शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

भागवत गीता: अध्याय 11 (विश्वरूप दर्शन योग) भगवान का उपदेश और आशीर्वाद (श्लोक 31-46)

भागवत गीता: अध्याय 11 (विश्वरूप दर्शन योग) भगवान का उपदेश और आशीर्वाद (श्लोक 31-46) का अर्थ और व्याख्या

श्लोक 31

अख्याहि मे को भवानुग्ररूपो।
नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यम्।
न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्॥

अर्थ:
"हे उग्ररूप वाले देव, आप कौन हैं? मैं आपको प्रणाम करता हूँ। कृपया मुझ पर कृपा करें। मैं आपके प्रारंभिक स्वरूप को जानना चाहता हूँ क्योंकि मैं आपकी प्रवृत्ति (कार्य) को नहीं समझ पा रहा हूँ।"

व्याख्या:
भगवान के विश्वरूप की विशालता और भयानकता देखकर अर्जुन भयभीत हो जाते हैं। वे भगवान से उनके रूप और उद्देश्य को स्पष्ट करने की प्रार्थना करते हैं।


श्लोक 32

श्रीभगवानुवाच
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो।
लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे।
येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: मैं समय (काल) हूँ, जो लोकों के विनाश के लिए बढ़ा हुआ हूँ। यहाँ आए सभी योद्धा, चाहे तुम्हारे बिना भी, नष्ट हो जाएंगे।"

व्याख्या:
भगवान अपने रूप को "काल" के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो सृष्टि का संहारक है। वे अर्जुन को बताते हैं कि महाभारत के युद्ध में सभी योद्धाओं का विनाश निश्चित है।


श्लोक 33

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व।
जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव।
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥

अर्थ:
"इसलिए, उठो और यश प्राप्त करो। अपने शत्रुओं को पराजित करो और समृद्ध राज्य का आनंद लो। इन योद्धाओं का वध पहले ही मेरे द्वारा तय किया जा चुका है। हे सव्यसाचिन, तुम केवल निमित्त मात्र हो।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन से कहते हैं कि उन्हें युद्ध करना है, लेकिन वह केवल एक माध्यम हैं। भगवान ने पहले ही नियति तय कर दी है, और अर्जुन को केवल अपने कर्तव्य का पालन करना है।


श्लोक 34

द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च।
कर्णं तथान्यानपि योधवीरान्।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा।
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्॥

अर्थ:
"द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण और अन्य महान योद्धा मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं। इसलिए, तुम इन्हें मारो और चिंता मत करो। युद्ध करो और शत्रुओं को पराजित करो।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को आश्वासन देते हैं कि उनका विजय निश्चित है क्योंकि उनके शत्रु पहले ही भगवान की योजना के तहत नष्ट हो चुके हैं।


श्लोक 35

संजय उवाच
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य।
कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं।
सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य॥

अर्थ:
"संजय ने कहा: केशव के इन वचनों को सुनकर, अर्जुन (किरीटी) भयभीत और काँपते हुए, हाथ जोड़कर भगवान को बार-बार प्रणाम करते हुए, गदगद वाणी में बोले।"

व्याख्या:
भगवान के वचनों और विश्वरूप को देखकर अर्जुन भय और श्रद्धा से भर गए। उनकी विनम्रता और समर्पण भगवान के प्रति उनकी गहरी भक्ति को दर्शाते हैं।


श्लोक 36

अर्जुन उवाच
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या।
जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति।
सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः॥

अर्थ:
"अर्जुन ने कहा: हे हृषीकेश, आपके यश का वर्णन करना उचित है, जिससे यह जगत हर्षित और प्रसन्न होता है। राक्षस भयभीत होकर भागते हैं और सिद्धगण आपकी स्तुति करते हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के दिव्य स्वरूप और उनकी महिमा को स्वीकार करते हैं। भगवान की महिमा से दुष्ट प्राणी भयभीत होते हैं और भक्त प्रसन्न होते हैं।


श्लोक 37

कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्।
गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास।
त्वमक्षरं सत्यमसत्परं यत्॥

अर्थ:
"हे महात्मा, ब्रह्मा के भी आदिकर्ता, अनंत, देवताओं के स्वामी और जगत के निवास स्थान, आपको कौन प्रणाम न करे? आप अक्षय और सत्य हैं, जो इस सृष्टि के परे हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान की श्रेष्ठता और उनकी महिमा का वर्णन करते हैं। भगवान ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ और सृष्टि का आधार हैं।


श्लोक 38

त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः।
त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम।
त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥

अर्थ:
"आप आदिदेव, पुरातन पुरुष और इस विश्व के परम आधार हैं। आप जानने वाले, जानने योग्य और परम धाम हैं। यह सम्पूर्ण विश्व आपके अनंत रूप से व्याप्त है।"

व्याख्या:
भगवान को सृष्टि के मूल और सर्वोच्च तत्व के रूप में वर्णित किया गया है। वे ही सबकुछ हैं और सबकुछ उनमें स्थित है।


श्लोक 39

वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः।
प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः।
पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥

अर्थ:
"आप वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चंद्रमा, प्रजापति और प्रपितामह हैं। मैं आपको हजारों बार प्रणाम करता हूँ और बार-बार आपको प्रणाम करता हूँ।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान को सभी प्राकृतिक शक्तियों और देवताओं का स्रोत मानकर बार-बार उनकी स्तुति और प्रणाम करते हैं।


श्लोक 40

नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते।
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं।
सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥

अर्थ:
"आपको आगे, पीछे और हर दिशा में प्रणाम। हे सर्वशक्तिमान, आपकी शक्ति और पराक्रम अनंत हैं। आप सबकुछ व्याप्त करते हैं, इसलिए आप ही सबकुछ हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के सर्वव्यापक स्वरूप को स्वीकार करते हैं और उन्हें हर दिशा में प्रणाम करते हैं।


श्लोक 41-42

सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं।
हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदं।
मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि।
विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं।
तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्॥

अर्थ:
"हे कृष्ण, हे यादव, हे सखा, मैंने आपको मित्र मानकर जो भी अज्ञानतावश, प्रेमवश या लापरवाही में कहा है, चाहे हँसी में, खेल में, शय्या पर, भोजन में या अन्यत्र – उन सभी के लिए मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान के विश्वरूप को देखकर अर्जुन को अपनी गलती का अहसास होता है। वे भगवान से क्षमा माँगते हैं कि उन्होंने उन्हें एक सामान्य मित्र समझकर कई बार असम्मानजनक बातें कीं।


श्लोक 43

पितासि लोकस्य चराचरस्य।
त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो।
लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव॥

अर्थ:
"आप इस चराचर संसार के पिता, पूज्य और महान गुरु हैं। तीनों लोकों में कोई भी आपके समान या आपसे श्रेष्ठ नहीं है। आपकी महिमा अप्रतिम है।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान को चराचर संसार का आधार और सभी के पूज्य गुरु के रूप में स्वीकार करते हैं। वे बताते हैं कि उनकी महिमा की कोई तुलना नहीं है।


श्लोक 44

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं।
प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः।
प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्॥

अर्थ:
"इसलिए मैं आपको प्रणाम करता हूँ और अपने शरीर को झुकाकर आपसे क्षमा की प्रार्थना करता हूँ। जैसे पिता पुत्र को, सखा सखा को, और प्रिय प्रियजन को सहन करता है, वैसे ही आप भी मुझे क्षमा करें।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान से प्रार्थना करते हैं कि वे उन्हें अपनी शरण में लें और उनकी गलतियों को क्षमा करें। यह भगवान के प्रति अर्जुन के पूर्ण समर्पण और विनम्रता को दर्शाता है।


श्लोक 45-46

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा।
भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देव रूपं।
प्रसीद देवेश जगन्निवास॥
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तम्।
इच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन।
सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते॥

अर्थ:
"आपके इस अद्भुत रूप को देखकर मैं हर्षित हुआ हूँ, लेकिन मेरा मन भयभीत हो गया है। हे देवेश, हे जगन्निवास, कृपया मुझ पर कृपा करें और मुझे फिर से आपका चतुर्भुज रूप दिखाएँ। हे सहस्रबाहु, मैं आपको उसी रूप में देखना चाहता हूँ।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के विश्वरूप को देखकर उत्साहित होने के साथ-साथ भयभीत भी हैं। वे भगवान से अनुरोध करते हैं कि वे अपने शांत और चतुर्भुज रूप में प्रकट हों, जो अधिक सहज और प्रिय है।


सारांश (श्लोक 31-46):

  1. भगवान ने अपने विश्वरूप में स्वयं को "काल" (विनाश का रूप) बताया।
  1. अर्जुन ने देखा कि सभी योद्धा भगवान के मुख में प्रवेश कर रहे हैं।
  2. अर्जुन ने भगवान से क्षमा मांगी और उनकी महिमा का वर्णन किया।
  3. भगवान के भयंकर रूप को देखकर अर्जुन भयभीत हो गए और उनसे कृपा की प्रार्थना की।
  4. अर्जुन ने भगवान से अपने चतुर्भुज रूप में प्रकट होने का अनुरोध किया।

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