शनिवार, 18 जनवरी 2025

भागवत गीता: अध्याय 11 (विश्वरूप दर्शन योग) भगवान का विराट रूप (श्लोक 6-20)

भागवत गीता: अध्याय 11 (विश्वरूप दर्शन योग) भगवान का विराट रूप (श्लोक 6-20) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 6

पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत॥

अर्थ:
"हे भारत (अर्जुन), आदित्य, वसु, रुद्र, अश्विनीकुमार और मरुतगणों को देखो। इसके अतिरिक्त, अनेक ऐसे अद्भुत दृश्य देखो, जिन्हें तुमने पहले कभी नहीं देखा।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को अपने विश्वरूप में सृष्टि के प्रमुख देवताओं, तत्वों और असाधारण दृश्यों को देखने का आमंत्रण देते हैं। यह उनकी अनंत महिमा को प्रकट करता है।


श्लोक 7

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि॥

अर्थ:
"हे गुडाकेश (अर्जुन), इस शरीर में ही तुम संपूर्ण चर और अचर जगत को देखो और वह सब भी देखो जिसे तुम देखना चाहते हो।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को बताते हैं कि उनके विश्वरूप में सारा संसार समाहित है। यह श्लोक उनकी सर्वव्यापकता और सृष्टि में उनकी उपस्थिति को प्रकट करता है।


श्लोक 8

न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्॥

अर्थ:
"तुम मुझे अपने सामान्य नेत्रों से नहीं देख सकते। इसलिए, मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूँ। मेरे इस दिव्य योग ऐश्वर्य को देखो।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि उनका विश्वरूप साधारण नेत्रों से देख पाना संभव नहीं है। वे अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान करते हैं ताकि वे इस अद्भुत रूप का अनुभव कर सकें।


श्लोक 9

संजय उवाच
एवमुक्त्वा ततः कृष्णो महायोगेश्वरो हरिः।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्॥

अर्थ:
"संजय ने कहा: इस प्रकार कहकर महायोगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना परम ऐश्वर्यपूर्ण रूप दिखाया।"

व्याख्या:
संजय धृतराष्ट्र को बताते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उनका विश्वरूप दिखाया, जो उनकी दिव्यता और महिमा का प्रतीक है।


श्लोक 10-11

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्॥
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्॥

अर्थ:
"भगवान का वह रूप अनेक मुखों, आँखों और अद्भुत दृश्यों वाला था। उसमें अनेक दिव्य आभूषण और दिव्य शस्त्र थे। वह दिव्य माला और वस्त्र धारण किए हुए, दिव्य गंध से सुशोभित, और सभी दिशाओं में मुख वाले, अनंत और सर्वत्र व्याप्त था।"

व्याख्या:
भगवान के विश्वरूप का यह वर्णन उनकी अनंत महिमा और दिव्यता को दर्शाता है। उनके इस स्वरूप में सृष्टि के सभी तत्व और शक्तियाँ समाहित थीं।


श्लोक 12

दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः॥

अर्थ:
"यदि आकाश में एक साथ हजार सूर्य उदय हों, तो वह प्रकाश उस महान आत्मा (भगवान) के तेज के समान होगा।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के विश्वरूप के असीम तेज और दिव्यता का वर्णन करता है, जो मनुष्य की कल्पना से परे है।


श्लोक 13

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा॥

अर्थ:
"अर्जुन ने उस समय भगवान के शरीर में एक ही स्थान पर सम्पूर्ण जगत को अनेक भेदों में विभक्त देखा।"

व्याख्या:
अर्जुन ने भगवान के विश्वरूप में संपूर्ण सृष्टि को देखा। यह उनके सर्वव्यापी स्वरूप को दर्शाता है, जिसमें सब कुछ समाहित है।


श्लोक 14

ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजयः।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत॥

अर्थ:
"उस दृश्य को देखकर धनंजय (अर्जुन) विस्मय से भर गए और उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो गए। उन्होंने भगवान को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा।"

व्याख्या:
भगवान का विश्वरूप देखकर अर्जुन विस्मय और श्रद्धा से अभिभूत हो गए। उनका यह अनुभव भगवान की दिव्यता के प्रति उनके समर्पण को दर्शाता है।


श्लोक 15

अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देवे देव।
शरीरे सर्वानथ भूतविशेषसंघान्।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थम्।
ऋषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्॥

अर्थ:
"अर्जुन ने कहा: हे देवों के देव, मैं आपके शरीर में सभी देवताओं, विभिन्न प्राणियों के समूह, कमलासन पर स्थित ब्रह्मा और सभी ऋषियों और दिव्य नागों को देख रहा हूँ।"

व्याख्या:
अर्जुन ने भगवान के विश्वरूप में संपूर्ण सृष्टि के जीवों, देवताओं और ब्रह्मा को देखा। यह भगवान की अनंतता और उनकी सृष्टि की संरचना को दर्शाता है।


श्लोक 16

अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं।
पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं।
पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप॥

अर्थ:
"मैं आपके अनंत रूप को हर दिशा में देख रहा हूँ, जिसमें अनेक भुजाएँ, पेट, मुख और नेत्र हैं। हे विश्वेश्वर, मुझे न तो आपका अंत दिखाई देता है, न मध्य और न ही आदि।"

व्याख्या:
भगवान के विश्वरूप की अनंतता और उनकी महिमा को व्यक्त करते हुए अर्जुन बताते हैं कि यह रूप किसी सीमा में बंधा हुआ नहीं है।


श्लोक 17

किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च।
तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्।
दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्॥

अर्थ:
"मैं आपको मुकुट, गदा और चक्र धारण किए हुए देख रहा हूँ। आपका तेज चारों ओर से प्रकाशमान है, जो अग्नि और सूर्य के तेज के समान है और जिसे देख पाना कठिन है।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के विश्वरूप की दिव्यता और तेज को प्रकट करता है, जो मानव नेत्रों से देखना अत्यंत कठिन है।


श्लोक 18

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं।
त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता।
सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे॥

अर्थ:
"आप अविनाशी, परम और जानने योग्य सत्य हैं। आप इस विश्व के परम आधार हैं। आप अविनाशी, शाश्वत धर्म के रक्षक और सनातन पुरुष हैं। यही मेरा मत है।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के स्वरूप की महिमा को बताता है। अर्जुन उन्हें सृष्टि के मूल आधार और धर्म के संरक्षक के रूप में स्वीकार करते हैं।


श्लोक 19

अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यम्।
अनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम्।
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्॥

अर्थ:
"आप अनादि, मध्य और अंतहीन हैं। आपकी भुजाएँ अनंत हैं, और आपके नेत्र चंद्रमा और सूर्य के समान हैं। आपके मुख अग्नि के समान दीप्तिमान हैं, और अपने तेज से आप इस समस्त विश्व को प्रकाशित कर

रहे हैं।"

व्याख्या:
भगवान के विश्वरूप का यह वर्णन उनकी अनंतता, शक्ति और दिव्यता को दर्शाता है। यह रूप संपूर्ण ब्रह्मांड को प्रकाशित करता है।


श्लोक 20

द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि।
व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदम्।
लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्॥

अर्थ:
"आपके इस अद्भुत और भयानक रूप से आकाश और पृथ्वी के बीच का यह अंतराल और सभी दिशाएँ व्याप्त हो गई हैं। हे महात्मा, आपके इस रूप को देखकर तीनों लोक विचलित हो रहे हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के विश्वरूप की व्यापकता और भयावहता को दर्शाता है। यह रूप पूरे ब्रह्मांड को भर देता है और इसे देखकर सभी लोक (भूत, भविष्य, वर्तमान) हिल जाते हैं।


सारांश (श्लोक 6-20):

  1. भगवान ने अर्जुन को अपना विश्वरूप दिखाया, जिसमें सृष्टि के सभी तत्व और देवता समाहित हैं।
  2. यह रूप अनंत, तेजस्वी और सर्वव्यापक है, जिसे देखना सामान्य नेत्रों से संभव नहीं है।
  3. अर्जुन ने भगवान की अनंतता, दिव्यता और सृष्टि के आधार के रूप में उनकी महिमा का अनुभव किया।
  4. भगवान का विश्वरूप सम्पूर्ण ब्रह्मांड को प्रकाशित करता है और तीनों लोकों को प्रभावित करता है।

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