।
सारांश:
श्रीकृष्ण इन श्लोकों में आत्मा की अमरता, शाश्वतता और शरीर की नश्वरता का वर्णन करते हैं। वह अर्जुन को शोक से मुक्त होकर अपने कर्तव्य को निभाने के लिए प्रेरित करते हैं।
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