भागवत गीता: अध्याय 2 (सांख्ययोग) अर्जुन की आत्मसमर्पण और दुविधा (श्लोक 1-10) का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 1
सञ्जय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥
अर्थ:
संजय बोले: "अर्जुन को करुणा से अभिभूत, आँसुओं से भरी आँखों वाला और शोक में डूबा देखकर, मधुसूदन (कृष्ण) ने उससे यह वचन कहा।"
व्याख्या:
इस श्लोक में अर्जुन की मानसिक स्थिति को दर्शाया गया है। वह अपने कर्तव्य को भूलकर मोह और करुणा में डूब चुके हैं। भगवान कृष्ण अर्जुन को मार्गदर्शन देने के लिए तैयार हैं।
श्लोक 2
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥
अर्थ:
भगवान ने कहा: "हे अर्जुन, तुम्हें यह मोह और कायरता इस समय कैसे आ गई? यह आचरण न तो आर्यों के योग्य है, न स्वर्ग को प्राप्त कराने वाला, और न ही यश देने वाला है।"
व्याख्या:
कृष्ण अर्जुन को उनकी कर्तव्यहीनता पर फटकारते हैं। वह बताते हैं कि इस समय मोह का प्रदर्शन उनके क्षत्रिय धर्म के विरुद्ध है और यह उनकी प्रतिष्ठा को भी नष्ट करेगा।
श्लोक 3
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥
अर्थ:
"हे पार्थ, इस कायरता को मत अपनाओ। यह तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं है। हृदय की इस दुर्बलता को त्यागकर खड़े हो जाओ, हे शत्रु-दमन।"
व्याख्या:
कृष्ण अर्जुन को उनके अंदर छुपी कमजोरी को पहचानने और त्यागने के लिए प्रेरित करते हैं। वह उन्हें उनके साहस और कर्तव्य का स्मरण कराते हैं।
श्लोक 4
अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥
अर्थ:
अर्जुन ने कहा: "हे मधुसूदन, मैं युद्ध में भीष्म और द्रोण जैसे पूजनीय व्यक्तियों पर तीर कैसे चला सकता हूँ?"
व्याख्या:
अर्जुन अपने मन के द्वंद्व को प्रकट करते हैं। वह अपने गुरुओं और बुजुर्गों के प्रति आदर और श्रद्धा के कारण उनके खिलाफ युद्ध करने को तैयार नहीं हैं।
श्लोक 5
गुरूनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुञ्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान्॥
अर्थ:
"इन महान गुरुओं को मारकर, मैं भिक्षा मांगकर जीवन बिताना अधिक अच्छा समझता हूँ। इनका वध करके जो भोग मैं प्राप्त करूंगा, वह तो उनके रक्त से सना होगा।"
व्याख्या:
यह श्लोक अर्जुन के मन में उपस्थित गहरे नैतिक और धर्मसंकट को प्रकट करता है। वह युद्ध से उत्पन्न होने वाले पाप और उसके परिणामों को लेकर चिंतित हैं।
श्लोक 6
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषामः
स्तेऽवस्थिता प्रमुखे धार्तराष्ट्राः॥
अर्थ:
"हम यह नहीं जानते कि हमारे लिए क्या बेहतर है—हम विजय प्राप्त करें या वे। जिन्हें मारने के बाद हम जीना भी नहीं चाहते, वे धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़े हैं।"
व्याख्या:
अर्जुन युद्ध के परिणामों को लेकर अनिश्चित हैं। वह नहीं जानते कि जीत और हार में से कौन सी स्थिति उनके लिए उचित होगी।
श्लोक 7
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥
अर्थ:
"मेरा स्वभाव कायरता से दब गया है और मेरा मन धर्म के बारे में भ्रमित हो गया है। मैं आपसे पूछता हूँ कि मेरे लिए क्या श्रेयस्कर है। मैं आपका शिष्य हूँ और आपकी शरण में हूँ। कृपया मुझे निर्देश दें।"
व्याख्या:
अर्जुन यहाँ अपनी शरणागत अवस्था प्रकट करते हैं। वह स्वीकार करते हैं कि उनका मन भ्रमित है और वे श्रीकृष्ण से मार्गदर्शन की याचना करते हैं।
श्लोक 8
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्
यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्॥
अर्थ:
"मैं उस उपाय को नहीं देखता जो मेरे इंद्रियों को सुखा देने वाले इस शोक को मिटा सके, चाहे मैं बिना विरोधियों वाला समृद्ध राज्य या देवताओं का भी अधिपत्य प्राप्त कर लूँ।"
व्याख्या:
अर्जुन शोक से इतना व्यथित हैं कि उन्हें कोई भौतिक उपलब्धि इसे दूर करने योग्य नहीं लगती। वह आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए श्रीकृष्ण की ओर देखते हैं।
श्लोक 9
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥
अर्थ:
संजय बोले: "इस प्रकार गुडाकेश (अर्जुन) ने हृषीकेश (कृष्ण) से कहा, 'मैं युद्ध नहीं करूंगा,' और फिर चुप हो गए।"
व्याख्या:
अर्जुन ने अपने युद्ध न करने के निर्णय को श्रीकृष्ण के सामने व्यक्त कर दिया। यह उनके मोह और शोक की चरम स्थिति को दर्शाता है।
श्लोक 10
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः॥
अर्थ:
"हे भारत, सेनाओं के मध्य शोकग्रस्त अर्जुन से हृषीकेश (श्रीकृष्ण) ने मुस्कराते हुए यह वचन कहा।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण मुस्कराते हैं, क्योंकि वह जानते हैं कि अर्जुन का शोक केवल अज्ञान का परिणाम है। वह उसे ज्ञान और धर्म का सही मार्ग दिखाने के लिए तैयार हैं।
सारांश:
इन श्लोकों में अर्जुन के शोक और मोह का विस्तार से वर्णन किया गया है। साथ ही, उनका श्रीकृष्ण से मार्गदर्शन मांगना गीता के उपदेशों की शुरुआत का आधार बनाता है। श्रीकृष्ण अपनी मुस्कराहट के साथ अर्जुन को ज्ञान देने के लिए तत्पर हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें